Book Title: Jain Hitbodh
Author(s): Karpurvijay
Publisher: Jain Shreyaskar Mandal Mahesana
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ THE FREE INDOLOGICAL COLLECTION WWW.SANSKRITDOCUMENTS.ORG/TFIC FAIR USE DECLARATION This book is sourced from another online repository and provided to you at this site under the TFIC collection. It is provided under commonly held Fair Use guidelines for individual educational or research use. We believe that the book is in the public domain and public dissemination was the intent of the original repository. We applaud and support their work wholeheartedly and only provide this version of this book at this site to make it available to even more readers. We believe that cataloging plays a big part in finding valuable books and try to facilitate that, through our TFIC group efforts. In some cases, the original sources are no longer online or are very hard to access, or marked up in or provided in Indian languages, rather than the more widely used English language. 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We shall work with you immediately. -The TFIC Team. Page #2 --------------------------------------------------------------------------  Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ B श्री परोपकाराय सतां विभूतयः जीन दिनोध. नतिक विषयोसें भरपूर ८७१-७ જ શાંત મૂર્તિ મુનિરાન થી વૃદ્ધિ ચંદ્રવે છે Mi शिष्याणु मुनि करविजयजी विरचित ___वधर्मी भाइओ व्हेनोको पढ़ने के लीये श्री सुरत निवासी झवेरी देवबंद लालभाईकी लडकी बहेन वीजकारबाइ तरफसे भेट - हिंदी गिरामे भाषांतर कराके छपाके प्रसिद्ध कर्ता Ei. itiata Mirrr . RA .. Chh श्री जैन श्रेयस्कर मंडल म्हेसाणा अमदावाद श्री, सत्यविजय प्रीटींग प्रेस-पांचकुवा नवा दरवाजा संवत् १९६४ सने १९०८ वीर संवत् २४३४ Page #4 --------------------------------------------------------------------------  Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना. सरस शांत रसके समुद्र, अत्यंत पवित्र गुणरत्नोंके निधानः और भविक कमलको भवोधने के वास्ते सूर्य समान अनंत गुणी श्री जिनेश्वरजीकों प्रणाम करके अनंत गुण गंभीर श्रीगौतम गण घरजीका चित्तमें ध्यान धर, और वाग्देवी - साक्षात् ज्ञानमूर्ति सरस्वतिजीको एकाग्र मनसे स्मरण चितवन करता हुं; क्योंकि यथाविधि प्रमाद परिहर कर श्रीमन् महावीर स्वामीजीके साधु साध्वी, श्रावक, श्राविकाओं रूप सर्व प्रजा सदा सुखी होवे उस वास्ते; और दुषम काल आदि विषम संयोगोंकों पाकर चाहिये वैसा सम्यम् ज्ञान विवेकके विरहसें सर्वज्ञ मणीत उत्तम नीति रीतिकी गंभीर " न्यूनतासें करके आज कल चारों और फैला हुआ अज्ञान रूप अंधकारकों भस्मीभूत करनेके वास्ते; काले मुँहवाले कुसंपादि दुर्गुण चोरोंका आगमन बंध करनेके वास्ते, सम्यग् ज्ञानोद्योत प्रकटानेके वास्ते, सर्व सुखकर सृसंपादि सुगुण रत्न निधान साधने के वास्ते; समस्त साधमजन एक दूसरेकों योग्य मदद देकर, जगाहतकर श्री जिनराजके शासनकी यथा शक्ति उन्नति - प्रभावना कर सकै थापी प्रमादके परतंत्र रहनेसें भई हुई या होती हुइ मलीनता दूर करसकै सब संक्लेश दूरकर श्रीवीतराग प्रभुका रागद्वेष मोहरूप दुष्ट दोषों को पीस डालनेका सदुपदेश सार्थक कर सकें, यावत् निर्मल अंतःकरणसे सुसंप जंजीर वृद्ध होकर एकाग्रता से स्वपर हितकर मार्गकोंही अवलंबकर रह सकै, वैसी ही हितशिक्षा योग्य को देनेके वास्ते, हर हमेशां प्रयत्नपरायग रह सकै, और 0 Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वपर हितकारी मार्गकाही सेवन करनहारे सज्जनोंकी संस्कृतिका सदा अनुमोदन कर सकै, यानि उसको लेशमात्र निंदे नहीं, इया या अदेखाइ जरासी भी करै नहीं, किंतु सुकृत्यकी ही द्धि हो सकै वैसी अंत:करणसे दरकार रखकर-वचनद्वारा वैसा ही वोल कर और शरीरकों भी उसी प्रकार प्रवर्त्ता सकै वैसी भन्यजनों __ की तर्फ यथामति प्रेरण करने के वास्ते, और सहज ही सी शुभ अत्ति करनेहारे प्यारे भाइ और भगिनियोकों स्वपर हितकारी मार्ग निःस्वार्थतासे स्वार्थ भोग देकर निर्भयता और निचलतासे विशेष प्रकारस उमदा शद्ध प्रवृत्ति करानेके वास्ते, अपने आसन्नीपकारी चरम तीर्थंकर श्री महावीर स्वामीजीका उत्तमोत्तम चरित्र ग्रहण करना-एकाग्रपनेसे विचार लेना सो बहुत उपयोगी है, असा निश्चय करके प्रसंगोपात संक्षेपसे प्रभुका सद्वर्तन वर्णन कर निर्वाण कल्याणक सह अपने आपका प्रभुकी मजा-पुत्र पुत्री समानका कया कया कर्तव्य है, उनका संक्षेपसे बयान देकर सहज आत्म प्रेरणासे इस ग्रंथका उपक्रम-आरंभ किया है. उनमेंसें राजहंसकी तरह गुण मात्रकाही ग्रहण करके सन्मागका सेवन कर सजन सदा सुखी होवै यही आंतरिक इच्छा है. सो सफल हो ! और जगजयवंत श्री जिनशासनकी शोभा दिनप्रतिदिन द्धिगत शे! तथा शुद्धाशयसें जिनाज्ञाकों आराधकर समस्त जैनवर्ग जय कमलाके स्वामी हो !! उक्त आशिर्वाद पूर्वक प्रस्तुत ग्रंथकी प्रस्तापना द्वारा तद् अंतर्गत विषय-संबंधी दो शब्द कहता हुँ: 'यथाशक्ति यतनीयं शुभे'-शुभकार्यमें यथाशक्ति यत्म करना. इस महा वाकयानुसार चलकर तात्विक सुखके अर्थिजनकों स्त्र शक्ति मुजव स्व-पर हित साधनके वास्ते जरुर दरकार रखनीः Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ही मुनाशिव है. परमार्थ बुद्धिसें भव्यजीवोंको स्वहित साध्य करलेने के लिये युति के साथ भेरणा करनी उनके जैसा एक भी परोपकार नहीं है. पैसा परोपकार वस्तुतः खार्थ रूप ही होनेसें हरएक सार्थक-सच्चे जैनोंने अन्यजनोंको शुद्ध जन तत्व समझानेके वास्ते चन सकै उतना प्रयत्न करना जरुरतका है. इस प्रकारका यत्न स्वपर हितकी वृद्धि सहित पवित्र जैन शासनकी उन्नति सिद्ध करने के लिये प्रवल कारणभूत माना जाता है. चरम तीर्थकर श्री महावीर स्वामीने परिपूर्ण ज्ञानद्वारा पूर्व तीर्थंकरोंकी तरह वस्तु तत्व यथार्थ जानकर, मरुपकर अनेक भव्य जनोंके अज्ञान अंधकारका साक्षात् छेद नाश किया है, इतनाही नहीं मगर महा मंगलमय ज्ञान प्रकाश पवित्र द्वादशांगी द्वारा वसुधातलपर भव्य जनोंके कल्याण निमित्त फैलाकर आखिर अविनाशि अचल सिद्धि स्थानमें निवास किया. जैसे अंधे मनुष्यकों करोडों दीपक भी उपकार नहीं कर सकता है, तैसे कदाप्रहसे ग्रसित हुवे मिथ्यादृष्टि अंध जनोंको उ. पवित्र ज्ञान प्रकाश उपकार नहीं कर सकता है; परंतु सरल बुद्धि आत्मरुचि सज्जनोंको चो.महान् उपकार कर सकता है. औसा समझकर पहिले सामान्य रीतिसं श्रीमहावीरजीके निर्वाणका क्यान कथनकर पीछे अपने कतव्य तर्फ भव्य सत्वांका लक्ष्य खींचा गया है. वाद विविध प्रकर'णोंका सार ग्रहण कर 'सार बोल संग्रह ' और धर्मकल्पवृक्ष यथामति तैयार किया गया है. उसके बाद नाम मुवाफिक गुणधारक * उपदेश रत्नकोश" प्रकरणका बहुत करके बाल जीवों को भी -समझ लैना सुलभ हो प. वैसी सरल भाषामें सद् उपदेश सार नामक विवरण सामान्य रीतिसें करने में आया है. ये विषय जैन बालकोको नीतियुक्त सामान्य धर्म पोध देनेमें खास उपयोगी हो A Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पडै वैसा है. अपने खास कर्तव्यमें अपनकों शिथिल करनेहारे या भूल खिलाकर उलटे मार्गपर चढानहारे पांच को दुश्मन जैसे पांच प्रमादका परिहार करनेके वास्ते 'प्रमाद पंचक परिहारमें ' जगह जगह महात्माओंके वाक्यास समर्थन करके बने यहां तक समझ देनमें आइ है. पद शांत रस युक्त साथ प्रसंगोपात बंध बैठत होनसे रसज्ञको उक्त विषय अच्छी असर कर सकै वैसा है. जैनोंकी पूर्वस्थितिके साथ मुकाबला करने से अपनी इस वरुतकी स्थिति बहुतही दयामय मालुम होती है. कुसंप, सत्यज्ञानकी गंभीरन्यूनता, ज्ञानका घटित उपयोग करनेकी न्यूनता, लक्ष्मीको तावे करने के वास्ते साधनभूत प्रमाणिकतादिकका होता हुवा अनादर, और नीमिरीति धर्मशिक्षणमें गंभीर न्युनता वगैरः इनके नजर आते हुवे । सवव हैं, उन पावतमें सामान्य रीतिसें जैन वर्गकों यथामति अति अगत्यकी सुचनामे करनेमें आइ है यानि इत्तला दीगइ है. उमीद है कि-यदि बुद्धिवलसें मनन पूर्वक उनद्वारा योग्य कदम भरनेमें आयेंगे, तो अपन तुरंत कुछ अच्छे सुधारको दाखिल कर सकेंगे.. आखिरमें उज्वल गोहरके लरकी समान अमूल्य और बहुत ७५योगी 'सार शिक्षा संग्रह' दाखल करनेमें आया है, और उसीके अंत विभागमें आत्माके अलग अलग प्रकार, उच्च स्थिति पानेका अनुकुल मार्ग और परमात्मपद वगैरः वावतोंका समावेश करने में आया है; तदपि मति मंदतादिकसें कुछभी उत्सुत्र लीखा गया हो उसकी माफी ममकर सुधार लेनेकी सुहृदयोंको नम्न प्रार्थना है. . इसलं श्री शांतिः मुनि गुणमकरंदाभिलाषी. करविजय. Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गूमिका. . मिय धर्म बन्धु और भगिनिये ! श्री वीतराग परमात्मा __ अनूपम प्रभाव कुपा और हित बुद्धिसे कथन किये हुवे धर्म रहस्य के महात्म्यसें इहलोक परलोककी स्वार्थ परार्थ कार्य सिद्धि के अनन्य साधारण साधन होने परभी समित समयमें तत् तत् साधनोके सदुपयोगके अभावसे करके भव्य प्राणीयोंके कर्णपुटमें ज्ञानामृत सिंचनहारेकी न्युनता होनेसें, दिन प्रतिदिन ज्ञान, धर्म और नयादिकका नाश होता हुआ नजर आता है, वह पीरपुत्रोंकों और उसमें भी ज्यादे कर वीर शिष्यों को अल्प शोच्च नहीं है. , पूर्वकालमें मुनिवर्य, लिखित ग्रंथादिक चाहिये उतने साधन रहित होने परभी विधाभ्यास करने करानेके उपरांत धर्म रहस्यके तत्व रूपांतर रचने के साथ नियमित विहार करके अनेक मिथ्यात्वि. योकों भी उपदेश द्वारा सद्धर्म मापक होकर वीरांतवासित्वका साफल्य कर शास्त्रोन्नतिमें एकांत जय मिलातेथे जव आगे ऐसाथा तव आधुनिक वरूतमें पूर्वोक्त मुनियोंके उपदेशकों समयानुसार अनुकरण करनेहारे वीर शिष्योके दर्शन करनेमें भी साधर्मीजन हो भाग्यवान् नहीं होते है, तो मुक्ति सुधारसकी पि. पासा या अन्य भतिवोधकी आशा-उमेद कहांसें रहने ही पावे ? तदपि अभी कितनेक मुभिराज दुर्गम अज्ञानी देशमे विचर करके खकर्तव्य बजाकर धर्माभिमानीओंकों पुनः ज्ञानामृतमें र. सिक बनाने के लिये उत्सुक हो रहे हैं, या हुवे हैं, उसके साथ हरएक धर्माभिलाषीको ज्ञाता मुनिराजोंकी सूक्तिका संगीन लाभ . Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देनेके वास्ते मातृभाषामें शास्त्र तयोंके नवीन सरल लेख या भापांतरोंकी भी आवश्यकता बहुत उपयोगी समजते हैं वैसा मालुम होता है; जिससे कितनेक साधारन चरित्रादिक भाषांतर या नवीन लेख दृष्टिगोचर होने लगे हैं, उसी तरह परमपालु परमपूज्य मुनिवयं कर्पूरविजयजी महाराजने भी पूर्वोक्त शुभ आशयसें श्रम लेकर अपनी अमृत दृष्टिका जैन हितबोध' रूपी जो प्रथम कटाक्ष फैलाया है, सो भव्यजीवोंकों अधिकाधिक वोधदायी है. जिनका लाभ लेकर भव्यजीव अज्ञान विषका नाश करनेके वास्ते अधिकारी व__ नंगे औसी पूर्ण मतीति है. यह जैन हितबोध ग्रंथमें कितना गांभिर्य, और तत्त्व रहस्य.. है? उसका वर्णन हम प्रसिद्धकत्ता ग्रंथ. गौरव भयसें विराम पाकर हमारे सुज्ञ साधर्मी पुरुषोंको जाननेके वास्ते भलामन करेंगे 'ज्यों ज्यों इस ग्रंथका पुनः पुनः मनन होवगा, सौं त्यौं उनमेंसें अपूर्वा पूर्व आस्वाद आये बिगर- रहेगा ही,नहीं' जैसा हमार। अनुभव अतिशयोक्ति में नहीं गिना जायगा. इस ग्रंथमें धार्मीक विषयोके उपरांत अपने जैन बंधुओकी नीति रीति सुधर सके ऐसा विषयोंका प्रथन कीया गया है. और जैन पाठशालामें पठनेवाले लडके लडकीयको नैतिक वोध देने लायक यह ग्रंथ बहुत उत्तम हैं. और एसी निष्पक्षपात वृत्तिसें लीखा गया है की अन्य मतावलंबीयोभी बहुत आदर, हर्षसें इस ग्रंथका लाभ लेते है. और श्रीमंत सरकार गायकवाड महाराजाके केलवणी. खातेकी रकुलोमें इस ग्रंथ इनाम और लायब्रेरी खातेमें मंजुर कीय। . गया है, यह बावत ग्रंथकी उपयोगीताको प्रकट करती हैं.. Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तुत ग्रंथकी पहिली आवृत्ति परम पूज्य स्थल पालितानामें जैन धर्मविधा प्रसारक वर्गकी तरफसे छपवानेमें आइथी लेकीन एसे ग्रंथ रत्नोंकी विषेश उपयोगीता मालूम होनसें पुर्वोक्त मुनिराजजीका नम्र विज्ञप्ति करने के साथ वै कृपालु मुनिश्रीने दूसरी आवृत्ति छपपनिकी आज्ञा दी. जिसे दुसरी एडीसन हमारी तर्फसे प्रसिद्ध की गई जीसमें जैन धर्म प्रकाश और आत्मानंद प्रकाश मासिकमसे उth मुनिश्रीका पृथक पृथक लेख भी उन्हीकी आज्ञा लेकर इस्में दाखिल किये गयेः फीरभी उस ग्रंथकी ज्यादे जरुरत होनेसे तीसरी एडीसनभी प्रसिद्ध करनेमें आई उस आवृत्ति में विषयानुक्रम के फारफेर करनेका योग्य लगनेसे योग्य नाम रचा गया है. और असल फकीरी नामक विषयमें आत्मानंद प्रकाशका उक्त विषय संधान कर दीया. इस तरह गुर्जर गिराकी तीन आवृति होनेपरभी हिंदी भाषा जाननेवालोंकी उमगेद पूर्ण न हुइ पास्ते कवि पूर्णचंद्र शर्मा द्वारा उसीका हिंदी तरजुमा करवाके हमने प्रसिद्ध कीया है. सो इस ग्रंथका लाभ लेकर लेखकका और हमारा परिश्रमको भव्य सत्वों सफल करें और स्वकर्तव्यपरायण हो ऐसी आंतर इच्छा रखते है ! पूज्य मुनिश्रीका मयासके वास्ते इन महात्माका शुद्धोतः फरणसें हम अत्यंत आभार मानते हैं. ... इस ग्रंथको मुद्रित करवाने के लिये द्रव्यकी सहाय देनेहार धर्मानुराग्री सद्गृहस्थोंका आभार माननेके साथ असे सन्मार्गम सद्रव्यका व्यय अनेकशः हो जैसा ही हरदम चाहते हैं ! अस्तुः प्रसिद्ध कर्चा. . . Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "शुद्धि पत्रिका." पृष्टः लाटी अशुद्ध लजा रपद शोक करनेकी ७ १८ शुद्ध लज्जास्पद शोक करने लायक यह पातही धर्म कार्य उ-कोतप्तत्रपू जैसा लगता है और मानपान करनेकी १० ८ और १० १८ १९ २० २१ ३ पूत्र और आनन्द कामदेवतुल्य सुश्रावक समुदाय छोटे पुत्र भव्यजनही चलके परमकृपालु मिलता हुवेले भव्य शासनकी स्वछंदता મનુષ્યને नहि देना. सुज्ञजन २४ भव्यजन चने परम मिलाता हुवले शासनको स्वछता मनुष्य नहि. देना सुझजन १० ५३ १९ __ ५४ ८ Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७ दुःखदाहि दुःखकाहि વેવની વિક્કી मेरे मेरीहि मज ८६ १५ मज संसार संसारे राजकथा, देश कथा, कूकर राजकथा १०३ ८ दूकर १०५ २ मुकये १०८ तरली १०८ विराध वाषण ११० संसार ૨૨૨ ૭ ફતે १२६ २ . और १३९ भिन साधानों १४६ करनी चाहिये १६० । १४ क्षणभर २६१ १३ सघाचार १६३ १० . छूकाकर १६८ २१ आर तरकी विराधन भाषण संहार उठाते और कितनेक भि न साधनो हीउधम करना करनी क्षणभरमें संघोवरि १५२ छूपाकर ૌર Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परानदा १६८ १७६ १८८ परनिन्दा जगह जग self तीर्थभूत २०५ २१० ९ १९ तीर्थोकी बहुतसे જ્ઞાની २१२ ११ १९ ३ २१२ २१४ २१४ २१६ ૨૧૭ Seif तीर्थ, भूत तीर्थीका बहुसे ज्ञाननी वसे कंठित देवद्र०यसे सुस्वामी आर कुंठित જ્ઞાનદ્રવ્ય સરવાણી V २१८ W २१९ M ૨૨૨ છુઠી भुवाफिक Selfishness. श्रावकजनसे or मुवाकीक Seifishnes श्रावकजन नस्ससे खाविर રરર २३४ २३५ १८ नस्समें खातिर १० २४४ २४४ याग्य अन्दरको सुधारा योग्य अन्दरका सुधारा २५१ २१ Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५७ १६ असा और असा आर विषय करवाले मतगज વિષમ २१६८ करनेवाले २६७ विचार २६९ मत्तंगज विचारमुजब जागृत अवधु संत जनहि વિષમ २७२ जागत अवध ' संतज नहि ૨૪ વિષય ર૭ર ર૭૬ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . . . . . . . . अनुक्रमणिका १ श्री वीर प्रभुका निनि और अपना कर्तव्य .... ५ सार वाल संग्रह ३ सदुपदेश सार .... .... ४ प्रमाद पञ्चक परिहार ... ५ सामान्य हितशिक्षा ... ६ श्रावक नामसे पहिचानेंमें आते हुवे जैनोंकी अमल करने लायक फर्ने या श्रावक धर्मकी पद्धति-प्रणालीका .... .... .... ११५ ७ विविध विषय संग्रह .... .... .... १७२ ८ श्री तीर्थ यात्रा दिग्दर्शन .... .... .... १९१ ९ सद्भावना .... .... .... .... १०५ २० देव द्रव्य ज्ञान द्रव्य और साधारण द्रव्य संबंधी विचार .... .... .... ११ श्री जैन श्वेताम्बर वर्गके पूज्य मुनीराज तथा विवकी श्रावकोंको अति अगत्यकी सूचनाओं ૨૨૦ १२ जैन श्वेताम्बर मुमुक्षु वर्गको नम्र विज्ञप्ति .... २४७ १३ असल फकीरी २६९ ११ कवि शुभचंद्रजी विरचित ज्ञानार्णवांतर्गत सवीर्य ध्यानका सारांश .... .... ..... ૨૮૨ १५ सार शिक्षा संग्रह २८९ १६ हिरमन और शेन प्रश्न उद्धरित सार ३०३ १७ पंच परमेष्टि जाप यंत्र .... .... .... . . . . . ... Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ गंगलापरण[. (श्री वीर सद्भाव स्तुति) पीर जीनेश्वर साहिब मुणज्यो, अरज कर छ जग धीरे. ए टेक. दया पारिथी' स्नान करीने, संतोष चिवर धारियर विवेक तिलक अति चंग करीने, भावना पावन आशयेरे. वीर. १ भमि केसर कीच करीने, श्रद्धा चंदन भेळीएर; सुगंधी' सद् द्रव्य मेळीने, नव ब्रह्मांग जिन अचीएरे. वीर. २ क्षमा सुगंधि सुमन सदामे, दुविध धर्म क्षौम युगपरेरे, ध्यान अभिनव अषण सारें, अची अमे पणुं हर्षिय रे. वीर. ३ आठे भदना त्याग करण रुप, अष्ट मंगळ आगे थापीएरे; शान हुताशन' जनित शुभाशय, कृष्णागुरु१२ उखेवीएरे. वीर. ४ शुद्ध अध्यात्म ज्ञान पनिथी, १७ माग धर्म १४ लवण उतारीएरे; योग सुवर्युल्लास करती, नीराजना५ विधि पूरीएरे. पीर. ५ आतम अनुभव ज्ञान स्वरूपी, मंगल दीप प्रजालीएरे; योग त्रिक शुभ नृत्य करता, सहज रत्नत्रयी पामीएरे. वीर. ६ १ जल, २ वस्त्र ३ मनोहर, ४ पवित्र ५ रस, घोळ ६ उत्तम ७ ब्रह्मचर्य रु५ ८ पुष्पमाळा. ९ वस्त्र युगल. १० अपूर्व ११ अग्नि १२ उत्तम धूप १३ अनि १३ पूर्वक अशुद्ध धर्म १५ आरती. १२ मन वचन और कायानी सत्पत्ति १६ सम्यग दर्शन, ज्ञान और चारित्रः Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ --१६ वीर. वीर० ८ वीर० ९ सत्ययाये' सुघोषा बजावी, रोमरोम उल्लासीएरे, भाव पूजा लयलीन होता, अचल महोदय पामीएरे. भाव पूजा अभेद उपासक, साधु निर्ग्रये अंगीकरीरे, द्रव्य पूजा भेद उपासक गृह-मेधीने नित्य वरीरे. द्रव्य शुद्धिं भाव शुद्धि कारण, जिन आना" अविधारीएरे, ध्याता ध्येय ध्यानरूप एके, अजर, अमर पद पामीएरे. सालंबन निरालंबन भेदे, ध्यान हुताश जलावीएरे, कंचनोपलने न्याये, करीने, चैतन्यता अंजवालीएरे. कर्म कठीन धन नाश करीने, पुर्णानंदता पामीरे, रमतां नित्य अनंत चतुष्के विजय लीला नित्य जामीएरे. वीर. ११ १ सरस शांति सुधारस सागरं, शुचितरं गुणरत्न महागरं; भविक पंकज बोध दिवाकरं, प्रतिदिनं प्रणमामि जिनेश्वरं. वीर. १० 1 २ अधाऽभवत् सफलता नयन द्वयस्य, देवत्वदीय चरणांबुज वीक्षणेन; अद्य त्रिलोक तिलक प्रतिभासते मे, संसार वारिधिरियं चुलुक प्रमाणः ३ शम रस निमग्नं दृष्टि युग्मं प्रसन्नं, वदन कमल मंकः कामिनी संग शून्य; कर युगमपि यत्ते शस्त्र संबंध वंध्यं, तदसि जगति देवो वीतराग स्त्वमेव. १ उत्तम परिणाम २ घंटा. ३ सेवक - आराधना करनेवाली. ट गृहस्थ, श्रावक. ५ फरमान. ६ सुवर्ण और मोट्टीका द्रष्टांत सें. ७ 4 आत्मस्वरूप. ८ अनंत ज्ञान, दर्शन, चारित्र और वीर्य. Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री विश्वेशवन्दे ! विविध जैनतत्त्व विचारमय जन हितगोध. (हिन्दी-भाषानुवाद समलंकृतः ) FASEx. वस्तुनिर्देशात्मक मंगलाचरण, (दोहरा-छंद.) अज अनादि अव्यक्त प्रभु, चिदानंद चिद्रूप; जिन्हके चरनसरोजमै, नमत सदा सुरभूप, तिन्हको सुमिरन करि लिखू, हिंदि " जैन हितबोध;" पटिय पाठक नित प्रति, तजि मततत्व विरोध. सार सार सव संग्रहो, तजिके दोष तमाम; लीजें परमानंदमें, अनुभौ मुख अभिराम. श्री वीर प्रभुका निर्वान और अपना कर्तव्य, देवेन्द्र, नरेन्द्र और योगीन्द्रोंके परमपूज्य चरम तीर्थंकर श्री __मन् वीराधिवीर महावीर प्रभुजीने उत्कृष्ट योग और तपके पल में Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ घाती कर्मका संपूर्ण क्षय करके अनंत ज्ञान, अनंत दर्शन, अनंत चारित्र और अनंत वीर्यरुप अनंत चतुष्टय संप्राप्तकरक-प्रकट करिक स्वर्ग मृत्यु पातालके हित निमित्त देवोंके बनाये हुवे समवसरणके वीच मुरस्थापित पंचम प्रातिहार्य सिंहासनपर विराजमान होकर बारह पपैदाकी मध्यमैं अमृतमय-मधुर देशनाजल वाकर भव्य समूह क्षेत्रका सुरसमय बनाकर सम्यक्दर्शन-बोध बोधजिकों अंकुरित किया. और इंद्रभूति वगैरः गनधरजीको त्रिपदी देकर साधु-साधी-श्रावक-श्राविकारु५ चतुर्विध श्री संघ ( तीर्थ) की स्थापना की, उसी वक्त से इस भारत भूमिमैं जाहोजलालीके साथ जैन शासन ज्यादे तौर पर विजयवंत हो प्रवर्तने लगा और प्रभुजीके परम पावन गुणों-अतिशयोंसे सर्वत्र शान्ति फैलाने लगी.. प्रभुजीक परम पुनित अमृत वचन श्रवन करके प्राणि मात्र करु। बुद्धि के साथ उत्तम प्रकारकी मैत्री, मुदिता और मध्यस्थता धारन करनेवाले हुने. अविवेक, अनीति, अन्याय या असत्यका मार्ग सागन करिके विवेक पूर्वक नीति न्याय या सत्य मार्गका अवलंबन करनेवाले हुवे. साधर्माजनो के साथ परम प्रमोद भाव परनेवाले दुवे. प्रतिज्ञा करनेमै दक्ष हो अहित प्रतिज्ञाको प्राणकी तरह पालने लगे. शील-ब्रह्मचर्यकोही सच्चा भूषण या अलंकार, विवेककोही सच्चे लोचन, और सत्यभाषणकाही मुखमंडन मानने लगे. उत्तम आचार और उत्तम विचारोंमें कुशल तथा अप्रमादी हुवे. संत सु' साधुजनोंके दास बने हुवे रहने लगे. मन और इन्द्रियों का यथायोग्य Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3 IL निग्रह करने लगे. कषाय तापकों दूर करनेके लिये श्री सर्वज्ञ भादति उत्तम क्षमा, मार्दव, आर्जव, और संतोषका सेवन करने लगे. मदिरादिक दृष्ट व्यसनोंका बिल्कुल त्याग करनेमें कटिवद्ध हो रहे. विषय रसकों विपवत् गिनने लगे. निद्राकों वैरिणी मानने लगे. और स्त्री विकथादिकों हालाहल -झहर समान निंदने लगे. स्वल्पमै प्रमाद भात्रोंकों कट्टे दुश्मन जैसे मानकर उनसे विराम पाए. समस्व जीवोंको आत्म साहश गिनकर उन्होंका संरक्षण करने के वास्ते तत्पर हुवे. किसी जीवकों क्लेश न हो वैसा हित मित भाषन करने लगे, परद्रव्य और परदारा तर्फ जालांजली देने लगे-यानि पराये धन-द्रव्यकों धूल के ढेले या लीष्टवत् निर्माल्य गिनने लगे और पराइ स्त्रीको काली नागन समान जानकर उनसे दूर रहने लगे. श्री सर्वज्ञ प्रभुजी की आज्ञाकों शेषावत् मस्तकपर धारन करने लगे. अर्थको अनर्थ मूल जानकर उनका सप्तक्षेत्रादिमैं यथा अवसर विवेक से व्यय करने खर्चने लगे. दीन दुखीजनों की भीर भांगनेकों तत्पर हुवे, सीदाते - दुःखपाते हुवे साधर्मी भाइयोंकों भक्तिमरसे उद्धरनेके लिये तन मन धनका सदुपयोग आदरने लगे. अपने साधनोंकी उन्नति होनेमै अपनी ही उन्नति मानने लगे. अपने साघमभाइयोंकी न्यूनता सहन न हो सकनेसें उनकों अपने बरोबर करने के लिये वन सकै उतनी कोशीश करने लगे. स्वधर्मी भाइयोंकी आधिक्यता देखकर अंतःकरणसे खुशीभी होने लगे. राग द्वेषका विवेकसे विजय करनेकों, श्री वितराग देवकी साक्षात् शान्त रस Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दायी-शान्तरसमय मोहक मुद्राकी, तथा सिद्धांत-आगम वानीकी परम भक्ति भावस सेवा उपासना करने लगे, क्लेशकों तो दारिधका मंदिर जानकर उस्का केवल परिहार करने लगे. जंठा कलंकी चुगलीखोराइ और अवर्णवाद-बुराइ-बदी करनी इन्हींका अन्यायरुप समझकर इन्हासे तदन अलग हो जानेमेही यत्नवान् हुवे. मुख और दुःखक वक्त समभावसे पवित्र नियम युराको अडगतासे धारन करक स्वजनता सार्थक करने लगे. माया-मृपा, पोलन कुछ और करना कुछ उनको तो छौंकारे हुवे शहर के समान गिनकर तजवीजसे परिहरने लगे. और मिथ्यात्वको तो परमशल्य, परमरोग तथा परम विपके समान जानकर उनका स्पर्श भी नहीं करतेथे. जैसी वहुतही कल्याणकारक उमदा नीतिका अवलंबकरे सुश्रावक वर्ग भवतता हुवा. और सुसाधु वर्ग तो महावत रुप महान प्रतिज्ञाओंकों सद्विवेकस ग्रहण करके सिंहकिशोरकी तरह बहादुरसेिं पालन कर सर्वज्ञ पुत्रका उत्तम विरुद सार्थक करते हुवे सफरी जहाज भुवाफिक यह संसारसमुद्रका सरलतासें आप खुद तिनतेथे और अपने आश्रितोंकोंभी यानि साधु श्रावकाको भी मुख पूर्वक तिरासकते थे. और परोपकारका अपना पवित्र स्वार्थरूपही गिनते थे. असी परम उदार सर्वज्ञ नीतिका सम्यक् सेवन करते हुवे साधु, साध्वी, श्रावक, श्राविकारुप जंगमतीर्थ अपने समागममै आते हुवे भव्यजीवोंको सदुपदेश जलसें सिंचन कर-पाचन करके श्री Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनशासनकी शोभा-महात्म्य बढाकर शासन-प्रभावनारूप परम लाभका पातेथे. यह तमाम प्रभाव धर्मचक्रवर्ती श्री जिनेश्वर देव___ काही गिना जाता है. क्रमशः वीर परमात्मा भूमिपर प्रतिबंध-हर कत विगर विचर कर, अनंत भव्यसत्योंका उद्धार कर, आपके वाकी रहे हवे अघाती कमाका क्षय करके पंचमी गति मोक्षमै सि. धार गये और अक्षय, अनंत, अन्याबाप, अपुनर्भव, शिवसंपत्तिके स्वामी हुवे. परमसिद्ध निरंजन हो लोकाय स्थिति भजकर परम निवृत्ति सुख पाए, इसका नाम निर्वाण-कल्याणक कहाता है. जब चरम तीर्थकर श्री महावीरस्वामी निर्वाण पास हुवे तब देवेद्रादिकोंका आसन चलित होनेसें निर्वाण ज्ञात होतेही शोक सहित निर्वाण स्थल आकर अपना अपना रचित कृत्य कर कर, भाव उचोत भगवंतका विरह होनेसे द्रव्य उद्योत किया यानि दीपालिका प्रकट की. उसी दिन उसी सववसे लोगोंमै भी सब जगह मंगलकर दीवाली पर्व जाहिर हुवा. परमात्माश्रीने अंतमै सोलह प्रहरकी भव्यप्राणीओंकों अखंड देशना दीथी, जिसमे पुण्य पाप ‘फल विपाकका स्वरूप प्रतिपादन किया था. दूसरेभी विगर पूछे अनेक अध्ययन कहकर, जन्म मरणके कुल्ल बंधनोंको छोड प्रभु सवत्कृिष्ट मोक्षसुख पाए. वैसे उत्तम सुख प्राप्त होनेके वास्ते उत्कृष्ट भावसें जो भव्य प्राणी दीवाली पर्वके दिन छह अहमादिक तप कर विधवत् श्रीवीरप्रभुका ध्यान घरते है वै भी परिणाम विशुद्धिसें । Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भवदुःखका अंत लाकर श्री गौतमरवामीजीकी तरह -निर्मल अध्यवसाय योगसे शुकल ध्यानका महान् लाभ प्राप्तकर, समस्त घाती काँको क्षयकर केवलज्ञान पाकर, परम महोदय-मोक्षपदका स्वामी होते हैं. श्रीगौतमस्वामीजीके पवित्र दृष्टांतसेही सिद्ध होता है कि प्राणी मात्रको अंतमै अपना कल्याण साधनेके वास्ते सद्विवेक धारन किये विग छुटकाही नहीं है. जो भव्यसत्व जन-सामग्री. विद्यमान होने पर सद्विवेक धारन करके उसका लाभ लेता है उन__ का तो जन्मही सफल है; किन्तु जो मोहसित मूढ मनुष्य जैसी __मुश्केलीस मिलनेवाली सामग्री प्राप्त होने परभी उनको निकम, • गुमाते हैं वै पामर प्राणाओंकों पीछेसें अवश्य पिस्ताना पडता है. असा समझकर शाहाने मनुष्यों ने सद्विवेक सजनेके वास्ते और अविवेक तननेके वास्ते जितना वन सकै उतना प्रयत्न करनाही, उपयुक्त है. तिराग परमात्मा श्री वीरप्रसके अपन सब सेवक कहे जाते है तो भी अपन परम उपकारी पिता समान श्रीमहावीर स्वामी भमुजीकी पवित्र आज्ञा-मर्यादा उल्लंघन कर स्वच्छंदपनेस. अपनी मोज मुजव अच्छे मार्गको छोडकर उन्मार्ग भनें वो क्य अपनी थोडी शरम पेदा करनेवाला प्रकार है ? अपने सगे भाइसभी आले दर्जके अधिक प्रेमपात्र अपने साधर्मीभाइयोके साथ भेदभाव यानि जुदाइ रखकर कुसंप करै वो भी कम. राजा पद है ? अपन साधौभाइयों के साथकी श्री सर्व Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कथित साधीवात्सल्यताकी उत्तम नीति रीतिको छोड अपनी मरजी मुजब संत साधुजन धिःकार के निकाल देखें. वैसी वेगभरी नीति ग्रहण कर मदोन्मत्ततासें हितवचनरुप अंकुशकोंभी हिसावमै न गिनै वो कैसा निंदापात्र और दुःखजनक गिना जावै ? न्य और भावसें दुःखपाते हुवे साधर्मी भाइयों को अपनी शक्ति के अनुसार मदद देनेकी अपनी पवित्र फर्ज विसर कर, उनके हृदय भेदक दुःखोंके हामने गमगाकर देखाही करै, और दूसरे यश कीर्तिकी खातिर अनेक लखलूट-उडाउ खर्चकी अंदर पैसेका गैर उपयोग कर उपर बतलाये हुवे दुःखग्रसित साधीयोंकी संगीन आश्रयमै भाग लेनेकी सच्ची तक के वक्त निर्माल्य वहाने निकाल उलटा मुँह फिरा लेवै वो कैसा और कितनी लजा पैदा करनेवाली तथा हँसने योग्य वार्ता है ? वडेखा कहलवाकर औरत, बाग-बगीचे और वगी-फैटिनमै बेसुमार पैसा पवाद करनेसे नहीं डरता है; लेकिन अच्छे धर्मक्षेत्रकी अंदर शुभ परिणामसें निः स्वार्थके साथ सद्र प्यका सदुपयोग करनेमै संकुचित मन करनेवाले विवेक विकल जनोंकों किस वस्तुकी उपमा दे वो भी शोचने जैसा है ! अलवत परभवका साधन करनेमै पीछे हठनेवाले जन किसी शुभ-अच्छी उपमाके लायक तो हो सकते ही नहीं. इनसे भी ज्यादे शोक करनेकी खातिर अपने सर्वख धनको भी या होम करनेको तैयार होते है. जैसे स्वच्छंदी जनोंका अस्तित्व जगत्मे केवल भारभूत ही माना जाता है. मिली हुइ दौलत जव अंतमे असे विवेक विक Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोको त्याग करके चली जाती है, तब वै अज्ञजन आंख मसल कर रोतेही रहते हैं, और स्वच्छंदपनेसें चलनेके प्रायश्चित मुचाफिक पश्चात्ताप करनेकी अंदर बाकी मै रहा हुचा आयुप पूर्ण कर यमराजाके महेभान होते हैं. तथा स्वच्छंदपन के सच्चे फलकी परीक्षा तो वहां ही होती है, और बुद्धिवल पाने परभी उसका सदुपयोगके बदलेमै गैर उपयोग करै उसिके वेसे ही बेहाल होते हैं. वास्ते तत्त्वातत्व विचार करिक अतत्व छोडकर तत्त्व ग्रहण करना यही अकलमंद पुरुषोंका कर्तव्य-जीवनसार्थक है; तो भी किननेक जन अनेक कुतर्क, छल प्रपंचकी रचना करके भोलेभाले जीवोंकों वागजालमै या मोहमालमै फँसाकर अपने और दूसरेको अनर्थ प्राप्ति कराते हुये अनेक दुराचारीजनोंकों अपन प्रत्यक्ष अपनी आंखोसे ही देखते हैं. असे अनाचार या दुराचारकों सेवन करनेवालोंकी बुद्धि ही उन्हीके और दूसरोंके द्रव्य और भाव प्राण हरनेके लिये जबरदस्त शस्त्र रूप ही होती है. वैसी नीच बुद्धि धारन करनेसे अपने आपकों और दूसरोंकों भी अनेकशः अघोगतिका ही कारण वनता है; तदपि दुर्जन अपना स्वभाव नहीं छोड देते है वो.प्रत्यक्ष हानिकारक ही है. जैसा समझकर सज्जन अपनी मुबुद्धिका बन सकै नहां तक सदुपयोग करनेकी तक हाथसे कभी नहीं गुमाते है. शुभ आशयवाले सज्जन दुर्जनोंकी तरह कषी भी निर्दय परिणामी हो कर जीवहिंसा नही करते हैं, असत्य नही पोलते हैं, पराये द्रव्यको हर Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेनेका इरादा ही नहीं रखते है, पराइ स्वीकी तर्फ निगाह भी नहीं डालते है और पुद्गल द्रव्यमें महा मुी भी धारने नहीं करते हैं. सर्वज्ञ पुरुषोंकी या सर्वज्ञ पुत्रोंकी हितशिक्षा पाकर परभवसे डरकर पापको परिहार करते हैं.ोध-मान-माया-लोभ इन रूपी चांडाल भंडलीका संग करना भी नहीं चाहते हैं. क्रोध कपायके तापकों चंदनसे भी ज्यादे शीतल समतारससे शांत करते हैं. जातिमद, कुलमद, बलमद, तपमद, बुद्धिमद, रूपमद, लाभमद और अश्वर्थमद-इन रुप आठ उंचे शिखर युक्त मानरुपी दुर्धर पहाडको मृदुतारुप वनसें तोड डालते है. मायारूपी नागिनीके झहरको ऋजुतारु५ जनागुली मंत्रके योगसे दूरकर देते हैं, और लोभरुपी अगाध दरिया-' कों संतोष अगस्त्यकी सत्सहायतासे शोषन करलेते हैं. राग और द्वेषकों कहे दुस्मन समझकर उनका विश्वास नहीं करते हैं मतलब कि संसारके क्षणिक पदार्थोपर राग या द्वेष नही करते हैं. कलहको अपने और परायेके कलेशका कारण जानकर बिल्कुल त्याग करते हैं. दूसरेके शिरपर झूठा कलंक चहाना, रहस्य भेद करना (चुगली करना) और परनिंदा करने का स्वभाव उन्होंका कर्मचांडाल जैसे समझकर तदन त्याग देते हैं. सुख किंवा दुःखकी सामग्री के वक्त समभाव रखकर हर्षविपाद नहीं करते हैं. माया-कपर और झूठकों; अगर कहना कुछ और करना कुछ-इन्होंको हालाहल विष जैसे जानते है, और मिथ्यात्वको समस्त पापका ही मूल गिनकर उसका जरासा भी संग नही करते है. इस तरह स-, Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल पापनिति पूर्वक धर्म धारन करनेसे सजान अपना जन्म सफल करते हैं. पापकर्म मै सच्ची लगनी लगानेसे पैदाहुइ दुष्ट वासना बंध हुवे विगर जैसी उत्तम-शुद्ध-उदात्त भावना पैदाही नहीं होती हैं. सज्जनाका स्वभाव हंस समान है और दुर्जनोंका स्वभाव सू. अरकी समान है. साधु, साध्वी, श्रावक, श्राविका-यह चारों सवज्ञ प्रभु श्री वीर परमात्माके सेवक होनेसें वै परोपकारी परमात्माकी मजारुप गिनाये जाते हैं. अलवत, परमात्माकी पवित्र आज्ञा मुजब चलनेके कामी सुसाधु और प्रभुजीके वृद्ध-बडे पुत्र कहे जाते हैं, आर्या चंदनवाला, भृगावती वगैरः महासतीयोंकी तरह परम विनय भाव पूर्वक पवित्र महाबत पालनमै तत्पर सुसाध्वी समूह प्रभुजीकी बडी पुत्री, और सुलसादिककी तरह सुश्रद्धा धारिणी श्राविकाए प्रभुजीकी छोटी पुत्री गिनी जाती है. इसपरसें एकही परमात्माकी पवित्र आज्ञाको पालनेवाले चतुर्विध संघ के बीच एक दूसरेका कैसा गाढ सम्बन्ध रहा है वो स्पष्ट मालूम हो आता है. सांसारिक संबंधसें भी ये धर्म संबंध कितना पवित्र और ज्यादे किगती है ? वो लक्षमै लेने लायक है. संसारचक्रकी अंदर कर्म के वश्य हो जानेसें भ्रमण करने के पक्तमै माता-पिता-पुत्र स्त्री वगैरः का संबंध मिलना जैसा सरल है वैसा उपर कहा गया धर्मसंबंध-मिलाप मुलभ नहीं है, लेकिन वडा दुर्लभ है; तदपि कोइ कोइ सुलभबोधी भाग्यवंत भव्यजन भवाटवी के बीच अतिदुर्लभ धर्म पाकर अपने साधीभाइ और भगिनीथोकी तर्फ सचा पात्सल्य भाव रखते है उन्हीकों ही धन्यवाद है. Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वही धर्मज्ञ स्ववीभाइ और भगिनीओं के गुनरत्नोकी उमदा. किम्मत कर सकते हैं. पीडापाते हुवे साधर्मीओं के मुख निमित्त सच्ची अंतरराष्टत्ति उन्ही के ही दिलमै रमन करती है, अपने साधायों के दुःख देखकर वैसे भाग्यवंतीकों ही कंप छूटता है, यथाशक्ति तनमन-वचनसे स्वार्थकी आहूती देकर स्वधर्मीओंकी सची सेवा भी वैसे ही भाग्यभाजन वजाते हैं, और वैमेही धर्मात्मा उत्तम प्रकारकी धर्म बावतकी तालीम देकर उनकों धर्म के सन्मुख, और व्यवहारिक कार्यकी भी तालीम देकर उनका व्यवहार कुशल करते हैं, जिस वै इस लोक और परलोकमै मुखी होते हैं. सच्चा साधमर्मीक संबंध समझमे आये विगर ऐसी परोपकारीत्त क्यों कर जाग्रत हो सकै ? ऐसे अच्छे आशयवाले सज्जन क्या कवी भी अपने धर्म वान्धवोंसे भेद भाव रखें ? कभी नहीं ! क्या उन्होंका अतुल दुःख देखकर निःशंकतासे मोज मुजव मजाह उडा' किंवा अपने और परायके श्रेयका अति उत्तम मार्ग छोडकर झूठे मानभरतवेकी लखर्टमै उपस्थित हो जावै ? अरे ! स्वपर के उद्धारका श्रेष्ठ मार्गसमझ सुज्ञ कुलीनजन कवी भी अनर्थकारी मार्ग अंगीकार कर ही नहीं ! वैसे शाहाने सुजन अच्छी तरहसे समझते है किज्ञानी पुरुष अपने स्वार्थ विगरही मित्र-बंधु है, वैसे महात्मा तो फरा परमार्थ के दावेसे ही अपनको हितमार्ग बतलाते हैं; तो वैसे महाशय पुरुषोंकी हितशिक्षाओंका अनादर करके स्वच्छंदत्ती भज लैनी ये केवल उगादरूप दीवानपना ही है, अमृतकी बोतल ढोल देकर उसमै विष भर लेने जैसी बात है, सुन्ने के थालमै धूल Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरने के जैसा प्रकार है, चिन्तामणिरत्नको कव्ये उडाने के वास्ते फेंक देना उसीकी वरावर है, कल्पक्षको कुल्हारेस काटकर वहां आकका पेड रोप दे वैसा है, हाथी वेचकर गद्धा खरीदने के जैसा काम हैं. समुद्रपार जाने के समर्थ जहाजको छोडकर पत्थरकी पकडने जैसी मूर्खता है, सूत के धागे के लिये नौसर मुहार तोड डालने जैसा वाहियातपना है, खींटी के खातिर महेल गिरादेने जैसा बेवकूफीका काम है, और एक पाटियेकी खातिर भर समुद्री जहाज भांग डालने के जैसा अहंकपनका कार्य है. जो कुबुद्धिजन स्वच्छंदतासे चलकर सर्वज्ञ कथित सत्य मार्गको लुप्तकर उन्मार्ग ग्रहण करते हैं, वैसे निफट नादान लोग सज्जन समाज के भीतर हंसी के पात्र या निंदा के पात्र होते है. इतना ही नहीं, मगर विषय कपाय के तावे होकर किये हुवे दुष्कृत्यों के योगसे भवातरमै नरक निगोदादि महादुःख के भागी होते हैं। ऐसा समझकर सज्जन परभवसे डरकर स्वच्छंदता छोड सर्वज्ञ कथित सत्य मार्गको ही स्वीकृत करके निर्भयतासें उसीका ही सेवन करते है, तो अंतमै वै महानुभाव दुःख के दरियावसे पार होकर अक्षय मुख संपत्ति स्वाधीन कर सकते हैं. ऐसे अनेकानेक दृष्टांत अपन आगमद्वारा मुनकर अपना सकर्णपना सार्थक करने के वास्ते वैसे महाशयों के चरित्र अमृतका पानकर स्वकर्तव्य समझकर स्वपरका श्रेय साधनहितार्थ सब तरहकी कायरता छोडकर त्रिकरण शुद्धिमें सदुद्यम करना ही लाजिम है. Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૧૩ अपना कर्तव्य क्या है ? अय भव्य सत्व पर्षद् ! यद्यपि परम पूज्य पितारुप श्रीमन्महावीर परमात्मा के पावन कदम दर कदम चलकर अपनको बहुतसे कार्य करनेके है. अपनी बहुतसी न्यूनताओं दूर करनेकी है, वो सब एकदम पुष्टशलंबन - निमित्त कारणोंके सिवाय बन सके औसा न होवै; तोभी श्रीवीर प्रभूकी पवित्र आज्ञाको अक्षरशः अनुसरकर जगजयवंत जिनशासनकी शोभा बढाने वाले वृद्धाचार्य वगैरः महान् पुरुषोंके कदम यथाशक्ति चलकर अपनको अपनी बडी वडी खामियें समझ समझ अवश्य दूर करनी चाहियें. · प्यारे भाइ और भगिनीओं ! पहिले तो अपने सर्वज्ञ वीतराग परमात्मा, अमृत जैसी मधुरी वानीस अपनकों किस वास्ते बोध देते हैं, वही अपनी अंदरका बहुतसा हिस्सा भाग्यसेंही जानता होगा, आप सब जैसा तो जानतेही होगे कि, सम्यक्ज्ञान - जानपने बिगरकी क्रिया अंध गिनी जाती है. तैसेही सम्यक्ज्ञान पूर्वक करनेमें आती हुई उचित क्रिया शुभ फलदायी होती है; तथापि अपन अपने आवश्यक कृत्योंका क्या प्रयोजन है वितना भी जानने जितना श्रम नहि लेवें ये कितना शोचनीय और लज्जास्पद है ?