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________________ ऐसे अनजाने जंगल के रास्ते से कि ठेठ नर्मदा के किनारे पहुँचे, और वहीं डेरा डाला। पुनः भीलों से भेंट : अब यहाँ ऐसा होता है कि मानभट बाहर घूमने निकलता है; परन्तु तकदीर दो कदम आगे है; अत: वहाँ भील राजकुमार के आदमियों का झुंड आ पहुँचता है! वह इसे देख कर क्रोधित होता है और 'मारो! मारो इसे, ऐसे चिल्लाते हुए उसके पास आता है। मानभट ने देखा कि "अब इस तरह खड़े रहने से रक्षा नहीं हो सकती। तो क्या भाग जाना? भाग भाग कर कितनी दूर भागा जाए? वे पीछा करेंगे ही न ? उपरान्त वे इसमें हमारी कायरता देखकर तो पीछा ही नहीं छोडेंगे। और हमारा दिल भी आगे चलकर पैर ढीले पड़ जाने से इतना शूरवीर नहीं होगा कि जिससे अपनी रक्षा का जोरदार प्रयत्न हो सके। तो क्या, इन लोगों से यहाँ दया की भीख माँगे? ये तो भील हैं ! इनको दया करने की क्या समझ? ये तो सीधा वार करते हुए कहेंगे कि 'ले, यह दया।' "इसलिए इसमें तो दोनों तरह से मरना ही होगा परन्तु इस तरह सीधे सीधे कोई मौत के मुँह में जाया नहीं जाता। अतः अब तो इन लोगों से लड़ना होगा; जितनी रक्षा हो उतनी ही सही।" जन्मोजन्म की मृत्यु के सामने अडियल : मौत के सामने रक्षा की कितनी मेहनत मनुष्य करता है ! परन्तु वह यहाँ की मृत्यु के सामने ! लेकिन यहाँ भी खेद की बात यही है कि जन्मोजन्म की मृत्यु से बचाव का विचार नहीं आता । फलत: बड़ी उम्र में धर्म करने की बात आने पर जीव अडियल बन जाता है कि - 'अब क्या हो सकता है ? अब उम्र बीत गयी। साथ ही, हम तो बुरी आदतों के आदी हो गये, अब कैसे छूट सकती हैं ? छोटी उम्र में धर्म की कोई पढ़ाई नहीं की कुछ जाना नहीं, अब क्या सीखा जाय? शरीर शिथिल पड़ गया है। अब कौन से त्याग और तप हो सकते हैं ?..... लेकिन यहाँ सोचना चाहिए कि, 'कुछ नहीं करने से तो लेश मात्र रक्षा नही मिलेगी और अब भी जो समय जो सामग्री और जो तन - वचन -मन हाथ में हैं उन्हें धर्म में न जोड़ा गया तो ये सब पाप के मार्ग में खर्च होंगे। और उनका कणकण का हिसाब आत्मा की कर्म-बही में बढनेवाला है! जिसे पूर्णतः भरपाई करना पड़ेगा । आगामी जन्मों में कहाँ छूटना संभव है अतः बुद्धिमत्ता इसमें है कि अब शेष बचे हुए थोडे से भी समय-सामग्री तथा तन-वचन-मन-इन्द्रियों को पापवृद्धि से बचाने हेतु भी उन्हें धर्म में लगा दो। और - इससे दूसरा खास फायदा यह होगा कि न केवल इस जन्म के, अपितु पूर्व जन्मों के भी कितने ही पाप - कुसंस्कार खत्म हो जाएंगे। इससे भावी जन्मोजन्म की मृत्युओं से कुछ काल के लिए थोडी भी रक्षा मिलेगी। धर्म ऐसी वस्तु है कि, 'नहाया उतना पुण्य' के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003228
Book TitleKuvalayamala Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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