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________________ मन में कोई अन्य स्त्री है। तो फिर यह 'श्यामा' क्यों बोला? इसलिए कि 'श्यामा' का अर्थ पत्नी भी होता है । अत: यह अपनी पत्नी को लक्ष्य कर के ही यह शब्द बोलता है। फिर भी यहाँ भोली स्त्रियों ने अलग ही अर्थ लगाकर कैसा अनर्थ मचा दिया? अब अनर्थ की परंपरा कैसी जारी रहती है सो आगे देखने में आएगी। लेकिन देखने की बात यह है कि केवल एक शब्द का अनुचित अर्थ ले कर कितना अनर्थ मचता है। अर्थ में से अनर्थ इसी का नाम है। इसमें से तो कितने ही कुमत प्रस्फुटित हुए। दिगम्बर मत कैसे निकला और कहाँ भूला? शास्त्र के शब्दों के भी अनुचित अर्थ लेने से महा-अनर्थ मचते हैं । शिवभूति शास्त्र में लिखित 'जिनकल्पी' मुनि के आचार की बात का अर्थ 'सब मुनियों के ऐसे आचार' ऐसा कर के 'महामुनि नग्न रहते हैं वैसे सभी मुनि नग्न क्यों न रहे? यह मुद्दा आगे कर के गुरु से लडा! और स्वयं नग्न होकर निकल गया तथा दिगम्बर मत का प्रवर्तक बना! यह अर्थ में से अनर्थ ! उसने यह नहीं देखा कि जिनकल्पी मुनि तो उत्कृष्ट संघयण और वैसी शक्तिवाले होने से इस तरह उत्कृष्ट चारित्र पाल सके, परन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि उस से नीचे का मध्यम और जघन्य स्तर का चारित्र ही न हो। जैसे संसार के पाप व्यापारों का द्विविध - त्रिविध त्याग करने से कामचलाऊ सामायिक-देशचारित्र आ सकता है, जैसे जीवन भर और त्रिविध-त्रिविध त्याग करने से जीवन पर्यंत का सर्वविरति सामायिक-सर्वथा चारित्र बन सकता है, ऐसे आगे श्राक्क के लिए हिंसादि पापों का अंशतः त्याग एकविध एकविध, एकविध द्विविध... आदि प्रकारों से अणुव्रत रुप में हो सकता है तो फिर उन पापों का सर्वथा त्याग त्रिविध त्रिविध करे, उसके लिए वह महाव्रत रुप में क्यों नहीं हो सकता? अलबत्ता, इसमें वह उसमें वह थोडे से सादे वस्त्र और पात्र रखे परन्तु यह कोई परिग्रह नहीं बन जाता । अन्यथा दिगंबर मुनि के भी कमंडल और मोरपिच्छी और आखिर काया भी होने के कारण यह भी परिग्रह गिना जाने पर उसका भी चारित्र कहाँ रहा! अरे! अगर वस्त्र-पात्र रखने मात्र से मूर्छा करानेवाले माने जाएँ, और उन्हें परिग्रहरुप कहें तो स्व-शरीर भी रखने मात्र से मूर्छा का कारण माना जाय, और परिग्रह रुप हो। और इस तरह तो दीक्षा लेते ही आत्महत्या करनी पडे। नहीं तो फिर चारित्र ही नहीं। शिवभूति ने अप्रस्तुत अर्थ कर के कितना अनर्थ सिर पर लिया कि चारित्र में वस्त्र नहीं, और स्त्री से वस्त्र के बिना नहीं रहा जा सकता अतः चारित्र नहीं । फलतः सारी साध्वी-संस्था उडा दी। नतीजा ? भगवान का संघ तो चतुर्विध-साधु-साध्वी श्रावकश्राविका, लेकिन इस नूतनपंथी दिगम्बरों के त्रिविध संघ रहा। उपरांत वस्त्र-पात्र उडा देने से आचारांग आदि सब आगम उडाने पडे - सो अलग। अर्थात् उन के लिए गणधर वचन झूठे और इनके नये रचे हुए सच्चे। कैसा न्याय ? गलत अप्रस्तुत -अर्थ लेने से अनर्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003228
Book TitleKuvalayamala Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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