अपनकों अपने इष्टदेव, गुरु, धर्म या साधर्मीभाइ - भगिनीयोंकी भक्ति किसलिये करने की है ? हिंसा, अनृत, अदत्त, अब्रह्म और परिग्रह रुप पंचाश्रवका रोध किस लिये करनेका है ? क्रोधादि चारों विपयका त्याग किस लिये करनेका है ? पांचों इंद्रियें और मनका द - Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मन किस वास्ते करनेका है ? दान, शील, तप, भाव, वैराग्य, और सौजनादि सद्गुणाका सेवन अपनको किस पास्ते करनेका है? इन सब वावतोंके लिये सम्यग् ज्ञान मिलाना कितना जरुरका है ? उन उन धर्म क्रिया संबंधी यथार्थ ज्ञान पूर्वक विवेकी सद्वर्तनसे अपने कितना उमदा फायदा मिला सकेंगे ? अहा ! उन उन पवित्र सर्वज्ञ परमात्मा प्रणीत धर्म क्रिया करनेमें अपनको कितनी भारी लज्झत मिष्टता आयेगी ? व्हो तो खास अनुभव गन्यही होने से उसका वर्णन नहि किया जाता है. पवित्र धर्म संबंधी समस्त सक्रिया करनेका तथा अनादि स्वच्छंदतास करनमें आती हुइ कुल असत् क्रिया छोड देने के लिये मूल हेतु विपय वासना तजकर निकषाय शुद्ध आत्म स्वभाव प्रकट करनेके वास्ते अपने अंतरंग शत्रु राग, द्वेष और मोहादिक महान् दोष दूर करनेका है. अपनकों समझ रखना चाहिये कि, अकेले राग और द्वेष कि जो मोहके पुत्र हैं और अपनी अज्ञानतासें मोहराजाके जोरसे अपनकों भव भव संताप देते रहते है तो भी तत्वसे उन्होंकी मित्रकी तरह सेवना करतेही रहते है. अकेले राग, द्वेषही अखिल जगतके जीवोंकों जेर करने के लिये शक्तिमान् हैं, तो ये दोनु मोह समेत जेर करनेका दोश करै तो फिर कहनाही क्या ? ज्ञानी पुरुष तो इन तीन्होंकों दुश्मनही कहते है. जन्म जन्ममें पवित्र धर्मकी समर्थ सहायता, सिवायके अशरण अनाथ प्राणीयोंको बहुत बहुत तरह संतापने वाले वै तीनूका किंचित् भी विश्वास न Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૧૫ करनेके वास्ते और उन्होंसें सावधान रहने के वास्ते निःस्वार्थ बुद्धि से ज्ञानी पुरुष समझाते है; तदपि मुग्धतासें करके वैसे हितोपदेशकी बेदरकारी-अनादर करके स्वच्छंदतासें अपने उक्त दोषोंकोही पोपन कर उन्हीकी ही पुष्टि करते है ये कैसा अनुचित वर्तन है? अपने अनादिके अंतरंग कट्टे दुश्मनोंका अहर्निश पोपन करनेसें-उन्होंकी आज्ञानुसार चलनसें और उन्हीकाही विश्वास करनेसें अपनको क्यों करके क्षेमका संभव होवै ? अप्रशस्त रागादि दुश्मनोंको दूर करनेके वास्ते श्री जिनेश्वर देवनं सर्वशदर्शित सत्नियामें मीति पूर्वक प्रवर्तनका ___ फरमान किया है; तदपि अपन बहुत करके सत् क्रियाका स्वरूप प्रयोजनादि यथार्थ न समझनेसें सर्वज्ञ सुचित सक्रियाको विषकपुरःसर प्रीति और स्थिरतासें खेद रहित सेवनेके बदले में बहुधा अरुचि-अस्थिरतादि सेवन करतेही रहते हैं ये कैसा वेसमका कार्य है ? श्रीजिने'१९, राग, ३५ और मोह महा मल्लको सर्वथा जेर करनेवाले-जगत् भभूकी प्रसन्नता पूर्वक स्थिरता लाकर पूर्ण भीतिसं पूजार्चना करने वाले पूजक खुद आपही पूज्यपदको पाते हैं. अरे ! पंच अभिगमको समालकर, विवेक पूर्वक विकथा छोडकर, पांचों इंद्रियों का निग्रह कर, पूर्वोक्त रागद्वेषादिरूप पांडाल चतुष्कको तजकर, उत्तम शील संतोष पारनकर विधि सहित प्रभु भक्ति रसिकजन, जो शान रसका पान करके समस्त भवतापको दूर करते हैं, उनका भान, भले भटकनेवाले भोले और शठजनाको कहाँमें होवै ? श्री सद्गुरुकी कथनी और रहनीको पूर्ण प्रकारस Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माद रहित संत-मुसाधु जनाकी पावन परण सेवनामें अभिमुख हो रसिक सुविनीत शिष्यद भ्रमर गणकी तरह जो परिमल-सुवासना लूंदत हैं उनका खियाल भी सदगुरु सेवा विमुख अविनीत शिष्य समूहको कहांसे आये ? श्रीसिद्धांत-सर्वज्ञ वीतराग प्रणीत होनेसें सरिकी सज्जनो द्वारा संपुर्ण श्रद्धासें ग्राय कर और पूर्वापर विरोधके दोष लोग का सर्वसात आगम रहस्य रुप मकरंदका यथे श्रीसद्गुरुकी सम्यक सेवा भक्ति पूर्वक पान करनेवाले मधुकर समान मुनिगण जैसी मिष्टता मिला सकै उनके अनंतचे हिस्से भी क्या अमृतरस आ सके ? कभी नहीं ! तथापि सदभाग्य योग्य प्राप्त हुई सद्बुद्धिद्वारा उक्त अमृतरस चखनेका स्वाद जो पंच प्रमादके तावेदार मंदभागी है वै नहीं पा सकते है और बुद्धिका दुरुपयोग करने तकभी नहीं चुकते है, वैसे मूर्खशेखर जन स्वच्छंदतासें कितना भारी नुकसान उठाते है वो कहीं भी नहीं जाता है. श्रीसर्वज्ञ म णीत सिद्धांतके कथन भुजव अक्षरशः चलन रखने की अपनी अति पवित्र फर्ज भूलकर उलटे पवित्र आगमोंकी आशातना हो वहांतक अपन अज्ञ भाइयें उपेक्षा करते हैं, वो बहुत ही अनुचित है. श्री सर्वज्ञ भाषित सिद्धांत निष्पक्षपातसें जगत मात्रको हितकारी होने के लिये उन्होंका बहुत मान समालना-उन्हीका संरक्षण करना वो अपनी मुख्य फर्ज अपने लक्ष लेनी ही योग्य है. श्रीसंघ-श्री सर्वज्ञ प्रभूकी पवित्र आता मुजब वर्त्तने वाले Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७ भुसाधु, साध्वी, श्रावक और श्राविकानें जंगम तीर्थरुप गिने जाते है. श्री तीर्थकर प्रभु खुदभी उक्त गुणाकर संघका उचित आदर करते है तो अन्य सामान्य माणियोंको उक्त गुण सागर श्रीसंधकी तर्फ कितने सन्मानकी दृष्टि से देखना उचित है, उनका सम्यक विचार करना उपयुर है, साधर्मीभाइ और भगिनीओ परम पूज्य पिता स्थानीय श्रीवीर परमात्माकी पवित्र संतती पुत्र पुत्रीपणेका हक पराते है, तो उन सभीकों एक दूसरेके साथ कैसी सभ्यता रखना तथा सुशीलता सहित सुसंपधारी गुण ग्राहक बुद्धिद्वारा शासनकी शोभा बढ़ाना चाहिये ? असी अगत्यकी वात तर्फ दुर्लक्ष पतला कर मरजी मुजब चलकर दुम्बकी अंदरसेंभी जंतु दूदने जैसा अति अनुचित वर्तन रखना ये कितनी शरम पैदा करने वाला भकार गिना जावे ? श्री सर्वज्ञ भगवान्का, निग्रंथ अणगार मुमुक्षु जनोंका, श्रीसिद्धांतका या चतुर्विध संघका फरमान तरवसे एक समानही होना चाहिय; क्यों कि उन सभीमें मोक्ष साधनरुप महान् हेतु समानही रहा हुवा है. नीति-न्याय या प्रमाणिकपणे के उत्तम कानून् सुजव चलनेके पदलेमै श्री सर्वज्ञ प्रभुकी गिनी जाती मजा अनीति-अन्याय या अप्रमाणिकपणेसें चलै ये कितना भारी शरमाने जैसा प्रकार है ? सर्वत्र सुखदायी सन्मार्गको छोडकर उन्मार्ग ग्रहण करना सो कैसे भयंकर दुःखकों पोषन करनेहारा होवै ? दश दृष्टांतसे दुर्लभ मनुष्य जन्म पाकर चिंतामणि समान सर्वज्ञ भापित धर्मकों सम्यम् सेवन करना छोड Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૧૮ ___ कर बिलकुल कट्टे दुश्मन या हालाहल विष समान विषय कपाय और विकथादि महान् प्रमादोंको पोपन करना वो कैसे कंटुफलोंकों देनमें समर्थ होगा ? पो बात जरा गौरसे शाहाने मनुष्यको शोचनी लायक है. समस्त पुन्यकी गठडी गुमाकर रीते हाथोंसे इस दुनियाँको छोड़कर चलाजाना ये कैसी और कितनी अधमता है ? गुणानुरागी मध्यस्थ सज्जन तो जैसी बेढंग भरी रीति स्वीकृत करें या अनुमोदें भी नहीं. वै तो श्री जिनराजजी के हुकमको अंतरंगसे अनुसरने पालेकोही सवत गिनते हैं, उन्हीके उप राग-प्रीतिभी धारन करते हैं. उन्हीकाही विशेष करके हित करनेकी प्रेरणा प्रेरित होते हैं. यावत् पूर्व पुण्यके योगस प्राप्त हुइ यह दुर्लभ साम‘ग्रीको सफल करनेके वास्ते यथाशति श्री जिनाज्ञाको अनुसरने के लिये लक्षवंत सज्जनोंकी तर्फ प्रीति वा संपूर्ण ममता रखते है. वैसे साधर्मी जन तर्फ पूर्ण प्रेमयाभक्ति भाव वैसे महाशयही रखते है. उनको अपने प्राणप्रीय मित्र या पान्धवके समान गिनते है. यावत से सलवंत विवेकी सज्जनोंकी खातिरके पस्त अपना सभी तन गन-धन-जीवन अर्पण कर देते हैं. प्रिय भ्राता और भगिनीओं ! आप सब शोच करोकि जिस धर्मकी खातिर सज्जन लोग इतनी बड़ी भारी खंत रखते हैं, स्वार्थकी आहूती देनेमें. कटिबद ' रहते है, यावत् अपने प्राणों की भी परवाह न रखते क्षण भरमें मरनेकों आतुर हो जाते हैं, उस पवित्र धर्मके गहरे रहस्य मा करने के વાસ્તે ગૌર વતી મુનવ ને સ્વનન્મ સહ મને વા વિ Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ की जनोंको किननो प्रयत्नशील रहना उचित है ? संबोध सित्तरी ग्रंथमें कहा है कि:-' आणा जुत्तो संवो सेसो पुण अधिसंघाओयानि जो परम श्री जिनराजदेवकी आज्ञा मुजप चलते हैं पैसे साधु, साध्वी, श्रावक और श्राविकाओका श्री संघमें समावेश होता है, और उससे विरुद्ध चलनेवाले-रवच्छंदी लोक तो केवल हड्डी, मांस, मेद, रुधिर वगैरः के पुतलेरुप मतलव विगर के हैं. पैसे असार सत्वहीन जनाका श्री संयम समावेश नहीं हो सकता है, ऐसा समझकर विवेकी मनुष्योंकी अपनी अपनी साधु, साध्वी, श्रावक या श्राविकारुपकी उत्तम फर्ज मुजब काम बजाकर अपना नाम सार्थक करने के और जैन शासन दीपाने के वास्ते प्रयत्न करना चाहिय; क्यो कि ऐसे सार्थक नामधारी चतुर्विध संघस ही जैन शासनकी शोभा है. ऐसा गुण समुद्र श्री संघ जगत् मान्य होता है. वो जगमतीर्थरुप होनेसें समागममें आनेवाले भव्य जीवोंको पावन करते है. जिन के पूर्ण भाग्य होवै उन्हीको ऐसे पवित्र तीर्थरु५ श्री संघका दर्शन, पंदन, पूजन, वगैर: होता है. श्री संघ गुणरुपी रत्नास भरा हुवा रत्नाकर-समुद्र है; वास्ते गुणानुरागी सजनोंको अवश्य आदरणीय और पूजनीय है. श्री संधी सम्यग् सेवनास अनेक भन्यजन यह भीष्म भवोदधिको तिरकर सब दुःखीका अंत कर अक्षय सुख पाये हैं. हिंसा, झूठ, चोरी, मैथुन, और परिग्रहरु५ पंच महान् आश्रय यानि कर्मको दाखिल होनेके दरवाजे खुले ही होनेसे आत्मा बहुत ही मलीन होता है, Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और नै आश्रयद्वार बंध करके अहिंसा सलादि संबर के सम्या सेवनस आत्मा निर्मल होता है; तथापि कुत्ते, काग और सूकर के जैसे बुरे स्वभाववाले दुर्जन हिंसादि कुकर्ममें ही मशगुल् हो रहते हैं. और हंस के जैसे शुद्ध स्वभाव संपन्न सज्जन तो हिंसादि कुकमीका त्याग कर विवेक पूर्वक शुद्ध दया, सत्य, संतोपादि संवरका ही सेवन करनेमें आनंद मानकर उन्ही के ही अभिमुख रहते है. दुर्जन दूसरे जीवोंकी पापाचरणसं महान् त्रास पैदा करके अंतमें उनके कट फलके भागी होते हैं, उनको नरकादिकी घोर वेदना सहन करनी पड़ती है. यावत् स्वच्छंदतासें चल कर किये हुवे कुकर्म योगसे दुःख दावानलसें परिपक्क होनेवाले वो पामरोंका कोइ भी बचाव नहीं कर सकता है. अनाथ अशरण विचारोंओंकों वो सभी सहन करना ही पड़ता है. स्वाधीनतासें करके ऐसे कुकर्म न किये होते तो पराधीनतासें इतना क्यौ सहन करना पडता ? इतना ही नहीं, मगर शुभमति योगसे दया, सत्य, संतोपादि संवरको आदरकर आत्माको निर्मलकर परम सुख प्राप्त करता ! परंतु विष के बीजसें अमृतफलकी आशा क्यों करके रखी जावै ? निष्टुर दिलसें ऐसे कुकर्म करनेवालाको अनेक र नरकादि के घोर दुःख भुक्तने ही पडते हैं. ऐसा समझकर सर्वज्ञ परमात्माकी पवित्र आज्ञानुसार दया, सत्य, संतोषादि सद्गुण धारन करनेमें विवेकीजन प्रयाशील रहते है, और उन्होंको अपने प्राणकी तरह प्रिय गिनकर सर्वथा कुकर्मोंका त्याग करते हैं. ऐसे हमेशा विवेक Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૧. स जिनाज्ञानुसार चलनेवाले सज्जनोंको तीन जगत्में किसीका भी डर नहीं है, कोई भी उन्होंका बाल भी पांका करनेमें समर्थ नहीं है. विवेकसे पाणी मात्रको अभयदान देनेवालाको कुल जगह अभय मिलाता है, यह बात निर्विवादसे ही सिद्ध है. मरने के समान दूसरा कोई दुःख या भय है ही नहीं. अपनका जो जो अनिष्ट है वा वा दुःख वा भय दूसरों को देनेके समान कोइ भी पाप नहीं है। सब जीवोंको अपने जान के समान गिनकर, किसीका भी अनिष्ट न करत जो उन्होंकी साथ परम मैत्री भाव धारन करते हैं उन्हीका ही जीवा सफल है, दूसरोंका नहीं ! ऐसा समझ शाहानपतवाले सजनोंको मैत्री भावका फैलाव कर व परको शांति-समाधि पैदा करनेकी दरकार रखनी दुरस्त है; क्यों कि वोही समस्त सुखका साधन है. - क्रोध-गुस्सा, मान-मगरूरी, माया-दगा-कपट, और लोभ-लालच इन कपायोंका पूरापूरा रूप - शोचकर इन चांडाल चतुकका सर्वथा त्याग करने के वास्ते सज्जन तत्पर होते हैं. कोधाग्नि, क्षण भरमें की हुइ मुकृत करनीकों जला देता है. मानरू५ पर्वत पर चडे हुवे प्राणी नीचे ही गिरते है-लघुता पाते हैं. माया शल्यता-दगाखोरी प्राणीको अनेक जन्म तक हैरान करती है. और लोभ पिशाच प्राणीको प्राणांत कष्टमें डालता है. ऐसा समझकर सुज्ञ विवेकी जन समता जलसं क्रोधाग्निकों बुझाने के पास्ते, मृदुत्वरूप वनसे मान पहाडका चरा करनेके वास्त, सरलता Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रूप सद् औषधासें माया शल्यको निर्मुल करने वास्त, और संतोष मंत्रस लोभ पिशाचको तावेदार बनानेके वास्ते शक्तिमान् होते है, यह बात अनुभव सिद्ध है. चारों प्रकारके कपाय प्राणी मात्रको चार गतिरुप संसारमें अनेक दफें भ्रमण करवाते हैं। वास्ते सद्विवेकी सज्जनोंको अवश्य उन्हांका परित्याग करनेकी ही जरुरत है. पांचों इंद्रिय और मन दरेक तोफानी घोडेकी वरावर है, तो भी श्रीजिनेश्वरजीके वचनरुप लगाममें विवेकजिन उ. न्होंको तावे कर सकते है. जो अज्ञ, अविवेकी लोग मन और इंद्रियोंके चाकर नफर बनकर चलते है उन्हीके बुरे हाल हेवाल होते हैं. हरएक इंद्रियजन्य कामना-इच्छाके तावे रहनेसे पतंग, भौरा, मच्छी, हाथी और हिरनकी तरह बुरे हालको भेटता है. तब जो पांचोंकी लालच-लोलुपता २५ फंदमें फँस गये हैं वै प्राणियों के कैसे बुरे हाल हो उसका कहनाही क्या ? दुर्जनसे. भी वो ज्यादे __ छोडने लायक है; क्यो कि दुर्जन एक जन्म ही दुःख देता है, और ये तो जन्म जन्म दुःख देनेवाली होती है. मन तो मदमस्त हाथीकी तरह निरंकुश होकर गुणवंतको दुःख फंदेमें फंसा देता है. वास्ते श्रीजिनेश्वर प्रभुके हुकमरु५ अंकुशसे करके उनको तावे कर लेनाही दुरस्त है-इंद्रिय जन्य स्थूल क्षणिक विषयोंमे स्वच्छंद हो. कर भटकनेवाले मनकों कजकर इंद्रियोंकों भी कब्ज कर ले. इंद्रिय जन्य सुखमें आशक्त जनोका मन ही वक्र होनेसे Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૩ तदनुसार इंद्रियों की प्रेरणा होती है। वास्ते मनकों ही इष्ट विपयादिमें रमन करते हुवेको भयत्नसें रोक लेनेसें इंद्रियें सहजहीमें रुक सकती हैं. मोह मदिरासें मस्त हुवेला मनमर्कट मोजमें और स्यौं विविध विषयों में खेलता दता-भटकता अपने स्वामी-मालिकको संतापता है वही मनमर्कटको सदुपयोगद्वारा समझाकर खराव मार्गमें घूमते हुवे मनको सुमार्गमें ला सकते है. सुशिक्षित हुवा मन पीछे विषं जैसे विषय रसमें मशगुल नही होता है. वो तो ज्ञान ध्यानका मीठी लाज्जत लेनेमें लालघु पनता है. श्री सर्वज्ञ प्रभुजीका दर्शन उन्को बहुत ही प्यारा लगता है. प्रभुजीकी पवित्र पाणी उनका अमृत जैसी मीठी लगती है. शुद्ध देव, गुरु, और धर्म या साधर्मी भाइयोंकी भक्ति करनी उनको बडी रुचिकर लगती है: सद्गुणी संत सुसाधुजनोंकी स्तुति करनी, सदगुणोंकी अनुमोदना करनी उनको बहुत पसंद आती है. सहज सुवास पानेके लिये सहज यत्नवंत होता है. सहज स्वभाव साध्य करनेमें मन अनुकूल हो रहता है. ये सव सत्य-निर्दभ सर्वज्ञके उपदेशका ही महीमा है; विभावमें वर्तन रखनेसे मन और इंद्रियोंका वो निग्रह करता है; मन और इंद्रियें वश्य होजानेसे अंतरात्माका जय और मोहका पराजय होता है, जिसे आत्मा अंतिम मुखका मालिक होता है. सच्चा शुरवीर और सच्चा पंडित वो ही कहाजावै कि जो क्षणिक विषय रसमें मोहवत न होते अक्षय, अनंत, अव्यायाध, अति दी०५ मुख स्वाधीन करने में और उनका साक्षात् संपूर्ण कब्जा करनेमें तत्पर रहता है. Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૪. दान-अभयदान-सुपात्रदान-अनुकंपादिदान अच्छे विवेकस जो देते-दिया करते है, और पात्र परीक्षा पूर्वक जो सम्यम् ज्ञानादिका दान देते हैं, वै शुभ आशय वाले सजेन चपल लक्ष्मीका सदुपयोग कर परमार्थ साधते हैं. और लक्ष्मीकी बाहुल्यता होने पर भी जो लोग सर्वज्ञ देशित समक्षेत्राम या खास करके दुःख ग्रस्त क्षेत्रमें कृपण वृत्तिसें नहीं बोते हैं यानि नहीं खचते हैं वै इस जहाँमें जनसमूह समक्ष अपवादका पात्र होकर मर गये बाद मू से बुरी गति पाते है. शील-सदाचारसेंही प्राणी तत्वसे शोभा पाता है, शील येही मनुष्योंका सच्चा शृंगार है; शील-सुगंधसे सुगंधित हुले कमल तर्फ सुगंधी लेने के वास्ते विवेकी भौरे जाते है और शील सुगंधी रहित खुवसूरतत मनुष्य आवलके निर्गध पुष्प जैसे निकले हैं. फांकडे होकर फिरते रहते भी अपमान पाते है, और सुशील सजन राज सभामें भी सन्मान पाते हैं, देव भी उनको सहायता देते हैं, उनकीही जंगलमें मंगल होता है. औसा आपत्य महीमा शील गुणका ध्यानमें लेकर सुज्ञजनोंकों वो गुण अवश्य ग्रहण करनेकही लायक है. ___ तप-वाह्य और आभ्यंतर भेद करके दो प्रकारका है. जो कर्म मलको तपाकर जल जलाकर खाक करदेवै, यावत् आत्माको निमेल कर सकता है उसीका नाम तप है. सभ्यम् ज्ञानसें स्वस्वरुप ध्यानमें ले हंसकी तरह विवेकसें सद्वर्तन सेवन कर अनादि कर्म Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૫ मल दूरकर आत्म विशुद्धि हो सकती है; वास्ते सम्यम् ज्ञानको ज्ञानी पुरुष तप रुपही कहते हैं. आत्माको निर्मल करनेके पवित्र लक्षसे करनेमें आता हुवा कोई भी त५ महान् लाभ दायक होता है. और तुच्छ फलकी इच्छा-आशास करनेमें आता हुवा त५ फरत थोडासो फलकाही देता है. समता पूर्वक सेवनमें आता हुवा नपसे जन जनाके ताप-पाप-संताप दूर हो जाते हैं; और परम शांति प्रकटती है. उपवासादि पाह्य तप समझकर विवेक सहित सेवन करने वालोंकी जरुर अंतर शुद्धि करता है-रोग वगैरका दूर हटाता है, और अनेक शक्ति-सिद्धियोंको प्रकट करता है, थापत् उपद्रवीकी शांतिकर समाधि देता है. जैसा उत्तम तप शास्वत सुखका अभिलापि कौनसा मुमुक्षु अंगिकार किये बिना रहेगा ? भावना मैत्री, मुदिता, करुणा और माध्यस्थादि जागोजमकी पीडा-विटंबनायें दूर करनेकों समर्थ है. जहां तक प्राणीको कुल माजीओंके साथ मैत्री भाव नहीं आया है, यहां तक चक्रवर्ती भी कयौं न हो ? तो भी तत्वसें दुःखी ही है; क्यौ कि उनका चित्त पैर रूप अग्नि करके प्रदीप्त रहता है और उनका रुधिर जलता है. जहां तक सद्गुणीकी सोवत कर प्रमोद पूर्वक सद्गुण ग्रहण करनेकी सन्मति जागृत न होवै, वहां तक अमूल्य आत्म संपत्ति प्राप्त करनेका अपूर्व मार्ग नहि मिलता है; कयौं कि सद्गुण सेवनकी तर्फ आदरही नहीं हुवा है. जहां तक दीन दुःखीका दुःख देखकर दिलमें दया-करुणा बुद्धि जान नहीं हो, वहांनक दिलकी कठो Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रता दूर नहीं होती है. और कोमलता, आर्द्रता, सरलता, तथा समतादि सद्गुण श्रेणि प्रकट नहीं होती है. अंतमें जहां तक नीच, अन्यायी, पापी, निर्दयकी तर्फ उपेक्षा बुद्धि-राग द्वेष रहित मध्यस्थता नहीं आये, यहां तक निष्पक्षपात सर्वज्ञ शासनक रहस्यभूत सापेक्ष-दया धर्मका सेवन नहि होवै. अपर कही गई चारों भावना ये परम पवित्र सर्वज्ञ शासनकी गहरी नीव है, उसीसें पावन भावना विगरका धर्म केवल आडंबर या दंभ-कपट रुपही है. असी उत्तम भावनायें सहित की हुई या करनेमें आती हुई धर्म करणी दूध मीसरीके . मिलाप समान बहुत मुजेहदार स्वाददेती है, उसीके शिवायकी कुल धर्म करणी फीकी रूखी लगती है. वैसी उत्तम भावनावंत भव्य कदाचित् किसी सबसे क्रियानुष्ठान करनेमें अश हो तो भी चित्तकी अतिशय शुद्धि-प्रसनतासे बड़ा भारी फायदा पैदा कर सकता है. और उक्त सद्भावना रहित प्राणी क्रियाका गर्व करके दुःखी भी होता है. वैराग्य ये औसी तो अपूर्व और चित्ताकर्षक चीज है के चक्रवर्ती जैसे भी ६ खंडकी ऋद्धि भोजूद होने परभी उसकों छोडकर योग-दीक्षा ले उनका शरण ग्रहण करते हैं. दुनियांकी सभी चीजोंमें भय रहा ही है, लेकिन वैराग्यमें भय नहीं है-पो अभय है. उसी पास्ते सच्चे सुखके अर्थिजन उन्हीकाही आश्रय लेनेका स्वीकारते है. विषयाश .. जीव जब पवनकी लहरी) ले नेकों जाता है, तब विवेकी मुमुक्षुजन सभी दुःखोंको दलन करने- वाले वैराग्य लहरीओंकाही सेवन करता है-इतनाही नहीं; मगर Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्य आत्मार्थी जनोंको भी जैसा ही उपदेश देते हैं कि: "दाले दाह तृषा हरे, गाले ममता पंक .. लहरी भाव वैराग्य की, ताको भजो निशंक." । विषय विस हो सब संसार बंधनोंको तोडकर सहज मुक्ति सुख प्राप्त करनेके वास्ते योग सेवनेके लिये उत्साहवंत भये हुए भन्यको ज्यौ ज्यो पैराग्य की पुष्टि होती है, त्यो त्यौं सहज संतोष गुणसे सहज सुखकी वृद्धि होती है. यावत् विषयवासनाके क्षयसे, संपुर्ण दुःखों का क्षय होता है, और वोही अजर, अमर, अक्षय, अव्यापाथ, मोक्षपद है. - सौजन्य-सज्जन स्वभाव सुलभ नहि है. जब दुर्जनता-दुर्जन ५५भाव दूर किया जावै, जब निर्दयता, निर्विवेकता, अनीति, आचरण, असत्य भाषण, परनिंदादि पाप, रति और दूध कषायादि दूर जावै, तब सोजन्यता प्राप्त करनेको लायक वो प्राणी होता हैं. चाहे पैसे प्रसंगमें दूसरेके दूषण नहीं कहव, गुण ही ग्रहण करै, आगलावा न करै, और अपने आपसे ही जितना बन सके उतना नि:स्वार्थतासें परोपकार कर उसका नाम सज्जन है. जैसे चंदनका स्वभाव शीतलता करनेका है, तैसे स जन भी आपके शांत-शीतल . स्वभावसें दूसरेको शीतल करता है. जैसे काट डालने परभी गन्नेका भाव मधुर रस देनेका है और पीडा देने वालेकोभी अच्छा शांत रससे संतोपता है, तथा जैसे सुनेकों आग्निकी जबरदस्त आंचमें डाल देने पर भी आप . Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Ca ૨૮ अपना वर्ण-रंगत बदलकर फीकी रंगतका नहीं होता है, तैसेंही सज्जन चाहे पैसे कष्टमें भी आपका भव्य स्वभाव छोडकर दुर्जनता नहीं स्वीकारता है. प्राणांत तकभी जो अपनी प्रकृतिको विकृत नही होने देते है, वैसे सज्जनही सर्व धर्म सेवन के लायक हैं. और वोही सज्जनाकी करोडो दफै वलय लेनी मुनासीब है. मलीन त्तिवाले दुर्जन सर्वज्ञ कथित धर्म सेवनको नालायकही है. अच्छे आशयवाले सज्जन स्वपरका उपकार करके, सर्वज्ञ धर्मकी आराधन करके अंतमें अनंत अक्षय मोक्ष सुखको स्वाधीन करते है. इस प्रकार संक्षेपसे सद्गुरु कृपा योग द्वारा कथन किया गया अपना कर्तव्य विचार कर विवेक अंगीकार करके छोडने लायकको छोडनेको और आदरने लायकको आदरनेको आत्मार्थीजन ज्यादा लक्ष देखेंगे. करने लायक धर्म करणी श्री सर्वज्ञ कथित शास्त्रानुसारसे यथाविधि करके भी अगर्व सह रहेवणे; तथापि यथाशक्ति अपने साधीभाइयों और भगिनीयोंके उचित कार्यो उचित मदद देकर उन्होंको ज्यादे तोरपर धर्ममें योजनेका प्रबंध कर देखेंगे यावत् गुणी जैनोंमस गुण ग्रहण करके गुणकी महत्ता बढायेंगे, और निगुणी पर भी अनुकंपा ला कर उनको गुणशाली बनाने के वास्ते वन सफै उतना उधम करेंगे, जगत्के तमाम जीवोंको अपने मित्र तुल्य गिनेंगे, किसीके साथ कवी भी दुमनाइ, विरोध न रखेंगे, और नीच, निदेव, पापी प्राणियों की तर्फ भी द्वेष न ल्यांतें विवेकस उनकी उपेक्षा । करंगे, यावत् उत्तम भावनामय अंत:करण बनाकर सावधानतासे Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ स्वकर्तव्य करनका न चुकगे असी आंतरिक आशा है. सर्वज्ञ परमात्मा श्री महावीरजीकी सब संतती प्रभुके पवित्र शासनमें कायम रहकर जगहितकारी शासनको ज्यौं शोभा बहै त्यो स्व(व कतव्य समझकर विवेकसे स्वशति छुपाये विगर उनका अमल करना खास अगत्यका है. वसंततीकों भी सुधारनेका वो उत्तम मार्ग है. मतलवमें सब दुःख दारिद्रय दुर्भाग्य दायक स्वच्छंदता मूल दोष मात्रको दूर करके अनादि अज्ञान अंधकार दूर करनेकों और सर्व सुखकारी सर्वज्ञ आज्ञा मूल सद्गुण मात्र सद्भावपूर्वक सेवन करके घटघट सत्तागत रहा हुवा अनंत अक्षय केवलज्ञान उद्योत प्रकट करने के वास्ते अपन सब पापी प्रमादकों दूर करके परम उल्लाससे सदुधम सेवन करेंगे तो अवश्य • अपने आसन्न उपकारी भगवान् श्री महावीरस्वामीकी तरह अनंत गुण रत्नदीपककी मालाद्वारा अपन सबको नित्य दीपोत्सवी होगी. तथास्तु ! ऐसे महा मंगलकारी दिन साक्षात् देखने के लिये अपन कर भाग्यशाली होयेंगे ? अहा ! समस्त दुःख, कष्ट, या आपत्तिका मूलरूप काला मुंहवाला कुसंप कव नष्ट हो जायेगा ? और 'संप वहां ही जंए । अँसी उत्तम वाणीका जयघोष कव होयेंगा ? सुसंपके उत्तम बीज ज्ञान, विवेक, विनयादि पाने के लिये, और कृष्ण मुखवाले कुसंपके कनीष्ट बीज इा, अदेखाइ, अभिमान; अज्ञानादि निर्मूल करनेके लिये अपन का भाग्यशाली होयगे ? परम उपकारी परमात्मा Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 30 वणीत उत्तम जाति और न्यायके नियम पालनेके चार और समस्त अलक्ष्मी के कारणभूत अनीति, अन्यायके बुरे सडेकों दूर करनेके वास्ते अपन कब शक्तिमान् सववंत होयेंगे ? अपने परम पवित्र सर्वज्ञ परमात्मा तर्फकी अपनी पवित्र फर्जको यथार्थ समझकर अदा करने के वास्ते कब यत्नशील होयेंगे ? अपने निः स्वार्थी मित्र, बंधु, या माता पिता के समान श्री सद्गुरुका पवित्र हुकम मुजब चलने में अपन कब भाग्यवान् हो सकेंगे ? श्री सर्वश भाषित निष्पक्षपात धर्मकों भी सुन्ने की तरह या रत्नकी तरह पूर्ण परीक्षा करके निःसंदेहता से स्वीकार कर उनमें निश्चलता धारण *कर सहज समाधि लाभ संप्राप्त करके कब कृतार्थ होयेंगे ' श्रीतीबैंकर देव मान्य श्री संघ - तीर्थ की तमाम आशातना दूर करके उनकी यथाविधि सेवा कर स्वजन्म सफल करनेका दिन कब आ यगा ? श्री सर्वज्ञ आगमों की भी कुल आशातनायें दूर कर उनकी फरमाई हुई आज्ञाओंकों अमृत की तरह आनंदसें अंगिकार करके उसी मुजब अमल में लेने के वास्ते कब दृढ प्रतिज्ञ होयेंगें ? प्यारे आता गण ! जब अपन जैसी उत्तम सामग्रीका पूर्व पुण्यके योगर्स योग प्राप्त कर श्री सर्वज्ञ प्रभुकी पवित्र आज्ञाकों हुरूफ बहुरुक आराधनेमें अत्यंत रुचिवंत और श्रद्धावंत हो कर्त्तव्य परायण होयेंगे तभी सभी दुःख दौर्भाग्यकों दूरकर-चकचूर कर अपने संपुर्ण सुखी होयेंगे ! तथा ! परंतु जब तक जगहितकारीणी श्री जिनाशा की अनादर कर स्वच्छंदता अनेक पापारंभ करके अपन छल 2 Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ मपंच द्वारा अपना पापी पेट भरेंगे, तब तक सुखका दिन दूर ही समझ लेना! जहाँ तब क्षणिक विषय सुखकी खातिर निर्दयतास लखी पल्कि करोंडों जीवोंकी हिंसा करनेमें कुछ भी डर नहीं लगता है, झुठ बोलने में बिलकुल भी पीछा नहीं हठते है, अनीति, अनाचरणसे परद्रव्य हरन करना प्यारा लगता है, पर स्त्री सेवन वैश्या गमन करनेमें भी कुछ डर नहीं लगता है और पैसा प्राणकी तरह प्रिय लगने से धर्मकी भी उपेक्षा करके अनाचार सेवन करके भी पैसा पैदा कर लेनेमें तत्परता रहती है, वहांतक उत्तम प्र. कारके संतोपका मुख परखनेका समय किस प्रकारसे प्राप्त होवै ? - जहांतक पाप प्रवृत्ति परायण रहकर उसमें मशगुल हो प्रमादका ही पुष्ट बनावगे, वहां तक निष्पापडत्ति-निटत्ति जता सुख किस तरह हाथ लगेगा ? जहां तक क्रोधादि कपायके तापसे किंचित् भी परांडमुख न होवेंगे यानि दूर न हटगे, वहां तक समतादि सद्गुणो की शीतलताका साक्षात् अनुभव अपनका हो सकेगा ही नहीं ! जहां तक इंद्रिय जन्य सुख-विलासमें. रसिक-लंपट बनकर उनके दास हो रहवेंगे वहां तक अतींद्रिय-सहन मुखका अनुभव किस प्रकार हो सके ? श्री जिनपर भगवान्न परम करुणासें बताये हुये अमृत फलके देने हारे कल्पवृक्ष समान दान, शील, तप, और भावनारुप चतुविध श्री धर्मका अनादर करके स्वच्छंदनासें अधर्मका आदर करनेके सबसे असे उत्तम अमृत फलका स्वाद प्राप्त करनेका मोका Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૩ર ही कहाँस हाथ लगे ? विषय रसमें ही निमग्न रहकर पशुवृत्ति पोपन करनेवालेकों शांत-वैराग्य रसका आस्वाद आवेही नहीं, यह तो निर्विवादकी वार्ता है. दूसरेके दुःख देखकर प्रसन्न होनेवाले दुर्जनोंको सौजन्यका अनुभव हो सकता ही नहीं. औसी - च्छंदता वृत्तिसें चलनेवाले जीवों में गुणका अंश भी पैदा हो सकेगा ही नहीं, यह स्वतः सिद्ध है. जहां तक स्वच्छंदता छोडकर सर्वह कथित सत्य शास्त्र नीतिको अच्छे तेहरसें समझकर अपन त्रिकरण शुद्धिसे पीकारनेके वास्ते तयार न होवेंगे, यहां तक पापी :माद अपनी गेल छोडनेका ही नहीं. सर्वज्ञ प्रभुजीकी पवित्र आज्ञाका अनादर करके स्वच्छतासें चलना उसीका ही नाम तत्वस भमाद है. उन प्रमादसें कुल प्राणी चतुति रुप संसार चक्रमें फिरते ही रहते है, जन्म जरा मरणके दुःखसे मुक्त हो सकते ही नहीं; वास्ते सद्गुणोंकी हितशिक्षा हृदयमें पारन कर अनादि प्रिय ख छंदताको जलांजली देकर, जिस प्रकारसे करके श्री सर्व शास्त्र नीतिका अत्यंत मानर्पूवक सेवन होवै तिस प्रकार से प्रमाद रहित होनेकी-चलनेकी अपनी मुख्य फर्ज है. स्वच्छंद वर्तनसे अपन अल्प मुखके वास्ते बहुत भारी नुकशानी उठाते है उनका अवश्य जरासा खियाल करना ही लाजिम है. क्षणभर सुख और दीर्वकाल तक दूःख-लेशमात्र सुख और पारावार-अनंत दु.ख असे स्वच्छंदी चलनकी फल ज्ञानी पुरुष कहते हैं; वास्ते अपनकों वो सब तुच्छ आशाओं छोडकर सद्विवेक धारन करके जन्म मरण दुःख निवारक Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जिनेश्वर प्रभुजीकी पवित्र आज्ञा पालनेके लिये पूरे तोरसे मेंयत्न करना योग्य है. इस तरह उत्तम लक्ष रखकर सुसाधु, साध्वी, श्रावक और श्राधिका यह सभी सुसंप समाधि करके श्री सर्वज्ञ शासन 'तर्फ अपनी अपनी तसे पवित्र फर्ज अदा करनेके लिये अनुकूल प्रयत्न सेवन करने में आये तो बेशक जगतहितकारी श्री जिनशासनका विशेष ज्योत-उत्कर्ष-प्रभावना हो सकेही हो सके; लेकिन अच्छी तोरसे लक्ष ही कौन देता है ? अभी अज्ञान पश अविवेक द्वारा भये हुवे कुसंपके सबसे उद्भव भइ मलीनता दूर करके सर्वज्ञ प्रणीत शास्त्र सानुकूल पनि रखा जाय तो सम्यग् ज्ञान -विवेक प्रकाशसे सुसंप सुदृढ़ होके शासनकी. उन्नती क्यों न होने पावे ? वेशक हो! कहा है कि: " कारण योगे हो कारज नीपजेरे, एमां कोई न वाद; पण कारण विण कारज साधियेरे, ए निजमत .दि.. संभव देवते धुर सेवो सवेरे, लही प्रभु सेवन भेद; सेवन कारण पहेली भूमिकारे, अभय अद्वेष अखेद." — जैसा कारण वैसा कार्य, पुष्ट कारण आलंबनमेंसें पुष्ट कार्य भास-पैदा होता है. यदि अपनकों श्री जिनशासनकी उन्नति-शोभा ' बढानेकी दरकारही हो तो कारण भी तदनुकूल अपश्य सेवन करनेही चाहिये. अपन अपनी मतिसे पाहे उतना ज्यादे कट सहन कर; परंतु उन पवित्र शास्त्र नीति वचनानुसार थोडासा भी किया — जापै उसकी रोवरी हो सकैही नहीं. वास्ते पुष्टालंबनभूत श्रीजिनागमकी आज्ञानुसार चलने सेंही अपना सद्वर्तन हो सकता है Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐसाही अपनको हमेशां शुद्ध अंतःकरणसे इच्छना चाहिये कि जिस तरह आनंदधनजीने कहा है:___मुग्ध सुगम करी सेवन आदररे, सेवन अगम अनूप; “देजो कदाचित् सेवक याचनारे, आनंदधन पद रूप.संभव." ज्ञानी पुरुषोंने पांच प्रकार की क्रिया कही हैं-यानि वि५ १, गरल २, अननुष्ठान ३, तदहेतु ४, और अमृत क्रिया ५, ये पांच है. उनमें विष, गरल और अननुष्ठान ये तीनों क्रिया संसार फल, और तदहेतु तथा अमृत क्रिया मोक्ष फलको देती है। हिक, पारलौकिक सुखके वास्ते और केवल गतानुगतिक पणेस - तत्त्व समझे विगरही करनेमें आती हुई विषादिक क्रिया तुन्छ फल दे कर अंतमें दुःखसे मु नही कर सकती है. और पूरा पूरा तय समझकर सहेतुक मोक्ष-जन्म मरणका चक्कर दूर करने के लिये सावधानीके साथ करनेमें आती तद्हेतुके क्रिया तथा क्रमशः त्रिकरण शुद्धिसें एकाग्रतासह करवाने में या करने में आती हुई अमृत क्रिया तुरंत मोक्षफल देती है. पासो मोक्ष सुखके अभिलापि सज्जनोंकों विषादिक क्रियाओं तज अमृत किया तथा तहेतु क्रियाकाही आदर करना मुनासीव है. श्री सर्वज्ञ भाषित समस्त सक्रिया सहेतुक होनेसे उन हरेकका कुल्ल हेतु गुरु द्वारा जानकर उनमें बहुत आदर करना वही लायक है; क्यों कि जिस्सें. समस्त दुःखोंका अंतमें तिलांजली दे अपना अंतरात्मा कपूर समान ७७५ ल यशका स्वामी हो परमात्म पदका अधिकारी हो और समस्त । वाधक कर्म बंधनकों छेद कर अनंत चतुष्टय-अनंत ज्ञान, अनंत Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दर्शन, अनंत चारित्र और अनंतवीर्य सहित हो शिव-अचल-अ. क्षय-अन्यावाध और अपुनरावृत्ति सिद्ध गति नामक श्रेष्ठ गतिस्थानकका प्राप्त कर सकता है। ___ सब प्रकार के बाह्य और अंतर क्लेशके क्षयसें सर्व प्रभु श्री महावीर स्वामीकी समस्त संतती-प्रजा साधु, साधी, श्रावक और श्राविकाओंको हमेशां भावदीपाली हो यही अंतरात्माका आशिर्वाद समस्त विवेकी सजनाकों सफल हो ! जैसी भावदीवाली हमेशा प्रकटी हुइ देखनेके वास्ते विवेकी सजन सन्मुख हो ! समस्त वाधक भाव तजकर साधक भाव अंगिकार करनेको कटिपद्ध हो ! और निर्मल रायी ( सम्यम् ज्ञान, सम्यग् दर्शन और सम्यम् चारित्र )का यथाविधि आराधन करनेके वास्ते उद्युक्त हो ! जिस सर्व श्रेय-मांगलिक माला स्वतः स्वयं आ मिलै ! ! ! __ अस्तु ! अंत मांगलिक स्तुति. शांत सुधारस झील रही, फरुणारस भीनी आंखडियारे; निंद स्वम संकोच स्वभावे, लाजी पंकज पाखडियारे. शांत. सर्व मंगल मांगल्यं, सर्व कल्याण कारण • प्रधान सर्व धर्माणा, जैन जयति शासनं. इत्यलम् Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सार बोल संग्रह. 2199932- . १ लोभी मनुप्य फर लक्ष्मी इकट्ठी करने में ही तत्पर-हुसिपार रहते हैं, मूढ कामी मनुष्य काम भोग सेवन में ही तत्पर रहते हैं, तत्त्वज्ञानीजन काम क्रोधादि दोषका पराजय करक क्षमादि गुण धारण करनेमेही तत्पर रहते हैं, और सामान्य मनुष्य तो धर्म, अर्थ, और काम यह तीनूका सेवन करनेमें ही तत्पर ___२ पंडित उन्हीकोही समझो कि, जो विरोधसे विरामकर शांत, समभाववंत हुवे होवें साधु उन्हीकोही जानो कि, जो समय और शास्त्रानुसार चलें; शशि.वंत उन्हीकोही समझो कि, जो प्राणांत तक भी धर्मका त्याग न करें; और मित्र उन्हीकोही जानो कि, जो विपत्तिम भागीदार होवै. ३ क्रोधी मनुष्य कभी सुख नहीं पाते हैं, अभिमानी शोकाधीन होनेसें कभी जय नहीं पाते हैं, कपटी सदा औरका दासपणाही पाते हैं, और महान् लोभी और ममाण जैसे मनहूस मख्खीचूस __ नरकगति ही पाते हैं. क्रोधके जैसा दूसरा कोई भवोभव नाश करनेहारा विष नहीं है; अहिंसा-जीवदयाके जैसा दूसरा जन्मजन्ममें सुख देने. चाला कोइ अमृत नहीं है; अभिमानके जैसा कोई दूसरा दुष्ट शत्रु नहीं है। उधमके जैसा कोई दूसरा हितकारी बंधु नहीं है; माया Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૭ कपट के समान दूसरा कोई प्राणघातक भय नहीं है; सत्यके जैसा कोई दूसरा सत्य शरण नहीं है; लोभके जैसा कोई दूसरा भारी दुःख नहीं है और संतोष के जैसा कोई दूसरा सर्वोत्तम सुख नहीं है. ५ सुविनीतक बुद्धि बहुत भजती हैं, क्रोधी कुशीलकों अपयश बहुत भजता है, भन चित्तवालेकों निर्धनता बहुत भजती है, और सदाचारवंत सुशीलको लक्ष्मी सदा भजती है. ६ कृतन्न मनुष्यको मित्र तजते हैं, जितेंद्रिय मुनिको पाप तजते हैं, शुष्क सरोवरकों हंस राजते है, और गुस्सेवाज - कषायवंत मनुष्यकों बुद्धि तज देती है. ७ शून्य हृदयवालेको बात कहनी सो विलाप समान है, गड़ गुजरीको पुनः पुनः कथन करनी सो विलाप समान है, विक्षेप चित्तवालेकों कुछभी कहना सो विलाप समान है, और कुशिष्य शिरोमणिको हितशिक्षा दैनी सो भी विलाप समान है. ८ दुष्ट अफसर लोगोंको दंड देनेके वास्ते तत्पर रहते हैं, मूर्खलोग कोप करनेमें, विद्याधर मंत्र साधने में, और संत सुसाधुजन तत्वग्रहण करनेमें तत्पर रहते हैं. -९ क्षमा उग्रतपका, स्थिर समाधीयोग उपशमका, ज्ञान तथा शुभ ध्यान चारित्रका, और अति नम्रता पूर्ण गुरु तर्फ वर्तन शिष्यका भूपण है. १० ब्रह्मचारी भूषण रहित, दीक्षावंत द्रव्य रहित, राज्यमंत्री बुद्धि सहित और स्त्री लज्जा सहित शोभायमान मालूम होते हैं. Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ ११ अनवस्थित- अनियमित - अस्थिर प्राणीका आत्माही अपने आपका वैरी जैसा और जितेंद्रियका आत्मा ही आत्माकों शरण करने योग्य समझना. ( १२ धर्मकार्य के समान कोइ श्रेष्ठ कार्य, जिवहिंसा के समान भारी अकार्य, प्रेम रागके समान कोई उत्कृष्ट बंधन, और बोधी लाभ - समकित प्राप्तिके समान कोई उत्कृष्ट लाभ नहीं हैं. १३ परस्त्रीके साथ, गमारके साथ, अभिमानीके साथ और चुगलखोर के साथ कवी, भी सोबत न करनी चाहिये क्यौं • कि ये हरएक महान् आपत्तिके ही कारण हैं. C १४ धर्मस्त मनुष्यों की जरुर सोवत करनी चाहियें, तबके ज्ञाता पंडितजनकों जरूर दिलका संशय पूंछना चाहियें, संत-सु साधुजनोंका जरुर सत्कार करना चाहियें और ममता-लोभ दरकार रहित साधुओंकों जरूर दान देना चाहियें; क्योंकि ये हरएक लाभकारी है. ११ विनय विचार पुत्र और शिष्यकों समान गिनने चा हिये, गुरुकों और देवकों समान गिनने चाहियें, मूर्ख और तिर्यचको समान गिनने चाहिये, और निर्धन तथा मृतककों समान गिनने चाहियें. १६ तमाम हुन्नरोंस धर्माराधनका हुन्नर, समस्त कथाओ से मूल्य में धर्मकथा, सव पराक्रमसें धर्म पराक्रम, और तमाम सांसा रिक मुखोंसें धर्म संबंधी सुख विशेष शोभा पात्र ♦ Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - १७ जुगार खेलनेपाले जुगारीके धनका, मांस खानेकी आदत पालेको दयाबुद्धिका, मदिरा पीनेवालेके यशका और वेश्यासंगीके कुलका नाश होता है, १८ जीबहिंसा-शीकार करनेवालेका उत्तम दयाधर्मका, चोरीकी आदतवाले के शरीरका, और परस्त्रीगमन करनेपालेके दयाधर्म, और शरीरका नाश होता है. अधममें अधमगति होती है. वास्ते ये तीनू दुर्व्यसन यह लोक और परलोक इन दोनूस विरुद्ध होने के लिये अवश्य छोड देनेके योग्य ही है. १९ निर्धन अवस्थामें दान देना, अच्छे होदेदार अफसरकों क्षमा रखनी, सुखी अवस्थामें इच्छाका रोध करना, और तरुण : अवस्थामें इद्रियोंकों कजमें रखनी ये चारों बात बहुत ही कठीन हैं; तथापि वो अवश्य करने योग्य होनेसें जब पैसा मोका हाथ लगे तब जरुर लक्ष देकर करनी ही चाहिये. धर्म कल्पवृक्ष. धर्म साक्षात् कल्पवृक्ष जैसा है, दान, शील, तप और भावना यह चार उनके प्रकार हैं. अभय सुपात्र-ज्ञान दान वगेरः दानके भेद हैं. दानसे सौभाग्य, आरोग्य, भोग, संपत्ति तथा यश भतिष्ठा माप्त क्षेते हैं. दानगुणसे दुश्मन भी तावेदार हो पानी भरता है. यावत् दानसें शालीभद्रकी तरह उत्तम प्रकारके देवीभोग प्राप्त करके अंतमें मोक्ष सुख प्राप्त होता है. शील:-पशुहत छोडकर शील-सदाचारका विवेक पूर्वक से Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० वन करना उनके समान एक भी उत्तम धन नहीं है. शील- परम मंगलरूपी होनेसे दुर्भाग्यकों दलन करनेवाला और उत्तम सुख देनेवाला है. शील तमाम पापका खंडन करनेवाला और पुन्य संचय करनेका उत्कृष्ट साधन है, शील ये नकली नही मगर असली आभरण है, और स्वर्ग तथा मोक्ष महलपर चडनेकी श्रेष्ठ सीढ़ी है. इस लिये हरएक मनुष्यकों सुखके वास्ते अवश्य सेवन करने लायक है. शीलव्रतको पूर्ण प्रकारसें सेवन करनेसें अनेक सत्वोंका कल्याण हुवा है, होता है, और भविष्य में होयगा. तपः - कर्मकों तपावे सोही तप. सर्वज्ञने उनके बारह भेद यानि छः बाह्य और छः अभ्यंतर असें दो भेद सामिल होकर होते हैं. उसकी नाम संख्या भेद नीचे मुजब हैं. अनशनः-उपवास करना सो (१), उनोदरी दो चार कवल कम खाना सो (२), धृत्तिसंक्षेप - विवेक - नियम मुजब मित अन्नजल आदि लेना सो (३), रसत्याग-मद्य, मांस, सहत, मख्खन, ये चार अभक्ष्य पदार्थोंका विलकुल त्याग के साथ दुध, दहीं, घी, तेल, गुड और पकवान वगैरः का विवेकसें बन सके उतना त्याग करना सो (४), कायाक्लेश- आतापना लेनी, शीत सहन करनी सो (५), और संलीनता अगोपांग संकुचित कर - एकत्रकर स्थिर आसनसें बैठना सो (६) ये छ: बाह्य तप कहे जाते हैं. अब छः आभ्यंतर तप बतलाते हैं. प्रायश्चितः - कोइ भी जातका पाप सेवन किये वाद पश्चाताप पूर्वके गुरु समय उनकी शुद्धि करनेके वारणे योग्य दंड लेना सो (१), Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विनय-चाहे वो. सद्गुणीकी साथ नम्रता सह वर्तन, सद्गुण समझकर उनका योग्य सत्कार करना सो (२), वैयापच अरिहंत, सिद्ध, आचार्य वगैरः पूज्य वर्गकी पहुँतमान पुरःसर भक्ति करनी सो (३), स्वाध्याय पाचना, पृच्छना, परिवर्तना, अनुप्रेक्षा और धर्मकथा रूप ये पांच प्रकारका है उनका उपयोग करना सो (४), ध्यान शुभ ध्यानका चिंतन और अशुभ ध्यानको विस्मरण करना यानि मलीन विचारोंको दूरकर शुभ या शुद्ध-निदोष विचारोंको धारण करना, आत्म-परमागका एकाग्रतासें चिंतन करना, और पाहित्ति छोड अंतरवृत्ति भजनीसो (०), कासग-देहकी तथा उनकी साथ लगे हुवे मन और वचनकी चपलता दूर कर आत्म-परमात्म ध्यानमें ही तत्पर-लीन होना सो (६), यह छ आभ्यंतर तप है. अंतर शुद्धि करने के वास्ते अवंध्य कारणभूत होनेसे वो अभ्यंतर तप कहा जाता है. अभ्यंतर तपकी पुष्टि हो वैसा बाह्य तप करना असा सर्वज्ञ भगवान ने भव्य जीवोंके लिये कथन किया है। वास्ते पो अवश्य तप आदरने योग्य है. तपके प्रभावसे अपिल शक्तिय प्रकटती है, देव भी दास होते है, असाध्य भी साध्य होता ___ है, सभी उपद्रव शांत होते हैं, और सब कर्ममल दहन हो शुद्ध सुन्नेकी तरह अपना आत्मा निर्मल किया जाता है; पास्ते आत्माथी-मुमुक्षु वर्गकों उनका सदा विक पुर्वक सेवन करना योग्य है. त५ सच्चा वही है कि जो कर्ममलको अच्छी तरह तपाकें साफ कर दे. Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ કર __ भावना:-धर्म कार्य करने के भीतर अनुकूल चित्त न्यापार ९५ है. वैसी अनुकूल पित्तत्ति रुपकी प्राप्तिके सिवाय धर्मकरणी चाहिये वैसा फल नहीं दे सकती है. यावत् चित्तकी प्रसन्नता वि. पर की गई या करानेमें आती हुई करणी राज्यवे० समान होती है; वास्ते कुल्ल जगह भाव प्राधान्य रुप है. भाव विगरका धर्मकायभी अतूने धान्य-भोजन जैसा फीका लगता है, और वो भाव सहित होवै तो सुंदर लगता है. इस लिये हरएक प्रसंगमें शुद्ध भाव अवश्य आदरने योग्य है. सर्वज्ञकथित भावनाओं भव संसारका • नाश करती हैं. मैत्री, प्रमोद, करुणा और मध्यस्थता रूप चार भाबनायें भवभय हरने वाली हैं. जगत्के जीव मात्रका मित्र गिननरुप मैत्री भाव है. चंद्रका देख जैसें चकोर प्रमुदित होता है वैसें सद्गुणीको देखकर भव्य चकोर चित्तमें प्रसन्न होवै वो प्रमुदित या मुदिता भाव कहा जाता है. दुःखी जीवको देखकर आपका हृदय पिघल जाय और यथाशक्ति उसका दुःख दूर करनेके लिये प्रयता हो सके सो करै उसको करुणा भाव कहा जाता है. और महापाप रनि प्राणीपर भी क्रोध द्वेष न लातें मनमें कोमलता रख उदासीनता धरनेमें आवे उसको मध्यस्थ भाव कहा जाता है. ऐसी उत्तम भावना भाषित अंत:करणवाले माणि पवित्र धर्मके पूर्ण अधिकारी गिने जाते हैं. उनके दर्शनसें भी पाप नष्ट हो जाता है. वैसे शुद्ध भाव पुर्वक शुद्ध क्रिया करने वाले महात्माओके प्रभाबस पापी पाणी भी अपना जाती र छोडकर-अपना र स्वभाव दर कर शांत स्वभाव धारन करते हैं. असे अपुर्व योग-मभाव पु Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वोक्त सद्भावनाके जोर से प्रकटते है; पारो मोक्षार्थिजनोंकों उपर कही गई भावनायें धारनेके लिये अवश्य प्रयत्न करना योग्य है. सर्वज्ञ कथित तत्त्व रसिककों ये शुभ भावनाओं सहजही प्रकट होती है। प्रकरण पोथा. सदुपदेश सार. १ जीवदया (जयणा) हमेशां पालनी चाहिये. चलते, बैठते, उठतें, सोते, खाने, पीतें या पोलते यानि यह हर' एक प्रसंगमें प्रमादसें पिराये प्राण जोखममें नहि आ जावे वैसा उपयोग रखकर चलना. सूक्ष्म जंतुओंका जिस्से संहार होजाय, वैसा खजुरीका झाडु वगैरः कचरा निकालने के लिये कवीभी परासमें नहि लेना. पानीभी छानकर पीना. छाना हुवा जलभी ज्यादा नहि ढोलना. जीवदयाके खातिर रात्रिभोजन नहि करना. कंदमूल भक्षण वजित करदेना. जीवदयाके खातिर जहां तहां अग्नि नहि सिलगानेका ध्यान रखना; क्योंकि अपने प्राणहीके समान सब जीवांका अपने अपने प्राण वल्लभ हैं, तो उन्हक प्रिय प्राणाकी कीमत बूझ स्वच्छंदपना छोडकर जैसे उन्हका वचाव हो सके वैसे कार्य करने में मथन करना, और याद रखना कि सर्व अभक्ष्य मध मांसादिके भक्षणसे क्षणिक रसकी लालचके लीये असंख्य जीवोंके कीमती जानकी स्वारी होती है, उन्ह नाहक संहारसे Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ महान् पाप होनेसें जगत्में महा रोगादि उपद्रव उद्भवते हैं उसके भोग होपडता है, और मांत-अंतमें नरकादि घोर दुःखके भागीदार होना पडता है. २ निरंतर इंद्रिय वर्गका दमन करना. ___ हरएक इंद्रियका पतंगजंतु, भौंर।