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________________ प्रभु के श्रावक-श्राविका अपनी संतान को प्रभु की पहचान नहीं कराते ? प्रभु के मार्ग को नहीं समझाते ? फिर भी वे प्रभु के श्रावक-श्राविका कहलाते हैं ? उन्हें जैन कहा जाय या जन ? संतान को प्रभु का मार्ग यानी धर्मकला सिखाने की फर्ज न निभानेवाले व अर्थकाम में उन्हें आगे बढ़ानेवाले माता-पिता प्रभुमार्ग के द्रोही बनते हैं व प्रभु के प्रति कृतघ्न बनते हैं। क्योंकि उन्हें प्रभु का मार्ग कैसे मिला ? पूर्वज इस मार्ग को अविच्छिन्न् रुप से चालू रखते आये, इसलिये मिला। अब आगे नयी प्रजा में यह मार्ग आगे चले; ऐसा प्रयास नहीं करना ? या इस मार्ग को यहीं बन्द कर देना है ? क्या अर्थ- कामकला ऐसी सीखायी जाय कि नयी पीढ़ी धर्म को ही भूल जाय ? वहाँ प्रभु के मार्ग का लोप होता है। क्या यह प्रभु - मार्ग के प्रति द्रोह नहीं ? प्रभु के प्रति कृतघ्नता नहीं ? तोशल व कन्या, दोनों ने परस्पर इशारे किये, इससे तोशल को लगा कि, 'वाह! इस कन्या का जैसा सुन्दर रुप है, वैसी ही होशियारी भी है।' इस प्रकार विचार करते हुए वहाँ से आगे चला व अपने घर पहुंच गया। अब उसे चैन कैसे पड़े ? बस रह-रहकर कन्या काही विचार ! एक ही तन्मयता उसके रुप-कौशल आदि की। योगी का मन परमात्मा में लीन रहता है, योगी को एक मात्र परमात्मा की लगन लगी होती है, उसी प्रकार तोशल को सिर्फ एक कन्या की ही लगन लगी है। अन्य किसी विचार को अवकाश नहीं । ज्यों-त्यों दिन तो पूरा किया, परन्तु अब रात पडी । रात कैसे गुजारी जाय ? तोशल सोचने लगा, 'कन्या से मिलना तो है, परन्तु घनघोर अंधेरा छा गया है, रात में तो चौकीदार भी घूमते रहते हैं । कैसे पहुँचा जाय ? परन्तु काम मुश्किल है, ऐसा सोचकर बैठे रहने से तो काम नहीं हो पायेगा । 'दुःख के बिना सुख नहीं'... यह बात मैं क्यों नहीं सोचता ?" 1 कैसा सूत्र लगाया ? इन्सान को जहाँ दिलचस्पी हो, वहाँ उसे मनचाहे सूत्र लगाना आता है और जहाँ दिलचस्पी न हो, वहाँ उल्टे सूत्र लगाता है। व्यापार में दिलचस्पी हो और यात्रा की बात आयेगी, तो यही सूत्र लगायेगा कि 'यात्रा - वात्रा तो अच्छे पैसे हों, तो होती है । व्यापार के बिना पैसे कहाँ मिलते हैं ?' और यदि यात्रा में दिलचस्पी हो, तो यह सूत्र लगायेगा कि - 'सिर्फ पैसे-पैसे करने से क्या फायदा ? पैसे सुख के लिए ही हैं न ? चलो, थोड़े दिन बाहर घूम-फिरकर आयें ! धर्म में दिलचस्पी हो, तो ऐसे सूत्र लगाता है। तोशल को कन्या से मिलने में दिलचस्पी है, इसलिये यह सूत्र लगाता है कि... 'दुःख के बिना सुख नहीं' सूत्र कितना बढ़िया है ! परन्तु यह जीव पगला है, संसार की बातों में उसे यह सूत्र लगाना आता है, धर्म की साधना में नहीं। स्त्रियाँ वैशाख जेठ मास की गर्मी में रसोई बनाने के लिये तीन-तीन घंटों तक चूल्हे के पास बैठती हैं, गर्मी सहन करती हैं। क्योंकि पता है कि 'गर्मी सहन करने के दुःख के बिना कुटुंब को समय पर भोजन कराने का व स्वयं १७६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003228
Book TitleKuvalayamala Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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