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________________ कितना सरल कल्याणदर्शी जीव ! परिणाम यह आया कि वे अनीतिखोर उस समय तो छल कपट कर के दलाली में दूना - चौगुना कमाते दिखाई दिये सही; परन्तु व्यापारियों को यह ईमानदार दलाल मिलने से उन दलालों पर से विश्वास उठ गया, अतः वे इस नीतिमान् दलाल को ही माल देने लगे । इस तरह आखिर इसकी दलाली और कमाई बढ़ गयी ! जबकि उन लोगों में से किसीके घर में अन्य अन्य खर्च आने से पैसे गये; तो किसी को पुरानी कमाई खाने की नौबत आयी; बेचारे चिंता में पड़े। सरलता से सत्पथ पर चलनेवाले को चिन्ता नहीं करनी पड़ती । मायादित्य का वृत्तान्त : अब आचार्य महाराज मायादित्य का जीवनवृत्तान्त बताते हुए कहते हैं देखो, राजा पुरन्दरदत्त ! काशी के निकट शालिग्राम नामक एक गाँव है । वहाँ का निवासी है यह । इसका मूल नाम गंगादित्य है। लेकिन मधुर भाषी, भले लोगों के साथ भी टेढा बोलने की इसकी आदत ! व्यवहार इसका मायावी, सो बात बात में माया करता । इस से युवकों ने इसका नाम मायादित्य रख दिया । उसके बाद तो यह इसी नाम से पहचाना जाने लगा। फिर भी इसके मन में कोई दुःख नहीं - माया वक्रता- कुटिलता छोडने की कोई बात ही नहीं । तब इस में क्या आश्चर्य कि वह माया के नशे में उपकारी के प्रति भी कृतघ्नता ही का दाव खेले ! अगले के उपकार को भूल कर उस के साथ भी दावपेंच, धोखाघडी करता । दरिद्र फिर भी माया से चोलीदामन का साथ । उसी गाँव में स्थाणु नामक एक बनिया रहता था । उसकी इसके साथ किसी अवसर पर दोस्ती हो गयी थी । स्थाणु बेचारा भलामानुस, सरल हृदयवाला, कोमल स्वभाववाला और कृतज्ञ था । वह दूसरे के थोड़े से उपकार को भी ध्यान में रख कर, मौका पड़ने पर उसका बदला चुकाने का प्रयत्न करता उतना ही दीन-हीन जनों पर प्रेम रखता था। सो वह तो मायादित्य से शुद्धप्रेम के साथ सरलता का व्यवहार करता, लेकिन वह शठ इसके साथ भी माया - पोलिसी खेलता । वह मायादित्य इसे हृदय की बात नहीं बतलाता था, जबकि वह स्थाणु उसे दिल दे देता । जन्म की गुप्त बात कह देता । क्योंकि खुद सज्जन था अतः भला दिल सर्वत्र भला देखता है। इस न्याय से वह मायादित्य के प्रपंची मन को नहीं पहचानता । आप भला तो जग भला : दीक्षार्थिनी बहन की मौलिक बुद्धि : T 'आप भला तो जग भला' ऐसी कहावत है न ? एक बहन दीक्षा लेने को तैयार हुई, अमुक साध्वीजी के पास। उनसे पूछा गया कि 'आप उन साध्वीजी के पास दीक्षा लेना चाहती हैं। लेकिन आपका उनसे परिचय है ? ८२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003228
Book TitleKuvalayamala Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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