, मत्स्य, हाथी और हिरनकी तरह दुरुपयोग करना छोडकर संत जनोंकी तरह इंद्रियोंका सदु पयोग करके हर एकका सार्थक्य करने के लीये संत रखनी चाहिये. . एक एक छुट्टी की हुई इंद्रिय तोफानी घोडेकी तरह मालिकको वि एम मार्गमें ले जाकर वार करती है, तो पांचोंको छुट्टी रखनेवाले दीन अनाथजनके क्या हाल होय ? इसी लिये इंद्रियोंके तावेदार न बनकर; उन्होकों परयकर स्वकार्य साधनमें उचित रीति भुजब प्रवत्तानी चाहिये. किंपाक तुल्य विषयरस समझकर उस्की, लालच छोडकर संतदशेन, संतसेवा, संतस्तुति, संतवचन श्रवणादिस उन इंद्रियों का सार्थक्य करनेके लिये उद्युक्त रहकर प्रतिदिन स्वहित साधनेकुं तत्पर रहना उचित है. ३ सत्य वचनहीं बोलना. __धर्मक रहस्यभूत, अन्यकों हितकारी, तथा परिमित जरुर जितनाही भाषण औसर उचित करना, सोही स्वपरको हित-कल्याणकारी है. क्रोधादि कमायके परवश होकर वा भयसे या हांसीकी खातिर अज्ञमन असत्य बोलकर आप अपराधी होते हैं, सो खास Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ख्यालम रखकर पैसे व हिम्मत धारण कर यह महान् दोष सेवन नहि करना. सत्यसें युधिष्ठिर, धर्मराजाकी गिन्तीमें गिनाये गये, असा जानकर असत्य बोलनेकी या प्रयोजन विगर बहोत पोलनेकी आदत छोडकर हितमितभाषी बनजाना, किसीकों अग्रीति खेद पैदा होय वैसा बोलनकी आदत यत्नसे छोडदेनी चाहिये. ___४ शील कबीभी नहि छोडना. __ ब्रह्मचर्य व्रत या सदाचार के नियम चाहें वैसें संकटमें भी लोप देनेकी इच्छा नहिं करनी. सत्यपंत अपने व्रतोंको प्राणोंकी समान गिनते हैं, यानि अखंडव्रती रहते है, सोही सच्चे शूरवीर गिने जाते है५ कबीभी कुशीलजनक संग निवास नहि करना. ' कुत्सित आचारपाल के साथ रहेनेसे 'सोवते अमर । यह कहनावत मुजब अपने अच्छे आचारोंको अवश्य धोखा-धका पहुंचता है और लोकापवादभी आता है। इसी लिये लोकापवाद भीरुजनोंको वैसे भ्रष्टाचारीयोंकी सोपत सर्वथा त्याग देनीही योग्य है. सोबत करनेकी चाहना हो तो कल्परक्षके समान शीतल छाउके देनेवाले संत पुरुषको ही सोबत करोकि, जिसे सब संसारका ताप दूरकर तुम परम शांत रस चाखनेको भाग्यशाली बन सको. . ६ गुरुवचन कदापि नहि लोपना. एकांत हितकारी सत्य-निदोष मार्गकोही सदा सेवन करनेपाले और सत्य मार्गको दिखानेवाले सद्गुरुका हितवचन कदापि Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोपन नहि करना. किन्तु प्राणांत तक तद्वत् वर्तन करनेकों प्रयत्न करना यही शास्त्रका सारांश है. वैसे सद्गुरुकी आज्ञा पूर्वकही सब धर्म कर्म-कृत्य सफल है. अन्यथा निष्फल कहाजाता है. इस लिये सदा सद्गुरुका आशय समझकर तद्वत् वर्तन में उधुर रहेना यही सुविनीत शिष्यका शुद्ध लक्षण है. __ ७ (अ) चपलता अजयणासें नहि पलना. ____ अजयणास चलनेके सबसे अनेकशः स्खलना होने उपरांत अनेक जीवोंका उपचात, और किंचित अपनाभी धात होने की संभव है. इस लिये चपलता छोडकर समतासें चलना, जिसे स्व परकी रक्षा पूर्वक आत्माका हित साध सके. (ब) उभट वेष नहि पहनना. अति उद्भ वेष-पोषाक धारण करनेसे यानि स्वच्छंदपना आदरनेसे लोगोंके भीतर हांसी होती है, इसलिये आमदनी और खी . देख-तपास कर घटित वेष धारण करना. जिस्की कम आमदनी हो उस्को झूठे दवदवाला पोषाक नहि रखना चाहिये तथा धनत हो उस्को मलीन-फट्टे टूटे हालतवाला पोषाक रखना चोभी मुनासीव है. ८वक्र विषम दृटिस नहि देखना.. सरल दृष्टिसें देखना, इसमें बहोतसे फायदे समाये हैं. शंकाशीलता टल जाय, लोगोंमें विश्वास बैठे, लोकापवाद न आने पापै, ५ परहित सुख साध सकै, ऐसी समदृष्टि रखनी चाहिये. अज्ञा Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७ नताके जोरसे वा बोलकर और व पलकर जीव पहोत दुःखी होते हैं। तदपि यह अनादिकी कुचाल सुधार लेनी जीवको मुस्केल पडती है. जिस्की भाग्यदशा जाग्रत हुई है पा जाग्रत होनेकी हो चोही सीधे रस्ते चल सकता है, ऐसा समझकर धूम्रकी मुट्ठी भरने जैसा मिथ्या प्रयास नहि करते सीधी सडकपर चलकर स्वहित सा... पन निमित्त सुज्ञ मनुष्यको नहि चूकना चाहिये. ऐसी अच्छी म यादा समालकर चलनेसे क्रुधित हुवा दुर्जनभी क्या विरुद्ध पोल सकेगा ? कुच्छभी छिद्र न देखने से किंचित् एडी तेडी बातभी नहि पोल सकता है. इसलिये निरंतर समष्टि रखकर चलना कि जिस्से किसीको टीका करनेकी जरुरत न रहने पावै. ९ अपनी जीव्हा नियमसें रखनी. • जीव्हाको १२५ करनी, निकासा नहि वोलना. जरुरत मालूम हो तो विचारकर हितमितही भाषण करना. रसलंपट होकर जीव्हाके १२५ पडनेसे रोगादि उपाधि खडी होती है. तथा बोलनेमें मर्यादा पहार नहि जाना. जीभके पश्य पडे हुवेकी दूसरी इंद्रिये कुपित होकर उनका गुलाम बनाके बहोत दुःख देती है. इस हेतुसे सुखार्थीजन जीभके तावे न होकर जीभकाही तावे कर ले पोही सबसे बहतर है. १० बिना विचार कुछभी काम नहि करना. सहसा-अविवेक आचरणसें पड़ी आपदा-विपत्ति आ पड़ती ___ है. और विचारकर विकसे परीने पालेको तो खयमेव संपदा आ Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ कर अंगीकार कर लेती है। वास्ते एकाएक साहस काम कीये विगर लंबी नजर से विचार, उचित नीति आदरके वर्तना चाहिये कि जिसे कवीभी खेद-पश्चाताप करने का प्रसंगही न आवै. सहसा काम करने वालेको बहोत करके वैसा प्रसंग आये बिना रहताही नही, . ११ उत्तम कुलाचारकों कबीभी लोपना नहि. उत्तम कुलाचार, शिष्ट-मान्य होनेसे धर्मके श्रेष्ट नियमाकी तरह __ आदरने योग्य है. मद्यमांसादि अभक्ष्य पर्जित करना, परनिंधा छोड देनी, हंसवृत्तिसें गुणमात्र ग्रहण करना, विषयलंपटता-असंतोष तज___ कर संतोष वृत्ति धारण करनी, स्वार्थवृत्ति तज निःस्वार्थपनसे परो पकार करना, यावत् मद मत्सरादिका त्याग कर मृदुतादि विवेक धारणरु५ उत्तम कुलाचार कौन कुशलकुलीनको मान्य न होय ? । उत्तम मर्यादा सेवन करने वालेको कुपित हुवा कलिकालभी क्या कर सकता है ? १२ किसीको मर्मवचन नहि कहना. मर्भवचन सहन न होनेसे कितनेक मुग्ध लोग मान लिये मरण शरण होते हैं, इस लीये पैसा परको परितापकारी वचन कभी नहि उच्चरना. मृदुभाषण हामने पालेकोभी पसंद पडता है. चाहे वैसा स्वार्थ भोगस हामनेवालेका हित होय वैसाही विचारकर बोलना. सज्जनकी वैसी उत्तम नीति कवीभी नहि उल्लंघनी. लोगोंमेंभी कहनावत है कि जहांतक शकरसें पित्त समन हो जाय वहां तक चिरायता काकु पिलाना चाहिये ? Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३ किसीकों कवीभी झूठा कलंक नहि देना. किसीको अ॒ग कलंक देनेरुप महान् साहसस बुरेही परिणाम - आनेके उग्र संभवसे वो सर्वथा निंद्य और त्याज्य है. दूसरेको दुःख देनकी चाहना करनेवाला आपही आप दुःख मांग लेता है. कहेनावन है कि-'खड्डा खोदे सोही पडे.' इयाने जनका इतनीभी शिखावन पस है, जैसे कुशिक्षितको अपनाही शस्त्र अपनाही माण लेता है उन्हके साइश इ.काँभी समझकर सच्चे मुखार्थी होकर सत्य और हितमार्गपरही चलने की जरुरत रखनी उचित है. कहनावतभी चली आती है कि-'सांचकों काहेकी आंच है ?' १४ किसीकोंभी आक्रोश करके नहि कहेना. - कोप करके किसीका सची पातभी कहनसे लाभके बदले गैरलाभ हाथ आता है, इस वास्ते आक्रोश करके कहना छोडकर सपरको हितकारी और नम्रताइसे सच्ची पात विवेकपूर्वकही कहनेकी आदत रखनी चाहीय. समझदार मनुष्यको लाभालाभका विचार करकेही चलना घटित है. यही कठिन सजन रीति कि जो हरएक हितार्थियों को अवश्य आदरणीय है. . ' १५ सबके उपर उपकार करना. मेधकी तरह सम विषम गिनना छोडकर सबपर समान हित" बुद्धि रखनी. जैसें वृक्ष नीच उंच सकर्को शीतल छांउं देता है, गंगाजल सबका समान प्रकार से ताप दूर करता है, चंदन सबको समान गु Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गंधी देता है, वैसेही उपकारी जन जगत्मात्रका उपकार करता है. अपकार करनेवाले परभी उपकार कर सोही जगत्में बढा गिना जाता है. १६ उपकारीका उपकार कभी नहि भूलना. कृतज्ञजन किये हुवे उपकारकों कवीभी नहिं भूलना है. और __जो मनुष्य किये हुवे उपकारकों भूल जाना है वो कुनघ्न कहा ___ जाता है. और इस्से भी जो जन उपकारीका अहित करनेको छ वो तो महान् कृतन्न जानना. माता, पिता, स्वामी और धर्मगुरुके उपकारका बदला दे सके ऐसा नहि है. तथापि कृतज्ञ मनुष्य उन्होंकी वनसके उतनी अनुकूलता संभालकर उन्के धर्मकार्यम सहायभूत होने के लिये ठिक ठिक प्रयत्न करें तो कदापि अनृणी हो सकता है. सत्य सर्वभापित धर्मकी प्राप्ति करानेवाले धर्मगुरुका उपकार सर्वोत्कृष्ट है. ऐसा समझकर मुविनीत शिष्य उन्हकी पवित्र आज्ञामें वर्तनेके लिये पूर्ण संत रखता है. और यह फरमानसें विरुद्ध वर्तन चलानेवाले गुरुद्रोही महा पातकी गिने १७ अनाथकों योग्य आश्रय देना. ___ अपनी आजीविकाके विपे जिनकी कुछभी साधन नहि है. जो केवल निराधार है. ऐसे अशा अनाथोंका यथायोग्य आलंबन ___आधार-आश्रय देना यह हरएक शक्तिपंत-धनाढय दाना मनुष्यों की खास फर्ज है. दुःखी होते हुये दीन जनोंका दुःख दिलमें — धारण करके उन्होको कतके ऊपर विवेकपूर्वक मदद देनेवाले स Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मयको अनुसरक महान् पुन्य उपार्जन करते है. और उन्हके पुन्4पलस लक्षीभी अचूट रहती है. कुंएके पानीकी तरह वडी उदारतासे व्यय की हुइ हो तोभी उदारताकी लक्ष्मी पुन्यरुपी अविछिन जल प्रवाहकी मदद से फिर पूर्ण होजाती है. तदपि कृपणको ऐसी मुबुद्धि पूर्व अंतरायके योगसे ध्यानमें पैदाही नहि होती उरा वो विचारा केवल लक्ष्मीका दासत्वपना करके अंतमें आत ध्यानसे अशुभ कर्म उपार्जन कर हाथ घिसता-रीते हाथसे यमके शरण होता है. वहां और उसके बादभी पूर्व अशुभ अंतराय कर्मके योगसे वो रंक अनाथको महा दुःख भुक्तना पडता है. वहां कोई शरणआधारभूत नहि होता है. अपनीही भूल अपनकों नडती है. कृपणभी प्रत्यक्ष देख सकता है कि कोइभी एक कवडी-कौडीभी साथ पांधकर ल्याया नहि और अवसान समय कौडी बांधकर साथ ले जा सकेगाभी नहि; तदपि विचारा मम्मण शेठकी तरह मही आतध्यान धरता और धन धन करता हुवा झूर झूरके मरता है. और अंतमें बहोतही बूरे विपाक पाता है. यह सब कृपणताके फीफल समझकर अपनकोभी वैसेही बूरे विपाक भुक्तने न पडे, इस लिये पानी पहिल पाल वांधनेकी तरह अपलसही चेतकर अपनी लक्ष्मीके दास नहि; लेकिन स्वामी बनकर उस्का विवेकपूर्वक यथास्थानमें व्यय करके उस्की सार्थकता करनेके लिये सद्गृहस्थ भाइयों को जाग्रत होने की खास जरूरत है. नहि तो याद रखना कि, अपनी केवल स्वार्थ वृत्ति०५ महान् भूलके लिये - Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपनकोंही आगे दुःख सहन करना पडेगा, इसिलिये हृदयमें कुछ भी विचार - पश्चाताप करके सच्चा परमार्थ मार्ग अंगीकार कर अपनी गंभीर भूल सुधार लेनेकों चूकना सो ज्याने सद्गृहस्थों को योग्य नहि है. श्री सर्वज्ञ प्रभुने दर्शाया हुवा अनंत स्वाधीन लाभ गुमा देना और अंतमें रीते हाथ घिसते जाकर परभवमें, अपनेही किये हुवे पापाचरणके फलके स्वादका अनुभव करना यह कोइभी रीतिर्से विचारशील सद्गृहस्थोंकों लाजीम -शोभारूप नहि हैं. तत्वज्ञानी पुरुषों के यही हितवचन है, जो पुरुष यही वचनोंको अमृत-बुद्धिसें अंगीकार कर विवेकपूर्वक आदरते हैं वै अत्र और परत्र अवश्य सुखी होते हैं. C. १८ किसीके अगाडी दीनता नही दिखलानी. तुच्छ स्वार्थ की खातिर दूसरे के अगाडी दीनता बतलानी योग्य नहि है. यदि दीनता -नम्रता करनेकों चाहो तो सर्व शक्तिमान सर्वज्ञकी करो; क्योंकि जो आप पूर्ण समर्थ हैं और अपने आश्रितकी भीड भांग सकते हैं. मगर जो आपही अपूर्ण अशक्त है वो शरणागतकी किस प्रकार भीड भांग सके ? सर्वज्ञ - प्रभुके पास भी विवेकसं योग्य मंगनी करनी योग्य है. वीतराग परमात्माकी किंवा निर्बंध अणगारकी पास तुच्छ सांसारिक सुखकी प्रार्थना करनी उचित नहि हैं. उन्होंके पास तो जन्म मरणके दुःख दूर करनकीही अगर भवभव के दुःख जिस्से हट जाय ऐसी • उत्तम सामग्रीकीही प्रार्थना करनी योग्य है. यद्यपि वतिराग प्रभु Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राग द्वेष रहित है; तथापि प्रभुकी शुद्ध भक्तिका राग चिंतामनी रत्नकि साहश फलीभूत हुए विगर रहेता ही नहि. शुद्ध भक्ति यहभी एक अपूर्व वयार्थ प्रयोग है. भक्ति से कठिन कर्मकाभी नाश हो जाता है, और उसीसे सर्व संपत्ति सहजहीमे आकर प्राप्त होती है. ऐसा अपूर्व लाभ छोडकर बंबलकों भाथ भरने जैसी तुच्छ विषय आशंसनासे विकल्पनसे वैसीही प्रार्थना प्रभुके अगाडी करनी कि अन्यत्र करनी यह कोई प्रकार से मुज्ञजनोको मुनासिवही नहि है. सर्व शक्तिवंत सर्व-प्रभुकी समीप पूर्ण भक्ति रागसें विवेक पूर्वक ऐसी उत्तम प्रार्थना करो यावत् परमात्म प्रभुकी पवित्र आज्ञाको अनुसरनेके लिये ऐसा उत्तम पुरुषार्थ स्फुरायमान करो कि जिस्सें। भवभवकी भावठ टलकर परम संपद प्राप्तिसें नित्य दिवाली होय, यावत् परमानंद प्रकटायमान होय, मतलबकि अनंत अवाधित अक्षय सहज मुख होय. सेवा करनी तो ऐसेही स्वामिकी करनी जिस्से सेवक भी स्वामिके समान ही हो जावै. १९ किसीकी भी प्रार्थनाका भंग नहि करना. मनुप्य जब बडी मुशीबतमें आ गया हो तवही बहोत करके गर्व टेक छोडकर दूसरे समर्थ मनुष्यकों अपनी भीर भांगनेकी आशासै प्रार्थना करता है. ऐसें समझकर दानादिलका श्याना और समर्थ मनुष्य उस्की प्रार्थना योग्य ही होय तो उनका प्राणांत तकभी भंग नहि करके महामने वालेका दुःख दूर करने लायक जो Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुछ देना उचित हो तो भी प्रियभाषण पूर्वकही देना; लेकिन उच्चूंखलत्ति नहि. देना पियवाक्य पूर्वक दान देना सोही भूषण रुप है अन्यथा दूषणरुप ही समझना. औसा हिताहितको विवेक पूर्वक सुज्ञ मनुष्यकों वर्तन चलानाही योग्य है. नहि तो दिया हुवा दानभी व्यर्थ हो जाता है और मूर्खमें गिनती होती है. २० दीनवचन नहि बोलना. दीन वचनोसें मनुष्यका भार-बोज हलका होजाता है और फिर सुझजन परीक्षाभी करलेते हैं कि यह मनुष्य कपटी या तो - सुशामदखोर है. गुणवत। गुणि जानकर उचित नम्रता बतलानी वो दीनपनेमें नहि गिनीजाती है. गुणीपुरुषोंके स्वभाविक ही दास बनकर रहना यह अपनेमें स्वाभाविक गुण गुणप्राप्तिके निमित्त होनेसें वो दूपितही नहि गिनाजाता है, इसिलिये विवेक लाकर जरु- रत हो तव अदीन भाषण करना कि जिस्से स्वार्थ हानि होने न पावे, और यह उत्तम नियम विवेकी जन जीवन पर्यंत निभावे तो अत्यंतही शोभारुप है. २१ आत्मप्रशंसा नहि करनी. आत्मश्लाघा यानि आपवडाइ करके खुश होना यह महान् दोष है. इससे महान् पुरुषोंका अपमान होता है. ऐसे महत्पुरुषोंकी शातना-अवमानता करनेसे कर्मबंधन कर आत्मा दुःखी हाता ह. सज्जन पुरुषों की यही रीतिही नहि है. सज्जन पुरुष तो दूसरे के Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमाणु जितने भी गुणोंकों वखानते हैं, और अपना मेरुके समान बडे गुणोकाभी गान नहि करते. तो गुणके विगर घमंड रखकर अपूर्ण घटकी तरह न्यूनता दिखलानी सो कितनी बड़ी भूल और विचारने जैसी बात है. यह बातका विचार कर पूर्ण घडेकी समान गंभीरताइ धारण करनी सीख लेनी और आपबडाइ करनी छोड देनी; क्यों कि आपबडाइ करनेमें कदम दरकदम परनिंदाका दोष लगता है. परनिंदाके पाप अति वूरे होनेसें मिथ्या आपवडाइ करनेवाला प्राणी वैसें पापकोसे अपने आत्माकों मलीन कर परभवयं या क्वचित् यही भवमें वहोत दुःखी हालतमें आजाता है. २२ दुर्जनकोभी की निंदा नहि करनी. परनिंदा करनेसें कुछभी फायदा नहि है, मगर निंदा करनेवालेको वडा गेरफायदा तो होता है. अपना अमूल्य वस्त गुमाकर आपही मलीन होता है. निंदा यह हामनेपालको सुधारनेका मार्ग नहि है किंतु विगाडनेका रस्ता है, एसा कहाजाय तो कुछ झूठा नहि है. सजन जन तो पैसे निंदकोसे ज्यादा ज्यादा जाग्रत-सचत रहकर गुण ग्रहण करत हैं; लकिन दुजन ता उला कुपित होकर दुर्जनताकीही वृद्धि करते है. इसिलिये दुर्जनको निंदासें भी हानिही हाथ आती है. संत-सज्जनोंकी निंदासें सज्जन जनकों तो कुछ भी औगुन मालूम होता नहि है; तदपि वैसे उत्तम पुरुषोंकी नाहक निंदा करनेसे आशयकी महा मलीनता होनेके Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लिये निकाचित् कर्मबंधकर निदक नरकादि अधोगतिमही जाते है. निंदा, चाडी, परद्रोह तथा असत्यकलंक चडानेवाले वा हिंसा, असत्यभाषण, परद्रव्यहरण और परस्त्री गमनादि अनीति वा अनाचार करनेवाले, भोपांध, रागांध होनेवाले जो जो बूरे हाल होनेका शास्त्रकारोंने वर्णन कीया है वो, तथा उन संबंधी हितबुद्धिस जो कुछ कहना वो निंदा नहि कही जाती है, मगर हिनबुद्धि विगर द्वषसे पिरायेकी बातें कर दिल दुभाना सो निंदा कहि जाती हैं. और यह निंद्य हैं, इसलिये नाम लेकर पिरायेकी वदी करनेका मिथ्या प्रयास नहि करना. कवी निंदा करनेका दिल - हो जाय तो सच्चे और अपनेही दोषोंकी निंदा करनी कि जिसे कुछमी दोपमुक्त होता है. केवल दोषोंकीभी निंदा करनेसें कुछ __ कार्य सिद्धि नहि होती, तोभी परनिंदासें स्वनिंदा बहोतही अच्छी है. २३ बहोत नहि हंसना. बहोत हंसना सो भी अहितकारी है. वहीत हंसनेसें परिणाम में रोनेका प्रसंग आता हैं. हंसनेकी बूरी आदत मनुष्यकों बडी आपत्तिमें डालनी हैं. बहोत पकत हंसनेकी आदत होनेसे मनुष्य कारणमें या बिगर कारण भी सता है और वैसा करनेसें राज्यसभा या अंतःपुरम हंसनेवालेकी बडी स्वारी होती है, इसिालये वो बूरी आदत प्रयत्न करके छोडदेनीही योग्य हैं. कहनावतभी है कि 'हसी विपत्तिका मूल हैं.' हाथसें करके जीको जोखममें डालना Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हो पा हायसे करके उपाधि खंडी करनी हो तो ऐसी कुटेप रखनी. अन्यथा तो उरको स्वागदेनी उसमेंही सुख हैं. सभ्यजनकीभी यही नीति है. मुमुक्षु-मोक्षार्थी संत सुसाधुओंको तो वो कुटेक सर्वथा त्यागदेने लायकही हैं. ऐसी अच्छी नीति पालन करनेसेही पाणी धर्मक अधिकारी वनकर सर्वज्ञभाषित धर्मकों सम्यग् प्रमाद रहित सेवन कर सभाग्यके भागीदार होके अंतमें अक्षय सुख संपादन कर सकता हैं. २४ वैरीका विश्वास नहि करना. विश्वास नहि करने योग्य मनुप्यका विश्वास करनेसे वडीहानि होती है, इस लिये पहिलसही खबरदार रहना कि जिस्से पीछेसे पश्चाताप न करना पड़े. काम, क्रोध, मद, मोह, मत्सरादिको अंनरंग शत्रु समझकर उन्होंका कवीभी विश्वास सच्चे मुखार्थीको करना योग्य नहि है. सर्वज्ञ प्रभुने पंच प्रमादोंको प्रबल शत्रुभूत कहे हैं. जिस्के योगसे पाणी प्रकर्षकर स्वकर्तव्यसे भ्रष्ट हो यावत् वेभान होता हैं सोही प्रमाद कहे जाते हैं. मध, विषय, कपाय, निद्रा और विकथा यह पांच प्रमाद है. और यह पांचामसें एक हो तो भी मही हानिकारी है, और जब पांचों प्रमादोंके वश जो मनु५५ पड गया हो उस्का तो कहनाही क्या ? .. मद्यपानसे लक्ष्मी, विद्या, यश, मानादिकी हानि होती हैं सो जगत् प्रसिद्धही है. Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय विकारके तावे होनेवाला पडा योगीश्वर हो, ब्रह्मा हो तोभी स्त्रीका दास बन जाता हैं और हिम्मत हारकर एक अबलाकाभी दीन दास बनता है यही विषयांधका फल है. ___पाय-क्रोध, मान, माया और लोभ यह चारोंकी पंडाल चोकडी कही जाती है. उन्हका संग करनेवाला यावत् उस्में तन्मय होकर पा हुवा क्रोधांध यावत् लोमांध कुछभी कृत्याकृत्य हिताहित नहि देख सकता. कपाय-कलुषित मति फिर कुछ औरही नया देखाव देता है. बूढा है पर वालककी तरह और पंडित हैं पर मूखकी तरह यावत् भूतग्रस्तकी मुवाफिक विपरीत-विरुद्ध चेष्टा करता है, जिस्से तिस्का बडा लोकापवाद प्रसरता हैं. कपायांध विवेकशून्य पशुकी तरह अपमान पाता है. यावत् बुरे हालसें मृत्यु पाकर दुर्गतिकाही भागी होता है. इसलिये मोधादि कषायकी सेवा करनेवालेको मनुष्य नहि मगर हैवान समझना. कट्टे दुष्मनसेंभी ज्यादा खाना खराबी करनेवाले कषायही है, ऐसा समझकर कुछ हृदयमें भान लाया जाय तो अच्छा. कट्टे शत्रु एकही भवमें दुःख दे सकते हैं. निद्रादेवीके वश पडे हुवे प्राणीकीभी बहोत बुरी हालत होती है. जो निद्राके तावे न होकर निद्राकोंही तावे करले वि. पंक धारण करते हैं उन महाशयोंको लीलाल्हेर होती है. विकथा-जिस्के अंदर स्व पर हित तत्वसें संस्कारित न हुवा ' हो, वैसी वाहियात बातें करनी सो विकथायें कही जाती हैं. राज Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५९ कथा, देशकथा, स्त्री कथा तथा भक्त-भोजन कथा यह चार विक थाको त्याग कर जिस्से स्व पर हित अवश्य साध सके वैसी धर्म कथा कहनी योग्य है. विकथा करनेवालेका कीमती वक्त कौडीके मूल्यमें चलाजाता हैं, और विवेकपूर्वक धर्मकथा कहनेवालेका वक्त अमूल्य गिनाजाता हैं; तदपि विवेकविकल लोक विकथा वर्जकर उत्तम धर्मकथा वक्तको सार्थक करनेके वास्ते खंत नहि रखते हैं, तो उन्होंको आगे बहोत पस्तानाही पडेगा. और जो विवेकपूर्वक यह हितोपदेशकों हृदय में धारणकर उस्का परमार्थ विचारकें सीधे रस्ते चलेंगे तो सर्वत्र सुखी होंवेंगे. सच्चे सुखार्थीींजन तो यह पापी पांचों प्रमादके फंदमें न फंसकर अप्रमाद दंडसें उन्होंका नाश करनेकेलिये उयुक्त रहनाही दुरुस्त धारते है. अप्रमादके समान कोइ भी निष्कारण निःस्वार्थ वांधव नहि हैं. इसलिये पापी प्रमादोंके ऊरका विश्वास परिहरके महा उपकारी अप्रमाद बांधवही सर्व विश्वास स्थापन करना कि जिस्से सर्वत्र यश प्राप्त होय. २५ विश्वासकों की भी दगा नहि देना विश्वास रखकर जो शरण आवे उस्कों दगा देना उसके समान कोइ - एकभी ज्यादा पाप नहि है. वो गोद में सोते हुवेका सिर काट देने जैसा जुल्म है. अच्छे अच्छे बुद्धिशाली - लोगभी धर्मके लिये विश्वास करते है. वैसे धर्मार्थी - जनोंको स्वार्थांध वनकर धर्मके व्हानेसेही उगलेवै यह बडा अन्याय है. आपही में पोलपोल Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होवे तोभी गुणी गुरुका आडंबर रचकर पापी विषयादि प्रमादके 'परवंशपनेसें भोले लोगोंको ठगलेथे, उन्के जैसा एकभी विश्वासबात नहीं हैं. भोले भी जानते है कि अपन गुरुकी भक्ति करके गुरुका शरण लेकर यह भवजल तिर जाएंगे, लेकिन पत्थरकी नावके मुवाफिक अनेक दोषोंसें दृषित है तो भी मिथ्या महत्वताको इच्छनेवाले दंभी कुगुरु आपकों और परीक्षा रहित अंधप्रवृत्ति करनेवाले आपके भोले आश्रित शिष्य भोंकी, भवसमुद्रमें डूबा देते हैं. और ऐसे स्वपरको महा दुःख उपाधिमें हाथसें डाल देते है, जो ऐसा कार्य करते है वो धर्मग कुगुरुओंको यह संसारचक्रमें परिभ्रमण करनेके समय महा कट फलका स्वादानुभव लेना पड़ता है. इस वास्तही श्री सर्वज्ञ देवने धर्मगुरुओंको रहनी कहनी बरोबर रखकर निर्देभतासें वतने काही फरमान कीया है. अपन प्रकटतासें देख सकते है कि कितनेक कुमतिके फंदमें फंसे हुवे और विषय चासनासे पूरित हुवे हो; तदपि धर्मगुरुका डॉल-बांग धारण कर केवल अपना तुच्छ स्वार्थ सिद्ध करने के लिये अनेक प्रपंच जाल गुंथन कर और अनेक कुतर्क करके सत्य और हितकर सर्वज्ञके उपदेशकोभी छुपाते हैं इस तरहसे आप धर्मगुरुही धर्मठग बनकर भोले हिरन साहश केवल काद्रियके लोलपी आंखे मींचकर हाजी हा करनेवाले अपने आश्रित भोले भक्तोंको ठगकर स्वपरका विगाइते हैं. सो विवेकी हंस कैसे सहन कर सकें ? दिन प्रतिदिन वो पापी चे५ पसार कर दुनियाको पायमाल करते है, उसे वो Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपेक्षा करने लायक नहि है. जगत् मात्रको हितशिक्षा देनेकेलिये बंधाये हुवे दिक्षित साधुओकि जो सर्वज्ञ प्रभुकी पवित्र आज्ञावचनोंको हृदयमें धारन करनेवाले और निश्कपटतासें तदवत् वर्तनेको स्वशक्ति स्फुरानेहारे और समस्त लोभ लालचको छोडकर जन्म मरणके दुःखसे भरकर लेश मात्रभी वीतराग वचनकों न छुपाते श्री सर्वज्ञकी आज्ञाको पूर्ण प्रेमसें आराधनकी दरकार कर रहे है, वोही धर्मगुरुके नामको सलकर बतलानेकों शक्तिमान हो सकते हैं, वैसे सिंहकिशोरही सर्वज्ञके सत्य पुत्र है, दूसरे तो हाथी दांतोंकी सभान दिखानेके दूसरे और खानेके-चर्वण करनेके भी दूसरे है-तिनके नामों तो डेढ कोसका नमस्कार है ! भो भव्यो ! विवेक चक्षु खोलकर सुगुरु और कुगुरु-सच्चे धर्मगुरु और धर्मगको बरापर पिछानकें लोभी, लालघु और कपटी कुगुरुको काले सांपकी तरह सर्वथा त्याग कर. अशरणशरण धर्मधुरंधर सिंहकिशोर समान सत्य सर्वज्ञ पुत्रोंका परम भक्ति भावसे सेवन-आराधन करनको तत्पर हो जाओ ! जिसे सब जन्म जरा और मरणकी उपाधी अलग कर तुम अंतम अक्षय पद प्राप्त करो! उत्तम सारथी या उत्तम नियामक सपान सद्गुरूकही दृढ आलंबनस अगाडीभी असंख्य प्राणि यह दुःखमय संसारका पार पाये हैं. अपनकामी ऐसेही महात्माका सदा शरण हो. ऐसे परोपकारशील महात्मा काभी भाणांत तकभी परवंचना करतेही नहि. Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ कृतघ्नता किये हुवे गुणका लोप कबीभी नहि करना. उत्तम मनुष्य औगुनके उपर गुन करते है. मध्यम मनुष्य दूसरेने गुन कीया हो तो आप अपनी वक्त हो उस वक्त बने जितना बदला देना चाहते हैं; परंतु अधम मनुष्य तो कीये हुवे गुनको भी लोप करते हैं. ऐसी अधम वृत्तिवाले अज्ञानी अविवेकी जनसें तो कुत्तेभी अछे गिनजाते है, कि जो थोडाभी रोटीका टुकडा या खुराक खाया हो, तो खिलानेवालेको देखकर अपनी पुंछ हिलाकर खुश हो अपना कृतज्ञपना जाहिर करते हुवे उनके घरकी रात दिन चोकी करते है ऐसा समझकर कृतज्ञता आदर कर धर्मकी ल्याय'कात प्राप्त कर कुछभी धर्म आराधना करके स्व-मानवपना सार्थक करना. अन्यथा मातुश्री की कुक्षीकों धिःकार पात्र बनाकर -श-रमींदी बनाकर भूमिकों केवल भारभूत होने जैसा है. समझ रखना कि, कृतज्ञ विविकीरत्नोंकीही माता रत्नकुक्षी कहलाती है. ऐसा न्यायका रहस्य समझकर स्वपर हितकारी विवेक धारण करनेका यत्न करना. २७ सद्गुणीकों देखकर प्रसन्न होना. वो प्रमोद या मुदिता भाव कहाजाता है. चंद्रकों देखकर चकोर जैसें खुशी होता है, और मेघगर्जना सुनकर मयूर जैसें ना चता है तैसें सद्गुणीके दर्शन मात्र भव्यचकोरको हर्ष - प्रकर्ष Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३ होना चाहियें. दूसरेके सद्गुणोंकी प्रतीति हुवे पीछे भी उनके उपर द्वेष धरना ये दुर्गतिकाही द्वार है, वास्ते केवल दुःखदाइ द्वेषबुद्धि त्यागकर सदैव सुखदाइ गुणबुद्धि धारण कर विवेकी हंसवत् होनेके लिये सदगुणीकों देखकर परम प्रमोद धारण करना. २८ जैसे तैसेका संग स्नेह नहि करना. मूरख साथ सनेहता, पग पग होवे कलेश. ' ए उक्ति अनुसार मूर्ख कुपात्र के साथ प्रीति वांधनी नहि; क्योंकि मूर्खकी प्रीतिसे अपनीभी पत जाती है. यदि स्नेह करना चाहते हो तो विचेकी हंस सदृश, संत - सुसाधु जनके साथही करो कि जिस्से तुम अनादिका अविवेक त्याग कर सुविवेक धरनेमें समर्थ हो सको खास. याद रखना चाहियें कि, संत सुसाधुके समागम समान दूसरा उ-तम आनंद नहि है. ऐसा कौन मूर्खशिरोमणि हो कि अमृतकों छोडकर हालाहल विष सादृश अविवेकीकी संगति चाहे ? श्याना मनुष्य तो कवीभी न चाहेगा ! जो मूंडिये जैसी वृत्तिवाला होगा वो तो जहां तहां अशुचि स्थानमेंही भटकता फिरेगा उसमें क्या आश्चर्य है ? क्योंकि जिस्का जैसा जातिस्वभाव होवे वैसाही कृत्य कीया - करै. ऐसे, नीच जनोंकी सोबत अछे सुशील मनुष्यों को भी ववचित् छिंटे लगते है. " २९ पात्रपरीक्षा करनी चाहियें. जैसे सुवर्णकी कस, छेदन, तापादिसें परीक्षा की जाती है, Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४.. जैसे मोतिकी उचलता आदिसें परीक्षा की जाती है, तैसें उत्तम पात्रकी भी सुत्तिसें सद्गुणोंकी परीक्षा करनी चाहिये. सुपात्रकी अंदर उत्तम वस्तु शोभायमान या कायम होती है. सुपात्र में विवेक पूर्वक वोया हुवा उत्तम वीज शुद्ध भूमिकी तरह उत्तम फल देता है. छीपमें पड़ा हुवा स्वातिजलबिंदुका सचा मोनि पकता है, और साँपके मुंहमें पडावा वोही (स्वाति ) जलबिंदु झहररुप होता है। वास्ते पात्रपरीक्षा कर दान, मान, विद्या, विनय और अधिकार वगैरः व्यवहार करना योग्य है. सुपात्रमें सव सफल होता. है, और कुपात्रमें नफेके बदले टोटा-अनर्थ पैदा होता है, इस लिये पात्रापात्रका विवेक बुद्धिशालीका अवश्य करना कि जिस स्वपरको अत्र समाधि पूर्वक धर्माराधनसे परत्र-परलोकमें भी मुखसंपत्ति होती है, सोही बुद्धि प्राप्तिका शुभ फल है. ३० कबीभी अकार्य नहि करना. माणांततक भी नहीं करने योग्य निंध कार्य सज्जन जन करतही नहीं जो लोग प्रमाद श होकर (परवशतासें ) लोग विरुद्ध वा धर्म विरुद्ध अति निधर्म करें उन्होंका सज्जनोंकी पंक्तिसें बहार ही गिनने चाहिये. गुण दोष, लाभालाभ, कृत्याकृत्य, उर्षितानुचित, भक्ष्याभक्ष्य. पेयाषेय वगैरः उचित विवेकविकल.. मनुष्यको पशुवत् समझना और उचित विवेक पूर्वक सदैव शुभकायोंके सेवनमें उद्यमशील मनुष्यकों, एक अमूल्य होरेके समानही जानना. ऐसे जनोंका जन्मभी सार्थक है. Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2 ३१ लोकापवाद प्रवर्तन हो वैसा नहि वर्त्तना. जिस कार्यसें लोगोमें लघुता होय वैसा कार्य विना सोचेविचारे ( अघटित कार्य ) करना नहि. जिस्से धर्मको लांछन लगेधर्मकी हीलना - निंद्या होय - शासनकी लघुता होय वैसा कार्य - भवभीरु जनकों प्राणांत तकभी नहि करना चाहियें. पूर्व महान् पुरुषोंके सद्वर्तनकी तर्फ लक्ष रखकर जिस प्रकार से अपनी या दूसरेकीयावत् जिनशासनकी उन्नति होय उस प्रकार विवेकसे वर्तना ' लोग विरुद्ध चाओ' यह सूत्रवाक्य कदापि भूल नहि जाना, जिससे सब सुख साधनेका शुभ मनोरथ कवीभी फलिभूत होय वैसे समालकर चलना सोही सर्वोत्तम है. ३२ साहसीक पना कबीभी त्यागदेना नहि. आपत्ति के समय धैर्य, संपत्ति के समय क्षमा, सभाकी अंदर सत्य वार्ता निर्भय होकर कहनी, शत्रुनागतका सब प्रकार शक्ति मुजव संरक्षण करना और स्वार्थभोग चहाय इतना नुकसान होजाता हो तथापि अदल इन्साफ देना; इत्यादि सद्गुण सत्वरंत सज्जनोंमें स्वाभाविकही होते है. और ऐसे ही उत्तम जन धर्मके सत्य-सचे अधिकारी है. तैसे विवेकी हंसही सब मलीनता रहित निर्मल पक्ष भजकर धर्म मार्ग दीपानेके वास्ते समर्थ होते है. वैसे सत्य पुरुषोंकोंही अनंतानंत धन्यवाद है. जो सच्चा पुरुषार्थ स्फुरायकें अपना पुरुष नाम सार्थक करते है, तिनकीही उज्वल कीर्ति होती है, या निर्मल यशभी तिनकाही दिगंतमें फैलता है. जो , Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाशय अचल होकर ऐसी उत्तम मर्यादा सदैव पालते है वो प्रसनतासे पवित्र नीतिको अनुसरके अत्र अक्षय कीर्ति स्थापित कर, परत्र अवश्य सद्गति गामी होते है. तैसे साहसीक शिरोमणिकाही 'जन्ना सार्थक है तैसा उत्तम सात्विक साहसीक सिवा स्व जन्म निष्फल है. सच्चे सर्वज्ञ पुत्र उत्तम प्रकारकी शुद्ध साहसीक वृत्ति सहितही होते है. वो लरका आश्रितोंके आधाररूप है. तिनको सिंह किशोरकी तरह साहसीकता धारण करनीही घटित है. तिनकी आबादीके उपर लरको मनुष्योंके भविष्यका आधार है. समझकर सुखसें निर्वहन हो सके तैसी महाव्रत आचरनेरूप-महा प्रतिज्ञा क" रके तिनका अखंड निर्वाह करना वोही उतम साहसीकता है. वोही महान् प्रतिज्ञाका स्वच्छंद आचरणास भंग करने के समान एकभी दूसरी कायरता है ही नहि. यह दुःख दावानलसे तैसे प्रतिज्ञाभ्रष्टकी मुति हो सकती नाहि, ऐसा समझकर-तेल पात्रधर' या राधावध साधनेवालाकी, तरह अप्रमत्त होकर सर्वज्ञ प्ररूपित तत्वरहस्य प्राप्त करके अंगीकार कीइ हुइ महा प्रतिज्ञाकों अखंड पालन करे, पो पूर्ण प्रतिज्ञावंत होकें अपना और दुसरेका निस्तार करनेमें समर्थ होता है. वोही सच्चे साहसीक गिनाये जाते है। वास्ते स्वपरको डूपानेवाली कायरता छोडकर हरएक मुमुक्षुकों उत्तम साहसीकता धारण करनी ही श्रेष्ठ है. ऐसा करनेसें सब मलीनता दूर होकर स्व पर हितद्वारा शासनोन्नति होने पावे. अहो कव प्राणी कायरता छोडकर उत्तम साहसीकता आदरेंगे और उस द्वारा स्व परकी. उन्नति साधकर कब परमानंद पद प्राप्त करेंगे !! तथास्तु. Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७ ३३ आपत्ति वख्तभी हिम्मत रखकर रहना. कष्ट समयभी नाहित होना नहि. जो महाशय धैर्य धा रण करके संकट के सामने अडजाते है अर्थात् वो वख्त प्राप्त होनेपरभी उत्तम मर्यादा उल्लंघते नहि; मगर उलटे उत्तम नीति धोर को अवलंबन करके रहेते है, तिन्हको आपत्तिभी संपत्तिरूप होती है. शत्रुभी वश होता है. वो धर्मराजाकी मुवाफिक अक्षय कीर्ति (थापन करके श्रेष्ठ गति साधन करते है; परंतु जो मनुष्य वैसे वख्तमें हिम्मत हारकर अपनी मर्यादा उल्लंघन करके अकार्य सेवनकर मलीनताका पोषन करता हैं, वो इस जगत् भी निंदापात्र हो पापसें लिप्त हो परत्रभी अति दुःखपात्र होता है ३४ प्राणांत तकभी सन्मार्गका त्याग नहि करना. ज्यों ज्यों विवेकी सज्जनोंकों कष्ट पडता है त्यों त्यों, सुवर्ण, चंदन और उस [ गन्ने ] की तरह उत्तम वर्ण, उत्तम सुगंधि और उत्तम रस अर्पण करते है; परंतु उन्होंकी प्रकृति विकृति होकर लोकापवादके पात्र नाही होती है. ऐसी कठीन करणी करके उत्तम यश उपार्जन कर वो अंतमें सद्गतिगामी होते हैं. ३५ वैभव क्षय होजाने परभी यथोचित दान करना. चंचल लक्ष्मी अपनी आदत सार्थक करनेकों कदाचित् सटक जाय तोभी दानव्यसनी 'जन थोडेमेंसेंभी थोडा देनेका शुभ अभ्यास छोड देवे नहि, तैसे शुभ अभ्यास योगसे कचित् म- . Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हान् लाभ संपादन होता है. यावत् लक्ष्मीभी तिनके पुन्यसें खींचाइ हुइ स्वयमेव आ मिलती है; परंतु खड्डको धारापर चलने जैसा यह कठीन व्रत साहसोक पुरुषही सेवन कर सकता है. - ३६ अत्यंत राग स्नेह नहि करना. ___ स्वार्थनिष्ठ संबंधी जनके साथ राग करनाही मुनासिब नहि है. जिस्के संयोगसे राग धारण कर सुख मानता है तिस्केही वि. योगसे दुःखभी आपही पाता है. इतनाही नहि लेकीन संबंधी जनकी स्वार्थनिष्टता समझ जानेपरभी दुःख होता है. वास्ते ज्ञानी अनुभवी पुरुषोंके प्रमाणिक लेखोंमें प्रतीति रखकर पा साक्षात् अजुभव-परीक्षा करके तैसा स्वार्थनिष्ठ जगत्में रागही करना लायक नहि है. तिसमेंभी बहोत मर्यादा बहारका राग-स्नेह करना सो .तो प्रकट अविवेकही है. क्योंकि ऐसा करनसे अंधकी माफिक कुछ गुण दोष देखकर निश्चय नहि कर सकता है. युं करतभी राग करनेकी चाहना हो तो संत सुसाधुजनोंके साथही राग करो कि. जिरसें कुत्सित राग विषका नाश कर आत्माकों निर्विषता प्राप्त होय. अन्यथा राग-रंगसें अपना स्फाटिक समान निर्मळ स्वभाव छोडकर परवस्तुमें बंधन कर जीव अत्र परत्र दुःखदाही भोक्ता होता है. रागकी तरह द्वेषभी दुःखदाइही है. ३७ वल्लौजनपरभी वार बार गुस्सा नहि करना. क्रोधसे प्रीतिका हानि होती है, क्रोधसें वल्लभजनभी अप्रिय Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हो पडता है, क्रोध वशवती जीव कृत्याकृत्यका विवेक भूलकर अकृत्य करनेको भवर्तता है, वास्ते सुखार्थिमनोने कषायवश होकर असभ्यता आदरक कवीभी उचित नीतिका उलंघन कर स्व परको दुःखसागरमें डुबाना नहि. ३८ क्लेश बढाना नहि. कलह वो केवल दुःखकाही मूल है. जिस मकानमें हमेशां कलह होता है तिप्त मकानोंसें लक्ष्मीभी पलायन हो जाती है; वास्ते बन आये तहांतक तो क्लेश होने देनाही नाह. यु करने परभी यदि क्लेश हो गया तो उन्कों बहने न देते खतम-शमन कर देना. छोटा बडे के पास क्षममिगे ऐसी नीति है; मगर कभी छोटा अपना गुमान छोडकर पडके अगाडी क्षमा न मंगे तो बड़ा आप चला जाकर छोटेको खमावे जिस्से छोटेको शरमीदा होकर अवश्य खमना और खमानाही पडे. क्लेशकों बंध करनेके लिये 'क्षमापना' खमतखामनेरुप जिनशासनकी नीति अत्युत्तम है. जो महाशय पो माफिक वर्तन रखता है तिनकों यहां और दूसरे लोकोभी सुखकी प्राप्ति होती है. और जो इस्से विरुद्ध वर्तन चला रहे है तिनको राब लोकौ दुःखही है. . ३९ कुसंग नहि करना. 'जैसा संग हो वैसाही रंग लगता है. ' यह न्यायसें नीचकी सोचत या बुरी आदतवाले लोगोंकी सोबत करनेसें हीनपन आता Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है. और उत्तमको सोवतसे उत्तमता प्राप्त होती है. क्यों देवनदी गंगाका शुद्ध मीठा पानीभी खारे समुद्रमें मिलजानेसें खारा नहि. होता है ? अवश्य होता है ! तैसेही अन्य अपवित्र स्थलसें आया हुवा पानी गंगाका पवित्र जलमें मिलनेसे कया गंगाजळके महास्पको प्राप्त महि करता है ? अलबत्त, वो गटरका जल हो तो भी गंग समागमसें गंगजलही हो जाता है ! ऐसा संगति महात्म्य समझकर याने मनुष्यको सर्वथा कुसंग छोडदेकर हर हमेशा सु संगतिही करनी योग्य है; क्योंकि-' हानि कुसंग सुसंगति लाहु' . कुसंगतिमें हानी और सुसंगतिमें लाभ ही मिलता है !! ४० बालकसेंभी हित वचन अंगीकार करना. रत्नादि सार वस्तुओंकी तरह हितवचन चाहे वहांसें अंगी___कार करना यही विवेकवतका लक्षन है. ज्ञानी पुरुष गुणोंकीही मुख्यता मानते है. अवस्थासें लधु होने परभी सद्गुण गरीष्ठकों गुरु मानते है, और क्योटद्धको गुणरि होनेसें बालकवत् मानते गिनते है. ऐसा समझकर विकी सज्जन गुणमात्र ग्रहण करनेकों सदैव आभमुख रहेते है. ४१ अन्यायसें निवर्तन होना. समबुद्धि धारण कर राग रोप छोडकर सर्वत्र निष्पक्षपात__ तासे वर्तना यही सद्बुद्धि प्राप्त होनेका उत्तम फल है, ऐसा सम'झकर सत्यपक्ष स्वीकारना सोही परमार्थ है. ऐसा वर्ताव चलाने पत Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मही तत्वसें स्वपरहित रहा है. लोकापवादकाभी परिहार और शा. सनोन्नति इसी प्रकारसे हासिल की जाती है. स्वल्पमें निडरतासें, सच्ची हिम्मत पूर्वक न्याय मार्ग अंगीकार किये विगर जीवका कबीभी मुक्तता होतीही नहि. ऐसा समझकर याने जनको सर्वथा न्यायकाही शरण लेना उचित है. नाकमें दम आ जाने तकभी अनीतिको मार्ग स्वीकारना अयोग्य है. ___ ४२ वैभवके वस्त खुमारी नहि रखनी. . पूर्व पुण्य योगसें संपत्ति प्राप्त हुई हो, तो संपत्तिके वस्त अहंकारी न होते नम्र होना सोही अधिक शोभारूप है. क्या आम्रादि क्ष भी फल प्राप्तिके वस्त विशेष नम्रता सेवन नहि करते है ? शक नम्र होते है ! वास्ते संपत्ति परत नम्र होनाही योग्य है. नही कि स्वच्छंदी बनकर मदमें खीचाकर तुंग मिज़ाजी होना. संप: तिके समय मदांध होना यह वडा विपत्तिकाही चिन्ह है ! - ४३ निर्धनताको वख्त खेदभी न करना. ___ पूर्वकृत कर्मानुसार प्राणी मात्रको सुख दुःख होवे तैसे सम विषम संयोग मिल जाय तो भी तैसे समयमा कर्मका स्वरूप सोचकर हर्ष-उन्माद या दीनता न करते समभावसेंही रहेकर यानासुज जनोने शुभ विचार वृत्ति पोषण कर समर्थ धर्मनीतिका प्रीति से पा हिम्मतसें सेवन करना योग्य है, पहिले अशुभ कर्म करनेके - पस्त पाणी पीछे मुंहे फिराकर देखते नहि है, जिसके परिणामसे Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૭૨ अनंत दुःख वेदना सहन करते हुवे वो बास पाते है. अशुभ-निधकर्म करके अपने हाथोंसे मंग लीये हुवे दुःख उदय आनेसे दीनता करनी सो केवल कापरता ही कही जाति है. दुःख पसंद पडता न हो तो दुःखदायक निधकृत्योंसें विचार कर-पश्चाताप कर उनसे अलग हो जाना, जिस्से तैसे दुःख विपाक भोगने पडेही नहि; परंतु पुर्वके कीये हुवे दुष्कृत्योंके योगसे पडा हुवा दुःख सहन करते दीन हो खेद-विषाद धरना पा विकल हो अविवेकतासे दूसरे दुकृत्य करना सो तो प्रकट दुःखका मार्ग है. ४४ समभावसें रहेना. जो महाशय सुख, दुःख, मान, अपमान, निंदा, तुति, सधनता, निर्धनता, राजा, रंक, कंचन, पथ्थर, तृण और माणि वा नारी और नागनको अगाडी कहे हुवे सदविचार मुजब वर्तन,रखकर समान गिनते है और उसमें मोह प्राप्त नहीं होता है. यावत् तिनकों केवल कर्मविकाररूप निमित्त भूत गिनकर मनमें विषमता न ल्याते हर्ष विपाद रहित सम बुद्धिसेही देखते है, तैसे सदविचारवंत विवेकवत-सद्गुण शिरोमणि जन समसुख अवगाह कर धर्म आराधनसें अवश्य स्वकार्य सिद्ध करते है; परंतु जो अज्ञानता के जोरस-विवेक विकल मनसे विषम वर्तन करते है, हर्ष खेद धरके आप मतसे उलटे चलते है सो तो फ्रोड. उपायसें भी आत्मकार्य ‘साध नहीं सकते है. Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३ v સેવવું. શુળ સમક્ષ હેના " સ૨ે સેવાનો પ્રત્યક્ષ પ્રશંસા અનતછ ર્હન નહી જિન્તુ જામદી હૈ. પત્તાની દ્ધિ સાથે વો ચુસ્ત સ્વામે મો ખાતા હૈ, ચોર તેણે નદિ ાનોં વાવત્ તિની શ્રદ્ધા મંત્રોન સેવા વિપુલમાં જો ખાતા હૈ. ૪૬ પુત્રી પ્રત્યક્ષ પ્રશંસા નદિ વારના. ન પુત્ર ચા શિષ્ય નાદે વા સúળી હો, તઽષ તમની સમક્ષ પ્રશંસા નાંદ ારની સોદા પુત્તમ રીતે હૈ. તનમેં વિનાત્ સત્તમ મુખ્ય વાનેા વો રસ્તા હૈ. વાલ્યાવસ્થાએં છે સંજાર માસ દો ऐसी फिकर रखनी वे माता पिता और गुरुकी फर्ज है, मगर શુખ પ્રાપ્ત દુર્ય વિના મા પ્રવાસ અમિમાનમેં આનાનેતેં દ્દા શ્વેતુ તિના ખન્મવિહતા હૈ. તેવા સમજ્ઞાતિની પાષ સ્થિતિ હોનાને તર્જ વિવાન વિવેસ વર્તના, નિĒ તેના સર્વિવે શૌવન પુત્ર, પુત્રી, શિષ્ય ના શિષ્યા અપના બૅન્ક ધ્રુવપૂર્વજ સુધાર સર્જાતા હૈ. પુત્રાંટ સમક્ષ માત્તા પાવેજોમાં અશાતિ ઞાનને પત્નસ ત્યા તેના ૨૭ શ્રીજી તો પ્રત્યક્ષ વા પરોક્ષ મી પ્રશંસા વનીટી નહિ. સ્રીજા વમાત્ર તુણ્ડ હોનેસ અપૂર્ખતાં વતાયે વાર નહિ રહેતા, વાઘે પાહે વસી મુળવતી સ્રો રો તોમી મનમેંદી સમક્ષ રહેના. Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ स्त्रीकोभी पति तर्फ विनीत शिष्यकी माफिक विशेष नम्र होनेकी आवश्यकता है. अपना पतिव्रत तवही यथाविधि समाला जाता है. पतिको भी स्त्रीको तर्फ उचित मृदुता अवश्य रखनी चाहियें. ऐसे एक दूसरेकी अनुकूलतासें गृहयंत्र के साथ धर्मयंत्र भी अच्छी तरह चल सकता है. तिस बिगर दोन यंत्र बार बार बिगडे या रुक जाते है. अपशब्दादि अपमान त्यागकर स्त्रीका अपनी तरह श्रेय चाहकर वर्तना. स्वदारा संतोष पतिकी तरह समझदार स्त्रीकोभी अपना पतिव्रत अवश्य पालन करना. जैसें स्वश्रेयपूर्वक स्व संतनिभी सुधारने पावे तैसे स्त्री भर्तार दोनुने संप संतोष पूर्वक सद्वर्तन सेवनमें सदैव तत्पर रहेना चाहिये. जैसें आगे के वख्तमें अपना पवित्र शीलभूषण से भूषित बहोत सी सती शिरोमणियोंने अपना नाम अपने अद्भुत चरित्र प्रसिद्ध कीया है, तैसें अवीभी सुविवेकी भाइ और भगिनीये पावन शील रत्न धारनकर सुशीलता योगसें भाग्यशाली होनाही योग्य है. ४८ प्रिय वचन बोलना. दुसरे मनुष्यको मिय लागे ऐसा सत्य और हितकर वचन बोलना. प्रसंगोपात विचारके कहा हुवा हितमित वचन सामने बालेको प्रिय होपडता है. बिना विचारा, औसर विगरका, कर्णकडक भाषण कभी सच्चा हो तोभी अप्रिय होता है, और मीठा, गर्व रहित, विवेकपूर्वक विचार के समयोचित बोलाहुवा बचन बहोत प्रिय और उपयोगी होपडता है, मगर उससे विपरीत बोलना अ + Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हितकारी होता है. जो लोकभिय होनेकी चाहते हो तो उक्त विव समालक धर्मका वाध न आवे तैसा निपुण भाषण करना शीखो. तैसा समयोचित विनय वचन वशीकरण समान समझना. कहाभी है कि एक बोलवो न शीख्यो सव शीख्यो गयो घरमें !' ४९ विनय सेवन करना चाहिये. नम्रता, कोमलता, मृदुता वगेरे पर्यायवाची शब्द हैं सो सब विनयकेही है. विनय सब गुणोंका वयार्थ प्रयोग है. विनयसें श भी वश होजाता है. विषेकसें गुणिजनोंका कीयाहुवा विनय श्रेष्ठ फल देता है. और विनय विगरकी विधाभी फलीभूत नहि ५० दान देना. ___ लक्ष्मीवत होकर सुपात्रादिकों विकसें दान देना सोही लक्ष्मीकी शोभा वा सार्थकता है. विवेकपूर्वक दान देनेवालेकी ल. क्ष्मीका व्यय कीये हुवेभी कुवेके पानीकी तरह निरंतर पुण्यरुप आमदनीसें बढती होती जाती है. विवेक रहित पनेसे व्यसनादिमें उडादेने वालेकी लक्ष्मीका तत्वसें द्धि विनाही तुरंत अंत आजाता है. सूम-कंजुसकी लक्ष्मी कोइ भाग्यवान् नरही भुक्तता है व्यर्थ करके लाभ प्राप्त करता है; परंतु ममण शेठकी तरह तिनसें एक दमडीभी शुभ मार्गमें खर्ची नहि जाति, और न वो बिचारा तिसको उपभोगभी लेसकता; पुर्वजन्ममें धर्मकार्यकी अंदर गडबड डालनेका यह फल समझकर दानांतराय नहि करना. Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ ५१ दूसरेके गुणका ग्रहण कारना. आप सद् गुणालंकृत हो तदपि संत साधु जन दूसरेका सद्गुण देखकर मनमा प्रमुदित होते है. तोभी सज्जनोंकी अंदरके सद्गुणोंकों देखकर असहनताके लिये दुर्जन उलटे दिलमें दुःख पाते है-दिलगीर होते है और अंतमें दुधकी अंदर जंतु ढुंढने मुजव तैसे सद्गुणशाली सज्जनोभी मिथ्या दोषारोपण करते है. और जूंठे दूधन लगाकर महा मलीन अध्यवसायसें बापले कुत्तेकी तरह बुरे हालसें मृत्यु पाकर दुर्गतिमें जाते है. अमृतकी अंदर विष बुद्धि जैसे सद्गुणोमें औगुनपनका मिथ्या आरोप कबीभी हितकारी नहि है ऐसा समझकर सुज्ञ जनको गुणही ग्रहण करना और सद्गुणकी प्रशंसा करनकी अवश्य आदत रखनी. ५२ औसरपर बोलना. . उचित औसरकी प्राप्ति विगर बोलनाही नहि. उचित औसर माप्त हो तोभी प्रसंग-मोका समालकर प्रसंगानुयायी थोडा और मीठा भाषण करना. विन औसर और हदसे ज्यादा बोलनेसे लोकप्रिय कार्य नहि होसकता. मगर उलटा कार्य बिगडता है. ऐसा समझकर हरहमेशा सचा हितकारी और थोडा-मतलब जितनाही विवेकसे भापण करनेकी दरकार करना. प्रसंगके सिवा बोलनेवाला चकवादी, दिवाने मनुप्यमें गिनाया जाता है, यह खुव यादी रखना! Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७७ ५३ खल दुर्जनकोभी जनसमाजकी अंदर योग्य सन्मान देना. सिरो लिखित नीति वाक्य सज्जनोंकों अत्युपयोगी है. उ नीतिके उल्लंघन क्वचित् विशेष हानि होती है. दौअन्य दोष के प्रकोपसँ खलजन सहामनेवाले को संतापित करनेमें वाकी नाह रखता है. ५४ स्व पर विशेषतासें जानना. हिताहित, कृत्याकृत्य वालावलका विवेकपूर्वक स्वशक्ति देशकाल मानादि लक्षमें रखकर उचित प्रवृत्ति करनेवालेको हित अन्यथा अहित होनेका संभव है, वास्ते सहसा - विनशोचे काम नहि करनेकी आदत रख कदम दर कदम विवेकसें वर्तने की जरूरत है, सद्विवेकधारी (परीक्षापूर्वक प्रवृति करनेवाले ) का सकलार्थ सिद्ध होता है. ५५ मंत्र तंत्र नहि करना. कामन, टोना, वशीकरणादि करनो करानो ये सुकुलीन जनका भूषण नहि है. वास्ते वने जहांतक तिस वातसें दूर रहेना. और परका मंत्र भेद करना नहि - कीसीका भेद कीसी को कहना नहि. और गुफत बात जहां चलती हो वहां खडा रहेना नहि. ५६ दूसरे पीराये के घर अकेला नहि जाना. यह शिष्ट नीति अनुसरनेमें अनेक फायदे है। इससे शील ; Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. ७८ व्रतका संरक्षण होता है, सिरपर झूठा कलंक नहि पडता है; यापद मर्यादाशील गिनाकर लोगोंमें अच्छा विश्वासपात्र होता है. ५७ कोइ हुइ प्रतीज्ञा पालन करनी. ___ अब्बल तो प्रतिज्ञा करनेकी वसतही पूर्ण विचार कर अपनसे अव्वलसें आखिरतक निभाव हो सके पैसीही योग्य (वनसके वैसी) प्रतिज्ञा करनी चाहिये. और कभी उत्तम जनने प्रतिज्ञा करली तो योग्य प्रतिज्ञाका प्रयत्नपूर्वक पालन करना गाको दम __ आजानेतकभी खंडित नहि करनी. विचार करके समझपूर्वक कोइ हुइ लायक प्रतिज्ञा सोही सत्य और शुभ प्रतिज्ञा गिनीजाति है. तैसी सत्य और शुभ प्रतिज्ञासें भ्रष्ट हुए मनुष्य अपनी प्रतिष्टाको खोकर अपवादके पात्र होता है. अविवेक न होने पाये ऐसी हरदम फिकर जरुर रखनी. योग्य है. योग्य विचारपूर्वक कीइ हुई प्रतिज्ञा प्राणकी तरह पालनी ये दरेक विचारशील सुमनुष्यकी फर्ज है. सच्चे सत्ववंत पुरुष तो स्वप्रतिज्ञाकों माणसे भी ज्यादा प्रिय गिनकर पूर्ण उत्साहसे पालन करते है. फ... निर्मल मनके कायर-डरपोक मनुष्यही प्रतिज्ञा खोकर पत गुमाते है. - ५८ दोस्तदारसें छुपी बात न रखनी. जिस मित्र के साथ कायम दोती रखनेकी चाहना हो तो तिनसे कुच्छभी पटतर-भेद-जुदाइ नहि रखनी. खाना और खीलाना, मनकी बातें पूछनी और कहेनी, और अच्छी वस्तु जरूरत हो तो देनी और लेनी ये छः मित्रताके लच्छन है. Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . ५९ किसीकाभी अपमान नहि करना. ____ मान मनुष्यकों वहोतही प्यारा लगता है. मानभंग अपमानस मनुष्यको मरणके समान दुःख होता है. यह वार्ता बहोतकरक १९एक जनको अनुभव सिद्ध हो चूकी होगी. कीसीकाभी अपमान न करते तिनका मीठे वचनादिसें सगान करनेसें अपन और दूसरेको लाभ होनेका संभव है. गुन्हागार मनुप्यकी भी अपभ्रछना करने करते तो मीठे मधुरे वचनसे यदि तिनको तिनके दोपका वरूप पहिले अच्छे प्रकारसें समझाया जाय तो बहोत करके पुनः अपराध-गुन्हा करना छोडदेता है. मृदुता यह ऐसी तो अजय चीज है कि तिनसे बज जैसा मान अहंकारभी पिगल जाता है. यह प्रभाव विनय गुणका है; वास्ते दूसरे निको संखों उपाय छोडकर यह अजब गुणकाही घटित उपयोग करना दुरुस्त है. ऐसा करनेसे अपना कार्य बहोत हेलाइसें पार हो सकता है. । ६० अपने गुणोंकाभी गर्व नहि कारना. उत्तम जन गर्व नहि करते है सो ऐसा समझकर. नहि करते है कि गर्व करनेसे गुणकी हानि होती है. संपूर्ण गुणवंत, ज्ञानी, ध्यानी चा मौनी समुद्रकी तरह गंभीरतावंत होनेसें गर्व नहि करते है. फअपूर्ण जन होते है सोही अपनी अपूर्णता जाहिर करते है. • अपनी पडाई करनेसें परनिंदाका प्रसंग सहनहीं आजाता है. प रनिदाके बडे पापसे, गर्व गुमान करनेवालेकी आत्मा लित होकर मलीन होता है, जिसे मिलेहुवे गुणोंकीभी हानि . Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नये गुणोकी प्राप्तिकेलिये तो कहनाही क्या ? [ जहां गांठकी मुं. डीभी गुमजाती है तो नया लाभ होनेकी आशाही कहांसें होय !] ऐसा समझकर सुज्ञ जन अपने मुख से अपनी बडाइ वा दूसरेको लघुता करतही नहि. ६१ मनमेंभी हर्ष नहि ल्याना. 'बहु रत्ना वसुंधरा' पृथिवीमें बहोतसे रत्न पडे है, ऐसा समझकर आपभी शिष्ट नीति विचारके आप तैसी उत्तम पंतिक: अधिकारी होने के लिये प्रयत्न करना. जहांतक संपूर्णता आजावे पहातक सन्नीतिका दृढालंबन कीये करना दुरस्त है. यदि किंचित भी मंद पडकर मनको छुट्टी दी तो फिर खराबी तैसीही होती है. अल्प गुण प्रातिमही मनको दिमागदार बनानेसे गुणकी वृद्धि नहि होती है. बहोतही गुणोकी प्राप्ति होनेपरभी जो महाशय गर्व रहित प्रसन्न चित्तसें अपना कर्तव्य कीया करते है वो अंतमें अवश्य अनंत गुणगणालंकृत होकर मोक्षसंपदा प्राप्त करते है. ६२ पहिले सुगम, सरल कार्य शुरु करना. एकदम आकाशकों वगलगिरी करने जैसा न करते अपनी गुंजाश-ताकात पाद कर धीरे धीरे कार्य लाइनपर त्याना, सोही स्थानपनका काम है. एकदम बिगर सोचे सिरपर बडा काम उठा लेकर फिर छोडदेनेका वख्त आजाय और उलटा छछोरुपापन वेवकूफी सरदारी लेनी पडे उस्से तो समतासें काम लेना सोही सबसे बहेतर है. Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३ पीछे बड़ा कार्य करना. . कार्यका स्वरूप समझकर समतासें वो शुरु किये पाद चित्त उत्साहादि शुभ सामग्री योगसे युक्त कार्यकी सिद्धिके लिये पुख्त प्रयत्न करना. ऐसी शुभ नीतिसें कार्य करने में अध्यवसायकी विशुद्धिसे उत्तम लाभ प्राप्त होता है. - . ६४ (परंतु ) उत्कर्ष नहि करना. शुभ कार्य समतासें शुरु करके उनकी निर्विघ्नतासें समाप्ति हो ने बाद भी अभिमान या वेडा जैसा कुच्छभी करना नहि. मनमें ऐसी श्रद्धा-समझ ल्याके कोइभी कार्य काल, स्वभाव, नियति पूर्वकर्म और पुरुषार्थ ये पांचों कारण भात हुवे विगर होताही नहि, तो वो पांचों कारण 'मिलनेसें कार्य हुवा उसों गर्व काहेका करना चाहिये ? क्यों कि कार्य तो वो कारणोंने कीया है. वास्ते गर्व छोडे कार्य सिद्ध होनेसें श्रद्धा-दृढतादि विवक नम्रताही धारण करनी दुरस्त है. वैसे सुनन विवेकी जन जगतके अंदर अनेक उपयोगी शुभ कार्य कर सकते है. . . ६५ परमात्माका ध्यान करना. वाह्यात्मा, अंतरात्मा और परमात्मा ऐसे आत्माके तीन प्रकार है. शरीर कुटुंबादि पाह्य वस्तुओमें व्याकुलतावंत होरहा हुवा बाह्य आत्मा कहा जाता है. अंतरके भीतर विवेक जाग्रत होनेसें जिस्को गुण-दोष, कृत्याकृत्य, लाभालाभका भान-शुद्धि हुई हो, Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्व परकी समझ पड गइ हो, ज्ञानादि गुणमय आत्मा सोही में हुं और ज्ञानादि उत्तम गुण संपत्तिही मेरे सिवाय शरीर, कुटुंब, धन, धान्यादि सब पुद्गलिक वस्तु हैं ऐसा समझने में आया हो वो अंतमा कहाजाता है. और जिसने संपूर्ण विवेकसे मोहादि कुल्ल अंतरंग शत्रुओंका सर्वथा उच्छेद करके विमल केवल ज्ञानादि अनंत आत्मसंपत्ति हाथ की हो सो परमात्मा कहेजाते है. पहिरात्मा, परमात्माका ध्यान करने में नालायक है और अंतरात्मा लायक है. अंतरात्मा, परमात्माका पुष्टालंबनसें १६ श्रद्धा-विवेक प्राप्तकर आपही परमात्मपद मात करता है। वास्ते मोह माया छोड. कर सुविवेकस अंतरआत्मापन आदर आत्मार्थी जनोंने परमात्माके ध्यानका अधिकार-योग्यता मात कर निश्चय चित्तसे परमाताका पद प्राप्त करनेकों प्रयत्न-सेवन करना योग्य है. जन्म, जरा और मृत्युरु५ अनंत दुःख-उपाधि मुक्त सर्वज्ञ परमात्मा हो है, तिनका तन्मय ध्यान योगसे कीट भ्रमर न्यायसे अंतर आत्मा परमात्म पद पाता है. अनंत ज्ञानादि अखंड सहज समृद्धि पाकर परमानंद मुखमें मन हो रहता है. तैसे परमात्माका अक्षय सुखार्थ आमार्थी जनोकों हमेशां शरण हो ! तैसे परमात्माकी भति५ कायवल्ली भव्य प्राणियोंके भवदुःख दूर कर मनेच्छा पूर्ण करो! यावत भव्यचकोर शुक्ल ध्यान पाकर भवभवकी भ्रमणा भागकर संपूर्ण निरुपाधि मोक्षमुख स्वाधीन कर अक्षय समाधिमें लीन हो !! ६६ दूसरेको आत्माके समान जाननासमस्त जीवोंमें जीवत्व समान है, ऐसा समझकर सबको Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपने जैसा गिनना. द्वैतभाव छोडकर समता सेवन कर किसी जीवको दुःख न हो वैसी यतनासें वर्तन चलाना. चीटीसें हाथी तक सब जीवित सुख चाहता है. राजा, रंक, सुखी, दुःखी, रोगी, निरोगी, पंडित, मूर्ख सब निर्विशेष-समान रीत में सुखको अर्थी है. प्रमाद प्रवर्तन ग स्वच्छंद वर्तनसें कोइ जीवकों सुखमें अंतराय करनेसे वो प्रमादी या स्वच्छंदी प्राणी वाधक कर्म बांधता है. जिस्का कडक फल तिनको अशुभ कमके उदय समय अवश्य सहन करना पड़ता है। वास्ते शास्त्रकार कहते है कि:" बंध समय चित्त चेतिये शो उदये संताप” इत्यादि बोधवचनोंको लक्षमें रखकर सुखार्थी जनको सर्वत्र समता रखकर रहेना योग्य है. मैत्री, प्रमोद, करुणा और मध्यस्थभावकी प्राप्तिभी ऐसेही हो सकती है. जहांतक ये मैत्री वगैरः भावना चतुष्टयका भादुर्भाव-उदय हुपा नहि वहांतक शिवसंपदा वहोतही दूर समझनी. ६७ राग देष नहि करना. - काम, स्नेह, अभिष्वंग वगैरा रागके पर्याय शब्द है, और द्वेष, मत्सर, इया, असूया निन्दादि रोषके पर्याय है. स्फटिक न समान निर्मल आत्मसत्ताको राग द्वेषादि दोष महान् उपाधि०५ होनेसें विवेकवंत जनोने यत्नसें परिहरने योग्य है. जहांतक महा Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपाधिरुप ये रागद्वेषादि दोष दूर होवें नहि वहांतक कवीभी आत्माका शुद्ध स्वरुप प्रकट होसकताही नहि. वो रागादि कलंक सर्वधा दल-हट गया कि तुरतही आत्मा परमात्मा पद । रमात्मपदके कार्माजनोने शत्रुभूत राग द्वेषादि कलंक सर्वथा दूर करनेको ६ मयत्न करना जरुरी है. यतः __ " राग देष परिणामयुत, मनहि अनंत संसार, तेहिज रागादिक रहित, जानी परमपद सार." [समाधिशतक.] तथा ये कर्मकलंक दूर करनेके वास्ते संक्षेपसें वालजीवों के हितार्थ अन्यत्र भी कहा है कि: " शुद्ध उपयोग ने समता धारी, ज्ञान ध्यान मनोहारी; कर्म कलंकको दूर निवारी, जीव वरे सिवनारी, आप स्वभावमे रे अवधू सदा मगनमें रहना." इत्यादि रहस्यभूत ज्ञानके वचनों को मोक्षार्थी जीवोंको परम आदरं करना योग्य है, जिससे सब संसार उपाधीसें सब तरहसे मुक्त होकर परमपद त्वरासे प्राप्त कर सके. सर्वज्ञभापित सदुपदेशका येही सारतत्व है. ज्युं वने त्युं चूंपसें राग द्वेष भल सर्वथा दूर कर निर्मल हो जाना. राग द्वेष मल सर्वथा दूर हो जानेसें आरमाकों शुद्ध वीतराग दशा प्राप्त होती है. वैसी शुद्ध वीतराग दशा Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८५ सोही परमात्मा अवस्था है. वो हरएक मोक्षार्थी, सज्जनोंकों राम पादि मलका सर्वथा परिहार करके- सद्विवेक वळसें भाप्त करनी ही योग्य है. एक सर्वज्ञ - उपदेश रहस्यकों समझकर जो महाभाग्य, रुचि प्रीति स्वहृदयमें धारेंगे वो सुविवेकी सज्जनकी समीपमें शिचमुख लक्ष्मी स्वेच्छासें आकर क्रीडा करेगी. श्री सर्वज्ञ प्रणीत स्याद्वादशैलीको अनुसर के पूर्वाचार्य मसादिकृत भकरणादि ग्रंथोंके आधारसें आत्मार्थी भव्योके हितार्थ, जो कुछ स्वल्प स्त्रमति अनुसारसें यहां कथन करनेमें आया है, उस्में मतिमंदतादि दोषोंसें उत्सूत्र - विरुद्ध भाषण हुवा होवे वो सहृदय हृदय सुधारकर जिस प्रकार जयवंता जैनशासनकी शोभा बढे, जैसे अनादि अविवेक दूर हो जाय, और सद्विवेक जाग्रत होवे, जैसे दुरंत दुःखदायी स्वच्छंद वर्तन छोडकर संपूर्ण सुखदायी श्री सर्वज्ञकथित सनीतिका सद्भावसे सेवन होवे, जैसें सम्यक् ज्ञान प्रकास से व्यवहार शुद्ध होवे, जैसे लोकविरुद्ध त्यागसे शुद्ध देव, गुरु और धर्मका अछे प्रकार आराधन कर, अंतमें अक्षय सुख -संप्राप्त होवे तैसें वर्त्तन रखनेकों सज्जनोंकों मेरी अभ्यर्थना है. नाकदम आजाने तक भी प्रार्थना मंग नहि करनेकी उत्तम नीतिका अबलंगा करके सज्जन महाशय सत्यका प्रथन करना नही चुकेंगे. उत्तम हंसके समान सज्जनजन गुणमात्रकोंही ग्रहण कर औगुण दोष मात्रका त्याग करके जैसे स्व परकी तत्वसें उन्नति साथ सके वैसे ध्यान देके वर्त्तनेकों अवश्य विवेक धरेंगे. आशा है कि, परो S · Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पकारपरायण सजनवर्ग सत्य नीतिकी उंडी नीव डाल उसपर अति उमदा धर्म इमारत बांधकर उस्में कुटुंव सहित नित्य विलास करेंगे. और सम्यग् ज्ञान, दर्शन चारित्रका यथाशक्ति में आराधना कर अंतमें अविनाशी पद पाकर जन्म मरणादि दुःखोंका सर्वथाः नाश करेगा, और सर्वज्ञ-सर्वदशी होकर लोकालोकको हस्तामल-- कवत् देखेंगे-यावत् परम सिद्धिदायक परमात्मपद प्राप्त कर पूर्णानंद चिद्रूप हो रहगे. इत्यलम. प्रगाद पंचक परिहार. " नास्ति प्रमाद परो वैरी-" प्रभादफे समान दूसरा कोई भी का दुश्मन नहीं है. " नास्त्युधम समोबन्धुः-" सदुद्यम समान दूसरा कोइ सचा बंधु नहीं है. पांचों प्रमादक शास्त्रोक्त नाम. [ आर्या छंद.]. मज विषय कषाया, निदा विगहाय पंचमी भाणिया; ए ए पंच पमाया, जीवं पाति संसार. . ( संबोधसित्तरी.) Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ मध-उन्माद, २ पंचेंद्रिय विषय गृद्धता, ३ क्रोधादि चार कपाय, निद्रा पंचक यानि निद्रा, निद्रानिद्रा, प्रचला, प्रचला प्रचला और त्यानी ये पांच निद्रा, तथा राज देश सी-और भोजन इन चारोंकी वार्ता सो विकथाचतुष्क कहाँजाता है. ये पांचों प्रकारके प्रमाद जीव मात्रको अवश्य संसारचक्र फिराते है; वास्ते जगद्गुरु श्री मिनराज पुक्ति पांच प्रमादको दूर करने के लिये उपदेश दे गये है. · मद-उन्मादको त्यागकर निर्मदता, विषयविमुख होकर निविषयता, क्रोधादि कषायका ताप दूर कर निकषायता, निद्राका पराजय करके निस्तद्रता और विकथा-निकाणी पातोंको छोडकर सत्कथा-धर्मकथा, संतोपदेश श्रवण-मनन पालनद्वारा स्वात्महित साधने के वास्ते उधुक्त रहने के संबंधौ परोपकारपरायण श्री पीतरागदेव अपनको पार पार पोध देते है. ऐसा उत्तम बोध श्री सद्गुरुकी विनयपूर्वक सेवा करनेवाले भन्यसत्वको श्री सर्व कथित शास्त्रद्वारा मिल सकता है. प्रमादशत्रुका जोर असा और इतना मवल है कि उनके पशमें पड़े हुवे पाणी तुरंत पैसा हितबोध मातही नहीं कर सक्ता है, तो अपने आपका हित किस तरहसे साध सकै? ऐसे विषम संयोगोंमें संतसमागम मिलना बहुत मुश्कील है. संतसमागमद्वारा प्राप्त हुवे सदुपदेशामृतसें प्रमाद विष दूर हो जाता है. कम हो जाता है. यावत् अनुक्रमसें सदुधमसहोदरकी मददस अप्रमाद शिखरपर पद सकते है या चढ शके Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैसा वस्त हाथ लगता है. जहांसें मोक्षमहेल सन्मुख मालूम होता है, जैसी अप्रमत्तता कौनसे भव्यचकोरको अप्रिय होगी ? तथापि भव्यसत्वको भी सत्सामग्रीकी अपेक्षा रहती है. सरसामग्रीका यथार्थ लाभ वाधक भूत पांचों प्रमादकी परवशतासें नहीं लिया जाता है. उस लिये जिस प्रकार प्रमादपंचकसे प्राणीवर्ग मुत होकर सर्व धर्म आराधनेकों शक्तिमान् होवै उस प्रकार समय के अनुसार ध्यान दे संत सु साधुजनोंकों परमार्थ दृष्टिसे उपदेश किया है, वो लक्षमें लेकर प्रमादपंचकको दूर कर यथा विधिस्वकर्तव्यको समझ उसी मुजव चलन रखने में तत्पर हो मोक्षार्थिजन स्व ईष्ट सुख साध सकते है; परंतु प्रमादपंचकके तावेदार हो जानेसे स्वच्छंदतापनेसे चलनेवाले प्राणी तो यह मानववादि. दुर्लभ सामग्रीको निष्फल गुमादेकर आगे ज्यादा दुःखी होते है. मतलब कि स्वच्छंदतासें किये गये दुष्कृत्यके फलका आखिर उनको अवश्य अनुभव करनाही पड़ता है. अव्वलसेंही लाभालाभ, हिताहित शोचकर स्वच्छंदता छोड पंच प्रभादको अनादर करनेमें आ तो आगे दुःखी नहीं होना पड़ता है.. . . . प्रमाद शब्दका अल्प लेखमें खुलासा. : : स्व यानि अपना, अर्थ यानि कार्य साधनेमें, या स्व आत्माके वास्ते स्वार्थ साधनेमें अनादर करना, और जिनसें अपना सच्चा स्वार्थ नाश पावे पैसे दुष्कृत्योंका आदर करना, . उगादका सेवन , करना, विषय छ-लुब्ध होना, कषाय कलुषित बन जाना, बहुत Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -८९ निंद लेनी, और स्वार्थमें हरकत डालनेवाली विकयाओंमेंही दिन खतम करना वगैरेः अकार्य करनेमें उत्सुक रहना, तथा उचित का येमे दुर्लक्ष देना; यावत् सुविहित सेवित सन्मार्ग छोडकर मरजी मुजब उन्मार्ग ही ग्रहण करना वही प्रमाद है. इन्सान १ मद्य-सुरापान या तो कोई भी नस्सेदार चीजके सेवन से अपनी या अपने कर्त्तव्य-धर्म संबंध का भान भूलकर बेभान वनजाना, यावत् उन्मत्त - मदमस्त होकर अहित अनुचित प्रवृत्ति स्वार्थ विनाशक खराब - बुरे मार्गका ही आदर करना, और वैसा ही करके संतोष मान लेना, अती उन्मत्तताका नाम मध कहा जाता है, जैसा उन्माद प्राणीको जन्म जन्म भ्रमण करवाता इंग्लीशमें उसकों Intoxication कहते हैं, जिसकी सोबतसें दीवाना और बेहाल बनजाता है. जैसे बुरे परिणाम जिस चीजके सेवनसें आवै उस चीजको सेवन करनी ही बेमुनासिव है. कोइ भी अधिकार, लक्ष्मी या ज्ञानके मदमें भी मूढजन वडा जुला करते है. एक भी बुरा आचरण - अपलक्षण सेवनमें मूढजन लख्खो अप लक्षन शीख लेते है, जिससे करके स्वपरकी पायमाली होनेका परि णाम हाथ लगता है और उसीसें अधोगति पाते हैं. जैसे अपलक्षण में दूर हो जाने के लिये अध्यात्मवित् चिदानंदजी -कपूर चंदजी महाराजने फरमाया है कि:પારમાર્યા 3 ptions ( राग भैरव. ) - विरथा जन्म गुमायो, मूरख, विरधा जन्म गुमायो, Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रंचक सुख रसवश होय चेतन, अपनो मूल नसायो पांच मिथ्यात्व तुं धारत अन हु, साच भेद नहीं पायो. मूरख, विरथा.? कनक कामिनी और यहीसें, नेह निरंतर लायो ताहांसें तुं फिरत सोरोनो, कनकवीज मानु खायो. ___ मूरख. विस्था. २ जन्म जरा मरणादिक दुखमें, काल अनंत गंवायो; अरहट घटिका ज्यौं कहो याको, अंत अजहु नहीं आयो. मूरख. विस्था. ३ लख चोराशीका पहेयर्या चोलना, नव नव रुप बनायो; पिन समकित सुधारस चाख्यो, गिनति कोउ न गिनायो. मूरख. विस्था. ४ ए ते पर नाहि मानत मूरख, यह अचरिज चित आयो । चिदानंद सो धन्य जगतमें, जिन्हें प्रभुसें मन लायो. मूख. विस्था. ५ चिदानंदजी महाराजके असे हृदयवेधक बचन श्रवण किये तोभी जिन लोगोंका मद दफै नहीं होता है, और जो लोग बुरी __ आदते नहीं छोड देते है पैसे मूहात्माके कर्मका ही दोष समझ लेना. ____ २ विषय लुब्धता-पांचों इंद्रियोंके शब्द, रूप, रस, गंध और १ आदि विषयमें यानि योग्य द्रव्यमें आश हो जाना-लंपट लबाड बन जाना वो माणी मात्रको परिणाममें बड़ा नुकशान क Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रनेवाला होता है. एक एक इंद्रियके तावे हो रहे हुवे बिचारे पतंग भंग, कुरंग, पगज और मीन प्राणांत दुःख पाते हैं, तो पांचों इंद्रियों के तावेमें फंसे हुवे परवश पामर प्राणियोंके वास्ते तो __ कहना ही क्या ? उनकी तो पूरी कमवस्ती होती है। तोभी मोहसें मूढ बन गये हुवे लोग परिणामको न सोचतें विषय पास-फंदमें फंसकर हैरान होते हैं. वैसे मुग्ध-अज्ञानी जीवोंके ऊपर अनुकंपा लाकर श्री चिदानंदजी महाराजने कहा है कि (राग प्रभाती.) विषय वासना त्यागो, चेतन, सच्चे मारग लागोरे; जप तप संयम दानादिक सब, गिनति एक न आवे रे; इंद्रिय सुखमें जौलौं ये मन, वक्रतुरंग ज्यौ धाव रे. विषय. १ एक एकके कारण चेतन, बहुत बहुत दुख पावे रे; सो तो प्रकटपणे जगदीश्वर, इस विध भाव लखावरे. वि.२ मन्मथ वश मातंग जगतमे, परवशता दुखपावे।। रसना लुब्ध होय झख मूरख, जाल पऽये पिछतावरे.. वि. ३ घ्राण सुवास काज सुन भौंरा, संपुट मध्य बंधाचे रे, सो सरोजसंपुट संयुत फुनि, करटीके मुख जावेरे. वि. ४ रुप मनोहर देख पतंगा, परत दीपमह जाइरे देखो याके दुख कारणमें, नयन भये हैं सहाइ रे. विषय. ५ श्रोतेंद्रिय आशक्त मिरगले, छिनमें शीश कटावरे - एक एक आशक्त जीव यौं, नाना विध दुख पावरे विषय.६ Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंच भवेल पत्त नित जाकुं, ताकी कहाणं कहिये रे . चिदानंद ये वचन सुनाक, निज स्वभावमें रहियैरे. विषय. ७ सर्वज्ञ प्रभु विषयको विषवत् या किपाक फलबते प्राण घातक कहते है. कूत्ते और डूकर की तरह विषयमें ( होनेवालेको कष्ट मात्र फल होता है. हंसवत् विवेकीजन विषय वासनाको छोडकर वैराग्यभाव प्राप्तकर सुखी होते हैं, और वीतरागदशा' साधने के अधिकारी भी वोही हो सकते है. ज्ञानी पुरुषोंने ये मनुष्य भवकी बड़ी भारी किम्मत मकरीर की है, उसका क्षण भी लाखरूपैका कहा जाता है. वैसे किम्मतवंत भवका बन सके उतना फायदा उठा लेनेके वास्ते श्री सर्वज्ञ प्रभुकी आज्ञाका शरण लेना वही लायक है. जैसा परोपकार शील श्री चिदानंदजी बतलाते है:- . ( राग मालकोश) . पूरव पुण्य उदय करी चेतन, नीका नरभव आयारे; पूरव. दिनानाथ दयाल दयानिधि, दुर्लभ अधिक बतायारे; ' दश दृष्टांत दोहिला नरभव, उत्तराध्ययने गायारे. पूरव. १ औसर पाय विषय रस राचत, सो तो मूढ कहायारे; काग उडविन काज विष ज्यों, डार मणि पिछतायारे. पूरब. २ नदी गोळ पाषाण न्यायवत, अर्द्ध वाट तो आयारे । अर्द्ध सुगम आगे रही तिनकों, जिन कछु मोह घटायारे. पूरव. ३ चेतन चार गतिमें निश्चय, मोक्षद्वार यह कायारे; करते कामना देव विण याकी, जिनको अनर्गल मायारे. पूरव. ४ Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९३ 4 रोहण गिरि ज्यौ रतन खाण त्यौं, गुन सर्व यामें समायारे; महिमा मुखसे बरनत यांकी, सुरपति मन शंकायारे. पूरव ५ कल्पवृक्ष सम संयम केरी, अति शीतल जहां छायारे; चरण करण गुन धरण महामुनी, मधुकर मन लोभायारे. पू. ६ यह तन चिन तिहुँ काल कहो किन, सच्चा सुख निपजायारे; औसर पाय न चूक चिदानंद, सद्गुरु यौं दरसायारे, पूरव. ७ ये महाशय के वचन सुनकर विषयविमुख हो अवश्य जाग्रत होनाही दुरस्त है. और उन उन दुष्ट विषयों में मरजी मुजब घूमते हुए मन मर्कट और इंद्रियरूप घोडेको रोककर श्री जिनाज्ञारूप सकल और चाबुक कायदे में रखकर उन्होंको प्रशस्त विषय जैसे कि श्री जिनदर्शन-पूजन, श्री गुरु संघ-साधमी सेवन और श्री वीतराग वचनामृत पान करने वगैर: में कुशलता पूर्वक प्रवर्त्ता में आवै तो जरूर जैसा चाहियें वैसा लाभ हो सकै. यानि संतोषामृतकी वृष्टिसें लीला रहर हो रहैतथास्तु ! ३ कषाय-कषाय यानि संसार लाभ अर्थात् कष ( संसार ) और आय (लाभ) इन शब्दके जुड जानेसें उसीका नाम कषाय तसें रखा गया है. सो कोष मान माया और लोभ मिलकर चार प्रकारके कषाय है. क्रोध स्नेहका, मान विनयका, माया मित्रका और लोभ इन सभीका नाश करनेवाला है. उन हरएकका संजलन, प्रत्याख्यान, अपत्याख्यान तथा अनंतानुबंधी असे चार चार भेद हैं. और जिनकी उत्कृष्ट स्थिति कमसें आधा महीना, Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चार महीने, पारह मास और जीवन पर्यंतकी है. जिनके सबसे क्रमसें यथाख्यात चारित्र, सर्वविरति चारित्र, देशविरति चारित्र और सम्यक्त्व गुन ये आते हुवे रुक जाते हैं. और अनंतानुबंधि चौरः बंध हो जाने से सम्यक्त्वादि गुण सहजहीमें प्राप्त हो सकते है. वास्ते अ५९ कहे गये कपाय तापको दूर करने के लिये बहुत भारी प्रयत्न करनेकी जरुरत है. थोडासा भी कषाय विश्वास रखने लायक नहीं है. अग्नि, ण और तृणकी तरह उनकी तर्फ पेदकारी दिखलानेसे बढ़कर बडा भारी नुकशान करते हैं. वो श्रुत केवली मुनीओंकों भी गिरा देते हैं, तो दूसरे अल्पमति सत्वतोका तो कहनाही क्या? ऐसा समझ कषाय-फ्रोध, मान, माया और लोभ इन्होंका सर्वथा त्याग करनेमें ही उधुर रहना यही मुहदय सत्पुरुषकी फर्ज है. दुःख भी कपाय ताप है वहां तकही है. कपाय ताप दूर हो गया के राग द्वेष सर्वथा सत्ताहीन हो जायेंगे. और वीतरागदशा प्राप्त हुई के आत्मामें सर्वत्र शांति फैलकर कुल उपाधि तथा जन्म मरण भय दूर हो परमानंद रूप सहज शुद्ध आत्म सुख प्रकट हुवा. जिनका साक्षान् अनुभव श्री वीतरागपली या सिद्ध भगवानकों ही हो सकता है, दूसरे औहिक सुखके अर्थी जनोंकों नहीं हो सकता है. क्रोध कपायको दूर करने के वास्ते श्रीयशोविजयजी महाराजने कहा है कि: - Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दोहरा. क्षमासार चंदनरसे, सींचो चित्त पवित्त दयाल मंडप तळे, रहो लहो सुखमित्त. १ देता खेद रहित क्षमा, खेद रहित सुखराज; तामें नहीं अचरिज कछु, कारण सरिखो काज. २ अनुष्टुप छंद. क्षमाखङ्गः करेयस्य, दुर्जनः किं करिष्यति; अण पतिता वन्हि, स्वयमेवोपशाम्यति. दोहरा. मान महीवर छेद तुं, कर मृदुता पविघात; ज्यौं सुख मारग सरलता, होवे चित्त विख्यात. . मृदुता कोमल कमलते, पनसार अहंकार छेदत है एक पलको, अचरिज एह अपार. ५ अहंकार परमें धरत, न लहे निज गुण गंध; . अहंज्ञान निजगुण लगे, छूटे परहि संबंध. माया शल्य तजने के वास्ते पाचजी कहते है कि:मायासापिणी जगडसे, असे सकल नयसार, समरो जुता जांगुली,-पाठ सिद्ध निरधार, ७ - Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोभ महादोष दूर करने के वास्ते उपाध्यायजी कहते है किः आगर सवही दोषको, गुण धनको बड चोर; व्यसन चेलिको कंद है, लोभ पास चिहुंऔर. ८ लोभमेघ उन्नत भये, पापपंक बहु होत; धर्मस रति नहुँलहै, हे न ज्ञानज्योत. ९ कोड स्वयंभूरमणको, ज्यों नही पावै पार; त्यौं कोउ लोभसमुद्रको, लहै न मध्य प्रचार. १० ७. चारों प्रकारके कपाय संसारवृक्षके प्रबल मूल है-आधारतभू है उनका छेदन किये विगर संसार वृक्ष निमूल नहीं होता है. राग और देष भी उन्हीके ही अंगीभूत है; नथापि संसारका अंत नहीं. . श्रीमद् न्यायविशारद फरमाते है किःराग द्वेष परिणाम युत, मनहि अनंत संसार तेहिज रागादिक रहित, जानि परमपद सार. निष्कायताही आत्माका सहज धर्म है; तदपि उपाधि संबंधसे ही कपाय प्रभवता है, यत: जिम निर्मलतारे रत्न स्फटिक तणी, तेम ए जीव स्वभाव ते जिनवीरें रे धर्म प्रकाशियो, प्रबल कपाय स्वभाव-श्रीसि. तथाः- .. जिम ते राते रे फुलहे रातडं, शाम फुलथी रे शाम; . पाप पुण्यथी रे तिम जगजीवते, राग देष परिणाम. श्रीसि. ११ Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म न कहिये रे निश्चय तहने, जे विभाव 45 व्याधि; पहेले अंगेरे ईणीपरे भाखियुं, कम होय उपाधि. श्रीसि. ज जे अंश रे निरुपाधिकपणुं, ते ते जाणे रे धर्म; सम्यक् दृष्टि रे गुणठाणा थकी, जाव लहै शिवशर्म. श्रीसि. इम जाणीने रे ज्ञानदशा भजी, रहियें आप स्वरूप, पर परिणतिथी रे धर्म नछडिये, नविपडिये भवकूप. श्रीमि. यह सब हितयोधका मतलव यही है कि आत्माकी परिणति सुधारने के लिये हमेशां निरंतर प्रयत्न करने की जरुरत है. कपाय बल बंध पड जावै तभी आत्मगुण प्रकट हो सके. यावत् कपायका बिलकुल क्षय होवे तो आत्मा के संपूर्ण अनंत गुण कायम के लिये प्रकट होवै. यानि यह आत्माही खुद परमात्म दशा प्राप्त कर सिद्धि मंदिरमे जा सकै; अन्यथा नहीं. वास्ते महा बायकभूत काय चतुकका जिस प्रकार तुरंत नाश हो सके उस प्रकार सर्वज्ञ कथित पवित्र शास्त्राज्ञा मुजव चलनेकी दरकार करनीही योग्य है, जिसरों उत्तरोत्तर सुख संपत्ति सहजहीमें संप्राप्त हो सके- तथास्तु ! निद्रापंचक:-निदमसे जगानेपरभी जो सुखसे जाग शकै उसीका नाम 'निद्रा' है, मुशीवतसे जगा सकें वो निद्रा निद्रा,' बैठेही या खडखडेही निंद लेवै वो 'प्रचला, चलते चलतें भी निंद लेवै वो 'प्रचला मचला,' और दिनके अंदर यादीमे शोच रख्खा होवै वैसा दुष्करतर काम भी निंदर्भसें अपने आपसही उठ कर वही काम कर आ पीछा अपने आपसेही सो जाय, तथापि उस कामका भान Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न होवै ऐसी घोरातिधोर निंदका नाम थीणद्धि' कहा जाता है. उस अंतिम निंदमें उत्कृष्ट बलदेव के जितना पल आता है, वो मनुष्य मरकर नरकमें जाता है. यह पांचों प्रकारकी निंद क्रमसें एक एकसे ज्यादे सरून दुःखदायी प्रतीत होती है. ज्ञानी पुरुष उनको सर्वधातिनी कहते है. यानि वो आत्मा के गुणोंकों नाश करनेवाली है, उसीसेही मोक्षार्थीजनोंको उसीका विश्वास बिलकुल करनाही नहीं. महा मुनी जैसे भी उनका विश्वास न करते उनका उदय होतेही भयभीत होकर ऐसा बोल उठते है:-"रण निद्रा तुं. कहांसें आइ ? !" इत्यादि वचनोसें वो ऐसा बतला रहे है किपडेबडे सुनीजनोंकों भी वो तुरंत पदभ्रष्ट करदेती है, तो दूसरे रंक अज्ञानी मोहासा जीवोंकी वापतमें तो करनाही क्या ? ऐसाभी कहनमें आता है कि उनके एक हाथमें मुक्ति और दूसरे हाथमें फांसी है, उस्से जो मूहात्मा प्रमादके १२५ हुवा उनको तो फांसी देकर यमका महेमान कर-मारकर महा दुःखका मोक्ता बनाती है. और जो उसीकाही अप्रमादरू५ बज दंडसे मारनेकों तैयार हो जाय तप तो उसी मारनेवालेके अपर प्रसन्न हो मुक्ति देती है, यानि वो महाशय सब संसारकी उपाधि छोड, जन्म मरणका चकर दूर कर निरुपाधिक मोक्षपदका अधिपती होता है. यावत् केवलज्ञानादि अनंत, अक्षय सहज आत्मिक द्धि हस्तगत कर उसका कायम भुक्ता बन्नेको भाग्यशाली होता है. इसलिये ही कहा है कि:"धर्मी मनुष्य जाटत रहा ही अच्छा है. और पापी सोता रहे वही Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९९ अच्छा है. " परमार्थ खुल्ला ही है कि निद्रादेवीका पराजय करनेवाला धर्मोजन - अप्रमादीजन अपना और पराया अवश्य कल्याण कर सकता है, और महा प्रमादी पापी मनुष्य मदोन्मत्त हो जागृत होनेपर भी अवश्य अहितकाही पोषण करता है. वास्ते मोक्षार्थी सज्जनोंकों ज्यौ वन सके त्यौं निद्राका पराजय कर उन्हीकों नियममें रख स्व परहित फिक्र के साथ साध्य कर यह अमूल्य मानवभव सफल करना. तथास्तु ! विकथा चतुष्क- यद्यपि मुख्यतासें राजकथा, स्त्रीकथा, और भोजनकथाही विकथामें गिनी जाती हैं; क्यों कि मुग्ध जीवोंकों वहुत करके ऐसेही वावत ज्यादे प्यारी होनेसें चित्तकों गमड़ा देती है; तथापि शुद्ध साध्य दृष्टि शिवाय जो जो जितनी जितनी शुद्ध साध्यकों छोड़कर मरजी मुजब शास्त्र मर्यादा जाने किये विगर बातें करते हैं वो वो सभी उतने उतने हिस्सेसें त्रिकथारुपही गिनाती हैं. इस वास्तेही भवभीरु गीतार्थही शास्त्रोपदेश देने लायक गिने जाते हैं, यद्यपि धर्मोपदेश कथा उत्तम है; तदपि उत्तम धन्वंतरी वैद्य जैसें हरएक रोगी के रोगका निदान संमाप्ति आदि तपास कर गंभीरतासें उसको उचित औषध मात्रा पथ्य सह बतलाता है; तैसेही भिन्न भिन्न रुचिवंत भव्यजीवों के भवरोग-कर्मरोग के नाश निमित्त भवभीरु गीतार्थ ( सुत्रार्थ इन उभयके पारंगत ) ही समर्थ गिने जाते हैं. वैसे समर्थ भाव वैद्य भव्य जीवोंके भवरोगका कारण गांभिर्यतासें शोचकर उनके भावरोगकों निर्मूल करनेकी बुद्धिसे प्रेर Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० णावंत हो जो जो शक्य उपचारोंसें उनकी आंतर शुद्धि हो सके वैसा होवै तो उन उनके बनसके वहांतक सादे और सरल उपायसें अव्बलमें अतर शुद्धि यानि भीतरके मलरूपी मलीन वासना घोडालकर पीछेसें हरएक भव्य सत्वकी शक्ति मुजय उसको धर्म रसायण देते हैं. उनका अत्यंत प्रीतिपूर्वक सेवन करने वाले भव्यजन परिणाममें अजरामर सुख संप्राप्त कर सकते हैं. और समस्त आधि व्याधि उपाधिसे मुक्त हो निरुपाधिक शिवमुखके स्वामी, होते हैं. तथास्तु ! प्रमाद रुप झहरका पियाला छुडाकर अप्रमाद रूप अमृतका कटोरा पीनेकी प्रेरणा करते हुवे श्री चिदानंदजी महाराज समझाते है कि (पद पहिला-राग भैरव.) जागरे पटाउ ! अब भइ भोर बरा. जाग. भया रविका प्रकाश, कमळ हु भये विकाश; गया नाश प्यारे मिथ्या रैनका अंधेरा. जाग. १ सोतसें क्यौं आवै घाट, काटनी जरुर बाट । कोड नाही मित्त परदेशमें है तेरा. जाग. २ अवसर पीत जाय, पिछे पिछतावो थाय: चिदानंद निहचें यह मान कहा मेरा. जाग. ३ . . .. . . . . .. Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (पद दूसरा.) . चलना है जरुर जाकों, ताकों केसा सोषणा ? चलना. हुवा जब पातकाल, माता धवरावे बाल जगजन सकल करत मुख धोषणा, चलना. १ सुराभिके बंध छूट, घुबड भये अपूछे; ग्वाल बाल मिलके बिलोते हैं दिलोना. चलना. २ तज परमाद जाग, तुं भी तेरे काम लाग; चिदानंद साथ पाय वृथा नहीं खोना. चलना. ३ [ पद तीसरा.] “समझ परी मोय समम परी, जग माया सब झूठी मोय समझ परी; काल काल तुं क्या करे मूरख ? नही भरोसा पल, एक घरी. जग. १ गाफिल छिनभर नाहिं रहो तुम, शिरपर घूमे तेरे काल; अरी. जग. २ चिदानंद यह बात हमारी प्यारे, जानो मित्त मनमाहि खरी. जग. ३ (पद चौथा-राग करबा.) चितम धरो प्यारे चित्तमें धरो, एती शीख हमारी प्यारे अब चितमे घरो थोडेसे जीवन काज अरे नर ! काहेका छल प्रपंच करो? पित्त. १ Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ कूडकपट परद्रोह करत तुम, अरे परभवसे क्यों न डरो चित्त. २ चिदानंद ये नाहि मानो तो, जन्म मरन भव दुखमे परो. चित्त. ३ (पद पांचवा-राग विहाग.) तज मन कुमता कुटिलकों संग; याके संग कुबुद्धि उपजत है, परत भमनमें भंग. तजमन. १ कहा भयो पय पान पिलावत ? विष न तजत भुजंग. तज. २ कउएको क्या कपूर चुगावत ? श्वान हवाबत गंग. तज. ३ खरको क्या अरगना लेपन, मर्कट भूषण अंग. तज. ४ ज्यौँ पापान बान नहि भेदत, रातो भयो निषग. तज. ५ आनंदधन प्रभु कारी कंबरीयों, चढत न दूजो रंग. तज. ६ परोपकारपरायण श्री आनंदघनजी वगैरा तत्वदर्शि महात्मा भी पुनः प्रमादविष दूर करने के संबंध वचनामृत छिडकनेके साथ कहते है कि 'अहो भव्यजीव ! तुम श्री जिनराज प्रभुजीक चरणका शरण अवलंबन करो.' (पद छा-राग अलैया बिलावल.) असें जिन चरणे चित लाओरे मना, असें अरिहंतके गुन गाओ. रे मना. असें जिनउदर भरन कारनेरे, गौओं बनमें जाय; चारो चरै चिहु दिश फिरै, वाकी सुरत बछरुपे मांय रे. मना औस. १ चार पांच साहेलीयारे, हिल मिल पानी जाय; Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तालि देव खडखड हंसें, वाकी सुरत गगरिया मायरे मना. औ.२ नटुवा नाचे चोकमेरे, लोक कर लख शोर; चांस ग्रही परत चढेरे, वाकी सुरत न चले कठोर रेमना.औ.३ जुआरीके मनमें जुआरे, कामाके मन काम; आनंदधन प्रभु यु ल्यो प्यारे, श्री भगवतके नाम रेमना. औ. ४ (पद सातवा, राग आसावरी.) आशा औरनकी कहा कीजे, ज्ञान सुधारस पीजे. आशा. भटकत द्वार द्वार लोगनके, दूकर आशा पारी; आतम अनुभव रसके रसिया, उतरे न कबहु खुमारी. आशा. १ आशा दासीके जो जाये, सो जन जगके दासा; आशा दासी करत जो नायक, लायक अनुभव प्यासा. आशा.२ मनसा प्याला प्रेम मसाला, ब्रह्म अग्नि परजाली तन भही औटाइ पिये कस, जागे अनुभव लाली. आशा. ३ अंगम पियाला पियो मतवाला, चिन्ही अध्यातम पासा; आनंदवन चेतन व्है खेले, देखे लोग तमासा. आशा. ४ (पद आठवा-राग आशावरी.) साधु संगति विन कैलें पैथे, परम महा रस धामरी ? साधु. कोटि उपाय करे जो वाउरो, अनुभव कथा विसरामरि; साधु. १ शीतल सफल संत सुरपादप, सवै सदा सु छांयरी ! साधु. वांछित फल टलै अनवांछित, भय संताप बुझायरी.' साधु. २ Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ चतुर विरंची विरंजन चाहे, चरन कमल मक दरी; જો હતો મરમ વિહાર વિવાવ, શુદ્ધ નિરૈનન પડી. देव असुर इंद्र पद चाहूँ न, राज न काज समाजरी; संगति साधु निरंतर पाउं, आनंद घन महाराजरी. ( पद नौवॉ.) साधु. ३ पद दशवाँ. योग युक्ति जाने बिना, कहा नाम घरावे ? रमापति कहे रंककु, धन हाथ न आवै. योग घरी माया करी, जगकों भरमावैः સાધુ. ૪ पांचों थोडा एक रथ जुता, साहिब इनका भीतर श्रुता. पांचों. खेडू उसका मदमतवारा, घोडोंकों दोरावनहारा. पांचों. १ थोरे मुँठे और और चाहै, रथकों फिरिफिरि अवट वाहै; विषम पंथ चहु ओर अँधियारा, तोभी न जागै साहिव प्यारा. पां. २ खेडू रथकों दूर दोरावै, वे खबर साहिब दुख पावे; रथ जंगल में जाय असूझे, साहिव सोया कहुअ नं झे. पां. ३ चोर ठगारे वहां मिल आये, दोनूको मद प्याला पाये रथ जंगलमें जीरण कीना, माल घनीका उदाली लीना. पांचों. ४ धनी जागा तब खेडू बांधा, रास परोंना ले शिर सांधा; चोर भगे रथ मारग लाया, अपना राज विनयजी उपाया. पां. १ ( विनय विलास. ) योग. १ Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूरन परमानंदकी, सुधीरच न पाय योग. २ मन मुक्ये बिन मुंडकों, अति घोट मुंडा जटाजूट शिर धारके, कोउ कान फरावै. योग. ३ उर्व वाहु अघो मुखें, तन ताप तपावैः चिदानंद समझे बिना, गिनति नहिं आवै. योग. ४ (पद अग्यारवाँ-राग बिलावल.) राम राम जग गावै, अवधू, राम राम जग गाये विरला अलख लखाव, अवधू, राम राम जग गावै. मत वाला तो मतम माता, मठ वाला मठ राता; जसा जसाधर ५८] पदाधर, छता छत्ताधर ताता. अवधू रा.? आगम पढी आगमधर थाके, माया धारी छाके; दुनियां दार दुनिसे लागे, दासा सव आशाके. अवधू. रा.२ वहिरातम मूढा जग जेता, माया के फंद रहता; घ. अंतर परमातम भावै, दुर्लभ प्राणी तेता. अवधू. रा. ३ खग पद गगन मीनपद जल में, जो खोजे सो बौरा; चित पंकज खोजे सो चीन, रमता आनंद भौंरा. अवधू. रा. ' (पद बारहवाँ-राग आशावरी.) वा पदवी कर पाऊं, दीनानाथ, वा पदवी व पाऊँ ? वा पद पाइ अमृतरस झीलु आनंदमय होय जाऊं. दीना ? चारों चोर बडे ५८पाडे, ताको दूर विका Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ चार चुगलको पकडी बंधाऊ, न्याय अदल वरताॐ दीना. २ अपनो राज अपने वश राखी, परबशपन न रहाॐ रूपचंद कहे नाथकृपासें, अब में नाथ कहाडं. दीना. ३ ( पद तेरहवाँ. ) प्रभु भज लै मेरा दिलराजी, प्रभु भज लै. आठ पहेरकी चोसठ घरियां, दो घरियां जिन साजी; प्रभु. १ दान पुण्य ऋछु धरम करी है, मोह मायाकों त्याजी. प्रभु. आनंदघन कहे समझ समझरे, आखिर खोयगा बाजी. प्रभु. ३ अपने और पराये हित के वास्ते पापी प्रमादपंचक के फंदमें फंसानेसें वचनेके लिये जो कुछ लिखा गया है उनकों लक्षमें ले कर राजहंसकी तरह सार सार ग्रहण करकें सज्जन स्वपर श्रेय साध कर अमूल्य मानवदेह सार्थक करेंगे तो कर्पूर समान उज्वल महायश प्राप्त करके अंत में अवश्य अक्षयसुखके स्वामी होवेंगे. ce+2= ७ सामान्य हितशिक्षा. ( १ ) जयणा यतना, वो वो धर्म संबंधी या व्यवहार संबंधी, परलोक वास्ते या इस लोक वास्ते, परमार्थसें या पार्थसें जो जो व्यापार करने में आवें उनमें बराबर उपयोग रखना वो उसका सामान्य अर्थ हैं. विशेषार्थ विचारनेसें तो, आत्माका शुद्ध निर्देभ मोक्षार्थ शांतिपूर्वक करनेमे आये हुवे मन-वचन-तन द्वारा व्यापार Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०७ विशेष मालम होता है। इसी लिये ही ज्ञानीशेखर पुरुषोंने जयणाको धर्मकी माता कह पतलाई है-यानि आत्मधर्म-गुणोंकों उत्पन्न करनहारी-पालन करनेवाली वृद्धि करनेवाली-यावत् एकांत सुखकारी जयणा ही है. जयणा रहित चलनेवाले, खडे रहनेवाले, बेठनेवाले, सोनवाले, भोजन करनेवाले या भाषण करने-बोलनेपाले उन उन चलनादिक क्रिया करने में त्रस या स्थावर जीवोंकी हिंसा करते है जिसमें पापकर्म बांधते है. उनका विपाक कट होता है. पास्ते मुज्ञ विवेकी सजनोंकों वो वो पलनादिक क्रिया करने के वरूत ज्यों ज्यों विशेष जयणा समाली जाय सौ वर्तन रखना वही हितकारक है; क्यों कि सभी जीवों को अपने जीव समान गिनता हुपा किसी भी जीवको दुःख न दनकी बुद्धिसें समस्त पापस्थान साग कर आत्मनिग्रह करता है वही महात्मा कर्म नहीं पांचता है. अन्यथा अपने कल्पित क्षणिक सुखकी खातिर नाहक अनेक निर५राधि जीवोंके भाणोंको हरण करता हुवा, अजयणासें वर्तन चलाता दुपा वो जीव भारीकर्मी होता है यानि बडे भारी कर्म बांधता है, कि जो कर्म उदय आनेसें बहुतही कटरस देता है. दृष्टांतरुप कि. परजीवोंके संरक्षणके वास्ते मुनिमहाराज रजोहरण ओधा, तथा. सामायिक पोषधादिक व्रतोंमे श्रावक परपला, और इन सिवायके गृहस्थ लोग कचरा कस्तर दूर करने के वास्ते बुहारी रखते हैं; मगर वै सुकोमल होवै तब और हलके हाथास उन्होंका उपयोग करनेमें आये तब तो जीवरक्षारुप प्रमार्जना सार्थक हो जयणा पा Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ लन करने में मददगार होती है; लेकिन उस विगर नही होती. आजंकल अज्ञान दशासे मुग्ध जीव जमीन साफ करनेके वास्ते अच्छे सुकोमल नरमासवाले उपकरण न रखते बहुत करके खजुरी वगैरः की तीक्ष्ण बुहारीयोंका उपयोग करते हुवे मालुम होते हैं कि जो विचारे एकेंद्रिय से लगाकर त्रस जीवो तकके संहार होनेके लिये भारी शस्त्र हो पडता है. अपनेको एक कांटा लगनेसें दुःख होता है, तो विचारे वे क्षुद्रजीवोंकी जान निकल जाय वैसे शस्त्र समान घातक पदार्थों वपरासमें लेनेके वास्ते हिंदु-आर्य मात्रकों और विशेष करके कुल जैनोंकों तो साफ मना ही है जिससे दुरस्त ही नहीं है. अल्प खर्च और अल्प महेनत से सेवन करनेमें आता हुवा भारी दोष दूर हो सके वैसा है; तथापि वे दरकारीसें उनकी उपेक्षा किये करे, ये दयालु जीवोंकों क्या लाजिम है ? बिलकुल नहीं ! वास्ते उमेद है कि उस संबंध धर्मकी कुछ भी फिक्र रखनेवाले या तरक्की क रनेवाले उनका तुरत विचार करके अमल करेंगे. दूसरी भी उपर बताई गई चलनादिक क्रिया करनेकी जरूरत पड़ती है, उनमें बहुत ही उपयोग रखकर जीवोंकी विराध न करतें जयणा पालन करनी चाहिये. चलने के वख्त पूर्णपणे सें 'जमीनपर समतोल नजर रखकर एकाग्र चित्तसें वर्तन रखने में, और बैठने, ऊठनेमें, खडे रहने- सोनेमें भी उसी तरह किसी 'जीवको तकलीफ न होने पावै वैसी सावचेंती रखकर रहना चाहियें. भोजन संबंध में तो जैनशस्त्र प्रसिद्ध बाइस अभक्ष्य और बत्तीस Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०९ अनंतकाय छोड कर, और दूसरे भोज्यपदार्थेभी जीवाकुल नहीं है ऐसा मालुम हुवे पाद, तथा जानकरके या अनजानतें जीवोंका संहार करके बनाया गया न होय वैसेही उपयोगमें लेने चाहिये. वो भी दिनमें प्रकाशवाली जगहमें पुस्ते परतन में रखकर उपयोग में लेने चाहिये कि जिसे स्वपरकी वाधा-हरकत के विरहसें जयणा माताकी उपासना की कही जावै. वापण भी हितकारी और कार्य जितना-(Short & Sweet) तथा धर्मकों दखल न पहुंचने पावे वैसा और जैसा जहां समय उपस्थित हो वहां वैसाही (समयोचित) पोलना. और पोलने के वस्त विरतितका मुहपत्ति और गृहस्थको भी इंद्र महासनकी तरह धर्मकथा प्रसंग समय जरुर उत्तरासंग-वस्त्रको मुंह. आगे रखकर बोलना कि जिसे जयणा सेवनकी मालुम होवै. ___ इस तरह उपर कही गई करणिय करने के रुत ज्योज्यों अप्रमत्ततासें वर्तन रखा जाय सौ सौ विशेषतासें आराधकपणा समझना. और उसे विरुद्ध वर्तन रख्खै तो विराधकपणा समय लेना. पूज्य मातुश्रीकी तरह मानने लायक श्री पूज्य तीर्थंकर गणधर प्रणीत पवित्र अंगवाली जयणामाताका अनादर करके पतन चलानेवाले कुपुत्रोंकी तरह इन लोकमें और परलोकम हांसी तथा. दुःख के पात्र होते है. वास्ते सपूतकी तरह जयणामाताका आराधना करनेमें नही चूकना-यही तात्पर्य है. (२) झूठवाडा-y अन्न या पानी खाने पीने या छटनेसे. Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० अपने मुग्ध भाइ और भगिनी कितना बहुत अनर्थ सेवन करते है सो ध्यानमें रख्खो ? पूर्व तथा उत्तरके देशोंकों छोडकर आजकल यहां के अज्ञ जीव इन मुंठकी पावतमें बहुत अधर्म सेवन करते है उनका नमूना देखो ? सभी कोई कुटुंबी या ज्ञाति भाइयोंके वास्ते 'पानी पीने के लिये रखे हुवे वरतनों से पानी निकालने भरनेके . लिये एक इलायदा बरतन-लोटा अगर प्याला नहीं रखते हैं; मगर जिसी बरतनसे आप मुंहको लगाकर पानी पीते है, वस वही झूठे जलयुक्त वरतनसें पुनः उसी जल भरित परतनकी अंदरस पानी निकाल कर आप पीते है या दूसरोंको पिलाते हैं, जिसे शास्त्र मर्यादा मुजब उन जल भाजनमें असंख्यात लालिये समूर्छिम जीव पैदा होते हैं यानि वो जलभाजन (पानीका परतन) क्षुद्र अति सुक्ष्म जीवमय हो जाना है, उन्हीकों, मुंह लगाकर झुंठ। परतन पानी भरे हुवे परतनेमें डालने वाले अज्ञ पशु जैसे निर्विवेकी जी पीते हैं जैसा कहना अयोग्य नहीं होगा. झूठा अ.. या 'पानी अंतर्मुहर्स उपरांत अविवेके या प्रमादसें रख छोड़ने वाला इस तरह असंख्य जीवोंकी विराधना करने वाला होता है. जैसा समझकर हृदय ज्ञान, मगजमें भान लाकर परभवसे डरकर जिस प्रकार वै असंख्य जीवोंका नाहक-मुफत संसार न होवे उस प्रकार चेतने रहना योग्य है यानि खाने पीने की वस्तुमें झुंठा पात्र हाथ न डालना और न झूठा बनाकर दूसरेको देना. उसी तरह गत दिनका ठंडा भोजन पदार्थ, धुप दिखाये विगर Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बनाया गया आम आदिका आचार, दो हिस्से होने वाले विदल मुंग, उडद, पिने, अरहर, मटर वगैरः के साथ कचा दही खाना अभक्ष्य भक्षणरुप होनेसें उन्होंका तहन त्याग करना. (वैद्यकीय नियमसभी ये चीजे तन्दुरस्ती बिगाडने वाली ही हैं वास्ते छोडने= से जरुर फायदाही होता है. ) छोटे बडे जीमन-शाति, कुटुंब भोज नके वास्ते बनाइ गइ रसोई कि जिसके बनाने के वक्त जयणा न रखनेसें बहूतसें जीवोंका सत्यानाश निकस जाता है. और खूठा अ..। जल ढोलनेसभी पहतही नुकसान होता है यदि सब जगह जयणा पुर्वक वर्तनमें आवै तो किसीकोंभी हरकत न पहुंचने पावै, __ और धर्माराधनका बड़ा लाभ भी सहजहीमें हासिल कर सके. पास्त हे सुज्ञ जन द ! लज्जा और दयावंत हो एक पलमरभी जयणाको भूल नहीं जाना. ___ (३) उडा खर्च-मा पापके मरे बाद अगर लडका लडकीकी शादी के परुत बहुत जगह फजुल खर्च करने में आता है, और उन पस्तों में करने लायक ख तर्फ वेदरकारी रखने में आती है. दृष्टांतरुप यह कि माता पिताने अंत कालम वैराग्य द्वारा मोह उतारकर तन मन धनसें जिस प्रकार उन्होंको धर्म समाधि होव-यावत् उन्होंकी या आपकी सद्गति जिस सुकृत करनेसे हो सकै उसी प्रकार वर्तना लाजिम है. अवश्य करने लायक वो पावतका भान भूलकर पीछे फक्त लोकलाजसें नाहक भारी खर्च में उतरना उन करतें तो तनाही धन परमार्थ मार्गमें व्यय करना सो विशेष श्रेष्ठ हैं. पुत्रादिक Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ जन्म या लग्नादि प्रसंगपर परम मांगलिक श्री देवगुरुकी पूजा भक्ति भूलकर झूठी धूमधाम रचनेमें लख्खों नहीं वलके करोडों जीवोंका विनाश होवै वैसी आतशबाजी छोडने वगैर: में अपार धनका गैर उपयोग करनेमें आता है, वैसा भवभीरु सज्जनोंकों करना ना दुरस्त है. < ( ४ ) मावापों का उलटा शिक्षण और उल्टा वर्तन:- मावाप, उनके मावापोंकी तर्फसे अच्छा धार्मिक व्यवहारिक वारसा मिलानेमें कमनशीब रहनेसें, किंवा भाग्य योग सें मिल हुवे परभी उनका कुसंग द्वारा विनाश करनेसें अपने वालकोंकों वैसा उमदा वारसा देनेमें भाग्यशाली किस तरह वन सकै ? अगर कभी सत्संगति मिलगइ होवे तो वैसे माबाप भी अपने बाल बच्चोंकों वैसा प्रशंसनीय वारिसनामा करदेनेमें शायद भाग्यशाली बन भी शकै ! क्योंकि -' सत्संगतिः कथय किं न करोति पुंसाम् ? यानि कहो भाइ ! उत्तम संगति पुरुषोंकों क्या क्या सत्फल न दे सकती है ? सभी सत्फल दे सकती है !' उत्तम संगति के योगसे प्राणी उत्तमताको प्राप्त करता है, उत्तम बनता है, तो फिर वैसी अमूल्य सत्संगति करनेमें और करके कौनसा कमबख्त उत्तम फल प्राप्तिमें वेनशीब रहेगा ? शास्त्र. के जाननेवाले पंडित लोग कहते है कि-' बुरे में बुरी और बुरेंमें बुरे फलकी देनेहारी कुसंगतिही है.' तो बुरे फलकों चखनेकी चाहनावाला कौन मंदमति ऐसी कुसंगतिकों कबूल करेगा ?- बस भगवशात् इतनाही कहकर अब विचार करै कि- अपने बाल 7 Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ · ११३ बच्चाको सुखी करनेकी चाहतवाले -मावाप वैसी कुसंगतिसे लडके અદજી, વવા રનવં ગૌર સમિતિએ મા તેને વહીવંત - रखकर उसको अमल में ले. यदि ऐसा न करेंगे. तो पैसे मावापोको बाल बच्चों के हित करनेवाले नहीं मगर बेधडकस अहितबुरा करनेवाले ही कहेंगे. वै मावित्र नहीं किंतु हे दुश्मन ही समझो गयौं कि उन्होने अपने बाल पचोंको जान बुझकर या वेदरकारीसें सद्गतिका मार्ग बंधकर दुर्गतिका मार्ग खुल्ला कर दिया है, उलटे रस्ते पर पड़ा दिये है; वास्ते बालकका जन्म हुवेके पेस्तर भी गर्भमें उसकोहरकत न होवे उस तरह विषय सेवन संबंधमें संतोषयुक्त मावापोंकों रहना चाहिये. ज. हुवे बाद कुछ . पोलना शिख लेवै तव तक, या वाल्यावस्था तकमें वो बच्चा अपशब्द न सुने या बोले नहीं, तथा सूक्ष्म जंतूको भी मारनेका नसीखै और न मारे जैसा उपयोग देनमें मावित्रोंको घडी खबरदारी रखनी चाहिये और उसको किसी पदचाल चलन द खिसलत पाले लोगोंकी सोबत न होने पावैउनकी बडी फिक्र और तजवीज रखना चाहिये. जब समझके घरमें आया के तुरंत उसको अच्छे . विधागुरु या धर्मगुरुके वहां सोंप देना चाहिये. कि जो विद्याधर्मगुरु उनको विनय वगैरः सद्गुणोंका अच्छे प्रकार सह पूर्ण . शिक्षण दव, जिस्स प्राप्त भइ हुई विद्याकी सफलतारूप वो विवेक रत्न प्राप्त कर सके. अन्यथा कुसंग कुच्छंदके योगसे विनय विद्याहीन रहनेसें विवेक रहित पशु जैसी आचरणा करता हुवा जंगलके रोक्षकी तरह भवावीमें भटकता फिरता है. . Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ वाललम कुजोड ये सब विद्या विनयादिक पानेमें बडे हरकते रूप होते है, जिसके परिणामसे वै इस लोकके स्वार्थसें भ्रष्ट होकर परभवका भी साधन प्रायः नहीं कर सकते हैं; इतनाही नहीं लेकिन अनेक प्रकारके दुर्गुण शीखकर बडे कष्टोंके भुकनेवाले हो जाते हैं; वास्ते वाल बच्चांका सुवारा करनेकी जोखमदारी मावापोंके शिरपरसें कमी नहीं होती है, वो उन्होंको खूब शोचनेकी जरूरत है. मावापोंकी कसूरसें लडके भूर्ख प्रायः रहनेसें उन्होको ही एक शल्यरूप होते है, और उन्हीकी पवित्र तसे बालक व्यवहार और धर्म कर्ममें, निपूण होनेके सववसें उभय लोकमें सुखी होनेसें उन्होंकों भवोभवमे शुभाशिर्वाद देते हैं. परंपरासें अनेक जीवोंके हितकर्ता होते है. और वै श्रेष्ठ भावापोंके दर्जेकी खुदकी फर्ज अपने वालवच्चे या संबंधीयोंकी तर्फ अदा करनेमें नहीं चूकते हैं. हमेशां सज्जन वर्ग में अपने सद्विचार फैलाने के वास्ते यत्न करते हैं, और पारमार्थिक कार्योंमें अवलदर्जेका काम उठाकर दूसरे योग्य जीवों को भी अपने अपने योग्य करनेकी प्रेरणा करते हैं, ये सब फायदे भावापोंके उत्तम शिक्षण और उत्तम चाल चलनपर आधार रखनेवाले होनेसें अपन इच्छेंगे कि भविष्य में होनेवाली अपनी ओल औलादका भला चाहनेवाले मावाप आप खुद उत्तम शिक्षण ऑस कर, उत्तम चालचलन रखकर अपने वाल बच्चांओंके अंतःकरणका शुभ धन्यवाद मिलानेको भाग्यशाली होवेंगे. अस्तु ! Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावका गरों पहि पान्नों आरो हुवेज गोकी गल करने लायक फर्ज. श्राव धर्मकी पद्धति प्रणालीका. पूर्व पुण्यके योगसे दश दृष्टातरु५ दुर्लभ मानव भवादिक उत्तम सामग्री पाकर अपना पुरुषार्थ स्फुरायमान करकें परम पवित्र श्री वीतराग प्रणीत धर्ममार्गका जानपना मिलाकर उनका यथाशक्ति सेवन-आराधन कर कृतकृत्य होना यही हरएक अकलमंद श्रावक कुलमें पैदा हुवे भाइयों और भगिनीयों तथा युक्तियुक्त सत्य वार्ताकों केदाग्रह रहित कवुल रखनेवाले निष्पक्षपात बुद्धिवंत मध्यस्थ दृष्टिवंत जनोंकी फर्ज है. अपनी खास फर्जे बजाये विगर आखिरकों अपना छुटका नहीं है; वास्ते हरएक आत्मार्थी जीवोंकों अपनी मुख्य फर्जे जानने की या जानकर बहुत खतके साथ अमलमे लेनेकी जरुरत है. अवलमें तो महा मलीनताजनक रागद्वेष और मोहादिग्रस्त कुदेव गुरु और उन्होंका कथन किया गया कुधर्मका तदन त्याग करनाही योग्य है. उनमें भी कुगुरुको तो काले साँपसें भी अधिक दुःखदायी मानकर त्याग देने चाहिये क्यौ कि काला नाग कदाचित् काटे तो एकही वस्त पाण लता है; लाकन कुगुरुरु५ सांपका मिथ्या उपदेशरुप दंश तो जन्म जन्म फिराकर जन्म म Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ रण कराता है। वास्ते बुद्धिवंतकों उनकी कुसंगति बिलकुल छोड देना और पुर्वोक्त गादिक कलंकसें तद्दन रहित सुदेव पीतराग सर्वज्ञदेवकी आज्ञा आराधनेमें तत्पर रहना, तथा बाह्याभ्यंतर ग्रंथिसे रहित निग्रंथ सद्गुरु और वीतराग प्ररुपित दान-शीलतप-भावनारुप सुधर्म उनकों बहुत यत्नके साथ सेवन करने में कटिवद्ध रहना चाहिये. उनमें भी साक्षात् तीर्थकर या केवलज्ञान के विरहके वस्त निग्रंथ गुरु-साधुकी सेवा करनेमें ज्यादे रसिक होना चाहिय; क्यों कि वैसे सद्गुरुओंसें भव्यप्राणीको भवभय दूर करनेहारे शुद्ध देव-गुरु-और धर्म संबंधी तत्वोपदेश मिलता है, जिनको अंगीकार कर अनेक भव्यजीव भीष्मभवादधि सहजहीमें तिर जाते हैं. यानि तमाम दुःखोंका नाश करके कायमके लिये अक्षयसुख प्राप्त करते हैं. (सदूसरु उपदेश तीन तत्वों का सेवन..) अय भ०यजनो ! यदि तुम जन्म जरा मरनसें, आधि व्याधि उपाधिसे, भरपूर उत्पन्न होनेवाले अत्यंत दुःखोंसे भरा हुपा ये भव संसारसे कुछ उविज्ञ या अलग होनेकी फिक्रयाले हुवे हो, और तुमको मोक्षपुरीके अक्षय सुखोंको साक्षात् अनुभवमें लेनेकी अभिलाषा जास्त हो तो संसारके समस्त दुःखोंको काटने के वास्ते और अक्षयमोक्ष सुख साधनके पास इस मुजब उद्यम करो. यानि पहिली तो पुर्वोक्त कहे हुवे दोषोंसे दूपित भये हुवे कुदेव-कुगुरुऔर कुधर्मकों हमेशा के लिये विलकुल जलांजली. दे दो. उन्होंको Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११७ सदन छोड़ दो. और शुद्ध देव वीतराग परमात्मा, शुद्ध गुरु-निग्रंथ अणणार, और शुद्ध धर्म-केवली प्ररुपितका शुद्ध दिलस सवन क रो. मन, वचन, तन ये तीनूंकी शुद्धिसें सुदेव-सुगुरु-सुधर्मकी आरा___थना करो. कुदेवकी मनसे इच्छा, वचनसे प्रार्थना, और तनसे चाहे वैसा कट आ पड़े तथापि कुमारपाल भूपालकी तरह अडग धीरज धारन करके निर्भय रहो. इस तरह अचल रीति मुजब तीनूं तत्वोंका सेवन करनेसें आखिर तुम बहुत सुख पाओगे. यदि असा न करोग तो वेशक तुम सब बाजी हार जाओगे. जगत्म भी 'क्षणभरमें मासाभर और क्षणभरमें तोलेभर-' होने वाले चपल चित्तवंत निंदाके पात्र होते है. और जैसा मनमें वैसाही बचन में __ और जैसा वचनमें वैसाही तनमें वर्तन रखनेवाले जन जगतमें व हुत यशवाद पाते हैं. कुमारपालकी तरह दुसरे जीवोंको दृष्टांतरुप होते है. वास्ते स्थिर मन बचन तनद्वारा शुद्ध देवगुरू धर्मरुप तीन तत्वोंका एकाग्रपणेस आराधन करना, जिसमें आखिरमें अपनभी उसी रुप हो जावैधानि चारों गतिरुप भवभ्रमणा दूर करके पंचमी मोक्षगतिरुप अक्षयपद अवश्य प्राप्त कर सकें, और सभी दुखोंका अंत कर संपूर्ण सुख स्वाधीन कर कायमपणे उसका साक्षात् अनुभव कर आनंदमें मग्न होवें. (सप्त महा व्यसनोंका वर्जना.) अब भब्य जीव ! नरक गतिमें जाने के दाखिल होने के दरबजे समान सात महा बडे व्यसन ज्ञानीजनोंने शास्त्र में विस्तार- • Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ युक्त बतलाये है. उन्होंको सयज्ञ करके त्याग करनेवाला नरक गतिसें अपना बचाव करके सुखपृषक मोक्षपुरीमें जा सकता है. पारते उन व्यसनोंकी समझ मिलाने के वास्ते संक्षिप्त वर्णन करते हैं. मांस भक्षण १, मदिरा पान २, शिकार खेल ३, परस्त्रीगमन. ४, वेश्या-नगरनायका गमन. ५, चोरी. ६, जुगार.७, यह सातों व्यसन महा पापमय और यहलोक परलोक विरुद्ध होनेसे बिलकुल दुःखके देनेहारे हैं. इन सातो व्यसनकी अंदरके एक व्यसनसें भी पराव पाया हुवा प्राणी आखिर जरुर पायमाल हो जाता है, तो इन सातो व्यसनफे सेवनेवालों के लिये तो कहनाही कया? ! इन वस्तुओंके अत्यंत व्यसनवाले लोग पडे नीचकमक करनेवाले होनेसें इस जहाँमें भी बहुत धिकारको पाते हैं बडे दंडकी शिक्षा उठाते हैं. यावत् वेमौत-असमाधि भरणसें इस दुनियांको छोडकर चले जाते हैं. और जन्मजन्ममें नरक निगोदादि के अनंत दुःख-अनंतवार पाते है. नरकके अंदर परमाधामी वगैरः कठिनमें कठिन वेदना देते हैं. वहां किसीका शरण भी नहीं, गिरपडनेपरभी लातोंका मार पडनेकी तरह या जल गये हुवे पर लूनको लगानेकी तरह परमाधामी पूर्वकृत महान् पापोंको सुना सुनाकर वहत बहुत संताप देते हैं. वो सब सहन न होनेसे वै महा पुकार करते हैं; मगर वो पुकार सुनकर किनके दिल में दया पैदा होवैकिसीकों भी लेश दया नहीं आती. वज्र जैसी कठिन छातीवाले परमाधामी ऐसे पापीओंकों पीडते ही जाते हैं, उस वस्त पूर्वकृत Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाप याद आनेसें बहुत पिछतावा होता है; लेकिन जैसा जैसा कठोर कर्म-पाप किया होवै उस उस मुजब दुःख भुक्तने के वादही वहांसें छूटकारा होता है, वो भी शमतासें भुक्ते तो; नहीं तो महा आर्त रौद्र ध्यानसें पीछे भारी निकाचित कर्म नये पांध लेनेसे पुनः उससेंभी कठिन विशेष दुःख आगेको भुक्तने पडते हैं. इस मुजव पेस्तर और पीछे भी केवल दुःखको ही देनेहारे उकथित सात महा व्यसन बुद्धिमानोंकों अपने हितकी खातिर संकल्प-निश्चयपूर्वक छोड देनेही चाहिये. ये महा व्यसनों के सेवनहारे (मन वचन तनद्वारा करने कराने या इन्होंकी प्रशंसा करने हारे) महा संक्लिष्ट परिणामसें महा अशुभ निकाचित कर्म वांधकर अपनेही आत्माकों महा मलीन करके नरकादि अधोगति पाकर अनंत दुःख पाते है. इसीसेंही परमकृपालु सर्वज्ञ प्रभुने भन्य जीवोंके भलेकी खातिर उपर कहे गये मप्त व्यसन छोडने के संबंध शास्त्रोंमें प्रसंग प्रसंगपर उपदेश किया है. कोमल हृदयपवित्र आशयवाले प्राणी पैसा पवित्र उपदेश पाकर पूर्वोक्त सात महा व्यसनोंको ज्यौं बन सके त्यौं तुरंत जरुर छोड़ देते है. फक्त अर्धदग्ध या दुर्विदग्ध दुर्भागी जीवही वैसे सदुपदेशका अनादर करके कुमतिकी कदर्थनाको सहन करते हुवे आपमतीसें उलटे चलते है. उन्होंकी छाती पैसेही घोरकर्म करने में अत्यंत कठिन वज जैसी होनेसें वै विचारे नरकादि महादुःखों के ही अधिकारी Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० __ हैं. और पैसे सदुपदेशादिक विरहसे अनादिक उलटे अभ्यास के सववसे पैसे कुकर्मके सेवनहारेके भी वैसेही हाल होते है. ये उपदेशका मतलब इतनाही है कि-धुर्व पुण्यद्वारा मिली हुई सद्गुरु आदि उत्तम सामग्रीका लाभ लेकर ज्यौ वन सके त्यौँ तुरंत पूर्वो- महा सात व्यसनोंका सहेतुक स्वरुप समझ कर संकल्पपूर्वक ___ उन्होंको जरुर त्याग करना, यही हरएक अक्लमंद शरीरधारीयोका कर्तव्य है. सामग्री विद्यमान होने परभी उसका अनादरके भविष्यमें प्राप्त होने वाली सामग्री योगसें साधनेकी आशा केवल दुराशारुप ही है; क्योंकि वैसे सत् साधन विगर पैसी उत्तम सामग्रीका लाभ जन्मांतरभी होना असंभवित है. अज्ञान दशाके वश अतीत अनंतकाल तो योंका युही निकग्गा गुमाया और अभीभी पूर्वसंचित योगसे मिली हुई सत् सामग्रीका लाभ न ले सकता है, सो मंद • भाग्य या हतभाग्य दुर्भव्यको आगे बहुत शोचनी पडेगा. पूर्वपुण्य योगस मिला हुवा ये मनुष्य जन्म सद्गुरु समागमादिरूप सत् सामग्रीका विद्यमान लाभ पाकर प्रमादरू५ महान् शत्रुके तावे होकर के चिंतामणि रत्न सदृश धर्मका आराधन नहीं करता है, वो भूब पामर प्राणी सचमुच चतुर्गतिरुप संसाराटवीमें बहुत दफै भटककर महा दुःखयातना पाता है और पावेगा; 'वास्ते दुःखसे डरनेवाले सुखाथी जीवाको जरुर समादके फंदमसे छूटकर स्वश्रय साधनम . न चूकना. अभी अल्प कोटमे थोडे वखतमें स्वाधीनतासें चाहे तो Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२१ आत्मसाधन हो सके वैसा है; लेकिन प्रमादसें ये अमूल्य तक चुक गया तो फिर पीछे ठिकाना पडना वडा मुश्किल है. पीछे तो पराधीनता से पूर्ण दुःख दरियावमें डूबे हुवे परभी कोइ शरणभूत होने वालाही नहीं. श्री शत्रुंजय महात्म्यकी अंदर कंडुराजाके अधिकारमें श्री धनेश्वर सूरीजीने कहा है कि: " धर्मेणाधिगतैश्वर्यो, धर्ममेव निहंति यः कथं शुभायतिर्भावी, स स्वामी द्रोह पातकी. " सारांश यही है कि- पूर्वमें सेवन किये हुवें धर्म के प्रभाव सेंही करके सभी संपत्ति पाये पर भी जो मूढबुद्धि धर्मकोंही विनाशता है वो स्वामीद्रोह करनेहा महापापीका कल्यान किस तरह होवे - गा ? मतलब - कदापि न हो सकेगा. एक सामान्य राजाका हुकम तोडनेरुप वडा गुन्हा करनेवालेकों वडे भारी दुःख सहन करने पडते है, तो त्रिजगत्पति जिनेश्वरदेवने परम करुणा - हितबुद्धिसें फरमाई हुई हितशिक्षारुप उत्तम आज्ञाकों तदन उल्लंघन कर मदोन्मत्त चनकर केवल विषयसुखकीही लालच में लुब्ध होभये हूवे पामरअति दीन प्राणीओंकों कितना भारी दुःख आगेपर उठाना पडेगा ? अहा ! मोह मदिरा घोर जिसमें मन होकर पडे हुवे वै महा मूंढ जनोंकों उन संबंधी खियालभी नहीं आता है कि अभी एक क्षणभर सुख वो भी अति तुच्छ - कल्पित और उसका विपाक -परिणाम महा भयंकर जरुर भुक्तनेही पडेंगे. विषय, किंपाकके प्राणघातक फलवत् पहिले मुग्ध जीवोंकों C Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૨૨ भीठा लगता है; मगर पीछे वडामारी अनर्थ पैदा किये विगर नहीं रहता है. खुजली पालेको प्रथम खुजालते रुत बडी सुहावनी लगती है; पर पीछे सें बहुत जलन वगैरः संताप होता है. ग्रीना तुमें तृषातुर बने हूये भोले हिरन मृगतृष्णा जलको देखकर दौडते हैं, मगर वै बिचारे कष्ट मात्र फल पाते हैं. उसीही तरह विषयातुर जीव उन उन विषयसुखके भ्रमसें अनुसरकर महादुःख थातना उठते है. असा समझकर चतुर शिरोमणि जन हमेशां सावधानतासेंही रहते है, जिस्से कदापि उन्होंको जैसी अवदशा होती ही नहीं. कितनक मुग्धजन तो वेसमझसे वो व्याप्तनादि महा पाप असे व्यवहारसें नहीं सेवन करते है तो भी वै उन व्यसनोंकी तस्वरुप समझ विगर श्री वीतराग या निग्रंथ गुरुके परम करुणामय सदुपदेशकों प्रमादवश होकर अनादर करनेसें वै महा व्यसनादिकका नियम-निश्चय पूर्वक त्याग नहीं करनेसें पापके हिस्सेदार तो होतेही है. उन महा व्यसनोका त्याग करने के लिये जो हद संकल्प करना चाहिये उसकी न्युनतासें वै महापाप सेवन करने वालोंकी तरह आप भी पाप के हिस्सेदार ही करते हैं. - कितनेक जीव अज्ञानदशासें ऐसा कहते हुवे मालुम होते है कि:-'जो काम अपन करते ही नहीं है उनको पञ्चस्खान लेनेकी जरुरत क्या है ? ' इन आदि अनेक कुतर्कद्वारा अन्य भोले वालजीवोंकों भी भ्रममें डालकर स्वच्छंदतासें मिथ्यामार्गकी पुष्टि करते हैं। Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२३ उनको उनके कुतकोंकी समाधानी करने के लिये श्री उमास्वाती वाचकृत श्रावक प्रज्ञासिकी मूल टीका या भाषांतर मनन पूर्वक पांचनेकी या सुन्नेकी खास मलामन करते है. इन संसारमें भ्रमण करने के मूल कारणभूत राग द्वेष और मोहादिकसे सर्वथा मुक्त भये हुवं सवेश प्रभुके परम पवित्र प्रवचनपर पूर्ण विश्वास रखना ये भवभीर भव्य सत्खाका खास कर्तव्य है. वैसे सर्वज्ञ प्रभुके साक्षात् विरहसे सर्वत्र अवरोधी आगम या आगमघरही आत्मार्थी मुमुक्षुवर्गकों, और दुःखसे डरकर सुखकी चाहत रखनेवाले प्राणी ओंकों खास निर्यामक कप्तान है. उन्हीकी उपेक्षा करके स्वच्छंदतासे केवल विषयसुखकी ही आशंसामें गिरनेवाले पापी प्राणि परभवकी अंदर, और कचिन इस भवकी अंदर भी महा पश्चाताप पाते है. उन्हीके हितकी खातिर यहाँपर प्रशंगवशात् कुछ लेश मात्र कहा गया है. बाकी तो पूर्व महापुरुषोंने तो वो मांसादिक महा व्यसनों के सेवन करनेहागेकी भइ हुई और होती हुई दुर्दशा वर्णन करके अनेक तरहसे अनेक जगह वै महाव्यसनोंकी मना की है. और वै मांसादिक महान् व्यसनोका त्याग करनेवाले सत्पुरुषों के दृष्टांत नोंध लेकर दूसरे भव्य प्राणियोंको प्रेरणा की है. बुद्धिवंतकों कीइभी काम उनका आखिरी सार निगाहमें अच्छे विचारयुक्त रखकर करने का है, वैसा योग्य विचार किये बिगर जो लोग साहस करते हैं उन्को बहुत करके पश्चातापही करनेका प्रसंग आता है. शास्त्रकारोंने कहा है कि: Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ -14 " होय विपाके दश गुण रे, एक वार कियुं कर्म; शत सहस्र कोटि गमे रे, तिव्र भावना मर्मरे प्राणी ? जिनवाणी घरो चित्त. " t परमार्थ जैसा है कि कोई भी अकृत्य सामान्य रीति सें मोह किंवा अज्ञानके वश होकर किया गया होवै, तो उसके बदले में दश गुना दंड भुकना पडता है, और वही अकृत्य बहुत हर्षित हो मशगुल हो अत्यंत किलट परिणामसें किया गया हो तो उनके प्रमामें सौ, हजार, लाख, क्रोड, कोडा क्रोड, यावत् असंख्य - अनंत गुणा दंड सहन करना पडता है. इस ग्रुजव समजकर मांसादिक सप्त व्यसनोंसें बिलकुल दूर रहेना; इतनाही नहीं मगर तमाम पापस्थानोंका तदनं त्याग करनेके वास्ते जितना बन सके उतना प्रयत्न करना कितनेक दुर्विदग्ध दांभिक पंडित शिवोहं ब्रह्मास्मि इत्यादि झुंठा निकम्मे सोर गुल हो हां मचाते हुवे मालुम होते हैं मगर जब उनके आचरण तर्फ नजर करनेसें वो देखनेवालोंकों साक्षात् ब्रह्मराक्षस नजर आते है; चौंकि मांस मदिरा जैसी अति निंद्य वस्तुयें भी वो छोड देते नहीं, और मैथुन सेवनादिक अगणित पाप पंकमें (कीचड ) में डूककी तरह वो लीन रहते है. जैसा दिखलाकर उन्होंकी निंदा द्वारा फजीती या बुराई करनी करवानी नहीं मंगते है, हमारा आंतरिक परिणाम जैसा नहीं है; मगर वै ' अहं मै शिव कल्याण रूप हुं-' इत्यादि फर्क वचनसें ही बोलते हैं; किंतु मन वचन त 4 Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२५ नसे किसी भाणी मात्रकों आप उपद्रव न करे, न करा, और न वैसा करनेवालेकी प्रशंसा-अनुमोदना करें वैसे होव-यानि जैसा वोलें वैसी ही क्रिया किये करें, जैसा ही चाहते है. जैसा वचनमें औसा ही मनमें और वैसा ही शरीरमें पालनेवाले निर्मायी, निष्कपटी, निर्दभी कहे जाते है. मगर मनमें अलग, वचनमें अलग और शरीरमे भी अलग पनि रखनेवाले फ मायावी, कपटी, या दंभी ही कहा जाता है. सच्चा शंकर हो वो किसीको कवी भी किसी प्रकारसे पीडे नहीं, पीडा करावे नहीं, और पीडनेवाले सख्सकी प्रशंगा भी न करें और इनसे विरुद्ध पर्तनवाले शंकर नहीं मगर संकर हैं, वै तो केवल मिथ्या आडंबरफारी मायावी ही मानने लायक हैं. शुद्ध निश्चयनबसें देखनसें आत्माको वर्ण जाति या वेदादिक कुछ भी घटित नहीं है. मगर व्यवहारनयसें कर्म संबंधसे जीवोंकी विचित्र परिणती पशसे शास्त्रकारोंने वर्णादिककी व्यवस्थाकी होवे असा मालुम होता है. अनुभवगोचर भी वैसाही होता है. यदि शास्त्रकारोंन . सामान्य रीति- वर्णादिककी व्यवस्था कर दिखलाई है; तथापि उन्होंका तत्व उपदेश तो यही है किकेवल फलाने वर्णादिकमें पैदा होने मात्र से उनको वोरुपवंतही मान लेना नहीं; किंतु गुण दोष विवेक साथ उनके आचरणकों पूरे तौरसें, लक्षमें लेकर उसमें फलाने वर्णादिकका आरोप करना. अन्यथा नहीं क्योंकि कोइ नाम मात्र से उच्च वर्ण गिनाये जाते Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ हुवे पर भी प्रत्यक्ष महा घोर पापकर्मके, करनेवाले भी मालुम होने हैं. और नाम मात्रसें नीच जाति वर्णवाले गिनाये जाते हुवे परभी प्रत्यक्ष रीतिसें अनेक सद्गुणद्वारा उच्च अधिकारको प्राप्त हुवे भये मालुम होते हैं. जैसे प्रसंगपर शास्त्रकारोंके तत्वोपदेश पर खास लक्ष रखनेकी जरुरत है. अन्यथा मतिभ्रमसें वेर वेर स्खलना होनेका संभव है. उपदेश मालादिक शास्त्रकाओनेभी तत्व-धर्मकाही __ अवलंबन करके जाति आदिकी मुख्यता नहीं कही है। वैसे महा पुरुषोंके वचनका विवेकी पुरुषोंको अवश्य आदर करनाही योग्य है. आप्त वचनसें अपन जान सकते है कि-चांडाल जैसी नीच जातिमें जन्मे हूचे मेतार्य, हरिकेशी आदि पुरुष पवित्र रत्नत्रयीको सम्यग् प्रकारसें आराध कर मोक्षपद साध सके हैं. और सुलस जैसे चांडालके कूलमें पैदा होने पर भी श्रावक व्रतको आराध कर देव गतिको प्राप्त कर सके है, वास्ते तत्त्वविचारसे तो गुणही नियामक है. इसेही नीच कुलकी अंदर पैदा होनेपर भी अनेक सद्गुण शिरोमणि अपने पवित्र आचरण द्वारा जगत् पंच होकर परमपद पाये हैं. और उत्तम कूलमै पैदा होने पर भी अनेक दोषोंका सेवनकर असंख्य मलीन आत्मा अधोगतिको प्राप्त हूवे हैं; वास्ते उत्तम कुलमें पैदा होने मात्रसे मोक्ष कदापि मान लेनेका नहीं हैं. मोक्ष प्राप्तिके योग्य उत्तम गुणोका सेवन करने सही सभी आत्माओंक कल्यान होनेका है, अन्यथा नहीं. औसा समझ करके वैसे उत्तम ' गुण धारन करनेके वास्ते और दोषोंको उन्मूलन करने के वास्ते . ह Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२७ मेशां सावध रहना उत्तम बुद्धिवंत जनोंको उचित है. जहांतक उभय लोक विरुद्ध मांस भक्षणादि महा पापोंका त्याग नहीं किया है. वहांतक मोक्ष संपादक विवेक आदिक उत्तम गुणोंकी प्राप्ति होनी पहुत मुश्किल है; वास्ते अनंत दूःख दावानलमें सींझानेवाले जैसे महा दोषोंका सर्वथा त्याग करनेके लिये सच्चे सुखके कामीजनोंकों तत्पर होनाही मुनाशिव है. (पापस्थानक परिवजन.) समस्त पापरुप कीचडको दूर कर कर्म संबंधी अनादि मलीन आत्माको निर्मल करने के वास्ते परम पवित्र परमात्म करुणावंत प्रभुने पापका स्वरुप जैसा कहा है वैसा ही समझकर उसको ज्यौवनसके त्यौं सावध हो त्याग करने का फरमाया है. वो पाप मलीन अध्यवसाय जनित होनेसें असंख्य जातिका होने पर भी ज्ञानी पुरुपोंने स्थूल बुद्धिवालोंको समझाने के लिये उनके १८ पाप स्थानमें समावेश करके दिखलाया है. वो १८ पाप स्थानके नाम बहुत करके अपन हर हमेशा मुंहसें पढते ही रहते है और उनका मिथ्या दुष्कृत भी दिया करते है तो भी उनका यथार्थ स्वरूप समझने में अपन बहुत पश्चात् हैं, और उससे अपना पैसा पाठ पढ़न वो तो रामनाम पढ़ने जैसा अर्थ-तत्व शून्य है. या कुहारके मिथ्या दुष्कृत जैसा शून्य आशयवाला होथै उसमें क्या आश्चर्य हे ! अपना कहना सार्थक कर अपन, उन उन पापके पोजैसे मुक्त हो वैसें उन उन पापस्थानको बराबर समझकर लक्षमें रख Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ कर सावध हो उनका अपनकों खसूस त्याग कर देनेकी हो जरुरत है. ( १ ) पहिला प्राणातिपातः-पांच इंद्रिये, मन, वचन, काय, श्वासोश्वास, और आयुष यह दश प्राणधारीओंका या इनमेसें थोडे भाणवाले जीवोंका विनाश करना यानि जानकर, अनजानपनेसें, या प्रमादवश होकें प्राणीवर्गको पीडा पैदा करनी यावत् उनका नाश करना उसका नाम प्राणातिपात कहा जाता है. समस्त प्राणीवर्गके प्राणोंकों अपने प्राणसमान प्यारे गिनकर उनकों बिलकुल तकलीफ जो महात्मा नहीं करते हैं वै दमनशील पापका द्वार ( पापाश्रव ) बंध कर अपने आत्माकों मलीन नहीं करते हैं. काइ भी प्राणीको पीडा करनेका अपना हक नहीं है. अपने अपनेकों मिले हुवे प्राणोंकों धारण करनेमें सभी जीव सुख मानते है. उनकों मिले हुवे भाणोंकों छीन लेकर उनकों सुखका अंतराय करनायावत् उनके प्राण छीनकर उनको जो परम असमाधी पैदा करनी सो त त्यसे विचार करै तो (वो) भावि दुःखका मूल कारण है. ( २ ) दूसरा मृषावाद :- मृषा यानि झूठ और वाद यानि ચૂંટ बोलना अर्थात् असत्य बोलना, विना प्रयोजन मिथ्या - नाहक संबंध बिगरका बोलना, अपने और दूसरेका हित न होवै वैसा अविचारी कर्णकटु बोलना उसको मृषावाद कहा जाता है. कदाग्रह द्वारा सत्य - धर्मविरुद्ध भाषण करके स्वपक्ष स्थापन करना उनकों महामृषावाद समझना.. Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३३ पेठने नहीं पाता है, हर हमेशा भयसे आतुर ही रहता है, राज्यदंडादिक अनेक दोष पैदा होते है, और परभवमें गदहे आदिके नीच जन्म लेकर पराया देवा पूरा करना पडता है. वास्ते सुश्रा__पक उनसे हमेशा डरकर चलै; क्यों कि इसे बचा हुवा हो तो राजादिक तमाम जन उनकी प्रतीति रख्खें, व्यवहार में हानि न होने पावे, दूसरेजन उनको देखकर धर्म पावें, और परभवों प्रायः महर्थिक देव समान उत्पन्न होवै. (४) चौथा. मैथुन-मैथुन क्रिया (देव मनुष्य या तिथंच संबंधी विषयविलास करना सो) चौथा पापस्थान है. किपाक. फलकी तरह पेस्तरमें वो भीठी लगै; मगर अंतमें विपरु५ होती है. यावत् आपके सत् चरित्ररुप नाणको हर लेती है. जगतमें विवेक विकल बनकर और बेर निंदा पात्र होने हैं. लुब्ध लंपट और नादानीकी पंक्तिमें गिने जाते है. विषयइंद्रिके तावदार होनेसें आखिर रावणकी तरह स्वार होते हैं. उन्ही विषयक्रीडाको ५०य करने हारे श्री रामचंद्रजीकी तरह जयश्री के स्वामी होते है. सुदर्शन शेठकी तरह. शासन दीपाने हैं, और अत्र इच्छित फल मिलाकर परभवमें मुख प्राप्त करते हैं; वास्ते उक्त पापस्थान आदर सहित छोड देना ही दुरस्त है. (५) पांचवा परिग्रह-धन धान्यादिक वस्तुओंकी अंदर परि यानि सब प्रकारसे, ग्रह यानि आग्रह-भूच्छी ममत्व उसीकों परिग्रह पापस्थान कहा जाता है. ये पापस्थान परिणाममें महान् Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ १३४ अनर्थ करनेहारा है. लक्ष्मी आदिकमें बेहद लोभसें अनेक वरूत महान् कष्ट-तकलीफ सहन करने ही पडते हैं. बहुत पाप सेवन कर पैसा जमाकर उनमें बहुतही ममत्व रख कर मरनेस सांप वगैर के ज.॥ लेके दूसरे जीवोंको पहुत त्रास देनेहारे होकर आखिर नीच गति पाते हैं। वास्ते अति लोभ छोडकर अवश्य संतोष सेवन करना कि जिसे यह भव परभव सुधर सकै. (६) फ्रोध-गुस्सा-रीश लाकर दूसरेको तिरस्कार वचन आक्रोशादि करना उसको ज्ञानीओंने अग्नि समान कहा है. ज्हां वो क्रोधाग्नि प्रकट होता है वहां गुणको जलाकर आगे बढ़के हामनेवालेको जला देता है, मगर उस वख्त उपशमरुप जलका योग मिल जाये तो आगे बढा हुवा भी दूसरे (क्षमापंत) कों नुकशान नहीं कर सकता है गतलब यही है कि क्रोधकों शांत करनेकों अव्वल दर्जेका इलाज उपशम भाव है. आगे यह दोहरे कहे गये है; तथापि प्रसंगवशात् याद कराते है कि: क्षमा सार चंदन रस, सिंचो चित्त पवित; दयावलि भंडप तलें, रहो लहो सुख मित्त! १ देत खेद पर्जित क्षमा, खेद रहित सुखराज; इनमें नहीं आश्चर्य कुछ, कारन सरिसो काज. २ पास्ते शांत सुखके ग्राहकोको खेदरहित क्षमा गुण धारन __ करके अपना और दूसरोंका उपकार कियेही करना. ... (७) सातवें मान-अहंकार अभिमान-गर्व-मद आदि इसी Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३५ के पर्याय हैं. मोक्षनगरमें जाने के क्रूत मानरुप पहाड बीचमें हरकत करता है, उसका नाश नम्रतारुप पनसेंही होता है. मानसे रावण, दुर्योधन जैसे भी जबरदस्त राजेश्वर भी पायमाल हो गये है। क्यौं कि मान सभी गुणोंका नाश करनेहारा है। वास्ते मान छोहकर विनयका सेवन करना. (८) आठवे माया-दंभ-छल-प्रपंच-कपट-ठगाइ वगैरः इनकही पर्याय हैं. दंभी मनुष्य अपने दोष छुपाने के लिये और लोगों में अपना मान मरता बढाने के लिये अनेक यत्न प्रयत्न करता ही रहता है, मगर आखिर 'दगा किसीका नहीं सगा' इस न्यायवचनानुसार पापका घडा चटका फूट जानसें बड़ा भारी फिटकार पाकर निंदाका पात्र होता है. पुनः उनका कोइ विश्वास भी नहीं करता है, उनकी सभी धर्म क्रिया भी निष्फल हो जाती है; वास्ते वक्रता छोडकर सरलता सेवन कर मन शुद्ध करना. जहांतक मनका मैल नही धो डाला है वहांतक वहार के तमाम आईवर निक+मे है। वास्ते माया कपटता छोड देनी. (९) नौवे लोभ-असंतोष, तृष्णादि इनके ही पर्यायवाची स०५ हैं. तमाम अनर्थोका मूल लोभ है. कहा है कि: - आगर सबही दोषको, गुणधनको बड चोर; व्यसन वेलिको कंद है, लोभपास चहुं और. लोभमेघउन्नत भये, पापक बहु होता धर्महंस रति न हुं लह, रहे न ज्ञान उधोत. Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कोउ स्वयंभूरमणको, पावै जो नर पार; सोभी लोभ-समुद्रको, लहे न मध्य प्रचार. तथापि लोभ सागरका पार पानेका सच्चा और उमदा इलाज फक्त संतोष ही है. ज्यौं ज्यौं लाभ मिलता जाय त्यौं त्यो लोभीका लोभभी पता ही जाता है. यदि आकाशका अंत आवै तो लोभी की इच्छा का अंत आवै. अर्थात् आकाशकी तरह लोभीकी इच्छा __ अंत रहित होनेसें तृष्णाका पार नहीं आता है और उनको बहुत दुःख उठाना पडता है. कहा है कि:-'न तृष्णा परो व्याधि' यानि तृष्णासें उपरांत कोई कष्ट साध्य व्याधि ही नहीं है सब सुखका साधन संतोष है. यत:-'न तोषात् परमं सुखं '-यानि संतोषसें ___ ट कोई दूसरा सुख नहीं है; वास्ते सच्चे सुखार्थीजनकों संतोष ही सेवन करना. (१०) दशवें राग-रंजयत्यसौरागः-आत्माका शुद्ध स्फटिक जैसा स्वरुप बदलकर जिसके संगसे रंजित हो जाता है सो ही राग. राग मोहराजाका पाटवी पुत्र युवराज है, और उनका परा क्रम केसरीसिंह जैसा होनेसें वो अकेलाही जगत मात्रकों पराभव कर सकता है. मैं और मेरा-ममता५ फंदमें वो मुग्ध मृगोंको फंसाथा ही करता है, उनकी हामने टकर लेनी कुछ मरल नहीं है। उस्से अप्रमत्त पुरूष ही विवेक शिखर पर चडकें टक्कर ले सकते हैं; तौ भी ज्यौं ज्यौं मोह ममताको त्यागकर धर्म महारानका शि सण लिया जाता है त्यौं त्यौं रागादिक दुश्मन कम ताकतवाले हो ' अंतमें भाग जाते है पानि नाश हो जाते हैं. Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - १२९ सावुव्रत अंगिकार किये परभी कदाग्रह द्वारा जो जैसा - पक्ष असत्य बोलते हैं-प्ररूपतें हैं उनकों महा मृषावादी भ्रष्टाचारी समझने चाहियें. असत्य बोलनेसें बहुत औगुन हैं, और सत्य - हित और मित भाषण करने में बहुत गुण है. तोभी वसुराजाके जैसे कितनेक मूढ जीव झूठी दाक्षिण्यतामें लुब्ध होकर मिथ्या लोक प्रवाસને हमें वहन हो, अपने आत्माको भारी जोखममें उतार देते है. तथा कितनेक महामतिमूढ मनुष्य तो फक्त मिथ्या मानके मारे अपना कथन सच्ची कर दिखलानेकी खातिर झूठी वाग्जाल रचिकेँ आपही महाकष्टमें उतर जाते है; इतनाही नहीं मगर दूसरे मुग्ध मृग जैसे भोले भाले जनोकों वागाडंवरसें भ्रमित करके महा संक्लेशर्म झुका देते है. कोई विरले नररत्नही तटस्थ वृत्ति धारनकर श्रीवीतराग सर्वज्ञवचनानुसार चलकर अपना हित संभाल सकते हैं. वैसा दुर्धर सत्यत्रतको धारन करनेवाले सत्यवंत नरोंके जि'सने स्तुति वचन कहैं या प्रशंसा करें उतनेही बस नहीं है. वे उतम आशयवंत श्री कालिकाचार्य महाराजकी तरह कुल जगह यशबाद पाते है. देवगणभी उन्होंकी उत्सूकता पूर्वक सेवा बजाते हैं, સ્થાવત્ यावत् अनंत सुख संपत्तिकों स्वाधीन करते है. जो महाशय माजांत तकभी झूठ नहीं बोलते हैं, यानि सत्यमार्ग नहीं छोड़ते हैं चै अंतमें अवश्य अक्षय सुख पाते है. दुर्धर सत्य व्रत धारन करનેજો પાનાવાજે સદ્ આશયોને ઉપદેશમાાવનાનેા૨ે શ્રી धर्मदासगणी महाराजने उपदेशमालाकी अंदर निम्न लिखी -३ गाथा रहस्य के साथ याद रखनी दुरस्त है: T ง Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . १३० ( आर्या छंद) महुरं निउणं थोवं, कजापडिअं अगवि अमतुच्छं; पुचि भइसंकलिअं, भणि जं पागसंज्जुत्त. १ __ परमार्थ यही है कि सत्य-मिय सत्पुरुषको सत्यके फायदेकी खातिर कोइभी बात पोलनेकी पख्त इतने करार खास खियालमें रखने चाहिये.-अव्वल तो जो वचन बोलना वो मीठा-हामने वालेको प्यारा लगै सुहावना लगै वैसा मधुरही बोलना; मगर रहामने वाले को सुनकर उलटा खेद पैदा होवे पैसा कटुक कठोर मर्मभेदक वचन न कहना. और मीठे वचनभी न्याय युक्तिसें सहामने वालेके दिलमें उतर जाय-उनका मतलब वो अच्छी तरहसे समझ जाय वैसी चतुराइके साथ बोलना. और वो भी चाहिये હતનેહી વાનિ મતવયે વોસ્ટન-મિત માપન કરના. हामने वालेका अरुचि हो आवे वहाँ तक हद छोड जाने जैसा बकवाद न करना. और वो भी प्रसंगानुसार-समयानुकुल यानि चलते हुवे विषयकी साथ अच्छ। संबंध रखता हो वैसा बोलना. मतलब ये कि असंबंध वाला भाषण-मोके बिगर न बोलना और न विषयांतर होना-यानि जितनी जरुरत हो उतना ही सत्य गीठा, मतलब सहित-समय शुभीता-विषयानुकूल वचन बोलना-गर्वअहंकार रहित योग्य आदरसे अपनी फर्ज ध्यानमें रखकर बोलना. मगर मदांध-धधि होकर गर्वकी खुमारीमें ज्यौं आया .या वकवाद न करना, और अहो महानुभाव ! अय देवानुप्रिय ! __ भो भद्र ! इत्यादिक हामने पालेके दिलमें सुहावना लगे वैसे Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३१ संवोधन पूर्वक बोलना, मरजी मुजव तुंकार रेकार अनिष्ट संबोधनसें कभी न बोलना. और बोलनेके पेस्तर जो वौलने की इच्छा हो उस वचनों का परिणाम क्या आयगा वो सब सोचकर हितकारक हो वही बोलना; मगर साहस करके एकदम बोलना और बोल दिये वाद पिछताना पडे वैसा न बोलना चाहिये. आगे पीछेका संबंध पूरे पूरा ध्यानमें लेकर पीछे किसी तरहकी धर्मकों हरकत न आवै वैसा और वीतराग वचन सापेक्ष होनेसें एकांतनिश्चय सद्गुणकी पुष्टिही करे वैसा वचन विवेक युक्त शोचकर बोलना; क्योंकि सापेक्ष वीतराग वचनोंका रहस्य विचार कर लक्षमें ले-बोलना कि जिरसें बोलने हारेको सत्य व्यवहार होनेसें सदैव सुख प्राप्त होता है, और निरपेक्षपनेसे यानि वीतराग वचनका अनादर कर मरजी मुजब बकवाद करनेवाले और मरजी मुजब चलने वालेका झूठा व्यवहार होनेसें कुल जगह नुकसानी प्राप्त होती है. सर्वज्ञ - केवली के वचनको यथार्थ ग्रहन कर अमल में रख्खे fart कभी भी किसी जीवका कल्यान हो वाही नहीं है और न होगा. जैसा समझकर सहृदय सज्जन हमेशा उनके ही अक्षरशः अंगीकारकर अमल में लेनेकी सावधानी धारन करते है, एक क्षण भरमी प्रमाद नहीं सेवन करते है. कदाचित् उसी मुजव न आचर सकैं यानि आप्त उपदिष्ट मार्गका यथार्थ अमल न कर सकें; तदपि उन मार्गकी दृढ श्रद्धा सह शुद्ध परूपणा करनेमें चूक जाते नहीं प्रमादसें परवश हुए प्राणीकों इन पंचमकालमें शुद्ध परूपणा Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राणांत तक करनी ये कुछ कम दुष्कर काम नहीं है ! क्यों कि यथार्थ पस्तुका स्वरूप जाहिरमें लानेसें अपने दोष स्वाभाविक रीतिसें सहृदय श्रोताजनोंकों खुली तरह से समझने में आ जाते हैं; तथापि दुर्धर मानका मर्दन करे जैसी विशुद्ध ५रुपणा करनी वो कुछ सहजकी बात नहीं है. इसका नाम संविज्ञ पक्षी पन कहाजता है. उसको धारन करनहारा वर्ग शुद्ध संविज्ञ ( यति) धर्मकों सेवने हारे शुद्धाशयोंके बहुत रागी होता है. शास्त्रकारोंने मोक्षके तीन मार्ग बतलाये है. उनमें पहिला शुद्ध यति मार्ग, दूसरा शुद्ध श्रावक मार्ग, और तीसरा संविज्ञ पक्षी मार्ग है. उपर बताया गया मृपापादसें वै तीन मार्ग वाले अत्यंत डरे हुवे होते हैं. अपन सबके हृदयमें वो पवित्र सत्यव्रत हमेशा के लिये निवास करो ! और महादुष्ट मृपावाद नामक महादोष अपनेसें कुल मजहबीसें निरंतर अलग रहो! (३) तीसरा अदत्तादान अदत्त यानि न दिया हुवा और आदान यानि लेना मतलबमें बुरे इरादेसें पराइ चीजको ७०। लेना-छुपा देना-गुम कर देना वो तीसरा पाप स्थानक गिनाया जाता है. खुद जातसें चोरी करनी, चोरी करनहारेको मदद देनी या चोराउ चीज खरीद लेनी-संग्रह रखनी, या झूठे तोल मापस लेनी देनी, पस्तुमें हलकी वस्तु मिलाकर दूसरोंको ठग लेना, विश्वासघात करना, जगात चोरी करनी वगैरः इन पाप स्थानक भेद है. चोरीका माल जमाः कभी रहने नहीं पाता है, चोर शांतियु कभी Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४१ समझ बूझ सकै नहीं, तथा आपका दुराग्रह छोडे नहीं, वैसे मिथ्या आबहस स्वमतको लिपट रहना सो आभियहिक मिथ्यात्व कहा जाता है. सांप्रदायिक शास्त्रादिक आग्रह विगर या तत्वविवेककी न्यूनतासें सभी धर्म-सभी देव और सभी गुरु ओंको समान-एक जैसे गिने और सच्चे झुठको आग्रह विगत एकसे गिन लेवै सो अनभिग्रहिक मिथ्यात्व कहा जाता है. जिनको अबतक कुछभी किसी प्रकार से विशिष्ट आभोग-उपयोग जात नहीं हुवा, और जैसे उपयोग शुन्यतासें अनादि कर्म संबंधसें निगोदादिक जीवोंका जो वर्तन सो अनाभोगिक मिथ्यात्व कहा जाता है. त्रिकालवेदी श्री सर्वज्ञ प्रभुके परम प्रमाणिक वचनोंकी अं दर सर्वसें या देशसे ( वडी या छोटी) शंका धारन करनी सो सांशयिक मिथ्यात्व कहा जाता है. परम ज्ञानी परमात्माके वचन सर्वथा सत्यही हैं, औसा जानने परभी गोशालेकी तरह केवल स्मत कंद पोनेके लिये कदाग्रहद्वारा सत्यवाती कुयुक्ति-कुतर्कद्वारा उत्यापन करने के वास्ते और स्वकपोल कल्पितमत स्थापन के लिये प्रयत्न करना सो आभिनिवेशिक मिथ्यात्व कहा जाता है. ये पांचवा प्रकार वैसे पाणीओंकों परम दुःख पात्र का है। वास्ते कदापि 'सचा जानने में आ गये वाद कदाग्रहसे स्वमतके जोर तोर पर रहकर उसको झूठा पाडनेके वास्ते बुद्धिवंतको महा अनर्थकारी प्रयत्न नहीं सेवन करना. अन्यभी मिथ्यात्व प्रकार पाप पुष्टि हेतुक होनस ' आत्मार्थी जीवोनों अवश्य परिहार करदेनेकेही योग्य हैं. Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ उपर कहे गये १८ पापस्थानक संक्षेपसे कहे हैं. दोष भी गुणोंकी तरह अनंत है; तथापि जैसें सब गुणोंका १४ गुणस्थानको स्थूल बुद्धिवालोको समझानेके लिये ज्ञानी पुरुषोंने समावेश किया है, उसी तरह समस्त पाप-दोषोंका भी समावेश १८ पापस्थानमें ही किया है. सुनेकी खानी से खोदकर निकाली गइ मीट्टीकी तरह आत्मा अनादि दूषित ही है. तथापि ज्यौं आग वगैरः के उपाय वगैर से अनादि मल दूर कर उनमेंसें शुद्ध सुन्ना निकाल लिया जाता है, उसी तरह अनादि कर्म संबंधसें दूषित हुवा आत्मा भी सर्वज्ञ कथित तप संयमादिक सदुपायसें शुद्ध हो सकता है. यावत् संपूर्ण संयमादिक साधानों के बलद्वारा परम विशुद्ध हो आपही परमात्मपद प्राप्त कर सकता है. ज्यौं ज्यौं अनादि दूषण यत्नद्वारा हटते हुवे दूर होते जाते हैं सौं त्यो आत्मगुण प्रकट होते जाते हैं. और जब संपूर्ण दोष पूर्ण प्रयत्नद्वारा हठायो जावै तब आत्मा के संपूर्ण गुण प्रकट होते है, वही परमात्म या सिद्धदशा है. और उसीके लिये ही अपनको प्रयत्न करनेकी पूर्ण जरुरत है. यदि परमात्म दशा योग्य सब गुण सत्तामें अनादि के ही है; परंतु वे कर्म दोषसे ढक गये हुवे हैं, उन्हीकोही अब विवेकद्वारा प्रकट कर लेनेके हैं. सच रीति से देखें तो आप के ही आत्ममंदिरमें अमाप गुणनिधान गडा ५८ हुवा है, तो भी बेसमझ-अविवेकसे दूसरे और देखने-ढुंढनेकों जाते है, या केवल मुग्धता-असमंजससे कस्तूरीए मृगकी तरह आप के पास कस्तूरी मोजूद होनेपर भी Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४३ आती हुई सुगंधीकी शोध चारो और भटकता फिरता है, कोई परोपकारी ज्ञानी उनकी कुंशी अपनको पतला देवें तो भी अस्थिर त्तिसे वो समझमें नहीं आती, उससे चतुर्गतिरुप संसार अवीमें दिग्मूढकी तरह अपने भटकते ही रहते है या रहे हैं. यदि ये पाप का स्वरूप यथार्थ समझकर उनसे निवर्तनका प्रयत्न करै तो बेशक 'अंतमें सांसाररूप जंगलकों पारकर क्षेमकुशल पूर्वक मोक्षनगर में पहुंच सके. अहा! जहां तक अपन अविवेकतासे १८ पापस्थान सेवते हुए न रुकेंगे तहां तक दोपरूपी महान् विपक्ष कायम नवपल्लव रहेगा; कारण, मिथ्यात्व उसके अवंध्य वीजभूत है, रागद्वेष उसके पुष्टिकारक जीवन-जल समान है, क्रोध-मान-माया लोमरु५ चार कषाय उनके अति गहेरे और चोगिर्द मजबूत फैले हुवे मूल समान हैं, प्राणातिपात उस्के स्कंध, मृषावाद-अदत्ता दान-मथुनपरिग्रहरू५ चार विशाल शाखा, कलहरूप कुंपल, अभ्याख्यानपैशुन्य-पपरिवादरूप विस्तार पाये हुवे पत्र, माया मृषावाद मंझर -पुष्प, और राति अरति रंग वेरंगी विषय फलरूप हैं कि जिनका रस परिणाममें अति अनर्थकारी है. वास्ते सत्य सुखार्थीजनोंकों उत्तम परिणामरूप तीक्ष्ण कुल्हारसे ये दोप-विषक्षका निकंदन करने के लिये तत्पर रहना. ज्यौ ज्यौं उनकी उपेक्षा-वेदरकार करगे त्यौँ त्यो वो वृत्ति वृद्धिंगत होकर उनकी छांद्वारा अपने आश्रितों को ज्यादे मूछीवंत वनादेगा; वास्ते प्रयवंत रहकर उनका Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ '१४४ तुरंत नाश करना ही योग्य है. फिर उत्तम कार्य करने के वास्ते क्षेत्रकाल भी अनुकूल है. ज्यौं ज्यौं प्रमाद त्याग कर प्रयत्न करेंगे त्यौं त्यौं पापपंक पखालकर-धोकें अवश्य निर्मल होगे. ऐसी 'श्रद्धा और हिंमत धारन करनी ही दुरस्त है. पापरु५ कीचडकों दूर कर सर्वथा निष्पाप-निर्यल होना यदि बहुत दुष्कर है; तथापि पूर्ण श्रद्धावान् और विवेकीजन चाहिये उतने प्रयत्नस वैसा कर सकते है. पूर्व समयमें अनंत जनोंने इसी तरहसे ज्ञान-दर्शन-चा रित्र-तप के जोरसे सर्वथा पापपंक दूर कर निर्मल हो चतुर्गतिरुप 'संसारका अंत करके मोक्षरुप पंचमी गतिके स्वामी हुवे हैं. अपनों __ भी उसी महान पुरुषों के कदमकर कदम चलकर उसी मुजबसे अ. 