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________________ छिद्र खोजता था । रोष और अभिमान काम कर गये । मूर्ति उड़ानेवाले को नये मत का प्रणेता बनने का लोभ जगा था गौतम बुद्ध को पहले ग्रहण किया हुआ जैन चारित्र और तप कठिन लगा; अब उसे छोड़ कर कष्टरहित ससम्मान जीवन कैसे जीना ? अतः कमत खोज-निकालना ही रहा । निश्चय पंथी को भी चारित्र-तप आदि के कष्ट अच्छे नहीं लगे, नहीं पाले जा सके, अतः उन्हें छोड़ कर समाज में बुद्धिमान् विद्धान कैसे कहलाना ? तो निकालो कुमत । जान बूझकर-सोद्देश्य - अर्थ के अनर्थ करने में दुष्ट वृत्तियाँ काम कर रही होती हैं। मानभट की पत्नी आगे बढ़ती है। . मानभट की पत्नी को गांव की औरतों के उकसाने से ऐसा प्रतीत हुआ कि 'मैं गौर वर्ण की हूँ तो भी पति 'श्यामा' संबोधन कर किसी अन्य काली स्त्री को प्रिय बना रहा है, सो यह निर्दय है, नि:स्नेह है। ऐसी स्थिति में जीना व्यर्थ है।" ऐसा मान कर, जरा अँधेरा होने पर वह वहाँ से उठ कर चली । सोचती है कि - 'कहीं आत्महत्या कर के शांति पाऊँ ?' इधर देखती है, उधर देखती है, लेकिन वहाँ बहुत लोग इकट्ठे हुए हैं, अतः एकान्त स्थल नहीं मिलता, तो कोई वहाँ देख ले तो वह कैसे फाँसी खाने देगा? अतः 'यहाँ तो फाँसी खाना संभव नहीं, आगे जाकर 'यहाँ भी नहीं' और आगे जा कर - 'यहाँ भी नहीं' ऐसा करते करते आखिर हारकर घर पहुंची। __घर के आगे के हिस्से में सास है। वह पूछती है 'बेटी ! अकेली कैसे? तेरा पति कहाँ हैं? यह कहती है - "वे आ रहे हैं।' बस, यह कह कर वह दूर - पीछे के हिस्से में सोने के कमरे में घुसी। अन्दर जा कर गले में फाँसी डालती है। पीछे धीरे से घोषित करती है -' हे लोकपालकों ! सुनो ! मैंने आज तक अपने पति को छोड़कर अन्य किसी भी पुरूष की मन से भी इच्छा नहीं की है; जबकि पति ने मेरे प्रति ऐसा बर्ताव किया है, अत: अब मैं आत्महत्या करती हूँ। और कृपा कर आप मेरा यह साहस मेरे पति से कह दीजिएगा।' इतना कह कर उसने गले में फाँसी खींची, साँस रूकी, गात्र शिथिल पड गये। फाँसी क्यों खायी? कितना साहस ? ऐसा क्यों? मानभंग खटका। मैंने इतना अखंड प्रेम धारण किया, दूसरे किसीसे प्रेम न कर अकेले इनसे प्रेम किया, और इन्हें इसकी कद्र नहीं ?' कद्र न होने की यह भावना उभर आयी। यह एक कारण । दूसरा कारण यह कि 'इतने सारे लोगों के बीच मैं तिरस्कृत हुई ?' यह मानभंग का प्रसंग उपस्थित हुआ। अपने त्याग का मूल्य नहीं, और लोगों में अप्रतिष्ठा, इन दोनों के विचार इतने प्रबल हो गये कि उसने इस मूल्यवान् जीवन को भी निकम्मा करार दे दिया। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003228
Book TitleKuvalayamala Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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