'पना अनादिका पापपंक दुर कर निर्मल होनाही योग्य है. और ___ उसके लिये पेस्तर अपनकों वै महापुरुषोंकी तरह पापपंक पखालके लिये समता सरोवरमें स्नान करनेकी जरुरत है. आगे बताये हुवे मुजब अढारह पापस्थानकोंमें प्रवेश करती हुई पापमति दूर कर समभाव धारन कर ज्ञानी महाराजाने श्रावकोंकी कौनसी कौनसी फर्जे संक्षेपमें कही हैं सो परमार्थसे विचार कर उनका मनन करना । मन्ह जिणाणमाणं, मिच्छं परिहरह धर सागतं; छविह आपसमि, उज्जुत्तो होइ ५३ दिवसं. १ ... इन आदिक पवित्र बोधदायक पांच गाथाओं अपने भाइ और भगिनीय हरहमेशां गिनते हुवे तो मालुम होते हैं। मगर उनका Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२७. . (११) अगिया द्वेष येभी मोहकाही पुत्र है और रागका सगा भाई हैं और दोनु दोस्त होनस साथके साथही रहते हैं. अलग नहीं पड़ते हैं. शुद्ध स्फटिक शिलापर रखा गया काले फुलसे स्फटिकमें जैसे काला रंग मालुम होता है. उसी तरह आत्माके शुद्ध स्वभावकों बदल डालकर महा अशुभ मलीन-शाह कर डालता है; वास्ते रागके समानही द्वेषका उपाय करनेसें उसका ५।जय होयगा. (१२) चारहवें कलह-क्लेश कलह-टंदा फिसाद-लाइ ये सब मिलतेही अर्थ वाले शब्द हैं. कलह सब दारिद्यका कारण है सुख सपंत्तिकी चाहना पालेको कजियेकों जड मूलसे उखाडकर शांतिका भजन करना. (१३) तेरहवें अभ्याख्यान-अभि-आख्यान यानि झूठा आरोप रखना-खोटा कलंक चढाना किसीकेपर नाहक तोहमत रखदेना ये महीन् दुष्ट स्वभाव समझना. ज्ञानी पुरुष वैने जनकों कर्मचांडाल कहते है. जातिचांडालसें भी कर्मचांडाल महापापी है; क्योकि वो दुष्टगुणी धर्मीजनोंकी भी पदी किया करता है, यावर महाधर्मीष्ट जनोंकोंभी बडे भारी संकटमें उतार कर आप तमाशा देखा करता है. जैसे नीच लोगोंका नाम लेनसें या मुंह देखनसे भी पापका प्रसंग आता है जैसा ज्ञानी पुरुषोंने शास्त्रमें कहा है-जैसा समझकर मुज्ञजन कभी जैसी बुरी आदत न पाडगे, और शायद પફ દો તો તુરંત દૂરવાર મે. Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૮ (१४) चौदवें पैशुन्य - चुगली करनेवाला चुगल खोर भी महा पापी दुष्ट स्वभावी गिनाया जाता है. अहर्निश जैसी बुरी आदत सें आर्चरौद्र ध्यान धरता ही मरनके शरन होकर महा बुरी गतिकों पाता है. ' बालकोंकों हंसी की मजा आवै और दादुरको जान जानेकी सजाका वख्त मालुम होवै ' यहे कहनावत मुजब चुगल खोरोंकों तो कौतुक - तमाशा होता है. और उसमें कितनेंकके प्यारे जान निकल जाते हैं. खुद आपको हंसी होती है और कितने कके तो प्यारे जानकों - किंमती जीकों भारी जोखममें झुका देता है, और कभी आपकीही मुल आपको नजर न आ सके तो या वैसी मुल मोका मिलजाने पर भीन सुधार सकै तो अपनाही शस्त्र अपना जान ले लेता है. यानि अपने काम में आप खुदही फंस जाकर बडे कष्ट - ठाता है. अहा ! दुर्जनों का स्वभावतो देखो ? आपको कुछ भी फायदा हांसिल न हो; तोभी आपकों और दूसरोंकों कैसे दुःखके खड्डेमे गिरा देते है, और इन भवमें अनेक आपत्ति पाकर परभचमें दुर्गतिके शरण होते हैं. इनका खियाल करके विवेक लाकें स्वपर दुःखरूप चुगलीकी बुरी आदत छोडनेका यत्न करना. (१५) पंद्रहवें रति- अरति मन पसंद चीजोंपर राग और ना पसंद चीजोंपर द्वैष धारन करना वही रति अरति है, समानभाव घरने के योग्य पदार्थोंपर राग द्वेष करके मोहवंत हो जाना ये समभाव द्वारा प्राप्त होनेवाले योग्य उत्तम प्रकार के सम सुखमें महा अंतरायभूत और मनकी मलीनता करनेहारा वडा पापस्थानक Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३९ वास्ते विचक्षण जनोंकों ऐसे हरएक प्रसंग में समभाव युक्त रहना चाहियें. (१६) सोलहवें पर परिवाद - परनिंदा - अपकर्ष और आत्मश्लाधा - आत्मोत्कर्ष करनेरूप ये पापस्थान अति घोर है. जैसें झूठा बोलनेहारा, दूसरे पर झुंठे कलंक चडानेहारा, और चुगलखोर कचंडाल कहे जाते है, वैसें पराइ निंदा करनेवाला, बिलकुल झूठी आप बडाइ करनेहारा भी उक्त कहे गये कर्मचंडालोंसें कुछ नीचे दर्जेका नहीं; लेकीन उन्हीकी पंक्तिकाही है. स्वमुखसें परमल लेकर आपके अंगको मलीन कर स्हामनेवालेकों उज्वल करनेहारा निंदक - दुर्जन भी सज्जनोंकों तो एक तरहसें उपकार करने हारे है. तोभी उनके अति अनार्य - जंगली आचरणसें घोरातिघोर नरक निगोदादि दुःखके हिस्सेदार होनेसें उन्हीको देखकर सज्ज - नोंकों कोमल हृदय कांपने लगता है. वास्ते ये अत्यंत अनिष्ट अनाये कुटेव अवश्य छोडकर सज्जनताही भजनी चाहियें. भुल चुकमें भी दुर्जनके दुष्ट रस्तेकी तर्फ निगाह तकमी न करनी. यदि आपका भलाही चाहते हो तो उपर कही गई हितशिक्षा की भी मत भुल जाइयो - इनको हरदम स्मरण करकेही चलियोकि जिस्से अंत में बेहद नफा पावोगे. (१७) सत्तरहवें माया मृषावाद माया कपट और मृषा-झुठ इन दोनुका सेवन करना यानि कहना कुछ और करना कुछ. कुम्हारके मिच्छामि दुक्कडके समान आपमतिद्वारा उलटे चलते Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० रहने पर भी आपकी. साहुकारी दिखाया करनी, केवल दंभ त्ति सेवन करते हुवे परभी ऊपरसें अच्छा आडंबर रखना-बुग लेफी वृत्ति धारनकर जगतकों ठगलेना, आप अनेक दोपदूषित होने परभी लोगोंकों जानने में न आवै इतनाही नहीं, मगर आप महा गुणशाली है औसा लोग समझे वैसे प्रपंचसें वर्तन चलाकर आपकी पुजा मानत विशेष होवै उस तरह भवका भय वाजू छोडकर चलन चलाया जाय वो सब इन पापस्थानकके अंतर्भुत है. श्रीमद् यशोविजयजीने कहा है कि-'ए तो. विषन वळिय वधार्यु, ए तो शस्त्रने अबढुं धार्यु, ए तो सिंहनुं वाळ वकार्यु हो लाल, माया मोस न कीजे.' परावर विचार कर देखने मालुम होता ही है कि-ये सत्तरहवा पापस्थान सबसे भारी पापजनक है औसा जानक सज्जन जनको इनसें बहुतही डरते रहने की जरुरत है. (१८) अठारहवें मिथ्यात्व शल्य-विपरीत दृष्टि शल्यकी तरह एक भवमें नहीं; मगर अनेक भवमें पीडा देनसें मिथ्यात्व शल्य कहा जाता है. आभिग्रहिक, अनभिग्रहिक, अनाभोगिक, सांशयिक और आभिनिवेशिक असें पांच भेदका कहा है. अभिग्रह थानि बडो आग्रह, आपके प्रचलित पंथकों केवल आपके सांप्रदायिक शास्त्रों के आधारसे मध्यस्थ पनेसे शुद्ध धर्मरहस्य जाने विगर और विवेक पूर्वक सुन्ने या रत्नकी परिक्षाकी तरह उसकी परीक्षा किये विगर योंके धुंही मिथ्या आग्रहसे लटककर पकड रहना, और कोइ परोपकारशील महात्मा शुद्ध धर्म रहस्य सम्यम् समझाये तोभी Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४५ __ परमार्थ कोई विरलाही जानते होंगे. यहाँ प्रसंगपर अपन उनपर विचार करें और उमीद है कि उनका सार समझ हृदयमें धारन कर' उनका बने उतना उपयोग करनेम आप मव न चूकोगे. जानने के फल यही है. यत:-मानस्य फलं विरातिः' विरतिका फल आश्रय निरोध, उनका फल संपर, संवरका फल तपोवलं, तपोवलका फल निर्जरा, निर्जराका फल क्रियानिति उनका फल अयोगित्व, योगनिरोधका फल संसार संततिका क्षय, और संसारसंततिक क्षयसें मोक्ष औसें क्रमशः परम विनय आदरसे ग्रहण किया हुवा सन्यज्ञान और वैसे मानपूर्वक सेवन करने में आती है विरति-उभय मिलकर उतम मोक्षफल मिला देते हैं। पास्ते मोक्षफलकी चाहतवालोको इसमें प्रमाद न करना. __पहिले तो हे भव्यजीवो ! जिन्होंने सर्वथा रांगादि अंतरंग शत्रुऔर जीत लिये है सोही वीतराग सर्व परमात्माकी उत्सर्ग, अपवाद, निश्चय, व्यवहाररुप स्थावाद आज्ञाकों सुबुद्धिबलसें समसकर आदर प्रमाण करलोः सम्यक विचार करो कि राग द्वेष और मोहका सर्वथा क्षय होनेसें श्री जिनेश्वरोंकों किंचित्मात्र क्यचित् भी झूट बोलनेकी जरुरत नहीं रही है. उस उन्होंके वाक्य प्रमाण-करने लायक हैं असा अखंड निश्चय कर लो. . दूसरा-स्तर जिनका स्वरुप कुछ विस्तार से कहा गया है उन मिथ्यात्वका बिलकुल साग कर दो. . तीसरा-समकित राको धारन कर लो.. इसीही. अधिकारी Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगे कहा गये तीन तत्व-देव गुरु धर्मका स्वरुप बराबर समझ कार उन्होंमें विवेक करो, यानि सत्यासत्यका निर्णय कर असत्यका त्याग कर सत्यकों तदन स्वीकार लो. तथा हे भद्र ! सद् गुरुकी सम्यम्-सब तरहसे पूर्ण सेवा करके शुद्ध तत्वोपदेश सुनकर शुद्ध श्रद्धाधारी तत्व रसिक होना. सभक्तिक ६७ पोल विचार कर जिस प्रकार ज्यादे तत्वविवेक जागृत हो सके और सम्यक्त्वकी निर्मलता हो सके वैसा उद्यम करना-अर्थात् समकित के शंकादिक दूषण दूर करने के लिये और गीतार्थसेवादिको तत्पर रहने के लिये ही आत्मा है. आत्मा नीत्य है. कर्ता है, भोता है, मोक्ष है और मोक्षक उपाय भी सर्वज्ञ प्रभुने को हैं. ये समकितके छस्थानकों का सम्पम् विचारकर गुरुगम द्वारा उन्होंका निश्चय करना जिस्से स्वमातरमें भी मति भ्रम न होयगा. चौथा-पविध आवश्यक हमेशा तत्पर हर्षचित्तपत रहना. सामायिक, चौपशि जिनस्तवन, गुरुवंदन, प्रतिक्रमण, कायोत्सर्ग और पच्चखाण ये छ आवश्यक दररोज श्रावकोंकों करने लायक ही हैं. (१) जघन्यसें दो घडी तक निंदा-प्रशंसा-मान-अपमानकी अंदर समभाव रखकर स्वरुपका चिंतन करना सो सामायिक कहा जाता है. पाप व्यवहार मन-वचन-तन द्वारा आप खुद कर नहीं, दूसरके पाससे करावे नहीं, जैसी निर्वध हत्तिमें जब तक रहे तब तक उन सामायिकतको शास्त्रकारोंने साधु समान कहा है; वास्ते Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४७ માાં છોડના અવશ્ય અનેશ્વરઃ સામાયિ ચિાર જાના(२) श्री ऋपमदेवजीसें लगाकर श्री महावीर स्वामी प्रभु तक २४ तीर्थकरों की अति अद्भुत गुण स्तवनारूप 'चडविसथ्या' प्रतिदिन परमार्थ समझकर जरूर पढना, इस्से समकित गुणकी शुद्धि होती है. (३) सम्यग् ज्ञान दर्शन चारित्रको सेवनेहारे आचार्यादिक सुविहित साधु निर्ग्रयोंकों हर हमेशां द्रव्यभाव विनयपूर्वक 'वंदन' करना, वैसे गुणशाली गुरु महाराज के वंदनसें अपनको ज्ञानादिक गुणों का लाभ मिलता है. (४) जानते या अनजानतें भइ हुइ भूलोंको सुधार लेने के लिये पश्चात्तापूर्वक वैसी भूल फिर फिरके नहीं करनेकी बुद्धिसें गुरुमहाराज साक्षिक आलोचना करके शुद्ध होजाना उसीका नाम 'प्रतिक्रमण' है. बेर वेर जान बूझकर भूल दोष सेवन करके आलोचना करनी ये हितकर नहीं हैं; वास्ते सम्यग् आलोचना कर तुरंत भूल सुधार पुनः वैसी भूल उपयोग रखकर न होने देनी. यही सत्यतासें समझने का सार है. (५) कायादिककी ષપતા છોક સ્થિરતા જણ્ યતાએઁ પરમાત્માજા યાનિનસ્ત્રरूपका ध्यान करना और उन द्वारा अन्य संकल्पविकल्पोसें होता हुआ अपध्यान आर्त्तरौद्ररूप बुरा ध्यान छोड देना, उसका नाम 'काउस्सग्ग' है. काउस्सग विशेष करके आत्मशुद्धि हो सकती है(६) प्रत्याख्यान यानि आत्मस्थिरता बढानेके लिये अन्य वाधक उपयोग दूर करनेके वास्ते तथा शुभ साधक - उपयोग जागृत करनेके लीये उपवासादिक तपविशेष अथवा आत्महितकर अ Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - 1- 1 भिग्रह विशेष मुकरीर धारन करना उसीका नाम पच्चलखाण है. विवेकपूर्वक पचरूखाण करनहारेके सब गुणकी पुष्टि करना है; वास्ते आत्मार्थी सजनोंको अवश्य आदरने योग्य है. उपर कहे हुए छउँ आवश्यक सदभावसे सेवन करनेहारको उत्तम सुख देते हैं, उससे ज्यौं बन सके त्यौं तत्संबंधी विशेष समझ मिलाकर उनको यथाविधि सेवन करनेकी खास जरुरत है. पव्वेसु पोषहवयं, दाणं शीलं तवीअभावी सज्झाय नमुकारों, परोक्यारोअ जयणाअ. १ पाँचवा-पर्व-दिन पोषव्रत अवश्य ग्रहण करना. हरेक महीने में हरेक अष्टमी, चतुर्दशी आदिक पर्व दिन आते है. ज्ञानसौभाग्य पंचमी, मौन एकादशी, तीन चातुर्माशी, पर्दूषण, चैत्री, कार्तिकी पूर्णिमा, यावत् जो जो अतीत-अनागत-वर्तमान जिनेश्वरजीके कल्याणक दिन होवे उन उन सबको पर्वदिन कहे.जाते. हैं यतः- करी सको धर्मकरणी सदा, तो करो एह उपदेशरे; सर्वकाळे करीनवि सको तो करो पर्व सुविशेषरे. विरतिए मुंमति घरी आदरो, उन दिन यथाशशि उपवास, आयंबिल, एका सनादिक तप करना. शरीर-शोभाका त्याग करनीः अहोरात्रि अखंड ब्रह्मचर्य पालन करना, और सर्व पाप व्यापारका त्याग करना ये चार प्रकार से पोषध व्रत भीतिसे अंगीकार करके यथा विधि पालन करना. कभी किसी कारणसे संपूर्ण चारों वापत न धनसके तो उन अंदर से जितनी बन सकै उतनी तो विवेकपूर्वक Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ अवश्य पनानी. और चैत्य परिपाटी, उत्कृष्ट चैत्यवंदन, पूजा, गुरुभतित, शास्त्रश्रवण, अनुकंपा, दानादिक धर्मकृत्य यथावसरपर यथाविधि अवश्य संभालने चाहिये. परंतु प्रमाद विकथादिक नहीं करना. कहा है कि: "जीवने आय परभवतणु, तिथि दिन बंध होय मायर, ते भणी एह आराधता, प्राणियो सदगति जायरे विरतिए सु." वास्ते ज्यौं बन सके त्यौं प्रमाद छोडकर सूर्ययशा महाराजाकी तरह पर्वदिनोंका आराधन करना. और कुमारपाल भुपालकी तरह धर्म आराधनेमें अपनी शक्ति स्फुरायमान करनी. छठा-अभयदान, सुपात्रदान और अनुकंपादिक दानमें अपनी तथा पवित्र शासनकी उन्नति करनेकी खातिर दूसरे तुच्छ फलकी चाहना रखे बिगर निरंतर आदर करो. विवेक लाकर योग्य जीवोंको ज्ञानदान देनेहारा पा ज्ञानार्थ सुद्रव्य-स्पद्रव्यका सदुपयोग करनेहारा महा लाभ पांधता है. ज्ञान ये भाव प्राण है; वास्ते लाभ बंधन होता है. सातवाँ-शील सदाचार, अनेक जीवोंकी हिंसा हो तथा उत्तम.कुल मयादाका लोप हावदसा मसिमक्षण, सुरापान, शकार, परस्त्री-पेश्या गमन, जुगार, चोरी, अभक्ष्य सेवन, विश्वासयात और परवंचनादिक बुरे आचारण सुश्रावक अथवा श्रावक धर्म स्वीकारनेकी चाहतवाले गृहस्थ जनको अवश्य छोड देनेके ही Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लायक है, और जिस प्रकार पवित्र धर्मकी प्राप्ति तथा पुष्टि हो पैसा सदाचार हमेशा सेवन करने योग्य ही है. ___आठवाँ-तपधर्मका यथाशति अवश्य सेवन करतही रहना. जैसें अनि तापसे सुना शुद्ध होता है तैसें तपके तापसे आत्मा शुद्ध होता है. संयमसे नये आते हुए कर्म रूक जाते हैं, और समतापूर्वक सेवन करने में आते हुए द्वादशविध तपधर्मसें पूर्व - के कर्म दग्ध हो जाते हैं. ७६ अध्मादिक बाह्य तप सेवनसें जरासी तकलीफ उठानी पड़ती है, तोभी उनका विवेक व क्षमा सहित सेवन करनेसे अतुल लाभ हाथ आता है। वास्ते मोक्षार्थी भव्यजनोको ७० कथित तप अवश्य सेवन करने ही लायक है. . नौवा-भावना ये भवभवकी भीरभंजक और उत्तम सुखके पास्ते श्रेष्ठ साधन है. पुर्वोक्त दान शील तप आदिक सब धर्म करणी भावनाके सिवाय निष्फल है. लून बिगरका धान्य-भोजनकी तरह करनेमें आती हुई धर्मकरणी कुछ मजाह नहीं देती, और भावनाके मिलानेसें वो सब सरस सुखद हो पडती है. वो भावना, करनेमें आती हुई धर्मकरणी या करनेका इरादा हो वो अवश्य करने लायक धर्मकरणीकी यथायोग्य समझ मिलाकर उनका निरंतर प्रीतिपूर्वक अभ्यास करनेसें प्रकट होती है. अंतमें उक्त करणी भावनामय बन जाती है, वास्ते पहिले तो हरएक करने लायक धर्मकरणीका प्रयोजन-फल सद्गुरु द्वारा पूंछकर निश्चय करना-जिसे उक्त धर्मकरणी करनेसें मन स्थिर हो सकै और Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५१ मउरा क्रमशः उनपर प्रीति बढती रहै. यापन अंतमें उसे सद्भाव प्रकट होनेसें अपूर्व लाभ प्राप्त होवै. वा पवित्र शास्त्रों में कही हुइ मैत्री, प्रमोद, करुणा और मध्यस्थतारूप चार पाचन भावनाओं तथा राज्यदशाको बढ़ा करके अंतमें उत्तम उदासीन भाव मिला दनहारी अनित्य अशरणादि बारह भावनाए भवभीर भव्योंको हर हमेशा क्षणक्षणमें शुद्ध अंत:करणसे अवश्य भावने योग्य है. उtho भावनाए विगर त बसें वैराग्यकी न्यूनता द्वारा क्रिया फिकी लगती हैं. दशवा-स्वाध्याय-१ पाचना नवीन शास्त्रका पढना, २ पृच्छना शंकाका समाधान करना, ३ परिवर्तना-पढा हुआ न भूल जाय उस पारले पुनः पुनः याद करना, ४ अनुप्रेक्षा-चिंतन किये हुवे अर्थका चितवन करना, ५ और धर्मकथा-जिसमें अपनको अच्छी तरहसे समझ ५६ चूका हो और बिलकुल भ्रांति न रही हो वो धावत योग्य जीवोंको कहकर धर्ममें जोड देना. वो पांचों प्रकार हरहमेशां अवश्य करने लायक हैं. उसमें चित्तकी एकाग्रता होनेसे आते हुवे कर्म रुक जाने के साथ अपूर्वभावयोगसे पूर्वकर्मकी वडी भारी निर्जरा होती है. अन्यारवाँ-नमुकारो नमस्कार यानि पंचपरमेष्टि नमस्काररुप महामंत्रका नित्य रण करनां. एक क्षणमरभी प्रमादमें पडकर उक्त महामंत्रका न भूलजाना. उक्त महामंत्र चौदह पूर्वका सारभूत है; वास्त उनका परम आदरस सेवन मनन ध्यानादिक | सदन मनन Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करना; क्योंकि अपन। कल्यान करने। यो सर्वोत्तम साधन है. . पारहवां-परोपकारबुद्धि अवश्य रखनी. कहा है कि: मालिनी छद. मनसि वचसि काये पुण्य पीयूष पूर्णा, खि भुवन मुपकार श्रेणि भिः प्रीणयंतः इत्यादिमन वचन तनकी अंदर पुण्यअमृतसे भरे हुवे और तीन भुवनके पाणीओकों उपकारकी परंपरा से प्रसन्न करते हुवे कितनक सज्जन पुरुष होते है. सच तपासनेसे मालूम होता है के परोपकार ये तसे आपकाही उपकार है. निःस्वार्थपनसें परोपकार शील पुरुषोंको स्वाशय शुद्धिसें श्री तीर्थकर गणधरादिक महाश રદ વમારી નિર્નર દોતી હૈ. तेरहवाँ-जयणा-इस विषय पर सामान्य हितशिक्षाके शिरोलेखके नीचे यानि उस हेडिंगके नीचे कुछ थोडासा विवेचन किया गया है पास्ते पृष्ट १०६ में देख लेना. अपनकों घडी घडी पल पलमें जयणा माताको याद करनी चाहिये ही दुरस्त है. वो पूज्य माताकी सेवा किये बिगर धर्मकरणी फोकट है. व्यवहारकार्यमें भी जो सुपुत्र पूज्यजयणा-माताको नहीं मूलते हैं वै ही सत्य प्रशंसाके पात्र हैं. आर्या छंद. जिण पूआ जिणथुणणं, गुरुथुअ साहम्मीआणवच्छ वहारसय सुद्धि, २हजत्ता तिथ्य जत्ताअ. .. Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५३ चौदहवाँ-श्रीजिनेश्वर देवका यथाशतित त्रिकाल पूजन स्वद्रव्यों द्वारा करनी. प्रभात पखत हाथ पाँव वगैरः शरीरकी तथा वस्त्रकी शुद्धि करके अष्टपट मुखकोष बांधकर उत्तम पासक्षेपसे, दुपहरके वरून ५-८-१७-२१ प्रकार की पूजा, औ संध्या१०त धूप दीपसे भाविक आत्मा भक्ति भरपूर भगवंतज़ीकी भक्ति किया कर. द्रव्यशक्तिहीन मात्र भावभक्ति ही किया कर. जिनमंदिर निस्तिही आदि दशत्रिक पांच अभिगम वगैरः प्रमाद रहित समाल लिया कर छोटी पड़ी आशातनाए समझकर श्री जिनमंदिर या श्री गुरु द्वारमें अवश्य दूर करै इस संबंध का विशेष अधिकार श्री देववंदनभाष्य मूल टीका थापालापबोधसे जाननेकी दरकारपाला हो सो देख लेय. पंद्रहवाँ-प्रभुजीकी द्रव्यपूजा किये वाद भावस्तव-स्तुति जरुर करना चाहिये. सो चैत्यवंदनाजधन्य-मध्यम-उत्कट असे तीन मुख्य प्रकार है. जघन्य एक स्तुतिसें, मध्यम चार स्तुतिसें और उत्कृष्ट आठ स्तुतिओं से, या जघन्य एक श्लोकसें, मध्यम एकसे ज्यादे लोकसें और उत्कृष्ट १०८ श्लोक काव्यसें चैत्यवंदन करना. स्थिरता योगसे ३यावही पूर्वक पैत्यवंदन विधिका उपयोग करना. ___सोलहवाँ-सुगुरु-शुद्ध तत्वोपदेशककी सेवा करनी और सुंदर भक्ति करनी, स्तवनादिक वहुतमान अवश्य करनो, लायक हैं. आप पवित्र आचारको पालन करके हर हमेशा शासनकी प्रभावना कर वैसे सदगुरु बडे भाग्य योगसेंही प्राप्त होते हैं. -पूर्व पुण्ययोग- • Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ से वैसे सद्गुरुकी योगवाही पाकर प्रमादरहित बन सके उतना लाभ लेना. - सत्तरहवाँ-साधी वात्सल्पका फल शास्त्रमें उत्तम कही है। पारने उनका स्वरुप समजकर बन सके उतना लाभ लेनेमें न चूक जाना. समान(एक जैसे सर्वज्ञ भाषित)धर्मका सेवन करने वाले साधर्मी कहे जाते हैं. उनकी गुंजास मुजब जैसा वरूत भोका हो वैसी भ'सि. करनी उसीका नाम साधीवात्सल्य है. मायामय संमार . चक्रमें माता पितादि कुटुंबी जनोंका संयोग सहल है, मगर साधर्मी योका संयोग बड़ा मुश्किल है. भाग्यबुलंदसें उनका संयोग पाकर उनका यथाशक्ति लाभ लेनाही दुरस्त है. साधीयोंमेंसें जो धर्मवन्धु गुण श्रेणिमें आगे बढ़ गया हो उन्होंका समागम-आदर बहुतमान कर गुण ग्रहण कर और वै किसी प्रकारकी तकलीफ दाते हुए मालुम पडें तो उन्होंकों अपनसें बन सके उतनी मदद देकर सच्चे साधर्मीवात्सल्यका लाभ लेना. दुःखपाते हुए साधीओंकी बेदरकार रख फ.. यश-कीर्तिके लोभसे अपनी मति मुजब पैसे उडानेसे क्या साधर्मीकवात्सल्य गिनाया जाता है ? बिलकुल नहीं ! विवेकसे साधर्मीयोंकी उन्नती होवै उसी तरह चलनेसे सहज में वो लाभ मिल सकता है. • अठारहवाँ-व्यवहारकी शुद्धि स्वहितच्छु श्रापकको अवश्य करनी लायक है. उस पास्ते श्री हरिभद्र सूरीश्वरजीने धर्मबिंदु ग्रंथमें कहे हुवे मार्गानुसारीके ३५ बोल अवश्य लक्षमें लेने Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाहिये. न्याय नीतिसें द्रव्य उपार्जन, आमदनी मुजव खर्चा, उचित आचरण, मात तातकी भति, लोग राज्यविरुद्ध वार्ताका त्याग, अभक्ष्य निषेध इत्यादि पाते तद्दन छोड देनी ही फायदेमंद है. हाँ तलक वरावर कपडा उजला साफ न हुवा होगा वहां तलक जसे उन कपडेपर अच्छा रंग न चढ़ सकेगा, वैसे व्यवहारविकलकों भी धर्मप्राप्ति हो नहीं सकती है. पाणे विनय, शिष्टाचार, कृतज्ञता, दयालुता, दाक्षिण्यता और परोपकार प्रमुख अनेक शुभ गुण सेवन कर ज्यौं बन सके त्यौ पहिले व्यवहारकी शुद्धिके लिये भयर करना. उन्नीसवाँ रथयात्रा यानि रथके अंदर प्रभुजीकों विराजमान __ करके महोत्सव पूर्वक प्रभुकी भक्ति करते हुवे नगारेदिक पाजींत्र गीत होते हुवे नगरमें परिभ्रमण करना उसद्वारा कममें कम दर सालमें एक दफै सुश्रावक जन कुमारपालकी तरह शासनोन्नति करै पीशवा तीर्थयात्रा भी दर सालमें सुश्रावककों विषकपूर्वक · करनी चाहिये, और वहां मन वचन तन स्थिर रख श्री देवगुरु धर्म संघ साधर्मीयाका विधि सहित पूजन-सेवन-भक्ति करके अपना समकित शुद्ध कर पूर्व पुण्यवलसें प्राप्त भइ हुइ सामग्री पस्तुपाल तेजपाल आदिकी तरह सफल कर लेनी. इस तीर्थयात्रा संबंधी सविस्तर हकीकत श्री तीर्थयात्रा दिग्दर्शन नामक निबंध थोडे परत के पेसर जैन धर्मप्रकाश' में प्रसिद्ध हुइ है. उनमेंसें इस विषय के संबंधवाली वापत पांचकर-विचारकर लक्षमें रखकर • Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उचित विवेक अवश्य उपयोग लेना. आर्या छंद. 'उपसम विवेक संवर, भासा समिइ छज्जीव करुणाया धम्पियजण संसगो, करणदमो चरण परिणामो. ७ इकाशवाँ-उपशम भाव अप२५ आदरना यानि क्रोधादि कपाय.छोडदेनेही योग्य है. नम्रता आदरकर अहंकार दोष छोड देना, और संतोषगुण सेवन करके लोभ दोषको त्याग देना. क्रोधादिक कषायसे संतप्त हुवा आता चीलाती पुत्रकी तरह उपशमनीरसे शांत होता है. बाइशयाँ-विवक गुण जरुर धारण करना चाहियें. सच्चे झूठेका, भक्ष्याभक्षका हिताहितका, उचितानुपितका और गुणदोषका जिस मारफत पूरेपूरा जानपना होवै उसीका नाम विवेक है. विचेकीजन हंसके ममान और अविवेकी कन्यकी समान गिने जाते है. विवेकवत चिंतामणि रत्न जैसे अमूल्य धर्मको पाकर संमाल सकते हैं, और अविवेकी उससे कमनसीवही रहते हैं. विवेक- शून्यको पशुतुल्य कहा है. तेइशयाँ-संवरण आश्रवके निरोध-किनेसे ही आता है आश्रय यानि नये कर्मकों आजानेका रस्ता, पांचो इंद्रियोंका परवश होना, चारों कषायका सेवन करना, अविरतित रहना, शति होनेपरमी व्रत पचखाण नही करना, मन वचन - तनकों बुरे ( योग उपयोग में लेना, और वैसी ही दूसरी अहितकारी क्रियाओं Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ રની સર્વે ગાશ્રવણપ ને રેં ની વિંધન રણમૂત હૈ ન સંવાં વિવેવા યા ન કહી નામ સંવર કલી વિદ્યાતી પુત્રી તરહ મવમી રાત્મહિતેચ્છુ બનો સર્વોત્તમ સુરવવાથી ને નહર ચાવરને હાય હૈ. વોહરાવ-મષા સમિતિ ને ને છતાં વર્ષયોમાં શ્રદ્ધા વંત શ્રૌવા ન પરવના વાદ–વન વિષા સંર્વधमें उपदेश मालाके कनेि कहा है सो जरुर लक्षमें रखने लापर ही है: ગાઈવમદુર નિયો, વન્નાવડિય ત્રિય તુ; - પુ િમ સંધિ, મળાં બં ધા સંતૃત્ત. ૨ ફન પવિત્ર માથાશા પરમો ધ્યાનમેં હેર વવન વિના નહર પર્વના વાહિયે. પરમાર્થ યહ હૈ જિનો વવ વોના વો ફુલ प्रकारका होना चाहिये पानि पहिलै तो वो वचन मीठा होना વાહ- દોનાહી ન વાધ દૂર-વ વન નિપુણતા-=મવા મન માં દુવી નાં વાં, સ્કૂલમાં વો વવન મતવા નિતનાથી વાળ દુવાં હોના વાહિયે, વિથા-પ્રસંગોપાત વોઇના વામર ગતિ હો વૈલાં વોઝનાં વાં, પરવા મિ પતિ સૈન્નતાં યુક્ત વોઝના વાહિયે, છ– મહા હામને વાળ માન મરતાં સંમાં નાય વૈસા વોઇના મગર અપમાન વવન ન વેઠના વાંહ, ને છપનવારા તુરં Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ यु न बोलना, सातवों-इस पचनका यही परिणाम आयगा, इन संबंधका पूर्ण विचार करकही बोलना, मगर ज्यौं आया त्यों पदना न चाहिये, और अंतमें धर्म मासे विरुद्ध भाषन न करना चाहिये. इस मुजब विवेक पूर्वक बोलने वालेका वचन प्रमाणभूत होनेसे विश्वास पात्र होता है। वास्ते आपकी या धर्मकी उन्नति बढाने के लिये अ१२५ भाषा समिति आदरनी चाहिये. पच्चीसवाँ-षट् जीव निकाय यानि तमाम जीवोंके उपर कर'णा-दया बुद्धि पारनकर सुश्रावकको उन जीवोंकी बन सके वहां तक रक्षा करनी सब जीवोंको जीना बड़ा प्यारा लगता है मरना यारा नहीं है. औसा समझकर मुखार्थी जीवोंकों किसी जीवकों न मारना चाहिये, न किसीके पास मरवाना चाहिये और न मारन मरवाने पालेकी प्रशंसा करनी चाहिये. अगर किसी जीवकों दुःख पैदा होवै वैसा कुछ भी अनुचित-गेरन्याजवी आप खुद करै नहीं, करावे नहीं और अनुमोदन भी करै नहीं. करुणा हृदयवंत जनोने किसीकाभी अनिष्ट-बुरा मनसें चिंतन करना नही, पचनसें बोलना __नही, और कायासें करना नहीं. जिस तरह सबका भला हो उसी तरह सदा चितवन कियेही करै उसी तरह बोले, और उसी तरह किया कर तथा दूसरों को भी पैसाही करनेका उपदेश कर और वैसा करने वालेकी सदा प्रशंसा किया करे. छब्बीशवा-धर्मीष्ट जनोंका संसर्ग-परिचय करना जैसी सोक्त वैसी अस यानि सोधते असर तुक तासीर ' ये कहना Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५९ पतके इन्साफ मुजब वीं सद्गुणी जनोंकी ही हर हमेशा जरुर सोपत-संगत दोस्ती करनी चाहिये धर्म विमुखको कपीभी संगति न करनी चाहिये. सद्गुणीके संगसें भी दरकार वाले शख्सको ही फायदा होता है. वेदरकार वाले या प्रमादीको कुछ फायदा नहीं होता है. मणिपर-सांपके शिरपर रहा हुवा मणिमें होरेमें बहर दूर करनेकी ताकत है, ताभी वो वेदरकार होने से उस होरको फायदा उसको कुछ भी नही मिल सकता है. आपका शहरभी दूर नहीं होता उसी मुजब गुणीजन बहुत नजदीक होने परभी दुर्जनखलको जरा साभी फायदा नहीं होता है. जैसे दुर्जन अपनी दुर्जनता नहीं छोड़ देता है वैसेही सजन भी अपनी सजने-सौजन्यता नहीं छोड़ देता है. सांपका झहर कथा उनके शिरपर रहे हुवे होरेम दाखिल हो सकता है ? नहीं हो सकता ! उसी तरह उत्तम सिद्ध स्वभावके गुणी जनोंकी अंदर भी निर्गुणीको असर नहीं हो सकती है। वास्ते वैसे जनकी जरूर सोबत करनीही मुनासीब है. चंदन समान शीतल स्वभाव से अपने सोवतीका ती प्रकार से ताप हरते हैं वैसे संत हर हमेशा सेवन करनेके ही लायक हैं. ___ सत्ताइशयाँ-करण दमा यानि पाचों इंद्रियोंका दमन अवश्य करनाही दुरस्त है क्योकि एक एक इंद्रियके तावे हो गये हुवे विचारे पतंगीए, भौरे, मच्छि-मछलियां, हाथी और हिरन दुर्दशाको पति है, तो जब पांचों इंद्रियों के एक साथ ही ताये हो गये हुवे, का तो कहना ही क्या ? विषय पक्ष हो गये हुवे अपनी शुद्ध बुद्ध Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूल जाकर भविष्यमें आपका क्या होगा, उनका भी विचार नहीं कर सकते हैं। वास्ते विषय विवश न होते विवेकी श्रावकको उसी इंद्रियोंको वश कर इंद्रियजीत होना सोही धन्यवादके पात्र है. इंद्रिय दमनसे सद्गति होती है. स्पर्शनंद्रियादिकका सदविवेक द्वारा सदुपयोग-श्रीदेवगुरु संघ साधर्मीककी भति बहुत मान पूर्वक क. रनेसे सुश्रावक आपके यह और परभव सुधार लेता है. और इनस विपरीत वत्तनवाला उभय जना भ्रष्ट करता है. असा समझकर क्षणिक विषय सुखमें न ललचाकर अपना कल्यान हाथकर लेनमें तत्पर रहना; क्योंकि पुनः पुनः सी आत्म साधन अनुकुल सामग्री हाथ आनी बहुत मुश्किल है. __ अहाइसवों-चरण यानि चारित्र-सर्व पिरतीकों अंगीकार करने के परिणाम विवेकी श्रावकको जरुर बने चाहिये. 'सम्यम् दर्शनशान चारित्राणि मोक्षमार्गः' यह पवित्र सूत्रका रहस्य जिसने अच्छी तरहसे जान बूझ लिया होवै. वो एक क्षणभर भी शिध्रतुरंत मोक्ष देनहारे चारित्र धर्मको क्यों भूल जावै ? परंतु परम पारित्र धर्मकी प्राप्ति बहुत करके प्राणियोंकों क्रमशः होता है। वास्ते दिन मतिदिन विरति धर्मको ज्यादे ज्यादे सेवन करनेकी दरकार (વિની. પહિ તો સમય હોદ્ધ પરસ્ત્રી ધરમનાવજ હા महाघोर व्यसनोंका त्याग करना. (इन संबंधमें कुछ सविस्तर हकीकत आगे पृष्ट में कही गई है वहांसें देखकर उपयोगमें ले लेनी.) उसके बाद क्रमशः श्रावकके बारह व्रतोंका पालना हो सके उतना Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६१ पालन करनेका अभ्यास पाड प्रतिज्ञा करनी. और पाकी रहे हुदैका अभ्यास कर अनुक्रमसें नियम करना. शक्ति होनेपर भी ऐसी अच्छी सामग्री मिलनेसे प्रभादमें पड़े आपका खास कत्तव्य भूलनेहारे भाग्यहीनकों आगे पर बडा भारी शोच करना पडता है. मुनि महाराजके महाव्रतोंकी अपेक्षासें श्रावकके व्रत बहुतही सर. लतात है. जब मुनि महाराजकों हरएक महावत त्रिविध त्रिविध पालन करनेका है, तव श्रावकोंको अनुवादि भी शक्ति मुजब चाहे उस भांगेसें ग्रहण करनेकी रजा है; तोभी बहुत जन तो ज्ञानश्रद्धादिककी न्यूनतासें उतना भी लाभ लेनेमें भाग्यशाली नहीं हो सकते हैं. श्रेष्ठ श्रावक तो १२ ब्रन् धारनकर सर्वथा सचित भक्षणके त्यागी वनकर सर्वविरति चारित्र धर्मके पूर्ण अभिलाषी होते है. असे विवेकी श्रावक प्रायः चारित्र रत्नकों पाते है. आर्या छंद- संपावार बहुमाणो, पुथ्थय लिहणं पभावणा तिथ्थे; सहाण किश्चमेयं, निचं सुगुरु वसेणं. १ उन्नतीसवाँ-श्री संघके उपर बहुमान रखना चाहिये, श्री तीथकर प्रभुजीकी पवित्र आज्ञाकों माणसेंभी ज्यादे मिय मानकर सेवन करनेहारे साधु साध्वी श्रावक श्राविकारु५ चतुर्विध संध कहाता है; परंतु परमोपकारी प्रभुजाकी पवित्र आज्ञा उल्लंघन करनहारे जनोंका समूह यानि अपनी मरजी मुजव उलटे वर्तन चला. नहारेको परम पवित्र संघकी गिनतिमें गिनने लायकही नहीं है. उन्होंके आचरण पवित्र आज्ञासे विरुद्ध हैं। पास्ते पवित्र आज्ञा Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पालनहारा चतुर्विध संघ तरह जग जयवंत श्री जिनशासनकी उन्नती करने के बदले में वै तो तदन आज्ञा विरुद्ध वर्तनसें पवित्र शासनकी हिलना-दी-मरखरी करनेहारे हैं, उसे वै भभुआज्ञापालक श्री संधके बहार है. पवित्र आज्ञाधारक श्रीसंघ तो श्री तीर्थकरजीको भी मान्य है, जैसे संघका अनादर तीन भुवनमें भी __ कौन कर सकता है ? अगर कोई मोह मदिराकें जोर सें अनादर करतो वो आखिर क्यों करके सुखी हो सके ? वास्ते स्वकल्यान चाहनेहारेको कवी भी पवित्र साधु-साध्वी-श्रावक श्राविकारुप यस्त या समस्त श्री संघकी मखरी-हावाजी-दिल्लगी-निदा-अवज्ञादि आप खुदकों करनी नहीं, करानी नहीं और अनुमोदना करनी या संमती भी देनी नहीं; किंतु यथाशतिः उस पवित्र संघकी भक्ती करनी; करानी और अनुमोदनी स्वपरकी उन्नति रचनेका ये अति सुलभ मार्ग है. जो सुज्ञजन ॥ विवेक युक्त श्री संघकी भक्ति करता है वो परम भतिरससे सकल कर्म दूर करके अक्षयपद पाता है. श्री संघ जंगम तीर्थ रुपहै, उससे मोक्षार्थीजनों को अवश्य सेवन करने के योग्य है. तीसवाँ-पुरक लिखनम् सर्वज्ञ भाषित और गणरादिक महापुरुष गुंफित आगम-पंचांगी समेत, भकरण या ग्रंथोंका लिखना, लिखवाना और लिखनेवालेको मदद देना ये सुश्रावकोंका अवश्य कलव्य है. वै शास्त्र ज्यौं शुद्ध लिखे जावै त्यों खास ध्यान देनेकी जरुरत है. आजकल हाथोंसें लिखे जाते हुवे ग्रंथ बहुत करके Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६३ अद्ध मालुम होते हैं उनके बहुतसे कारण है. पो लसमें लेके विचारनेसें और पूर्व के शुद्ध ग्रंथोकी साथ मुकाबला करनेसें बहुत दिलगीरी पैदा होती है. और पूर्व प्रभाविक पुरुषोंने लिखाये हुचे ग्रंथोकी आजकल बहुतसी जगह चलती हुइ गरव्यवस्था देख अपार खेद होता है. ऐसे परमपवित्र शास्त्रोंकी हानि होनेका कारण अज्ञान और अविवेकका जोरही मालुम होता है; क्यौ कि जो वै पवित्र शास्त्रोंको सच्चा मूल्य समझनेमें आया होता तो पीछे कौनसा मंदभागी वै पवित्र शास्त्रोंका उपयोग न करतं, और न करने देते ? जाने अपने पापकी मिलकत होवै उसी तरह ममतासें महाकुपणके धनकी माफिक उन्होंको छाकर रखके उन्होंका लाभ लेने में इतजार और सच्चे हकदार समस्त श्री संघकी अवज्ञा करके दीमग आदिकसे उनका नाश होजाने तक उन्होंकी दरकारी किये करते हैं. सचमुच ये कुप्तपने सत्यानाशीका रूत दिखलाया है. नहीं तो दो घंटेकी अंदर ये सब सीधादोर हो जावै. जो ये नाश होते हुये पुस्तकोंको अमूल्य समझकर बचा लेने हो तो उसका सचा और सरल उपाय संपही है. आजकल लिखे जाते हुपे हजारो अशुद्ध ग्रंथोंसे नाश हुवे जाते शुद्ध ग्रंथों का बचाव करनेमें पड़ा भारी फायदा है. नाश हुई वस्तुका दूसरी जगह पता मिलना ही मुश्किल है, और वैसे ग्रंथोंका वचाव किसी प्रकार भी हो सके तो अच्छा है, नहीं तो अति विरल और खास उपयोगी ग्रंथोंकी एक एक नकल अति शुद्ध कर, करवाकर उन प्रतके उपरसें अनुकूल साधन Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ की सहायता मदद ले दूसरी शुद्ध प्रत करा लेनी दुरस्त मालूम होती है. लाभ गेरलाभ विचारकर जितनी आशातना दूर हो सके उतनी दूर कर पवित्र ग्रंथोंका उद्धार करना ये विवेकवंत समयज्ञ श्रावकोंकी खास फर्ज है. अपने परमपवित्र शासनका सञ्चा आधार उपर कहे हुवे अमूल्य और पवित्रशास्त्रोके उपर ही है. वो अपना अमूल्य वारसा आजकल के कितनेक मिथ्या मान के पुतलों के विश्वास से अपन गुमा न बेठे उस वास्ते अपनकों ज्यादे सावध रहनेकी जरुरत है वास्ते जिनके कवजेमें वैसे पुस्तक है उनको समझा१९ कुल कवजा हाथकर शासनकी तर्फ गंभीर फिक्र सहित खंत रखनेवाले नररत्नोंकों आगेवानी देकर उन्होंकी निगेहबानीके नीचे वो अति कीमती पारसा संभालना. अपनी वेदरकारीसे अपनने बहुत मा दिया है, और वो इतना मेंधा था कि उसका मूल्य बडे ज्ञानी शौहरी ही कर सकते हैं। मगर शिंग और पूंछ विगर के नर पशु न कर सकेंगे. उमीद है कि अबी भी कुंभकरणकी गाढ निद्रा__ मेंसें जागृत हो अपना भविष्य सुधारनेके वास्ते अपने कोई कोई ‘भाइ कुछ करेंगे, और कुछ झनुनसे कहे गये कठिन शब्द पास्ते अच्छा मानेगे. इकतीसवाँ-तीर्थ यानि शासन उनकी प्रभावना यानि उन्नति जो सुश्रावक है वो यथाशक्ति अवश्य करेंगे. उपलक्षणोंसें कोई बुरे संयोगोंस करके भइ हुइ मलीनताको भी दूर करेंगे. यहांपर वर्तमान श्री वीर शासनका मुख्य आधार आगम या Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमयर और जिन प्रतिमाजी या जिनमंदिरजीके उपरही है. आगमोंकी स्थिति कैसी दयाजनक हो गइ है वो पेस्तरके पेरिग्राफसे समझनेमें आ गया है, और उस परसें आजकल आगमधर कैसे है अथवा कैसे हो सकै वो भी कुछ समझने में आयगा; अर्थात् मूले पडे हुवे वा परजाने वाले उक्त आधारको टेका देनकी अपनी खास फर्ज है. जिनप्रतिमा या जिनमंदिरोंके संबंध भी करीव वैसाही है-इसका सेवन भी मुख्यतामें अज्ञान, अविवेक या कुसंपही नजर आता है. अगाडीके वस्तमें जब पृथिवीकों जिन पासादमंडित करने के लिये समर्थ श्रावक वीर थे, तब अभी आपके गाँवमें या नगरमें जो जिनमंदिर या जिनबिंब है उनका संरक्षण करनेको भी श्रावक भाग्यसही समर्थ होते है। सवव कि आजकल कितनेक धनपात्र पैसेकी केफ शाहाने-दीर्घदशी श्रावकोंकी दलीलपर वेदरकारी बताते हुवे नये नये मंदिर बनवाकर उसमें नथी नयी प्रतिमाजीयें भरवा कर जितना फजूल पैसा उडादेते है सो विवेक विगरही उडाते है; यदि उतना द्रव्य विद्यमान मंदिरोकी मरामतम या उन्होका संरक्षणतामे, जिन भक्तिमें विवेक पूर्वक खची करै तो.अपार लाभ हासिल कर सकै; लेकिन जब जैनकोमका और उसीके साथ आपका बहेनर होनेका होवै तब उन्होंकों जैसी सद्बुद्धि या विवेक जागृत होवै ना ? एक दूसरेकी स्पर्धासें फक्त मिथ्याभिमानमा अंध होकर यशकीर्ति गवानके वास्ते किया गया चाहे वैसा बड़ा काम उचित विवेककी बडी भारी न्यूनतासें कया • Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ आपकों या अन्य जनको उपकारी होवै ? नहीं होवे वास्ते उचित है कि-श्रीमंत श्रावकोंकों पैसे धर्म कार्यमें दीर्घदशी अन्य साधर्मी या निःस्पृह साधु समूहका हितबोध हृदयमें याद रख्ख आगेको कदम उठाना अन्यथा आपके अविवेकसे उलटे श्री संघकों पोजे-भार रुप हो पडै. "प्राचीन जिनमंदिरोंका उद्धार और संरक्षण करनेसें अगणित लाभ है." वो पवित्र वाक्य अधिकारी श्रावक वर्गको भूल जाना युत नहीं है। सवा कि पवित्र शासनका सचा आधार अभी मुख्यतासे श्रीजिनागम और जिन पडिमाओंके उपर हैं. आखिर आंखें खोलकर विवेक जागृत करके समझना चाहिये कि उ पवित्र आगम, आगम घरोंके आधारसे और पावन जिन पडिमा श्री जिनमंदिरोंके आधारसें रह सकते है, इतनाही नहीं मगर उ# आगम मुजव वर्तनहारे पवित्र आगमधर और विधि मुजव निर्माण किये गये प्राचीन जिन मंदिर जगत् जयवंत जैन शासनके सचमुच अलंकार है. ... श्री भद्रबाहु स्वामी, श्री उमास्वाती वाचक, श्रीसिद्धसेन दिवाकर, श्रीहरीभद्रसूरी, श्रीहेमचंद्रसूरी, वादी श्री देवसूरी तथा महोपाध्याय श्री. यशोविजयजी वगैरः प्रभावक आगमधरोंसें जिस प्रकार जैन शासनका डंका वजा है, तैसेही श्री शत्रुजय, गिरनार, आबु, अचलगढ, राणकपुर, पट्टन, खंभात, तारिंगा-राजनगरादिक अनेक स्थलमें शोभायमान होते हुने प्राचीन जिनमंदिरमे पुराने जिन वियोंसें जैनशासनका जयनाद सर्वत्र फैल गया है. उससे Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनशासनके सच्चे आधारभूत या अलंकारभूत पवित्र प्राचीन आगम या जीणमाय भये हुवे जिनमंदिरोंका उद्धार करनेकी ही आजकल सच्ची अगत्यता है. और विवेक पूर्वक उक्त महाकार्यमें द्रव्यका सदुपयोग करनेसें ही पवित्रशासनकीवडी भारी उन्नति या प्रभावना होनेका संभव है. उमीद है कि प्रियभाइ-और भगिनीयोये अति अगत्यकी पात खास लक्ष्यमें ले अनादि प्रिय स्वच्छंदताको छोड शास्त्र परतंत्र रहकर स्वहित साधेगे! या द्रव्य क्षेत्रकाल भाव विचारकर पवित्रशासन के परम रसिक सद्गुरुका सदुपदेशलक्षमें, रखकर ज्ञानकी तालीममें सृद्धि करके दुःख पाते हुवे साधर्मीयोंको उदार सखावतसे उद्धर कर पवित्र शासनकी वडी भारी उन्नति कर आत्म कल्याण करेंगे! कल्याणक अर्थी भाइ भगिनीय विवकसह लदगी, यौवन, और आयुपकी अस्थिरता पूर्ण प्रकार से विचार करेंगे, या गफलत तजकर प्रमाद रहित हो महा भाग्य योगसे प्राप्त भइ हुई ये सर्वोत्तम सामग्रीका यथेच्छ लाभ लेकर स्वजन्म सार्थक करेंगे. क्षणिक यशकीर्तिके लोभमें खींचाकर अक्षय सुखका लाभ न जाने देंगे, और मुग्धजनाको रंजन करनेमें तन मन धनकी आहूती देनस तो परमात्म प्रभुकों रंजन करनेमें अपना सर्वस्व अर्पण करने के वास्ते आगेवानी करेंगे, अपने माणसेंभी परम पवित्र श्री परमात्माकी पवित्र आज्ञाको अत्यंत प्रिय समझकर उनीकी खातिर आपका प्रिय प्राणोंका भी पलिदान देनेमें न डरेगे ! यतः आणाए धम्मो' अर्थात्. Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपेंद्रपना-छंद-जिनेंद्रपूजा गुरु पyपास्ति, मत्यानुकंपा शुभपात्र दान; गुणानुरागः श्रुतिरागमस्य जन्मवृक्षस्य फलान्यभूनी.१ . इन श्लोकमें कहे हुवे श्री जिनेंद्रजीकी पूजा आदि तमाम धर्मकृत्य परमकृपालु प्रभुकी पवित्र आज्ञापूर्वक ही सफल होते हैं. और कहा है कि: “आणा रहियमाहाणं, पलालपुलुक पडिहाइ” अर्थात् परमपाल श्री तीर्थकर परमात्माकी पवित्र आज्ञारहित किया हुधा-विरुद्ध अनुष्टान धान्य रहित परालके पूले जैसा निःसार मालुम होता है-कुछ शोभता नहीं. वास्ते ज्यौ बन सके त्यौ सापधानीके साथ परम कृपालु प्रभुजीकी परम पवित्र आज्ञाका आराधन करनेकी अवश्य दरकार करनी चाहिये. फ. लोकप्रवाहमें वहन होकर मुग्ध लोगोंका मन रंजन करनेके वास्ते आगममर्यादा छोडकर मरजी मुजब चलने में बहुतसी हानि होती है, और परम पवित्र आगम मर्यादा संभाल कर-शास्त्र परतंत्र रहकर चलनेसें बहुतसा फायदा है, सोप्रमाद छोड श्री सद्गुरु चरणकमलकी सम्यक् सेवासें परम पवित्र शास्त्ररहस्य मिलनेसें मालुम हो जायगा महाराजश्री यशोविजयजीने कहा है कि:'जन मन रंजन धर्मको मूल न एक बादाम.' यह बहुत गहरे रहस्य वाले वाक्यसें कितना समझनका है ! यदि आपके आत्माका वेशक कल्यान करनाही हो तो सद्गुरु चरणाधीन रहकर चलना. परम पवित्र वीतराग वचन अनुसारही हमेशां जिनका वर्तना आर Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६९ ર્જાના હોતા હૈ ઐસે સ્વપર દંતાની માત્માળો સત્તુહી સમક્ષ लिजिये जो अपने झूठे स्वार्थमें अंध हो दूसरे कॉभी उलटे रस्ते चढा हैं वै पथ्थरकी नाव जैसे कुगुरु स्वपरकों डुवाने वाले हैं, विषयांध वनकर केवल वेष विडंबक पापात्माओंका नरक विगर दूसरा मार्ग नहीं है. स्वश्रेय साधन करनेकी इच्छा वाले सुगुणी श्रावकोंको वैसे पापी गुरुका सँग सर्वथा छोड देना. अहा ! वडेही खेद की वार्ता है कि कितनेक मुग्धभाइ भगिनीयें जैसे बहुत नीच हलके कृत्य करने हारों का भी संग किये करते हैं, पवित्र शास्त्र तो फरमाते है कि-' काले सांपका संग करना अच्छा; मगर कुगुरुका संग करना अच्छा नहीं. क्योंकि काला सांप काटे तो कभी एक बेर मृत्यु होवै; मगर कुगुरूसें तो अनाचार सेवन कर या पोषनकर अनंत भवभ्रमण करना पडता है यानि बेसुमार वख्त मरनके शरन होना पडना है; वास्ते आत्मार्थी सज्जनोंकों तो हमेशां स्वपर हितकांक्षी सद्गुरुओं का ही संग करना. कदापि मरणांत कष्ट आ पढे तोभी कुगुरुओंका संग नहीं करना. शुद्ध देव गुरु धर्म इन्होंकी पूर्ण पहिचान कर अत्यंत भक्ति भावसे उन्हीकाही सेवन करना, पवित्र शास्त्रकारोंने कहा है कि'धर्मार्थी जनों को धर्मकी परीक्षा सुने या रत्नकी तरह करनी. ' परीक्षा पूर्वक ग्रहण की हुइ श्रेष्ठ वस्तुका श्रद्धासह सेवन करनेसे उनका फल मिल सकता है; और परीक्षा विगर उपरके आडंबरसेंही ग्रहण की हुइ झूटी वस्तुसे मात्र क्लेशकेही हिस्सेदार होनो Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० पडता है. प्यारे भाई और भगिनीयो ! याद रखो कि शुद्ध देव गुरु धर्मकी परीक्षामें अच्छे अच्छे जन भूल खाते हैं, बडे झोहरी चौकसी-कसोटीगर भी भूल खाते हैं, बडे पुराणी, वेदके जानने पाले, और काशी भी भूल खाते हैं. अरे वडे देव दानव और राजा महाराजाभी भूल खा जाते हैं। वास्ते कुल जीवनके सारभूत अति उपयोगी अमूल्य धर्मकी परीक्षा करनेमें गफलत नहीं करनी. तुम तुंगीआ नगरीके श्रावकोंकी वात यादीमें लाओ, और ज्यौं वन सके त्यौं तुरंत अपने अपने उचित आचार विचारमें सुदृढ़ हो जाओ. तुम सभीजन सद्गुरुसेवामें रसिक होकर जो सद्गुरु वનરેશી વિદ્યમાન સામગ્રી છો જા મની મુનવ ગામતિઉં છું विचरकर धन्य मानते हैं उन्होंका पापी संग छोड दो; क्योंकि वैसे श विडंबकोंको पुष्टि देनसें तुम फर पापकोही पुष्टि देकर अनर्थ बढाते हो. अगाडी हो गये हवे श्रावकोत्तम श्रावक श्राविकाओंके चरित्र याद करो ! श्री श्रेणिक राजा अभय कुमार मंत्रीश्वर तथा सुलसा श्राविकाकी तरह शुद्ध देव गुरु धर्मकी परीक्षामें चतुर वन जाओ, जिस्से ठगाये बिगर स्वस्व उचित आचारोंमे चिरकाल सुदृढ रहकर आखिरमें श्रीसर्वज्ञ आज्ञाकों सम्यग् आराध लेके सहेलाइसें सद्गति साध सको. . अपने अपने व्रतमें दृढता करनेके वास्ते श्रीसूर्ययशा प्रमुखके चमत्कारीक दृष्टांतोंका पुनः पुनः स्मरण करते रहो, और श्री भर इसर बाहूबली वगैरमें वर्णन किये गये उत्तम शीलादिक असंख्य Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७१ મુખશાહી પાંવેત્રમાઽ માનનીયાળી તરહ વિરાજ પર્યંત અરવડ શૉ-लादिक उत्तम गुणमणि रत्नोंका भंडार भरेही करो. तुमसे बनसके તને દુલપાતે દવે સાધાઁ માયોલોં મર્ તો, ઔર ઉન્હોં बहुतसी मदद देकर साधमीयोंका उद्धार करनेवाले सांप्रतिराजा, कुमारपाल भूपाल, विमलशाह वस्तुपाल तेजपाल और जगडुशाह वगैरः पूर्वमभाविक परमात श्रावकों के उत्तम सुकृत्योंकी अनुमोदना करके आप डाइ किये बिगर हमेशां आत्मलघुताकोही विचारमें लिये करो . हमेशां याद रख्खोके परानदा - आत्मप्रशंसा करनेहारा मनुष्य अपने किये हुवे सुकृतका फल गुमा बैठता है, और आत्मलघुता शोचनेहारा सत्पुरुष हमेशां - दिनप्रतिदिन गुणानुरागी होनेसें गुणाधिकता पाताही जाता है. कदाचित् कुछभी सुकृत करनेमें या किये वाद तुमको अपना उत्कर्ष - आपवडाइ हो आवे तो उसकों दूरकरनेके वास्ते अच्छा और सुगम मार्ग यही हैकि पूर्वपुरुष रलोके चरित्र सामने नजर करनी और ' जनमनरंजन धर्मकामूल न एक वादाम ' - बस यही बातकों हरदम याद किये करनी. पवित्र ધર્મમાનને અન્ય નોવોંરોં નોડ તેન વાસ્તે હના વિત્તરંગનેમેં તો गुणही है यौं शास्त्रकारोंका कथन है. चाहे वैसा उत्कृष्ट धर्म कोइभी श्रावक पालन करता होवे और उस्से कभी उसके दिलमें दूसरे श्रावकों की अपेक्षा अपनेमे अधिकताका भास नजर आवै . तोभी उत्तम महाव्रतोंकों कपट रहित अखंड पालनेहारे उत्तम मुनी महाराजाओंकों देखकर उनका मान दूर हो जाता है. Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ ___ यहां पर प्यारे भ्राता और भगिनीयोंको आग्रहके साथ कहनेको हैकि जिस प्रकार अपना कल्यान होवे अगर अपने साधर्मीयोंके श्रेय साधनद्वारा पवित्र शासनकी उन्नति-प्रभावना हो उसप्र'कार अहर्निश यत्न करना, यही ए अति अमूल्य मनुष्यजन्मादि दुर्लभ सामग्री पानेका उत्तमोत्तम फल है. श्रावक धर्मकृत्योंका । उहांपर बहुत संक्षेपसें बयान करनेमें आया है, क्योंकि बहुतकरके जीवोंका पडाहिस्सा फर संक्षेपरुचीवंत मालुम होता है. विशेष रुचित बाइ भाइयोंकों सद्गुरुकी सम्यग् उपासन करके विशिष्टशास्त्र रहस्य मिलालेनेकी दरकार रखनी दुरस्त है. पवित्र शास्त्ररहस्य मिला लेकर जिस प्रकार तुरत आत्मउपकार और परोपकार कर जगजयवंत श्री जिनशासनकी उन्नति हो उसमकार यत्नवंत रहना. जो अपूर्वशास्त्रहरस्य अपन कों प्राप्त हुवा होय बो दूसरे योग्य जीवोंको समझादेकर कृतार्थ होना, जिसतरह जगत्वति सभी जीव परमपवित्र श्री वीतराग शासनके रागी होवै उसतरह परोपकार दृष्टि से हमेशा चलन रखना, जिसे स्वपर श्रेय साधनद्वारा श्री जैनशासनकी प्रभावना उस्कृष्ट प्रकार की होने पावै. . . विविध विषय संसह. जिनमंदिरमें संमालने लायक दशत्रिकोंके स्वरुपका बयान.. १ निस्सिही त्रिक-तीन वख्त निस्सिही, २ प्रदक्षिणा त्रिक, Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७३ ३ प्रणाम निक, ४ पूजाबिक, ६ अवस्थात्रिका ६ त्रिदिशि निरीक्षण विरति त्रिक, ७ पादभूमि प्रमार्जनत्रिक, ८ वर्णादित्रिक, ९ मुद्रात्रिक, और १० प्रणिधानत्रिक यह दशत्रिकका पाल जीवों के वास्ते संक्षेपसे विवेचन करेंगे. उसमें पहिले निस्सिही त्रिकका अर्थ यह है कि-तीन वख्त ( मंदिरमें दाखिल होतेही) निस्सिही कहना. जो लोग इसका परमार्थ नहीं समझते है, वो लोग शुक पाठकी तरह तीन वरुत बोल देते है। लेकिन किस लिये तीन वरूत कही जाती है उसकी खबर नही होती है। वास्ते उनको उसकी मतलब समझानेकाही हमारा ये देश है. सो ध्यानमे लेकर हरएक त्रिकका परमार्थ समझ, समझाकर अपनी फर्ज विचार श्रम सफल करोगे. निस्सिहीत्रिक-पहिले श्रीजिनमंदिरके कोटके दरवाजेमें दाखिल होतेही अपने घर संबंधी व्यापारका त्याग करनेरुप पहिली निस्सिही कहनी. प्रदक्षिणा फिरकर मालुम होती हुई आशातना दूर कर मध्य वीचले दरवाजेमें पैठतेही श्री तिनमंदिर संबंधी विकल्पको छोड देनेरुप दूसरी निस्सिही कहना. पाद विधिवत् स्वद्र०५ (चावल-फल नैवैधादि) से श्रीजिनपूजा करके द्रव्य पूजा संबंधी विकल्प तज देने०५ तीसरी निस्सिही कहकर श्री जिनेश्वर प्रभुकी स्तुतिके लिये चैत्यवंदन विधि संमालनी स्थिरता योगसे इरियावही पूचक भावकी विशुद्धि होवै वैसे प्रभुजीके सद्भूत गुणोंका किर्तन करना. __ २ प्रदक्षिणात्रिक-प्रभुजीकी दक्षिण बाजुसें भवभ्रमणा मिटानेकी बुद्धि-इदिसें या ज्ञान पर्शन-चारित्र पानेकी सुषुद्धि से श्री Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ जिनमंदिरकी भमतीमें यतना पूर्वक मार्ग में कुछ भी किसी तरहकी आशातना जैसा मालुम होवै वो आप खुद दूर कर, कराके तीन दफै उपयोग सह फिरना यानि तीन प्रदक्षिणा दैनी. ३ प्रणामत्रिक-चाहे उतने दूरसे श्री जिनेंद्रजीके जब 'दर्शन' होने लगे तब तुरंत आदर पूर्वक दानु हाथ जोडकर 'अंजलिबद्ध' नमस्कार करना, सो प्रथम प्रणाम. बाय प्रदक्षिणादि देकर बीचले द्वारमें आकर प्रभु समीप अई अंग झुकानेरुप 'अर्धावनत करना सो दूसरा प्रणाम. और अंतमें यथा अवसर प्रभुजीकी द्रव्य पूजा कर चैत्यवंदनके पेपर पांच अंग यानि दोनु हाथ, दो जानु और मस्तक ये पांच अंग संपूर्ण भूमिके साथ लगाकर 'पंचांग प्रणाम' तीन दफै भूमिकों पूंज प्रमार्जकर करना सो तीसरा प्रणाम. ४ पूजात्रिक यथा अवसर फजर, दुपहर और साम, ये तीन वरूतमें प्रभुकी यथोचित उत्तम द्रव्योंसें पूजा करनी गृहस्थोंकों कही है. उसमें प्रात:कालमें वस्त्रादिककी शुद्धिसें वासक्षेपकी पूजा, मध्याहमें सुगंधी जल, चंदन, पुष्प, धूप, दीप, अक्षत, फल और नैवैध द्वारा अष्ट प्रकारी पूजा, और संध्यामें धूप दीपादिकसे पूजा करनेका अधिकार है उस मुजब भाविक सदगृहस्थ यथाविधि भभुभ शिकरके स्पद्रव्यकी सफलता ले सफै. जो जो द्रव्य यानि शुद्ध जल-चंदन-फल वगैरः प्रभुके अंगपर पड़ा सकै वो पो द्रव्यसें 'अंगपूजा करनी सो प्रथम पूजा. जो जो द्रव्य यानि सुगंधी धूप, दीप अखंड चावल, फल, नैवेद्य वगैरः प्रभुकी आगे ढोक-रखकर Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७५ भावना भाइ जाय, वो वो द्रव्योंसें 'अग्रपूजा' करनेरूप दुसरी पूजा. और समस्त द्रव्यपूजा किये वाद प्रभुके सत्यगुणोंकी अंतःकरणसें वैसेही उत्तम गुण पानेके लिये स्तुति करनी सो 'भाव पूजा' समझनी . बरावर लक्ष रखकर यतना पूर्वक शास्त्राज्ञा मुजब परम पूज्य प्रभुकी उक्त तीन प्रकार से अपने अपने अधिकार गुंजास मुजब पूजा करनेवाला आप खुदही परमपदकों पाता है. आप परमात्मारूप हूवे बाद पूजाकी जरुरत नहीं; मगर वहां तक तो यथासंभव परमोपकारी पूर्ण आस्था से पूजा करने की जरुरतही है. ५ अवस्थात्रिक - परम कृपालु प्रभुकी छद्मस्थ, केवली और सिद्ध असें तीन अवस्था अलग अलग जगह भावै, सो इसतरह कि - प्रभुकों स्नात्र अभिषेक - हवण, अर्चन वगैरः की वख्त 'छद्मस्थ, ' अष्ट प्रातिहार्य के देखावसें 'केवली' और पर्यकासन - पद्मासन या काउस्सग्ग मुद्रा स्थित प्रभुकी 'सिद्ध' अवस्था है. ६. त्रिदिशि निरीक्षण विरतित्रिक - परमात्म प्रभुजीकी परम भक्तिमें रसिक जनोंकों प्रभुके सन्मुखही आपकी नजर रख-कायम करनी उस सिवायकी तीनु दिशाओं में नजर फिरानेका त्याग करना. ७ पादभूमि प्रमार्जनत्रिक गृहस्थकों प्रभुकी द्रव्यपूजा किये चाद भावपूजा - चैत्यवंदन समय जयणा पूर्वक उत्तरासंग या वस्त्रांचलद्वारा तीन वख्त पंचांग प्रणाम करनेके वख्त भूमि वगैरःका जीवरक्षाके वास्ते मार्जन करना. मुनि वगैरः भावपूजा के अधिका - Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ रीवर्गको रजोहरण-ओघा वगैर से तिनदफै प्रमार्जन पूर्वक प्रभुको प्रणाम कर चैत्यवंदन करना. ८ वर्णादिक त्रिक-श्री जिनेश्वरजीके पास उत्कृष्ट-मध्यम या जघन्य ( अनुक्रमसें आठ, चार या एक स्तुति-थोय-थुइसें) चैत्यवंदन करने वख्त वो वो सूत्राक्षर, सूत्रार्थ इन दोनुमें बराबर लक्ष रखने के साथ श्री जिनप्रतिमाजीका ढालंबन रखनाः सबकि उपयोग शुन्यतासें की हुइ करणी सफल न होवै. ९ मुद्रात्रिक पैत्यवंदन करने के वसत नमुथ्थुगं पढ़ते तक योगमुद्रा धारन कर रखनी. काउ(सग्ग ध्यान के १७त जिनमुद्रा 'करनी, और प्रणिधानत्रिक यानि जावंति आई, जावंतकविसाहु और जयवियरायपढ़ने के वस्त 'मुक्तामुतिसुद्रा' धारन करनी. परस्पर कमलकी कलीकी तरह दोनू हाथद्वारा दशों अंगुलियोंका पेचकर अपने पेट के उपर दोनू हाथोंकी कोंनी स्थापन करने से 'योगमुद्रा' हुई गिनी जाती है. चार अंगुल अगाडी के भागमें और चार अंगुलमें कुछ कम पिछाडे के भागमें पाँव फैलाये हुवे रखकर कासग करना सो 'जिनमुद्रा' हुइ समझनी. और एक दूसरी अंगुलीओंको बराबर जोडदेकर दोनू हाथ परावर पोकल रखने में आवे और दोनू हाथ कपालको जग रखने में आवै (कितनेक आचार्यों के मतसं कपालकों नही भी लगानेमें आवे ) यौं करनेसे दोनू सीप मिली हुई होने जैसा हाथका आकार होने से उसे मुक्ता। सुक्तिमुद्रा कही जाती है. Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७७ १० मणिवानत्रिक-आगे कहदिये मुजब जावंतिचे०. जावंत के०.-जयवियराय ये तीन सूत्रपाठकों मणिधानत्रिक कहते हैं. या मन-वचन-तनके योगकी एकाग्रता भी 'प्रणिधानत्रिक' कहा जाता है. उपर मुजब संक्षेपसे दशत्रिकका खुलासा पूरा हुवा, उन उपरांत कितनीक उपयोगी और प्रसंगोपात वाचतोंपर भक्ति रसिककों लक्ष देनकी जरुरत है. आजकल पाणी प्रमादके वश होकर पवित्र प्रभुपूनादिक नित्यनियमोंमें भी बहुत करके अविधिदोष सेवन करते हुवे नजर आते हैं. सो कुछ नीचेकी बावत परसें समझनेमें • आयगा, और वो समझकर स्वपरके मुधारेके वास्ते बन सके उत नी खंत रखने में आयगी. ___आगेके वरूतमें जिस तरह शास्त्रकी मर्यादासें जिनमंदिर, जिनप्रतिमा, प्रतिष्ठा-(सुविहित साधुके पाससे विधिवत् वासक्षेपादिक द्वारा) पूजा भक्ति वगैरः शाख नीति मुजब चलनेकी दरकार वाले सुश्रावक करते थे, उसी तरह-वैसे आदर-मान पूर्वक आज कल भाग्यसेंही होता हुवा नजर आता हैं. हां, शास्त्रविधिका अनादर होता हुचा तो नजर आता है. प्रभुभक्तिमें पपराते हुवे द्रव्योंकी जयणापूर्वक करनी चाहिये सो शुद्धिकी बे दरकारी रखनेमें आती है. बहुत करके गाडरीए प्रवाहकी तरह संमूर्छिम अनुधान क्रिया करनेमें आति हुई मालुम होती है. ___ असे विषमकालमें देवद्रव्य वगैरः संभालने में जैसी खत-फिक __ रखनी चाहिये वैसी रखी जाती मालुम नहीं होती. क्वचित् उस Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ का बेदरकारीसें लोप होता हुवा नजर आता है, क्वचित् चुराया जाता है, क्वचित् हजम किया जाता है. प्रभुकी पवित्र भक्तिका कार्य बहुत करके वेटकी तरह बजाने में आता है. दीपकमें पतंगीए वगैर: जंतु पडकर भरते हैं उनकी प्रायः संभाल लेनेमें नहीं आती है. जिनमंदिर बहुत रात जाने तक भी खुले रखे जाते हैं - प्रायः अवसरका काम अवसर पर करनेमें नहीं आता है; इतनाही नहीं मगर अपनी भूल सुधारनेकों कभी कोइ प्रेरणा करे तो उसकी 'तर्फ नाराजी बतलाकर आप जो करता है सोही ठीक है जैसा स्थापन कर कितनेक विषकों छौंकाते हैं, ये सब सचमुच अज्ञानकाही प्रभाव हैं. अपने पवित्र शासनानुरागी वीरपुत्रोको अब ज्यादे जागृत होने की जरूरत है. अपनी इतनी पतित स्थिति जैसे अनेक अविधि दोषोंकाही परिणाम मालुम होता है, जहां तक अज्ञान अविवेक - मिथ्याभिमान दूर न होवेंगे वहांतक अपनी कोमकी स्थिति सुधरनी बहुत ही मुश्किल है. सुविवेक धारन किये बिगर अपन अपने उपकारी परमात्माकी पवित्राज्ञाको विधिवत नहीं पालन कर सकेंगे, और उस विगर अपन धर्मकरणी करते हुवे परभी यथार्थ लाभ न मिला सकेंगे. जैसा समझकर मेरे प्यारे वीरपुत्र पुत्रिये ! तुम जागृत हो जाओ ! प्रमादरुपी महाशत्रुका पल्ला छोड दो ! और दिलमें अच्छी उमीयें लाकर परमकृपालु प्रभुकी पवित्र आशाकों बरोबर पालनेके लिये तत्पर हो जाओ. तुम मनमें धारनकर हो तो कर सको वैसा है; क्योंकि तुम वीरपुत्र पुत्री हो; तथापि なん Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैसे मूलसही वकरोके जुथ्थमें रहनसें सिंहकिशोर भी आपका स्वरुप भूल जावै, वैसे अज्ञान-अविवेक, मिथ्या व्हेम कायरता वगैरः दोषोंके समूहमें संमीलन हुवे रहनेसें तुमारा भान भी ठिकाने 'पर नही रहे सका है, सो अब ठिकानेपर आ जाय जैसी श्री वीतराग देवजीकों हर हमेशा प्रार्थना है-सो सफल हो ! स्वपरका अंतः करणसे श्रेयचाहनेवाले हरएक वीर पुत्रको जिस प्रकार श्री जैनशासनका उदय होवै उस प्रकार कटिबद्ध होकर उद्यम करना उचित है. पुरुषार्थको कुछ भी असाध्य नहीं है। वास्ते असे उत्तर पुरुषार्थकाही अपन सवको शरण हो !! . et-2. श्री देवगुरुवंदनादिक समय संमालनेयोग्य पंचाभिगमादि. । १ सचित्त द्रव्यका त्याग-आपके उपयोगमें लेने लायक सुचित्त द्रव्य फल फूल वगैर:का त्याग करना. २ अचित्त द्रव्यका स्विकार-श्री देव गुरु वंदन पूजन लायक वखालंकार धारन करना. ___ ३ मनकी एकाग्रता करनी-अन्य प्रकारके संकल्प विकल्प छोडकर उक्त कार्यमेही चित्तकों पिरादेना. - ४ एक साडी उत्तरासंग-अखंडित-नफटा तूटा हो साउनरासंग वंदनके वख्त अवश्य धारन करना.. Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८० बंदनके वख्त वखांचलसें भूमि प्रमार्जन और स्तुति समयमै मुंहका उपयोग रखना. . ६ दर्शन होतेही मस्तकके साथ अंजली लगानी-चाहे उतने दूर से देवगुरु के दर्शन होवै कि तुरंत दोनु हाथ जोडकर मस्तकसे लगा लेना. यह उपर कहे हुवे पंचाभिगम सर्व साधारण है. ___ राजा-पावर्ती वगैरकों तो दूसरी तरहके पांच अभिगम भी संभालने पड़ते हैं, सो नीचे मजब है: जिनमंदिर या समवसरणमें दाखिल होतेही, अगर गुरुमहाराज के निवासकी जगहमें वंदनार्थ दाखिल होतेही छत्र-छत्ता, चमर-पंखा, मुकुट, तलवार लकडी वगैरः अवशस्त्र और जूते-बूट चांखडी-ये पांच राज्यचिन्ह वहार से ही छोडकर बहुत मानपूर्वक श्री देवगुरुकी यथाशक्ति भक्ति करै. इसके उपरांत निस्सिही वगैरः दशनिक, तथा जिन वनमें १० बडी आशातना सागनेका और गुरुमहाराजकी १३ आशातनायें दूर करनेका स्वरुप सुज्ञ. अनोनें समझकर शुद्ध देवगुरुका यथाविधि आराधन करनेमें बन सके उतनी दरकार करनी; परंतु घेदरकार न करनी. श्री जिनेश्वरके मंदिरको कोटकी हदमें द। बड़ी ... आशातनाये यत्नसें दूर करनी चाहिये. १ तांबूल न खाना-पान सुपारी धगैरः श्री जिनहार ले जाकर न खाना. Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ जलपान-पानी नहीं पीना. ३ भोजन-अन्न वगैर: कुछभी न जीमना-न खाना... ४ उपानह-जूते न पहनना. ५ मैथुन-विषयक्रिडा-स्त्री पुरुषका विषयसंगम न करना. ६ शयन-न सो जाना और न निंद लेनी. ७ निष्टीवन-थुकना नहीं-मुँहका मल-कफ-बलगम पर: न डालना. ८ लधुनीति-पेशाब न करना. ९ वडीनीति-दिशा जंगल न जाना. १० द्यूत-जुगार न खेलना. श्री गुरुमहाराज संबंधी ३३ आशातनाये नीचे लिखे मुजब वर्जित कर देनेकी जरुर दरकार रखनी. ३ गुरुके आगे पहिले चलना नहीं ?, खडा रहना नहीं २, और बैटना नहीं ३, क्यों आगे और पहिले बैठ जानेसे अवज्ञा होती है. ६ गुरूजी के नजदीक न चलना, न खड़ा रहना, न। ना चाहिये. ९ गुरु के दोनु तर्फ-वरावर एक लाइनमें न पंकना, न वडा रहना और न बैठना चाहिये. १० आचमन-गुरुजी के पेस्तर पानीसे मुंह वगैरः शुद्ध करके Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मर्यादा छोडकर खडी न हो जाना चाहिये. ११ पहिभूमिसें गुरु संग संग आये हुवे ५९भी गमणागमणे थानि इरीयावही गुरुजी के पहिले ही न आलोयनी चाहिये. १२ गुरुजीने कुछ पूंछा तो उसका उत्तर न सुन्नता हो उनकी तरह पीछा उत्तर ही न देवे, वैसा न करना चाहिये. १३ कोइ आये हुवे श्रावकादिकको अपनी तर्फ प्यारवंत बनाने के लिये गुरुजीके पेस्तरही उन्होंकी साथ आलाप संलाप न करना चाहिये. १४ भिक्षा लाये बाद अन्य शिष्यादिकके पास प्रथम आलोय कर पीछे गुरुजीके पास जा कर न ओलोचना चाहिये. १५ लाइ भिक्षा पहिले दूसरे साधुओंको बताये बाद गुरुमहाराजको न बतलानी चाहिये. १६ भिक्षा लाये बाद पहिले दूसरे साधुओंकों निमंत्रण किये बाद गुरुजीको निमंत्रण न करना चाहिये. लेकीन पहिला ही निमब्रण करना. १७ भिक्षा लाये पाद पेस्तर गुरुजीकी द्धादिककी आज्ञा विगरही मनमें आवै उसको मरजी मुजव वापरनेकों न देना चाहिये. १८ लाइ हुइ भिक्षासें मनपसंद-मिष्ट आहार आपकोही न खा जाना चाहिये. . १९ गुरुजीने वोलाया हुवै तो भी विलंब करके बोलना या घटित-विनय पूर्वक जवाब नहि दैना, यानि धीठाइ या उपयोग ५ रहित असा वर्तन रखना न चाहिये. Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० गुरुजी बुलावै तब' जाने कारखाये जैसे कठोरवचन न बोलना. २१ गुरुजी बलाये तब अपने आसन पर बैठे बैठे ही उत्तर न देना यानि तुरंत खडे होकर बहु मानपूर्वक गुरुजीके नजदीक आकर नम्रतासें योग्य जवाब देना चाहिये, मगर उन्मत्तकी तरह मोजमें आवै जैसा जवाब न देना. . ___२२ गुरुजी पूछे तब क्या है' जैसी असभ्यतासें उत्तर न देना. ___२३ 'यो काम तुमही कर लो' इत्यादि विनयरहित गुरुजीक रहामने न बोलने चाहिये. २४ गुरुजी कुछ हितबचनसें धर्मकार्य में प्रेरणा करै, तब उलटा 'हमकोंही देखे है. ' असा बोलकर गुरुजीकी तर्जना न करनी चाहियें. २५ गुरुजीकी प्रशंसासें नासुस होकर उलटा नाराज हो गुरुगुणकी प्रशंसा न करे-वैसा न करना चाहिये. २६. गुरुजी कथा कहते होवै, तब 'तुमकों ये अर्थ याद नहीं है ? असा अर्थ नहीं है'-असा न बोलना चाहिये. २७ गुरुजी कथा कहते हो तब वीचमें श्रावकोंकी अपनी मुशता दिखाने के वास्ते 'मैं तुमको पीछे खुलासा बतलाउंगा.' असा कहकर धर्मकथाका छेद न करना चाहिये. २८ चलती हुई कथामें 'पोरमीका पत्त या आहारका पख्त हुवा है' जैसा बतलाकर पर्षदाका भंग न करना चाहिये. . Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४ २९ कथा हो रहे वाद शिष्यने अपनी सुज्ञता दिखाने वाले पर्षदासमक्ष वही कया सविस्तर न करनी चाहिये. ३० सुरुजीकी सच्या-संथारादिको अपने पाँवसें संघ न __ करना और यदि हो गया होवै तो खमा लेना चाहिये. ३२ गुरुजीसे ऊचे आसन पर न बैठना, या अधिक आसन __पर न बैठना, गुरुजीसें जारती कीमतवाले वस्त्र उपयोगमें न लेने चाहिये. ३१ गुरुजीके संथारेपर असभ्य रीतिसें बैठना सोना लोटना न चाहिय. ३३ गुरुजीके समान आसन पर बैठना अगर गुरुजीके जैसे ही वस्त्रादिकका उपयोग करना न चाहिये. __ ये पताइ गइ संक्षेपयु तेत्तीस आशातनाओंकों दूर करके गुरुजीका बहुमान समालता हुवा शिष्य विधिपक्ष-शास्त्रमार्गका आराधन कर अनेक भवसंचित कर्मरुपी धूलको खपवाकर जरूर आत्मकल्यान कर सकै. विनय यही जिनशासनका मूल है, वास्त विधिपूर्वक गुरुजीका विनय करना. विनय विगर विधा, विधा बिगर विज्ञान, विज्ञान बिगर विक समकित, समकित विगर चारित्र और चारित्रविगर मुक्ति मिलती ही नहीं, उस वास्ते समस्त गुणोंका मूल सब-वशीकरणभूत विनयगुणको ही विशेष सेवन करना चाहिये, जिस्से सर्व गुण सहजहीमें आ मिले. Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८५ श्री देवगुरुका अवग्रह समालने की नीति मर्यादा नीचे मुजब है: विशाल जिनमंदिरमें जगहकी विशालतासें उत्कृष्टपने ६० हाथका अवग्रह - अंतर संभालकर सुविवेकीजनों कों देववंदनादिक उचित क्रिया करनी चाहिये. विशाल जगह न होवे तो जिनभुवनमें चैत्यवंदनादिक करनेमें जैसी सगवड योगवाइ होवै वैसे अंतरकी मर्यादा सभालने की दरकार रखनी चाहियें. आखिर जधन्यतासे ९ हाथका अंतर अवश्य अवकाश योगसे समाल लेना. कदा चित् भक्तिचैत्य यानि गृहमंदिर में उतनी योगवाइ न हो तो उस्सेभी कम करते हुवे जितना दनसके उतना अंतर जरूर रखना. गुरुजीको वंदनादिक करनेमें भी अंतर अधिकारपरत्वसे जरूर समालना चाहियें. अवग्रह समालनेमें आशातना हानि, योग्य आदर - बहुमान संभालने के उपरांत अनेक लाभ समाये हुवे हैं. सुश्राचक्कों गुरुजीका ३|| हाथका और सुश्राविकाको १३ हाथका उ(कृष्ट अंतर समालना. खास अगत्यवाले सववसें- आलोयणादि लेनेमें तो श्रावकको || हाथ अंदरका और श्राविकाको ३|| हाथ તમેં તુરખીળી રના મિજાર પ્રવેશ વરના પતા હૈ; પરંતુ યુजीके हुकमविगर उक्त मर्यादाका वन सके वहांतक भंग न करनाजगह विशाल न हो तब तो उपर कहा गया न्याय ही समझ लेना. तोभी वर्गों तो ३|| हाथको अंदर तिलभरमी आना ' Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६ नहीं करूपता है. जैसे साधुके संबंध श्रावक श्राविकाको उचित अंतर समालने के लिये फरमाया है उसी मुजब साध्वीआश्री सुविवेकी श्राविका या श्रावकजनकों जरुर वाजबी अंतर समालना. यानि श्राविकाको साध्वीजीका अंतर ३॥ हाथका, और श्रावकको उत्कृष्ट १३ हाथ और अपवादसें जघन्य ३॥ हाथका अंतर जरुर समालना चाहिये. जैसा श्रीजिनशासनआज्ञा मुजब उचित मर्यादा समालनेसें चतुर्विध संघको हितरुप होसकता है. परंतु उचित मयादा उहंधन करके आपमतिसें चलनेसे तमाम जैनवर्गको अहित होनेका संभव है. वास्ते सुविधीजनोंकों शास्त्रआज्ञाका आदर करनेमें जरुर दरकार रखनी चाहियें, जिससे स्वपर-उभयका हित होते. पवित्र हेतु यु. श्री जिनेश्वरजीकी अष्टप्रकारी पूजा ? श्री जिनेश्वरजीको जल-अभिषेक करनेमें जैसे सुरेंद्र हर्ष अरसे हर्षदीवाने भयेहुवे परभी अपनेही अंतरमलकों दूर करके आपको धन्य-कृत पुण्य गिनते है, और आपकी विशाल देवऋद्धिको तृणवत् मानते है, तैसें भव्य श्रावक उत्तम जलद्वारा प्रभुजीका अभिषेक करने के पस्त अपने अंतरमलकोही धो डालकर अपने , आत्माको धन्य मानकर मुक्तका संचय कर लिया करे. Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८७ ___.२ अभिषेक कर लिये वाद अत्यंत बारीक और सुकोमल-मुला यमदार खस श्री जिनजीके अंगोंकों पूंछकर अत्यंत शीतल चंदनादि द्रव्यसें प्रभुजीके तमाम अंग विलेपन करनेके वख्त अपने. अनादिके कपाय तापकी शांति कर लेये. देवेंद्रभी बावनाचंदनादिक उत्तम द्रव्योंस प्रभुको विलेपन करते है. . ३ शीतल द्रव्यसें प्रभुकों विलपन किये वाद नौ अंगमें केसर कस्तूरी-वरास वगैरः सुगंधी परंतुसे तिलक करके विविध प्रकारसें मनोहर अंगरचना-आंगी रची विचित्रवर्णवाले सुगंधी, ताजे, खिले हुवे, अखंड पुष्प उत्तम वरतनमें विधि मुनय रखकर श्री जिनेंद्रजीकों पवित्र फूल अर्पण करनेके वख्त अपने ही मनकी पैसीही उत्तम प्रसन्नता प्राप्त करलकै. सुमनस-पंडित या देवजनकी तरह सुमनस यानि पुष्पसें परम पवित्र परमात्माको परम प्रमोदप्रर्वक प्रजनेसें प्रजक-श्रावक श्राविकाओं अवश्य सौमनस्य-मानकी प्रसन्नताको पावै. जैसें पुप्प आदिक जीवोंको किलामना न होवे, वैसे यतनापूर्वक पुष्पादिक द्रव्योंसें श्री जिनार्चना कर अवश्य स्वपरका हित पाहै. कच्ची तोडडालीहुई पुष्पकलि या पुष्पकी पांखडीयें छेदकर प्रभुजीकों न चढानी चाहिये. पुप्पादिक जीनोंका नाहक किलामना-तकलीफ करनेसें श्री जिनाज्ञाको विसाधना होती है. वास्ते वो लक्षमें रखकर उत्तम पुष्पादि द्वारा भभुकी पूजा करनेसें उत्तम श्रावक श्राविका आप खुदही देवादिकोंको भी पूजनेयोग्य होते है. Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८ (यह तीन प्रकार अंगपूजाके संबंधी समझ लिजिये अब अग्रपूजाके प्रकार कहते हैं.) ४ धूप-सुगंधी महकदार कृष्णागर दशांगादिक उत्तम द्रव्यास बनाये हुवे धूपसे आत्माकी उपासना दूर कर सुवासना धारन करनेके पारो आत्मार्थिजनोको भावना करनी चाहिये. जैसे धूपोलेप करने से उसकी धूम्रघटा उंची गति करके आकाश प्रदेशकों सुवासित करती है, तैसें उत्तम लक्षसे जिनपूजार्थ उत्तम द्रव्य व्ययसे आत्मभोग (Seif-Sacrifice ) करनेसें आत्मप्रदेश सुवासित धर्मवासित होता हैं. द्रव्य सो भावका निमित्तही हैं. . ५दीप-उत्तम सुवासनावाले पीसें जगदीपक श्रीजिनराजजीक समीपमें द्रव्यदीपक धरकर लोका लोकप्रकाशक पंचमज्ञान-भावदीपककाही भाविकजन भगवंतजीके पास प्रार्थना करे. कर्मधूलका दूर करने के लिये निराजना-आरती और समस्त मंगलको मिलानेके लिय मंगलदीप प्रकटक पवित्र आशय इरादेसे पंचमज्ञान लक्ष्मीकों सहजहीमें प्रकट कर सकै-वैसे दीपकको विधिपूर्वक प्रकट कर असा विचार लेना कि अपना अनादिका अंधकार हमेशांके वास्त दूर हो जाओ! ६ अक्षत-अखंड चावलोंसें अष्टमंगल स्वस्तिक नंदावतादि आलेख प्रभुजीके पास अखंड मुखकी या उसके साधनभूत ज्ञान दर्शन-चारित्रकी प्रार्थना करनी चाहिये. प्रभुजीके आगे रखने Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८९ लायक वस्तु यानि चावल वगैर: जयणापूर्वक शुद्ध किये हुवेही चाहियें. ७ फल-अनेक प्रकारकें उत्तम फलोंमेंसें रससहित पके हु नारियल आम वगैरः फल प्रभुजीके आगे धरकर परमोत्कृष्ट मोक्ष फलकीही प्रार्थना करनी; क्योंकि फलद्वाराही फल मिलसकता है. इस न्यायसे वैसे उत्तम देवादिकके दर्शन करनेके समय अवश्य उत्तम फल समर्पण मोक्षकी अभिलाषापूर्वक करनाही दुरस्त है. लौकिकर्मेभी राजा वगैराकी भेटपूर्वक भेट लेनेकी रीति प्रसिद्ध है. योग्य आदरपूर्वक उचित कार्य साधनेहारा सदा सुखीही होता है. ८ नैवेद्य-आपकों अत्यंत अभिष्ट मनहर होवै वैसा मोदकादिक नैवैद्य विशाल और पवित्र वरतनमें भरकर प्रभुके आगे रखकें आत्मार्थीजीव आपका अणाहारी गुण सहजही प्रकट करनेके वास्ते प्रभुकी प्रार्थना करे - यानि जैसी भावना लानी चाहिये कि - इस जीवने अज्ञान और अविवेकके वश होकर अनेक वख्त अनेक रसका स्वाद लिया है तोभी लालच जीव अभीतक तृप्तिही नहीं पाया. अब परमात्मा प्रभु के पसायसें इस आत्माका असंतोष दोष दूर हो जाओ। और सर्वशसे संतोषगुण प्रकटभावकों पाओं ! ! इस तरह गुंजास मुजब द्रव्य श्री जिनेश्वरजीकी अर्चा करके स्थिरचित्तसे प्रभुकी ही सन्मुख दृष्टि स्थापनकर देववंदन ( जधन्य-मध्यम-उत्कृष्ट चैत्यवंदन ) रुप भावपूजा करनेके वास्ते Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मार्थीजीवको तत्पर हर्प चित्तवत हो रहना. मधुर शब्द पति वाले स्तोत्र स्तवनादिकसे श्री जिनराजके गुण-गान करना. श्री जिनजीके सद्भूतगुण गानेसे वैसे ही उत्तम गुण अपने आत्मामें अंगांगीभावसे (सशिसे ) आवै वैसे उपयोग-लक्षपूर्वक ऐक प्रयत्न सेवन करतेही रहना. प्रभुतर्फ अकृत्रिम ( सहज अ. भ्यासबलसें प्रकट भये हुवे ) भक्तिरागसें आत्माको अपूर्व चित्तशांति ( समाधि ) रूप अद्भुत लाभ होता है. जब संसारकी उपाधियोंसे चित्त विराम पाया होवै तभी ही वैसे चुरे संकल्प विकरूपका अभावसें, और शुद्ध अध्यवसायके योगसे आत्मा क्षणभर चित्त समाविरुषशांतिको अनुभव कर सकता है. अन्यथा पैसा अनुभव नहीं कर सकता है, जैसे निरंतर अभ्याससे आत्माकों आखिर अपूर्व समाधिलाभ प्राप्त होता है, उससे वो अनुपम रसमें निमग्न होता है. आत्माकी वैसी स्थितिका साक्षान् अनुभव हुवे बिगर भान-स्मृति नही हो सकै. जिस धन्य पुरुषकों औसा अपूर्व आत्मानुभव होता है, वही इस दुनियांके विषयजंजालमें एक लव मात्र भी नहीं फँस जाता है. जैसे अकृत्रिम-सहज-आत्मसुखका जिनको साक्षात् अनुभव हुवा होवै वै सहज समाधिमुखके विरोधी विषयसुखमैं किस लिये रंजित होवै ? क्यों लुब्ध होवै ? विषय रसमें लुब्ध होनेहारका, आत्माके सहजसमाधिसुखका अनुभव किस तरहसे हो ? आत्मअनुभवी-सहज समाधिरु५ समतारममें निमग्न होनेहारे सहजानंदी पुरुष राजहंसके Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९१ जैसी गति धारण करते हैं, और आत्मअननुभवी विविध विषयसमें मशगुल होनेहारे पुद्गलानंदी प्राणीयें तो कुत्तेकी ઊત્તેજી गतिको धारन करते हैं. विषयानंदी जन विषयसुखकों ही सार समझकर उसीमें ही रचे पचे हुवे रहते है; मगर जिनद्वारा अकृत्रिम- सहज - अतींद्रिय आत्ममुखकी प्राप्ति होवै वैसी वीतराग प्रभुकी भक्ति उपासना नही करसकते है, उससे वैसे शुभ साथनोंके सिवाय उन वराकोकों अपूर्व भक्तिरस चख्खे विगर चित्त शांतिरूप आत्मसमाधिका अनुभव नहीं हो सकता है; वास्ते पर मात्म प्रभुजीकी तर्फ प्राणियोंका अपूर्व प्रेम मसरो-फैलो यहीं उमेद रखता हूं. इत्यलम्. श्री तीर्थयात्रा दिग्दर्शन. जो यह भीषण भवोदधिसें पार उतारे या जिसके आलंबन से भव्य प्राणी ये प्रत्यक्ष अनुभवमें आते हुवें जन्म-जरा-मरणरूपी, या आधिव्याधि-उपाधिरुपी, या संयोग वियोग रूपी महा दुःखदावानलसे अपार पीडा सहन करते हुवे, इस भववनका पार पा सकै वही तीर्थ कहा जावै, वो तीर्थं लौकिक और लोकोत्तर ऐसे दो प्रकारके हैं. उसमें लौकिक तीर्थ ६८ है कि जो अज्ञान और अविवेकी प्राधान्यता बहुत करके बाह्यशौचघारी जनोंके सेवित होनेसें, और रागद्वेप मोहरूप वडे भारी त्रिदोषदूषित देवाधिष्ठित होनेसें, और चित्तशुद्धि करनेके बदले में उलटे मलीनताजनक होस निष्कामी मोक्षार्थी सम्यग् दृष्टियों कों त्यजने केही योग्य हैं. , Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4 १९२ सेवना के योग्य नहीं हैं. 'लोकोत्तर तीर्थ' स्थावर जंगम भेदसें करके दो प्रकार के हैं. जिसका अल्प अहेवाल तीर्थवंदनमाला में दिया गया है. संदेशों पैदा करनेवाला राग, शमरूप लकडीकों जलानेमें अग्नि समान द्वेष, और सम्यग् ज्ञानकों ढक देनेवाला या अशुद्धाचरण करानेवाला मोह-ये तीनूं दोषों का जिन्होंने मूलसे ही निकंदन कर डाला है, वैसे अरिहंत देवाधिदेव और उन अरिहंत प्रभुजीके अंतेवासी गणधर महाराज आदि तमाम आज्ञाधारी साधुसाध्वी श्रावक-श्राविकारुप श्री संघ यानि श्री द्वादशांगी धारक, चौद या दश या एक भी पूर्वके धरनेवाले - पूर्वधर, एकादशांगधार और अष्ट भवचन माता के धारक, पंचाचार कुशल, युगप्रधान आचार्य उपाध्याय, प्रवर्तक, स्थवीर, और गगावच्छेदक तथा रत्नाधिक - विचित्र लब्धिपात्र और विनयवैयावच्चादिक उत्तम गुणगणालंकृत समुदाय, और वर्तनी आदिक गुणशाली साध्वी समुदाय, तथा अक्षुद्रादिक अनेक गुण विभूषित, श्राद्ध व्रतधारी, सचित्तादि चौदह नियमधारी - यावत् सचित परिहारी, हर हमेशां : एकासनादिक व्रतधारी; उभय टंक ( वख्त ) आवश्यककारी, त्रिकालदेव पूजाकारी, शम, संवेग, निर्वेद, अनुकंपा और आस्तिकतादिक सम्यक्त्व अनुकूल लक्षण सहित, तीर्थसेवादिक उत्तम भूषण भूषितांग, शंकादिक दूषण वर्जित, चडविह सदहणा, त्रिलिंग, त्रिशुद्धि मुनिवर, श्रम सहित, भक्ति बहुमानादिकसें अरिहंतजीका विनय करनेवाले, शा 1 Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९३ सनमभावना कारक, पविध जयणाके पालनेवाले, खास जरुरतके वस्तही छः प्रकारके आगारका उपयोग करनेवाले, तथा सम्यपत्यके छः स्थानकको स्पर्शने वाले असे सम्यक्त्व सुरमणिधारक, विवेक पूर्वक श्राद्ध उचित मर्यादा-५ अणुव्रत, ३ गुण व्रत और ४. शिक्षाबत एवं १२ व्रतधारी, पूर्ण यकीनसें श्रीतीर्थकर और निग्रंथ प्रवचनका साधनेके अभिलाषी, सुशील, न्यायमती-नीति निपुण, व्यवहार कुशल, अति आरंभ क्रियाके त्यागी, संतोपी, धीर, वीर, गंभीर हो शासनकी उन्नति करने में उत्सुक, प्रासंगिक मली. नता उड्डाह दूर करने में हर्षचित्तवंत, निरंतर उचित आचरणा-चतुर, स्वसमाचारी कुशल, सुपात्र पोषक, मिथ्यामति भदशोपका विवेक संपन्न, नारक पारक समान संसारको गिनकर उसे जलाजली देनेकी तक हाथ करनेमें तत्पर, हमेशाः नौसरहारवत् नौपदका ध्यान हृदयसें न भूलने वाले, अवसानके वख्त ज्यादा ज्यादा सावथानी रखने वाले, निरंतर स्वपर हितकी तर्फ लक्ष देने वाले, कृतज्ञ, दयादिलवंत, लज्जाशील, दाक्षिण्यतावंत, मध्यस्थ, लोकप्रिय और शिष्टाचार मुजप उपयोगसें चलनेवाले श्रावक और श्राविकाओंका समुदाय ये सव 'जंगम तीर्थ' कहा जाता है. क्योंकि गंगानदीके प्रवाहकी तरह पवित्र आशय धरनेवाले वै सुधातलजमीनपर जगह जगह फिर कर अपने चरणन्यास से अपने समागममें आनेवाले भव्य जीवोंको पवित्र करते हैं. जगतका दारियों जंगम तीर्थ अनेकशः अपहरता है, और मंगललीला विस्तारवंत केरता है. Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तम गुण रूपी रत्नोंके स्थानरूप श्री तीर्थकरजीके जहां च्यपन, जन्म, दीक्षा, केवल ज्ञान और मोक्षरूप पंच कल्याणक होंगे, तथा जहां जहां गुणमय उन्होंका दीक्षा लेकर विहार-क्रमसें रहनास्थिरता हो उहां उहांकी जगह पवित्र चरणन्याससे पवित्र भइ हुई होनेसे, और मोक्षार्थी भव्य जीवोंकों प्रभुके उपकारकी यादीके साधनरुप होनेसें उसे 'स्थावर तीर्थ' कहा जाता है. किंवा जहां प्रभुजोके मुख्य अंतेवासी गणधर वगैर आचार्य प्रमुख मुमुच वर्गको सिद्धि गमन एक या अनेक पख्त हुवा है, होता है, और होगा, वो भूमि भी स्थावर तीर्थरुप गिननमें आती है. जंगम तीर्थ और स्थावर तीर्थमें इतना ज्यादा भेद है कि-जगम तीर्थ, भूत तीर्थकर, गणधर और समस्त तीर्थकर स्थापित, व समस्त सुरेंद्रादिक पूजित, मान्य गुणरू५ लक्ष्मीके क्रीडाहरु५ सकल साधु, श्रावक और श्राविका९५ संघसमुदाय जहां जहां विचरे करै, और विचरनेके परुत मोक्षार्थी जो जो भव्य जीव है चै महान् भाग्यशाली तीर्थकी सेवाका लाभ लेनेकी चाहत सबै और लेने के अनुकूल प्रयत्न करते रहे, वै वै भव्य सत्वोंकों वो जंगम तीर्थ अव२५ पापरहित-पावन करके मोक्षगति लायक बना दे. - और स्थावर तो स्थाइही होने से जो भव्य माणि खास चाहत करके भव जल तिरनेकी बुद्धिसे उन् उन् स्थावर तीर्थको जहाज रुप मानकर शुद्धबुद्धिसें उन्होंका आलंबन लेते हैं, उन्होंकों विवेकपूर्वक उन उन तीर्थों के अधिष्टायक देवाधिदेवकी पवित्र मुद्रा (मतिमाजी)क Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दृढ अवलंबन ध्यान विशुद्धिसभोतमाप्ति होती है. इसी लिये शत्रुजय, गिरनार, आयु, अष्टापद, तालध्वज, समेतशिखर, पावापुरी, चंपापुरी, तारंगानी वगैरः स्थावर तीर्थरु५ मनाते हैं. __जंगम और स्थावर इन दोन तीर्थोकी विवेकसे सेवा करनेपाले भव्यसत्वोंकी तुरंत और सहजहीमें सिद्धि होती है, और वि. वक विगर बहुत कष्टसे की गई सेवनासेभी सिद्धि होनी मुश्कील है; वास्ते ज्यों बन सके त्यौं विवेक रत्न धारण करने के लिये उधम करना उपाध्यायजी यशाविजयजी पतलाते है कि: रवि दूजो तीनो नयन, अंतरभावि प्रकाश करो धंध सवी परिहरी, एक विवेक अभ्यास. १ राजभुजगम विप हरन, धारो मंत्र विवेक भवन मूल उच्छेदको, विलसे याकी टेक. २ ___ सारांश यही है कि विवेक ये अभिनय सूर्य है, नैसे ही अ. भिनव नेत्र है. जिनद्वारा आत्माकी अंदर प्रकाश होता है, उसीस अंदरकी प्रद्धि सिद्धिका भान होता है. उस विगर विधमान वस्तु होने परभी मालुम नहीं हो सक्ती; वास्त हे भव्यजनो ! दूसरे सभी चंद छोड करके फक्त एक विवेकका ही अभ्यास करो. ये विवेक रागरूप सांपका जहा दूर करने के वास्ते जांगुली मंत्रके समान है, और अखिल भवरुपी वनका उच्छेद-नाश करने में भी समर्थ है। पास्ते विवेकको अंगीकार कर उनकिन सारण करो. स्वपर, जड वेतन, हिता-हित, उचित अनुचित, भक्ष्यामध्य, पेयापेय, विधि Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९६. अविधि, यावत् गुणदोषकों जिसद्वारा जान सके-बांट सके और पहिचानसकै उसको ही 'विवेक' कहा जाता है. यह जीव अनादि मिथ्यावासनायें पर - शरीर, कुटुंब, परिवार, लक्ष्मी आदिक पदाथोंमें अपनापणा मान रहा है. खुश होता है, उससे रागकी प्रेरणायुक्त भयाहुवा अनेक पापारंभ करीकें भी संतोष मानता है. खुश होता है. विवेक जागृत होनेसें उनको मिथ्या मानकर उसमें - स्थापन किया हुवा मेरापणा कम होनेसें रोग भी कम हो जाता और उससे पापसें दूर हटनेका भी बन सकता है. विवेक वि गर ये जड शरीर सो 'मैं' युं मानताथा, वो विवेक प्रकट होते ही ज्ञान दर्शनादिक लक्षणवंत चेतन द्रव्य 'मैं' और पूर्ण, गलनस्वभावी शरीरसो मैं नहीं, मेरा नहीं, मेरेसें अलग, सो तो पूर्वकृत कर्मयोग से ये चेतनकी लार लगा है वो मेरा नही; वास्ते उसमें ममता करनी ना लायक है; परंतु ज्ञानशक्तिसें विचार कर ममताको ह ठाके उनपर त्याग वैराग्य धारण करना लायक है. विवेक जागृत हुवे विगर मोह मदिराके नस्से में मुझे क्या हित-क्षेमकारी है ? और क्या उससे उलटा है ? मुझकों क्या करना लाजिम है ? क्या करना बे लाजिम है ? मुझकों क्या करनेसें सद्गति, और क्या करनेसें दुर्गाति भाप्त होयगी ? इत्यादि नहीं समझा जाता है और विवेकलोचनं खुल जावै तव वै सब यथास्थित समझने में आ जाता है. भक्ष्याभक्ष्य, पेयाय और गुणदोषका भी सहज ही में भान हो जाता विवेकीनर जोहेरीकी तरह गुणरत्नकों परख सकता है, और f 1 J Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९७ दोष पद - ढेले पथ्थरकों समझ कर दूरकरसकते हैं, ये सब वि - बेकका प्रभाव है; वास्ते ही उसका विशेषतासें आदर करना कहा है. अन्यस्थानमें बाल ख्यालमै - अज्ञानताके जोरसें किये गये पाप तीर्थस्थानकी सेवा द्वारा क्षय होजाते हैं; परंतु वैही तीर्थस्थान पर अविवेकद्वारा किये गये पाप वज्रलेप जैसे होजाते है, वै पाप बहुत दुःख देते हैं; वास्ते तीर्थसेवा करनेके अभिलाषी जनोंकों तीर्थ सेवाको रीति जाननेकी और जानकर उस मुजब बन सके उतनी खंतसे चलने की खास जरूरत है. पहले तो देखो कि आजकल भी श्री शत्रुंजयजी आदिकी विधिपूर्वक यात्रा करनेकी दरकारवाले भविकजन अपने स्थानसे श्री संघ समुदाय या स्वकुटुंब परिवार सहित शास्त्रमें बताई गई छःरी यानि ब्रह्मचर्य, भूमिशयन, सचित्त परिहार, एकाशनत्रत, जयणयुक्त पैदल चलना, और दोनू वख्त प्रतिक्रमण इतने (छ कार्य अर्थात् स्त्री संगम, पलंग -मांचेमें सोना, सचित वस्तुखाना, अती रहना, जयणा रहित वाहनपर बैठ के पंथ करना और दो चख्त पडिकमणे नहीं करना. ये छ कार्यकों दूर करके तीर्थ के निमित्त जाना, जब छ वस्तु दूर करनेसें-छःरी पालन किया कबूल होता है. उसी लिये ये छः ) कार्य सहित तीर्थपतिकी भेट लैनी, और इस तरह करके भेट लेवे तो बेडा पार हो जाता है. चास्ते विशेष भाव और बहुत मान्यसे तीर्थ तीर्थराजकी सेवा भक्ति करनी चाहिये. और विशेष विशेष प्रकारसे व्रत -तप-जप > Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शील संतोष-दया-दान-पचरूखाण ये सभीका सेवन करना ही चाहियें. जो जो पावतें उपर कही गइ उनमेंसें कितनीक बातें आजकल कितनेक भाविकजन निनाणु यात्रा के करनेवाले उमीद सह करते हुए मालुम होते है. जब निन्नाणु (९९) यात्रा पूर्ण __ करने तक ऐसा उत्तम विवेक धारन करते है, और छूटक छूटक - ( पृथक पृथक् ) यात्रा करनेवाले उचित विवेक नहीं पालन करते है तब कैसा बुरा मालुम हो ! सच पूंछो तो जब तक ये तीर्थराजकी सेवा करनेको मंगो, तब तक उचित विधि हाथ धरकर चलन रखनेकी खास जरुरत है. जयणापूर्वक जमीनपर नजर जोड निगाह रखकर चलना, काम जितना ही सत्य और हितकारी बोलना, कठोर-अप्रीतिकारक वाक्य न बोलना. अनीतिसें किसीकी वस्तु न लेनी. मन-वचन-तनसें करके कुशील नहीं सेवन करना; क्योंकि चाहे वैसे स्थानपर कुशील सेवन के कटु विपाक कहे हैं, तो ऐसे पवित्र स्थानपर तो जरूर करके न सेवन करना चाहिये. । कुष्टि भी नहीं करनी और उसपर लक्ष्मणा तथा रूपी साध्वीका . टांत ध्यानमें शोच मनन कर लेना, और अपनी चालचलन सुधार कर अपनी आत्मासे अलग देह, गेह, कुटुंब, परिवार लक्ष्मी के "उपर मोह मूर्छा छोड देनी. रात्रिभोजन सर्वथा छोड देना, राग, द्वेष, कलह, क्रोधादि कपाय, मिथ्या कलंकदान, चुगलगिरी, ___ मुखशीलता, खेद, परनिंदा और कथनीसें चलन अलग रखनेरुप । मायामृषा इत्यादिक सभी पापस्थानकोंका ज्यौं बन सके त्यौं त्याग Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९९ करके श्री तीर्थराज - तीर्थंकरादिक नवपद के पवित्र ध्यानमें लीन रहना. ऐसे यत्न वलसें अभ्यास रखनेसें चिंतकों साक्षात् बहुत सुख होगा• जीस तरह व्यापारी लोग व्यापारकी मोसम - धूमधाम के वख्तमें ठंडी-धूप - वृष्टि - भूख - तृषाकी दरकार नहीं रखते हैं. किंवा वीर लडायकयुद्धे रणभूमिमें वाणोंकी वृष्टिकी दरकार न रखते हीम्मत के साथ अपने वीरत्वकी किम्मत करानेकों शत्रुदल सन्मुख युद्ध करते हैं, उसी तरह ऐसे उत्तम प्रसंगपर श्री तीर्थराज या तीर्थकरादिककी भक्ति करके परभवके रस्तेकी खुराकी लेकर अपना ये दुर्लभ मानवशरीर - जन्म सफल करनेकी सच्ची तकपर सुखलंपट - विषयों के वश्य होना, क्रोधादिकके तावेदार वनना सो अत्यंत आते हुवे लाभमें अमंगल - विघ्नभूत है. उस चख्त तो पवित्र गिरिराजका और पवित्र तीर्थराजका आश्रय ले करके तिर गये हुवे महान् पुरुषों के गुणग्राम सें संवेगादिक उत्तम गुणोकी पुष्टि करते વે वैराग्य रसमें अन्हाते हुवे शांत सुख अनुभवते हुवे, और कठिन हृदय सह परिसहार्दिक सहन करते हुवे, छह अठमादिक दुष्कर तप करके, देहके झूठे ममत्वको त्यागते हुवे, मोहमल्लकी सहामने निडरता अडग रहकर युद्ध करनेके वास्ते अपना तमाम वलवीर्य स्फुरायमान करते हुवे, और इस तरह साहसीक रीति सें जगत् मात्रको हरकत करनेहारा मोहादिक महान् शत्रु के सहामने जयलदगी के स्वामी होने तक लड़ते हुवे निरंतर ज्यों ज्यौं नवीन नवीन वीर्य उत्थानसँ ज्यादे ज्यादे शक्ति प्रकट होती जाती 4 ै Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है, त्यौं त्यों अपने आरंभ किये हुवे कार्यकी सिद्धि संबंधी प्रतीति केर देवे वैसा अपूर्व उत्साह पढता जाता प्रत्यक्ष मालुम होता है. इस तरह से अवलमें अपनी वीर्यशनि छपानेवाले इतनी शक्तिविकार करके आखिर अपना कार्य सिद्ध कर सकता है। लेकिन प्रथमसें ही मंद परिणामको धारन करनेवाले शिथिल हो कायरकी तरह बोलनेवाले और चलनेवाले शूरवीरकी तरह अपना इष्ट नहीं साध सकते हैं. द्रव्यका व्यय करनेमेंभी विवेकसे वर्तनकी उतनी ही जरुरत है. आज कल कितनेक मुग्ध भाइथे प्रभुजीकी गोदमें या पाटलीके उपर फल निवैधकी साथ पैसे या रुपैये चहाते है। मगर उरों बारीकीसें तपास करने में आये तो बहुत दफै चोरीको पुष्टि दिजाती है. फिर प्रभुजीके पास द्रव्यकी भेट करने का सबब भी भंडारदेवद्रव्यकी वृद्धिकाही होता है, सो तो प्रायः असा करने से बिलकुल पार नही पड़ सकता है। वास्ते उसका श्रेष्ठ विवेक पूर्ण यही रस्ता है कि वो द्रव्य प्रभुजीके अंकों या दूसरी खुल्ली जगह नहीं मूक रखना; बंध करके जहां गुप्त या जाहिर भंडार होवै वहांही बालने दुरस्त है या कारखाने में लिखवाकर रसीद ले लेनी योग्य है. तीर्थस्थानोंमे पैसेकी बहुतसी चोरीयें होती हैं उसको जात्रालु भी नहीं जान सकते है; वास्ते उन्होंको खबर होनेके लिये यह अनुभवसिद्ध लेख जाहिरमें १०खा गया है कि प्रभुमंदिरोम . ६०यभंडारमें डालनेकी आदत रखनी चाहिये. और अपने तमाम Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोगोकोभी यह बातको समझ देनी ही लाभदायक है. सच पूंछो तो अपने अविषकका फल अपनेकोही मुक्तना पडता है. पैसेके लोभसे पाणी कितनेही अनर्थ करते हैं, और पैसे मिलाकर भी मदोन्मत्त अज्ञानी बनकर अपने स्वामीकाभी द्रोह करनेकों दौडते है। असे नीच लोगोंका पोषण करना सो एक जातके पापकाही पोषण करने समान है. यदि अपने भाई सलाह संपमें एकमत हो काम हाथ लेना चाहे तो समस्त सुस्थित होनेका संभव है. अलपत किसीकी योग्य आजीविका बीच पाँव देना योग्य नही, मगर साँपको दुध पिलाये जैसा दीर्घ दृष्टिसे विचार किये बिगर देनेका बिना विचारे चलाये ही जानेस अंतमं अपनाही विनाश होने का वख्त हाथ लग जाय; वास्ते जैसी पावतामें भी विवेक धारन करनेकी खास जरुरत है. अन्यायके रस्में विवेकीजन एक पाइभी नहीं खते हैं. और. न्यायमार्गमें अपनी जितनी शक्ति होवै उतनी अमलमें ले कर द्रव्य व्यय करते है. जैनशासनमें सात क्षेत्र बतलाये है. उस शिवाय भी ज्ञानदान, पोषधशाला वगैरः धर्मकृत्योंमें उदार दिलसे द्रव्य खचनेसे जैसे तीर्थस्थान पर अतुल्य फल बांधते है, दीनदुःखीकी अनुकंपा, और पीडा पाते हुवे साधर्मीजनोंको प्रीतिपूर्वक मदद देकर सुखी करने चाहिये. धर्ममें दृढ करना ये उचितज्ञ वि की श्रावकोंकी फर्ज है. सदाचारमें सुबह रहना, यावत् सुदर्शन शेठ या विजयशेठ और विजया शेठानीकी तरह उत्तम प्रकारका . Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२ __ शीलप्रत पालना. चाहें वैसे विषम संयोगोंमें भी टेक न छोड़ देनी, जीव जयणाकों जिनशासनमें धर्मकी माता जैसी धर्मकी वृद्धि करनहारी प्रशंसनीय कही है. तो हरएक कार्यमें सावधानतासें चलकर जयणा पालनी उसके वास्ते बडे मनके कुमारपाल राजाका दृष्टांत लेना कि जिसने पवित्र धर्मकी परिणतिसें अपने १८ देशोंमें अमारी पडह बजवायाथा यानि अपने राज्यभर चोपटकै खेलमें भी मार मार जैसी शब्द तक कोइ न बोल सके औसी दया पलानेका ढरा फिरायाथा-डंडी पिटवाइथी. और दूसरे देशों में भी मित्रता बल और धनके बलसे यानि जैसी अनेक युनिसें न्यायसह चलन रखकर जयणा फैलाकर असंख्य जीवोंके आशिर्वाद लियेथे. शासनकी प्रभावनामें भी उसीही महाराजाका दृष्टांत लेकर अपनी शशि दिखलानी चाहिये, जप समजदार अन्यदर्शनी भी एक आवाजसें पवित्र शासनका महीमा गावै असा सद्वर्तन शास्वानुसार किया जाये, तब शासनमभावना की कही जाय... श्री वीतरागदेवके शासनमें रसिये श्रावक-श्राविकाओंके समुदायको निर्मल बोध देनेका जिनका आचार है असे साधु साध्वी वर्गकों भी अपने अपने पवित्र आचारों को भी बहुत मजबूत रीतिसमालकर रहना चाहिये. जैसे विवेकवंत साधु साध्वीयोंसे पवित्र तीर्थमें भव्य जीवोंकों जैसा लाभ होवै वैसा मंदपरिणामी और शिथिलाचारीओंसें नहीं हो सकता है. भ्रष्टाचारियोंसें तो उलटा शासनका उड्डाट-हो हा-फजुती ही हो सके. वास्ते जैसे भ्रष्टा Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०३ पारी जडभक्तोंका किसी तरहसें भी पोषण करना योग्य ही नहीं है, साधु साधीओको सर्वत्र और तीर्थस्थलमें विशेष करिके क्षमा, मृदुता, सरलता, निलोभता, निर्ममता साहित, उत्तम प्रकारसे संथम पालन करके विचरना चाहिये; क्यौं कि उन्हीके पवित्र आचारकों देखकर बहुतसे जीव धर्म प्राप्त करते है, और अनुमोदना करते है. किंतु यदि आचारभ्रष्ट होने से केवल वेष विडंबक हो रहते हो तो हर किसीको भी दिल्लगी-गुस्ताखी और निंदा करने के लायक होते हैं यानि अपमान पाते हैं. और शासनकी मलीनता करनेके कारणिक होनेसें परभवमें भी बहुत दुःख पाते है. वास्ते दंभ छोडकर निर्दभतास सच्ची और पवित्र जैनी क्रिया सच्च तन मन वचन से सेवन करनी योग्य है जिसे स्वपरका लाभ, पवित्र शासनकी उन्नता, यह लोकम प्रत्यक्ष बहुमान और परमवमें इंद्रादिककी ऋद्धि पाकर मोक्षमुख पाता है. असा परमसुख छोडकर कौनसा मुढ दुर्मति किंचित् मात्र विषयमुखमें गृद्ध-आसक्त होकें अपना और दूसरोका काम विगाड कर परमाधामीके मारकी चाहना करे ? फिर ये जीव अनादि कालसें सुखका अर्थी होने परभी सुखप्राप्ति साधनके सच्चे मोके५५ तुच्छ क्षणिक सुखमे लालचु बन धर्म साधनसे भ्रष्ट हो जाता है तो पीछे उससे ज्यादे निर्भागी दूसरे कौन कहे जाय ? यह तो 'लग्न समय गया निंदमें, पीछे बहुत पिछताय. ' असा होता है। वास्ते सच्चे सुखार्थिजीवोंको बडी खबर. दारीके साथ चलनेकी जरूरत है. दूसरा तुम आपही खुद सुखशील . Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ बनकर धर्मसाधनमें बेदरकार रहोगे तो फिर तुमारी आल औलाद (शिष्य प्रशिष्य-पुत्र परिवार ) क्यों करके सच्चा मार्ग सम झ सकेंगे और शीख सकेंगे? सच्चा मार्ग समझनेमें आये विगर ___ या शीखे विगर वै क्यौं करके आदर सकेंगे ? सच्चा मार्ग आदरे विगर सुखी भी क्यों करके हो सकेंगे ? इसतरह उन विचारोंको सचे मुखोंमें विघ्न डालनमें सच्चा कारणिक कौन है ? तुमारेही 'कबूल करना पडेगा कि तुम खुदही हो; तब तुम तुमारी संततिके हितस्वी या शत्रु ? अल्प वाक्यों में कहे तो तुम खुद अपना और तुमारी संतति या पवित्र शासनका यदि भला चाहते हो तो इंद्रजालबत् झूठे विषय सुखसे विमुख हो कर बडे दुःखदायी दोषोंकों छोडकर खुद तुमही पहिले बराबर सुधरने गुणोंकी दरकारी करने चाले हो ! अभ्यास करो और पीछे तुमारी संततिको सुधारा यु. बनानेका प्रयत्न करो. कोइ खुद आपतो वेधडक व्यभिचार सेवन कर और दूसराको ब्रह्मचर्य पलानेका उपदेश देवै सो क्या लगै ? कुछ नहीं लग ! लेकिन आप खुद शील-संतोषादिक उत्तम गुण धारण करके वैसेही गुण धारन करनेका अपनी संततिकों या दसरे योग्य भव्य जीवोंकों उपदेश दे तो मैं मानताहुं कि वो अल्प महेनतसे उमीद बर आ सकै ! अरे ! विगर उपदेश दिये भी कितनके गुणग्राही वीर नर तो वैसे सुशील धर्मात्माओंसे सहजमें उन्हीकी रीति भांति देखकर शीख लेवे. असे पवित्र गुण धारक साधु साध्वी श्रावक श्राविकारुप चतु Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०५ विध संधकों दर्शन मात्र करनेसेंही भव्य चकोर तीर्थयात्राका फल मिला सके तो फिर वैसे गुणरत्नोके निधानरू५ श्रीसंघकी भक्ति पूजा-सत्कार सन्मान करने वालोंका तो कहनाही क्या ? वैसे विवेकी नररत्न तो अल्प समयमें ही समस्त पापोंको दूर करके निर्मल हो पवित्र रत्नत्रयी आराध कर मोक्षपद पाते है. जो जो तीर्थकरजी होते है वै सभी ये तीर्थोके आदि लेकर वीश स्थानक अंदरके कुल या एक दो स्थानकको आराधन करकही तीर्थकरनामफर्म निकाचते है. वास्ते समस्त पापपुंजकों दूर कर परम पवित्र करने वाले पुर्वोक्त जंगम स्थावर तीर्थीका यात्रा सचे सुखार्थी भाइ और भगिनीऑको पवित्र मन वचन तनसें करनी, दूसरे भव्य जीवों को उसी तरह करनेका उपदेश देना और उसी मुजब चलनेवालोंकी अनुमोदना स्तुति प्रशंसाद्वारा जितनी वनसके उतनी पुष्टि करनी, यही सम्यक्त्व व्रतका सचा भूपण है. इत्यलम्. सदभावना. अय जीव ! तूं विचार कर कि तेरी असल स्थिति कौनसी? सूक्ष्म निगोद. अहा! उसकी अंदर कैसी दुःख विटंबना ?! श्वासोश्वासम भी साधिक सत्तरह भव कर करके मरनके शरन होना!! ऐसी दुःखकी कोटीसें स्थिति परिपाकादिक सबके संयोग से ज्यवहार राशी प्राप्त कर लेकर क्रमसें अनेक भव, अनंत दुःख राशि . Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ર૦૬ भुक्तता भुक्तता किसी महद् पुण्य के योगसे यह दश दृष्टांतसे दुर्लभ मनुष्य देह तेरे हाथ आया है. उसमें भी अत्यंत पुण्ययोगस प्राप्त होने लायक धर्मसामग्री, आर्यक्षेत्र, सद्गुरुयोग, धर्मश्रवण, और धर्मरुचि वगैरः पा करके देहस्य सारं व्रत धारणंच.' यह दुर्लभ देह पानेके खास साररुप पवित्रत्रत धारण करना यही है. श्री वीतरागदेवभाषित सर्वविरतिधर्म अपूर्व चिंतामणि समान है, सो परम भरिसे आराधन करनेमें आवे तो वेशक शास्वत सुख देता है. पैसा परम निरुपाधिक धर्म सर्वथा प्रमादरहित आराधने योग्य है. प्रमाद ये आत्माका कहा दुश्मन है. श्री जिनेपर भगवंतके पवित्र वचनोंका अनादर करके आपमतिसें चलन चलाना ये प्रमाद है. वास्ते सब प्रयत्नसें करके श्री जिन-वचनोंकों यथार्थ समझकर पालने के वास्त हपचित्तवंत होनाही श्रेयकारी है सुखशील जीव अल्प सुखके लिये पहुत काल तकका स्वर्गका या मोक्षका सुख हार जाता है. यदि सुखशीलपन तजकर सावधान हो श्री जिनाज्ञाको पूर्णप्रकार आराधनकी दरकार रख तो अल्पकालमें, अल्पकष्टसें बहुतकाल के उचे दर्जेका सुख स्वाधीन हो सके. मगर तुं स्वाधीनतासें कायर होके आत्मसाधन नहीं करता है, उस्से सच्चे संबल खर्चे विगर पराधीन हुवे बाद धर्मसाधन नहीं कर सकता है, वास्ते पानी पहिले पाल बंधे तो पूच है ! पहिलेसे ही आत्मसाधन कर लेना वही सबसे __ अच्छेमें अच्छा है. Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०७ जीव ! अज्ञानदशास करके मोहमें फंस कर ' में और मेरा मेरा कर करके महा दुःख पाता है. निर्मल स्फटिक रत्नसमान सहज ज्ञान ज्योतिसें खुशोभित आत्मा खुदका असल स्वरूप मोह ઢાળી છાસ પૂર્વે બાર અજ્ઞાનન્ને વશ હોનેોઁ પર વસ્તુમ મેરા मेरा करके मरता है. अंतमें सभीकों छोड़कर युं ही रुखसद होना पडता है. जैसा प्रत्यक्ष देखता है तो भी मोह मदिरासे वेभान हुत्रा झूटा ममत नहीं छोड देता है, तो अंत में पराभव पाकर दुर्गति पाता है कि जहां कोई शरण भी नहीं होता. सम्यग् ज्ञान यही मोक्षमार्ग बतलानेवाले दीपक है, यही भवादबीसें पार पहुंचानेको सच्चा संगाथी है; वास्ते अंत तक उसका संग न छोडना चाहिये. सम्यग् ज्ञान और वैराग्य ये दोनू इन भवसमुद्रको तिरने के लिये जवरदस्त जहाज हैं, वास्ते भव्य जीवोंने उनका ढालंबन करना ही दुरस्त है. गुण दोष: उचित अनुचित, हित अहित और लाभालाभको अच्छे तौर से समझनेरूप विवेक उस अंतःकरणमें प्रकाश करने वाला अभिनव सूर्य है, और उसके प्राप्त होनेसेंही सब सुख प्राप्त होते हैं, उसे स्थिरता, समता और त्यागादिक उत्तम गुण प्रकट होते हैं; सच्ची तपास करनेसे तो यह आत्माही खुद गुण रत्नोंका पैदा 'करंदा दरियाव है गुणमय ही है; लेकिन वो सभी विवेकद्वारा जानकर अंगिकार किया जा सकता है और उसके बिगर गुणोंकों हाथ करना चाहे वो तो धुर्वकोही हाथमें पकड़ने जैसा प्रकार है · Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८ आत्माका सच्चा धन–सच्चा कुटुंब अंतर में ही है, जिनकों मोह वश हुवा भाणी अज्ञान द्वारा भूल जाकर भ्रमसे झूठे धन कुटुंब मोहित हो रहा है. जैसें रुधिरसें लिप्त हुवा कपडा रुधिरसें साफ नही हो सकता है तैसें प्रमादसें मिलाया हुवा कर्ममल प्रमादसें दूर हो नहीं सकता. अप्रमाद यही आत्म साधनमें अनुकूल मित्र. मददगार है. खंतसें करके श्री जिनाज्ञाका आराधन करना वही सच्चा अप्रमाद है. वास्ते मद, विषय, कषाय, आलस और विकथा दूर करके सावधान हो सभी प्राणीपर समभाव वचन, तनसें शील- सदाचार पालनेकों हर्ष वेडा पार होने का सच्चा इलाज है. रखकर, निर्मल मन, चित्तवंत होना, यही प्राणांते भी दूसरे जीवकों त्रास नहीं देना, अपने खुदकों दुःख उटालेना; लेकिन दूसरोंको हरगीज दुःख नहीं देना. प्राणांत होने परमी कपायादिके तावेदार होके झूठ नहीं बोलना. जोरों पर प्राणीकों दुःख होवै, अहित होवे जैसा सच्चा बोलना वोभी झूठ के समान ही समझकर विवेकपूर्वक हित-मित ( चाहिये उतना हो ) स्पष्ट, धर्मकों हरकत न हो सके वैसा शोच विचार वोलना. ત્યાં ત્યાં ત્રિં વિષાર યુદ્ધ વોને સવવલ પ્રસ્તૂત્ર માળા માં प्रसंग आ जाता है. और उसीसें संसार में बहुत भटकना पडता वास्ते उपयोग पूर्वक ही बोलना- अदत्त भी चारों प्रकारका छोडना चाहियें - यानि तीर्थंकर अदत्त - श्री तीर्थकर देवने निषेध किये हुवे पदार्थ न लेना, गुरु अदत्त गुरु के हुकम शिवाय कोई चीज न * Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०९ लेनी, खामी अदत्त-वस्तु के मालिकका हुकम मिलाये विगर वो वस्तु न लेनी; और जीवअदत्त-सचित्त या मिश्र वस्तु न लेनी यौं कि सब किसीकों अपना अपना पान प्यारा होता है, वास्ते चारों प्रकार के अदत्त तद्दन छोड देने चाहिये. ब्रह्मचर्य देव मनुष्य, तिथंच संबंधी औदारिक और पैक्रिय-मन, वचन, तनसे करना, कराना और अनुमोदनाके भेदमें अठारह प्रकारकी मैथुन क्रिडाका सर्वथा त्याग करना; परिग्रह-बाह्य और आभ्यंतर-धन पान्यादिक नाविधिका, वाह्य, और ४ कपाय, ३ वेद, ६हास्यादि, और मिथ्यात्व यौं चोदह प्रकारके अभ्यंतर परिग्रहका तद्दन त्याग करना चाहिये. मूर्छाकों ही तखमें परिग्रह कहनेसें मूर्छा ही त्यजने योग्य है. धर्मके उपकरणोंका अंदर भी मूर्छा परिग्रह रुप ही है-यानि रागद्वेष छोडकर केरल मोक्ष निमित्त दूसरी सब वासना-उमीदके सिवाय ये पांचों महावतें निर्मल तन, मन, वच. नसे पालना, दूसरे भव्यजीवोंकों पलाने के वास्ते ४४ प्रेरणा करनी और उक्त महावतोंकी वीतराग वचनानुसार पालनेवालेकी भ. शंसा-अनुमोदना करनी, ये यह दुःख जल भरित भीम भवोदधि तिरजानका अद्भुत और सरल साधन है. उसके सिवाय रात्रि भोजनका बिलकुल त्याग करना. प्रति लेखन, प्रतिक्रमण, पिंडविशुद्धि वगैरः का वरावर सावधानीसे विधिकी दरकार रखनेवाले वनकर अपनी शक्तिक अनुसार जो करना सो पूर्वोक्त पंच महाव्रतोंकी शुद्धि या पुष्टि निमित्त समझके ही करना-यानि जिस Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१० . प्रकार से रागद्वेष पतले पडजावै-दूर हठ जावै उस प्रकारसे मोक्षकी चाहतवाले जीवोंको सावधानीसें चलना दुरस्त है. . इंद्रियों के विषयमें भटकते हुवे मनरुप लंगूरकों रोक १९९७ उनको शुभ संयम क्रियामें जोड देना. मन छुहा रहनेसे जितना अनर्थ-जुल्म करता है उतना शुभ क्रियामें प्रवर्तनसें न कर सकेगा. यह मनरुप तोफानी हाथी छुटा हो तो संयमरुप फल फूलसें भरपूर हुवे बगीचेकों उखाडकर फेंक डालता है। वास्ते श्रीजिनाज्ञा रुप अंकुश हाथमें रखकर उनको तावे करलो-नहीं तो तुमारी सब महेनत परषाद जैसी ही हो जायगी. इसी सबके लिये ज्यौं वन सके त्यौं युतिय अमलमें लेकर मनको २५ करनेका .६८ अभ्यास करना अति जरुरतका है. औसा करके मनको वश्य और संयमका संरक्षण करना योग्य है. क्यों किः अहंकार परमें घरत, न लहे निजगुण गंध; अहं ज्ञान निज गुण लगे, छुटे पर ही संबंध. १ रागद्वेष परिणाम युत, मन ही अनंत संसार, . तेहिज रागादिक रहित, जाण परमपद सार. विषय ग्रामकी सीममें, इच्छाचारी चरंत जिन आणा- अंकुश धरी, मनगज वश्य करत... ३ ___इस तरह बहुसें महात्मा पुरुष संयम रक्षण करनेके वास्ते उ तम प्रकारका वोध देते हैं, उसको हृदयमें धारन कर अपनी श'शिको फैलाके यथा योग्य उसका उपयोग करै तभी ये अमूल्य तक Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २११ कि जो वडे भाग्यके योगसे अपने हाथ आई है उसीका सार्थक हुवा माना जावै, बाकी तो दरियावमैं गोता लगाये समान पीछे संसार समुद्र में डूब जानेका है. पास्ते जान हो-अनादिकी मोह निदको तजकर हुंशियारी के साथ स्वपरहित साधनको तत्पर होना चाहिये. नहि तो यमकी चपेट लगनेसें फिक्र गिरफतार हो यमके महमान होकर निर्मित दुःख दीनपनेके साथ जरुर भुक्तने ही पडेंगे; वास्ते पहिलेसही चेतना सोही बहुत फायदेमंद है. इत्यलमा देव द्रव्य ज्ञान द्रव्य और साधारण द्रव्य संबंधी विचार. नरेंद्र, देवेंद्र, और योगींद्र सेवित जगत् पूज्य श्री जिनेश्वर देवजीकी भति प्रभावनाक वास्ते निर्माण किया हुवा था किया गया द्रव्य देवद्रव्य कहा जाता है. उक्त देवद्र०५ ज्ञान दर्शनादिक गुणांकी प्रभावना करनहारा और महमिा पढानेहारा होनेसे सबसे मुख्य गिनलिया है, और उसीका न्यायसें संरक्षण या वृद्धि करने हारेकोभी बहुतसा फल बतलाया है. यानि शाखनीति समझकर विवेकसे जहां खर्चनेकी जरुरत मालुम पडे वहां उदार दिलसे झूठा ममत्व छोडकर खर्चनेका उपयोग पूर्वक रक्षण करनेहारा, और शास्त्रनीति अनुसारही न्याय-विवेकसे उनकी वृद्धि करनहारा बहुतसा फल यावत् तीर्थरगोत्र तक उपार्जन करता है; परंतु शास्त्रनीति विरुद्ध पनि चलाकर अन्याय अनीति में देवद्रव्यपर अठा ममत्व धारनकर उनको उचित स्थलमें न खर्च या न खर्चने के लिये देवै या उनको सूमकी तरह जमीन वगैरमें गाडकर २२०खें अगर. Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ રર खर्चनकी जगह पखीलताइसें चाहिये उतना विकसह न खर्च या बेदरकारीसे उनका गेर उपयोग कर, करने देवै अर्थात् शाखनीति विरुद्ध महा आरंभकी द्धि होवे या द्रव्यका नाश होवै वैसे सख्सको व्याजसें या अंग उधारसे धीर धार करै, तो उसे देव द्रव्यकी शुद्धि करनेहारा उलटा संसार भ्रमणही बढाता है. मतबल येही है " कि देव द्रव्यका रक्षण करनेहारा या उनकी वृद्धि करनेहारा शास्त्र न्याय नीतिमें निपुण और प्रमादसें रहित उसी मुजव चलनेवाला चाहिये. वैसे चकोर पुरुषसे देव द्रव्यकी चिंतन कीगइ निश्चयता झान दर्शनादि गुणोंका महीमा बढानेरुप पार पडती है, लेकिन दूसरोस पार नहीं पड़ती है. वास्ते बन सके वहांतक वैसे पुरुष रत्नकों ढुंढ निकालके उन्हीकाही पैसा उत्तम अधिकार मुंप(द करना चाहिये. वैसा पुरुष न मिल सके तो जो सामान्य रीति भी व्यवहार कुशल नीति प्रिय-लोकप्रिय श्रद्धानिकसे भूषित और बहुत भव भीरु होवै उसीकोही उक्त द्रव्यकी व्यवस्था करनेकी भलामण करनी __ चाहिये और उन मनुष्यकोभी लाजिम है कि ज्यों बन सके यौँ तुरत वो देव द्रव्यादिक संबंधी शास्त्रनीति जाननेके वास्ते ज्ञाननी पुरुषाका आश्रय लेकर उपयोग वंत होना चाहिये. कि जिस्से आपकों और संबंधी जनोंकोंभी हरकत न पहुंचै. बन सके वहांतक तो वसे कामके कार्यभारीकी मददमें एक दो दूसरे भी मनुष्य साथ रहदै, और उन कार्यभारीकोंभी साथ रहने वालोंकी सम्मति मिला( कर काम करनेका उपयोग रहपै, तो बहुत फायदा होवै. नहीं तो. Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१३ __ कदाचित् मन विगडनेसे या भूल होजानेसें बडे दुःखका कारण हो प.. निःशुक परिणामी, श्रद्धा विवक शुन्य, न्यायनीति-लोक विरु वतन चलानेहारे कोइ भी उदंडको उक्त अधिकार कमी सुं___५९५ न करना. वैसे अधिकारीको मुंपरद करनेसे उसकी और सुं५रद करनेहारे सभीको वडा भारी नुकशान होता है, और उत्तम देव द्रव्यका गेर उपयोग या विनाश होजाता है. उन देव द्रश्यका विनाश या देदरकारी करनेवालेको-खाजाने वालेकों और दाक्षियतासे उनमें शामिलगीरी करने वालेकों अनंत संसारमें भटककर महा घोर दुःख उठाने पड़ते हैं. वास्ते ज्यौं बन सके त्यौं भवभीर विवको जनको खंत पूर्वक उनका लेप-दाघ-दोष न लग जाय वैसी फिजा रखनेकी जरुरत है. थोडा भी देव द्रव्यका विनाश पडा भारी नुकशान करता है, तो बिलकुल नुकशान करनेसें या बेदरकासेि कितना अहित होगा सो विवेक लाकर शोचना चाहिये. विवेक रहित सहसा काम करने वालेकों पीछेसें बहुतही पीछताना पडता है; वास्ते चाहे वैसी आपत्तिके वख्त भी दानत पाक रखकर रहनेसे अंतम श्रेय होता है. और जैसेही विवेकी सज्जन सद्गृहस्थही असे अधिकारक लायक है। लेकिन स्वार्थ साधनमही तत्पर विकविकलजन लायक नहीं है. पवित्र ज्ञान दर्शनादिकके महीमाको पढानेहारा देवयका भक्षन-विनाश या वेदरकारी करनेसें, पेस्तर वो चाहे वैसी स्थिति भुक्तता होवै, चाहे वैसा सुक्ष माना जाता होवै, चाहे वैसा सुखी • Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४ होवे, तोभी वो थोडेही रोज में पायमाल हो जाता है, इज्जत आबरु गुमा बैठता है, पैसे टक्के कम होजानेसे खाली होजाता है, निर्धन बन जाता है, बुद्धि कंठित हो जाती है, मति मोहवंत हो माती रहती है; और उनका कैसा भविष्य होगा उसका भी भान न रहने पाता है. क्रमशः ज्यादे ज्यादे दोष सेवनसें निःशुक परिणामी हो धर्माचारसें भ्रष्ट हो जाता है, उससे शाहुकार के मुँहमें न दुरस्त लगें वैसे देवाली के जैसा भी वकता है, यावत् आवरु धूलमें मिला देता है. जिस प्रकार आपकी प्रकृतिके प्रतिकूल विरुद्ध निषिद्ध मांसादि अभक्ष्य भक्षण करनेहारेकी पाय माली होती है उसी प्रकार इन देव द्रव्य खाने-विनाशने वालेका समझ लेना. पहिले जाने वडी भारी पथ्थर शिला पेट में पड़ी होने उस तरह पेट सज्जड होकर अग्निकों मंद पाडकर अजीर्ण दोष पैदा होनेसें अनेक व्याधियोंकों जन्म मिलता है, उस करतें भी अनंत गुणां नुकशान करनेहारा ये अत्यंताग्रह पूर्वक छोडने लायक बताय गया देव द्रव्यका भक्षण, विनाश या बेदरकारी है. वास्ते ज्यौं बन सके त्यौं पाक दानत रखकर उक्त द्रव्यकी विवेकसें रक्षा या वृद्धि करनी, जिस्से एकांतिक और आत्यंतिक असा तात्विक मोक्षरूप लाभ होवे. ' जैसा देवद्रव्य वैसा ही ज्ञानद्रव्य आश्री भी समज लेना; क्यों कि वो देवद्रव्य ज्ञानका अभ्युदय हो सकता है, और वो सम्यग ज्ञानके प्रभावसे वस्तुतच्च यथार्थ जान बूझकर समझा जाता है, Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१५ जिस बहुत करके दोप के दायसें छूटकर आत्माका बचाव कर लिया जाता है. अन्यथा अनेक दोपों के संकटोमें बेरघर गिरनेका परत आ जाता है; वास्ते उक्त द्रव्य के सदुपयोग पूर्वक उनकी रक्षा या वृद्धि भी देवयकी तरह विवेक और संत रखकर करनी जिसे पवित्र शासनकी दिन प्रतिदिन उन्नति हुवा कर ___ दोनु मकारके द्रव्यसें साधारण द्रव्य तर्फ कम ध्यान खचिने लायक नहीं है, क्योंकि उन दोनुको पथ्याहारकी तरह पुष्टि देनेहारा साधारण द्रव्य है. सच्ची रीतिसें वो उभयको पुष्टिजनक होनेसेही साधारण कहा जाता है. वास्ते साधारण द्र०यकी पुष्टि करनेहारेको पूर्व उभयकी पुष्टिका फल मिल सकता है. और साधारण द्रव्यका लोप करनेहारेको पुर्वोक्त उभयकी हानिका फल मिलता है. मसंगपर कहना मुनाशीब है कि आजकल साधारण खाता बहुतही डूबता हुवा होनेसे दूसरे खातकों भी बहुत करके धका लगता है; पास्ते दूसरे खाते करतें भी साधारण खातेकी तर्फ भव्य पाणियोंकों खास ज्यादे लक्ष देनेकी जरुरत है. कितनेक अज्ञानी जीव तो अपने संबंधीओंके मरन पश्चात् कुछ रकम गोलमोल कहकर या कुछ रकम धर्मादमें कहे पाद भी आप अपनी भोज मुजब उस व्यका उपयोग करके आपकों निर्दोष मानता है, सो न्याय युक्त नहीं. तरु५-फलाने शाहुकारका फलाने दिनसे बाकी निकाल दिये वाद जैसे उनको व्यान सहित आखिर भरपाया Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करदेना पड़ता है, वैसे या उस्से अधिक ये धर्ममहाराजका देवा समझनेका है; तथापि जो शख्स ठगबाजी करके व्याज आप पचाकर मुद्दल मूडी भी थोडी मुदतमे चुका नहीं देता है, उनको जरुर बहुत संसार भ्रमण करना पड़ता है. श्री धनेश्वरसूरीजाने श्री शत्रुजय महालय में कहा है कि: . अनुष्टुप्-छंदधर्मेणाधिगतपर्यो, धर्ममेव निहति यः कथं शुभायतिर्भावी, सुरवामीद्रोह पातकी. . यानि धर्म प्रभावसे मिली हुई लक्ष्मी जीरकों ऐसा लगीवंत पाणी धर्मकोंही लोपता है वो स्वामीद्रोह करनेहारा पाका भला क्यों कर हो सकै ? अर्थात् वैसी बददानतवाला पापी प्राणीका बहेतर कोई तरहसे होनेका संभव नहीं है. वास्ते बोलना वैसा ही पालना यही सजनताका लक्षण है. सच्च रीतिसें तो पहिले बोल बोलनाप्रतिज्ञा करनी-सो पूर्ण तरहसे अपनी शक्ति विचार कर करनी के जिसमें पीछे उस जपानसें फसक जानेका-प्रतिज्ञा भंग करनेक वख्त न आवै. आजकल इस तरह पूर्ण विचार किये बिगर ही फ गाडरीये प्रवाहसे प्रतिज्ञा कर भ्रष्ट होते हुवे और भये कुवे और वैसा कर आखिर महा दुःखी स्थिति साक्षात् अनुभवमें लेते हुवे बहुतसें प्राणी नजर आते हैं. जब ज्ञानी पुरुष लक्ष्मी पैदा करनेका मुख्य साधन न्याय प्र; ___ माणिकता ही बतलाते हैं, तब आजकल बहुतसे गवार अन्यायको Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१७ ही मुख्य पद देकर संतोष पाते हैं, जिसके परिणाममें आजकल प्रतीत होती हुई अधम स्थितिके ही भोग पडनेका वख्त बहुत क रके आये बिगर नहीं रहता है या जान बूझकर पथ्य छोड कुपथ्पको भजनेहारेको हितसुख किस प्रकार होवे ? पथ्यसमान तो न्यायमार्ग है, और कुपथ्य समान अन्यायमार्ग है. तो हे भव्यमाणी ! यदि तुम इस लोकमें प्रत्यक्ष या परलोकमें भी विशेष सुख पानेकों चाहते हो तो अन्यायरूप कुमार्गकों छोड़कर तुरंत न्यायका सीधा रस्ता पकडलो, स्वच्छंदमति तजंकर शास्त्रमति भजो, अविवेक छोड विवेक आदरो, कुमतिका संग तजकर सुमतिका संग भजो ! आजदिन तक अज्ञान दशासें भूले हुवे भटके उस्का पश्चाताप करके फिरसें भूल न करनेके वास्ते 6 संकल्प करो, और दूसरे भी तुमारे मित्र या संबंधी जनोंमें अच्छी आचरणासें छाप लगाओ, उनको अच्छी हितशिक्षा दो कि जिससे वै भी अच्छे मार्गपर वहन करने लगे. हठ कदाग्रह दूर कर जिस प्रकार अपना अच्छा होने उम मः . कार वर्तना; इतनाही नहीं मगर अपना बहेतर होता हुवा या वहे तर भया हुवा देखकर दूसरे भी अपनने ग्रहण किया हुवा : उत्तम मार्गपर चलने लगे, उस मुजब वर्तना. अपन शोच लेवै कि अपन अपना बहेतर अगाडीपर कर लेवेंगे, मगर वो केवल, मोहभ्रमही मान लो; क्योंकि प्रत्यक्ष अपना होते हुवे विगाडकी तर्फ बेदरकासे बता करके भविष्य पर सुधरनेकी उमीद किस बहानेसें रखनी F Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८ चाहिये ? वास्ते वैसी उपेक्षा बुद्धि न रखते ज्यौं जल्दी जल्दी अपनी भूल सुधार लेकर अपना श्रेय सधाया जाय वैसे वर्त्तना वही उत्तमताका लक्षण है, और समझ भी वही सच्ची गिनी जात्रैसुधरनेकी झूठी आशापर जीते रहे हुबेकों अचानक एकदम - बेमालुम कालने अपनी राक्षसी दाढके नीचे दवा लिया तो पीछे किसको पूछनेकों जाना ? वास्ते " पानी पहिले पाल बंधे तो खूब ये न्याय मुजब अव्वलसेंही आपके श्रेय निमित्त उपाय शोच उपयोगमें ले लेना वही दुरस्त है. इस-मुजब आत्म सुधाराके वास्ते सचिंत और खंत वाले भव्य प्राणी सचमुच अपना हित साध सकते हैं. तात्पर्य यही हैकि देव द्रव्य, ज्ञान द्रव्य, साधारण द्रव्य या चाहे वैसे धर्म खाते के देवेसें आप मुक्त होकर दूसरे भी डूबते हुवे अपने मित्र संबंधी जनकोभी मुक्त करनेकी खास उत्कंठा रखनी; और इकट्ठे हुवे देव, ज्ञान, साधारण द्रव्य या पुण्य संबंधी द्रव्यकी योग्य व्यवस्था करनेके लिये एक अच्छी व्यवस्थापक कमीटी स्थापन करनी जो, कमीटीके प्रमुख या सेक्रेटरीओंने उस उस द्रव्यकी योग्य व्यवस्था करनेमें अपनी बुद्धि शास्त्र परतंत्र रखकर विचारके जहां जहां खास जरुर हो वहां वहां उसका उपयोग कर ज्यों ज्ञान दर्शनादिक उत्तम गुणोंकी प्रभावना हो त्यों करनेमें चुक जाना नहीं; और होती हुई आशातनायें दूर करनेका पहिलेसेही विचार रखना उपरांत उन उनद्रव्यकी रक्षा वृद्धि भी पवित्र शास्त्राम्नाय समझ कर उसके अ Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१९ नुसार करना और उस मुवाकिक अमल करने अन्य कों सलाह देना. सारांश यह है की श्री वीतराग वचनानुसार ज्यौं स्वपरका श्रेय और पवित्र शासनकी उन्नति हो त्यों द्रव्यक्षेत्रकाल भावकों लक्षमें रख करके वचना चाहिये. यह विषय वडा गंभीर गहन और उपयोगी होनेसें विशेष रुचि भव्य सचोकों इस विषय संबंधी ग्रंथ खास अवलोकन कर तत्व रहस्य खींचकर ज्यौं स्वपरका श्रेय होवै त्यों सरलपनसें वर्त्त - नेका यत्न करना. धर्म रहस्य जानकर उस मुजब सरलतासें वर्त्तना यही सार है. जान लिया भी उनी काही मंजूर व दुरस्त है; नहीं तो केवल भारभूतही समझना. सच्ची रीतिसें न्यायकों यथार्थ समजने वाला भवभीरु हो उसी मुजब न्याय पुरःसर चलनेवाला जगतुको आशिर्वाद रुप होता है. और उनसे विरुद्ध वर्त्तनवाला शाप रुपही होता है, प्रमाणिकता से चलने वाला मनुष्य सरल हो सक्ता मगर अप्रमाणिकतासें चलनेवाला अन्यायी तो सांपकी तरह वक्रताही धारन करता है. वो मिथ्या विपसे पूर्ण होनेसें भव भीरु सज्जन उनका संग या विश्वास नहीं करते है. उनसे दूर ही रहेते है या उनको दूर करते है. न्यायके अर्थी जीवों को समजने के वास्ते एक दृष्टांत बताते है कि- श्रीमान् पितादिककी लक्ष्मीका वा रसा मिलाने में उनके पुत्र वगैरः जितने दर्जे हकदार है उतने दर्जे वही पितादिकका देव -ज्ञान- माधारण या चाहे वो धर्मादा द्रव्य आपकी भइ हुई हीनपत से लेकरके या फक्त प्रमादही देवा रह Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૦ पाया हो वो वो द्रव्य देनमें उनके पुत्रादिकका कम हक नहीं है. जब मर गये हुवे या बेभान भये हुवे मावा५ आदिकका रहेना भी उनके पुत्र पसूल कर सकते हैं, और देनाभी पेही रकमसें चुकाने है; लेकीन जो शख्स केवल स्वार्थीध हो लहना लेकर देना देनेको न चाहे वै न्याय मार्गस दूर चलने हारे है योही समझ लेना. वैसे अन्यायाचरणसे आखिर उन्होंकी बड़ी भारी स्वारी होती हैं. जैसा आहार वैसाही उद्गार ? उस न्यायसें बुद्धि मलीन हो जानेसें वै थोडेसे १०तमेंही धर्म और लक्ष्मीसे भ्रष्ट हो जाते हैं. या तो जबसे अन्यायमति धारन करक अन्याय अंगीकार किया होवै तवसें धर्म भ्रष्ट तो हो गया, और जो न्याय लक्ष्मीका वशीकरण है वो न्यायकों दूर छोडनेसें-अन्याय सेवन करनेसें तुरंतही यश लक्ष्मी आदिसें भ्रष्ट हो जाता है, और केवल दुःख अपयशका हिस्मेदार हो भषांतर में महा दुःख दावानलमें सीझता है. नरक निगोदादिकमें बहुत भव भटकता है. यावत् दुर्लभ बोधी हो अनंत दुःख पाता है. ऐसा होनेसे हे सुज्ञमित्रो और वान्यो ! जागृत हो और सघ प्रमाद दूर कर ऐसे अनर्थ से मुक्त हो जाओ और दूसरों को मुक्त होजानेका उपदेश दिया करो. श्री जैन श्वेतांबर वर्गके पूज्य गुनीराज तथा विषयी श्रावकोंको अति अगसकी सूचनायें. प्रिय महाशय गण! आप दीर्धानुभवसें जानतेही हो कि Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२१ कुसंपसे अपनी बड़ी भारी अवनती-ख्वारी हुइ है. पेस्तर जब श्रा लोग सुसंपद्वारा बहुतसे व्यौपार रोजगारादि न्यायनीतिसे करके अनर्गल लक्ष्मी पैदाकर, तीर्थयात्रा सद्गुरु भक्ति और साधर्मी भाइयोंकी योग्य सेवा कर, पवित्र शासनकों शोभायमान् कर न्यायोपार्जित लक्ष्मीका ल्हाव लेकरके अपना जन्म सार्थक करतें थे, तब अभी कुसंपसें करके धंदे रोजगार-पैसे-टके-न्यायनीति और इजात-आवरुसे श्रावकभाइ बहुत करके कमजोर हुवे मालुम होते हैं. जैसी बडीभारी अवदशा होनेका मूल सबब हुँ निकालना वो सास जरुरतकी बात है. उस्का खास कारण कुसंप अज्ञान और अविवेकही है. जहांतक काले मुँहवाले कुसंपको दूर फेंक कर मुसंप पढानेमें न आयगा, और एक दूसरे की उन्नति मारफत शासनकी उन्नति करने के वास्ते उदारतासे योग्य कदम भरनेमें आगे नहीं, वहांतक जनोंकी स्थिति सुधारनेकी या सुधरनेकी आशा रखनी व्यर्थ है. आजकल कुसंप और अविवेकके जोरसें अकेलेकाही पेटपोषण करनेका स्वार्थ (Selfishness ) और वे परवाही ( Indifference ) ये दोनू बडे भारी दोषोंने श्रीमानोंके दिलमें भी निवास कर लिया है. इसका परिणाम यही आया कि वे अपने सगेभाइ या साधीभाइयोंकों दुःखी स्थितिमें प्रत्यक्ष देख ले तो भी परोपकार बुद्धि से उन्होंका उद्धार करनेके वास्ते सोचविचार करने जितना भी नहीं कर सकते हैं. असें एक जैन-व्यवान होने पर भी बजाने लायक अ Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ રરર पनी लायक फर्जसे जब वै विलकुल विमुख रहते हैं-मतलपमें दुःखी भाइयोंकी कुछ भी फिन दिलमें नहीं धरते हैं, तब ये स्वाभाविक है कि अन्यद्रव्यहीन दुःखी श्रावकवर्ग भी उन्होंकी तर्फ अपना अभावही प्रदर्शित करे ! इस प्रकार कुसंपके कारण पढनेसे कुसंप भी वताही जाता है. इस मुजब दिन प्रतिदिन बढते हुवे कुर्मपके मुल काटडालनेके लिये जहाँ तक स्वार्थी श्रीमानवर्ग अपने खास खास कर्तव्य लक्षमें लेकर पूर्ण फिकके साथ भगीरथ यत्न नही करेंगे और जिस द्रव्यको यहां ही छोडकर रीते हाथसे अपने परभवकों चला जाना है उस अस्थिर द्रव्यका मोह छोडकें उसद्वारा अपने दुःखी होते साधर्मीयोंका बने उतना उद्धार नहीं करेंगे वहांतक दिनप्रतिदिन होती जाती करुणाजनक स्थिति कभी नहीं सुधर सकेगी. ऐसा निश्चय पूर्वक समझकर दाने दिलके मुनिराज - और शासनका हित चाहनेहारे श्रावकजन अपनी अपनी उचित फर्ज बजानेको तत्पर होकर जिस प्रकारसे ये कुमपका सडा दूर हो सकै उस मकार करके भगीरथ यत्न सेवन किया जायगा तब आशा है कि वो काम समस्त जैन कॉमको बडे भारी आशिर्वाद' रूप होवेगा. निःस्वार्थपणे प्रयत्न करनेवालेकों अतुल लाभ संपादन होगा. और शासनकी बड़ी उन्नति में दूसरे अनेक जीवोंको बेरखेर लाभ हो सकेगा. प्यारे भाइयो ! आप यदि अन्य निरुपयोगी उपर टिप्पेकी झूठी धूमधाम तनकर यह समयोचित सूचना लक्ष लेके उसमें आपका सच्चा हित समझ विवेकसें वर्तन रखोगे तो खसूस Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૨૨ समझ लेना कि उससे तुम थोडेही श्रमसें भी वहा भारी लाभ भाप्तकर मकोगे. अपनी मनिकरपनानुमार चाहे उतना अच्छा काम करने से भी वीतराग पचनानुसार काम करनेमें ही बडा भारी फायदा है. अक्षय सुख मिलानेकी इच्छा करनेवालकों तो जरूर शानी के पचनानुसारसेंही पनि रखना श्रेयकारी है. स्वमति कल्पनानुसारसे वर्तन रखने से तो जीव अनंतकाल भ्रमण किया सो भी अबतक उसका अंत नहीं आया. वास्ते निश्चयसें माननाही लाजिम है कि शास्त्राचा मुजब परमार्थ बुद्धिसें समयादिक उचित कार्य ही करनेमें समाहित समाया गया है. इस कानूनसे विरुद्ध वर्तन रखनेवाले सब कोई आपत्ति के भागीदार होते हैं, पास्ते अपनको अपना सच्चा हिन चिंतन करना यही अपना खास कत्तव्य है, ज्ञानी पुरुष तो परमार्थवृत्तिस मुलटाही मार्ग वतलाते हैं। तथापि अपन अपनी मतिसे उलटे हो उनकी आज्ञाका उल्लंघन करते है. तो उसमें अपने किरातकाही दोष है. २ आप सभी जानते ही हो कि अपन सभीमें काले मुंहवाले कुसंपने वडामारी जुल्म कर दिया है, उसको निर्मूल करनेके वास्ते आगवानी करनेवालोंकों अवश्य तत्पर होना ही मुनासीब है. नही તો વો અને પાર પુરે ૪ વાટીને વાલી ન કરવો. વાર્ત "पानी पहेलें पाल बंधे तो खूब हैं." जैसी दीर्घष्टि-समय जाननेवालेकी खास नीति है. तो अब ज्यादे देर करनी छोडकर जल्द जात होनेकी जरुरत है, यदि जैसा न किया जायगा तो वेशक , Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ आगे बहुत ही पिछताना पडेगा. ३ अपनमें विवेककी बडी भारी तंगी मालुम होती है, वो अब खास सुधारनेकी जरुरत है. अविवेकसें अपन दूसरेके सद्गुणोंकों भी ग्रहण नहीं कर सकते हैं. अरे ! अपन उस्की पुष्टि करनी भूल कर विवेककी बड़ी भारी खामीसें अपन उलटे उसकी निंदा-बदी भी करने लगते है। वास्ते जो वीतराग वचनानुसार सत्य है, उसकों सच्चे दिलसें सत्य समान कबूल करना और आदरना वो अवश्य अपनको. शीखनाही चाहिये. - ४ वीतराग वचनानुसारसे सत्य क्या है और कया होसकै ? वो जाननेके वास्ते श्री हरीभद्रसूरी, श्री हेमचंद्रसूरी तथा श्रीमद् यशोविजयजी प्रमुख धर्म धुरंधर पुरुषोंने सर्वज्ञ वचन के मुजब रचे दुवे-प्रमाणिक ग्रंथोका पारीकीसें अवलोकन करनेकी खास जरुरत है. लेकिन पंडी अफसोसीकी बात तो यही है कि जैसें ग्रंथोंका तो कहनाही कया, मगर बहुत सरल सादी-सीधी भाषामें सत्य सर्वज्ञ प्रणीत धर्मकों प्रकाशमें लाने की बुद्धिसे लिखनेमें आये और . आते हुवे लेखोंकों पढनेकाभी मोह पश'जनोंसें नहीं बन सकता है, तो उस संबंधी घटित शोच विचार कर अपनी भुल हुँद निकालके उनको सुधारनेकी तक तो वै विचार किस तरह हाथ कर सके ?! अधपि भी असे वारीक समयमं महा गाढ मोह निंद छोडकर कड __ जात हो केवल परोपकार बुद्धिसें लिखे गये उत्तम लेख वाच.नेकी अमूल्य तक यदि न जाने देनमें आवे.और उनमें से बन सके Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२५ - उसना परमार्थ ग्रहण करने में आवै, तो उमीद है कि समयानुसार वैसे मृढ़ जनाका भी हित हो सकै. ५ उपकारी महात्मा चाहे इतनी महेनत लेकर परम पवित्र सर्वज्ञ मणीन धर्मको प्रकाशम लानेके वास्ते विविध धर्म विषय संबंधी अ छे अच्छ लेख लिख कर श्रोता वर्गका या सामान्य रीतिसं समस्त जैन कोमका ध्यान खींचते है परंतु जहांतक अपने लोग बेपरवाह रखकर अपना परायेका सच्चा हित किस प्रकार हो सके ? वो जाननेके वास्ते मतलब जितनी भी महेनत लेकर उनको पढे सुने भी नहीं, या पढे सुने तो उस संबंधी चाहिये उतना विचार नहीं __करे, और कभी विचार कीया तौभी जहां तक उसी मुजब आ चरण कर नहीं; यहांतक अपना पराया हित-कल्याण क्यो कर हो सकै ? अमेरीका जैसे प्रदेशमें एक जाती अनुभववाले मित्रके मुंहस सुने लिये मुजब खेडूत पिकार लोग भी अखबारोंकों वडी आतुरतासे पढ़ने के वास्ते तत्पर रहते हैं, और यहांपरतो अपने प्रत्यक्ष अनुभवसे जान सकते है कि जनसमुदायका बड़ा हिस्सा तो स्वहित साधनेमें भी वे परवाह या आलसु बन रहता है. अहा ! असी सत्यानास निकालने वाली वेपरवाह छोडकर अपने मुमुक्षुजन (साधु साध्वीों या श्रावक श्राविका ) समयकी तर्फ पूरे तौरसें निगाह देके अपना अपना हित साधनेके लिये उत्कंठित रह तो उमीद और आशा है कि जरूर जल्दी या देहीमेंभी अपनेमें कुछ भी सुधारा हो सके सही ! सचा सत्य जो समझा जाय तो मनुष्य Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के अल्प आयुष्यमें भी आत्मसाधन करलेना धो कुंडमिसें रन. निकाल लेने जैसा सहल है। लेकिन वो हस्त करनेकी फिक्रवाला हो उन्हीसे हो सकता है. जो आलसु होगा उनको तो बड़ी भारी मुरली वाला मालुम होगा. अपनी अनादीकी भूलोको अच्छी तरह जाननेके वास्ते पूर्ण ज्ञानकी जरुरत है, सम्यग्ज्ञान के प्रवेश वि.स क्षणिक और असूचीमय यह जड देहपरकी ममता छोडकर अपना कर्तव्य करने में किंचित् भी पीछा पाँव हठाना दुरस्त नहीं है. असा सोचकर 'देहे दुःख महाफलं-' यानि समझकर समतापूचक धर्मकरणी करनेमें देहकुं कुछभी दुःख होता हो तो उसको सहन करलेना सो वडा फलदायी है। क्योंकि सम्पर ज्ञान और सम्या किंया जोरसें संसारसागर तिरना सुलभ हो जाता है. और वोही ज्ञान तथा वोही क्रिया के अभावसे चतुर्गति संसारमें अनेक दफै भ्रमणही करना पडता है; वास्ते अपलमें तो सम्यम् वस्तुतत्व जानकर उत्तम विवेकसे उसी मुजब आचरण रखनेकी खास जरुरत है, इन दोनूमेंसे एककीभी उपेक्षा करनी बडी दुःखदायी है. तो दोनूमें बेपरवाह रहने वाले मूसलाय बुद्धिवंतका तो कहनाही कया ? जैसे मंत्रशास्त्री मंत्र का पूर्ण प्रकार प्रयोगका विषधर सांपका भी वि५ निकाल सकता है, वैसेंही विवेकी जन सम्बज्ञान-क्रियाके जोरसे कर्मरूपं सांपका भी शहर दूर कर सकते हैं. किंतु अकेले ज्ञानसे या अफैली क्रियासें वो नहीं दूरकर सकता है. पास्ते प्रथम सन्मार्गका પૂર્ણ શરમાન જ પને શત્રુમમા છોડ પૂર્ણ કે મોક્ષ નિ Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मित्त दोनूका सेवन करना न भूलना चाहियें ऐसा समझ करें कि महाजनो ये न गत' स पंथा- शिष्ट- सुविहित पुरुषोंने जो मार्ग हाथ धर लिया है वही मार्ग कल्यानकारी है. ' ६ अपनी अंदरका वडा हिस्सा तो इतना जडतां है कि ↑ ઉન્હોંની નડતા દૂર રનેમ યુ જે યુ ન ખાય તૌમી પાર અના वडा मुश्कील है; परंतु जो छोटे बालकोकों या युवकों धर्मशिक्षण देनेका अभी तुरंत अच्छे नोरसें शुरु करनेमें आवे तो उसका बहुत अच्छा परिणाम आनेका संभव रह सकता है. यदि मावापने उत्तम शिक्षण प्राप्त किया हो तो वे अपनी संततीको भी अच्छी धमष्ट बना सकते हैं; मगर वे खुद तालीम रहित होवे तो उनकी संतती भी वैसी ही रहती है. आजकल के मावाद जब एक वखत आप खुद पुत्र पुत्रीकी अवस्थामें थे तव उन्होंकों अच्छा शिक्षण नहीं मिलसका, उससे वे उत्तम शिक्षण या धर्मशिक्षण उनके बच्चों को देनेमें विजयवंत न हो सके. इसी तरह अभीकी संततीकों अच्छा मजबूत शिक्षण देनेमें नहीं आयगा तो वैभी एक देशीयएक लक्षीय शिक्षण मिलनेसें संसारकी असारता, वैराग्य, गांभिर्य - ता, प्रौढ़ता आदिसे विमुख रहकर सहनशीलता खामोश आदि उच्च गुण कि जो व्यवहारिक कार्य कुशलतामें जरूरत के हैं, वे प्राप्त नहीं कर सकेंगे. वास्ते जो अभीसं ही समयानुकूल शिक्षण माता પિતા-ચામુનની તપસ વાળોથી ષિ અનુકૂળ સાહી સૌધી सरल भाषामें दिया जाय तो बहुत करके वै सद्गुणी-धर्मष्ठ Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ રર૮ भाषा५ बनकर अपनी भविष्यकी प्रजा तर्फ अपनी पवित्र फज अदा करनेमें नहीं चूकंगे. बालकोंकी अति कोमल और फलद्रूप हृदय भूमिकी अंदर यदि समयोचित अच्छे शिक्षण के बीज बोने में आपै और पीछे दररोज संतपूर्वक सूक्त वचनजलका सींचन करने में आवै तो उन्होंमैसें एसे तो धर्म के अंकुर स्फुरायमान होवे कि उन्होंमेसें हरएक साक्षात् कल्पवृक्षकी परावरी-हरीफाई कर सके ! एक जैन के अंगनमें गे हुवे ऐसे कल्पवृक्ष कैसे शोभायमान होवे ? लेकिन लक्ष्य कौन देता है ? ७ऐसे अति बारीक समयमें भी श्रीमानासे , लगाकर गरीब लोग तकमें कितनेक निकम्मे-फजूल खर्च-जैसे कि नाच, नाटिक, आतशबाजी, किनकौए. जलूस, व्यसन, आदि ये फायदे के खर्च (फर अच्छा मालुम होने के सबसे ) सेंकडो-हजारों रुपै अडा देनेमें आते हैं, उस तर्फ श्री संघ या ज्ञातिके अग्रेश्वरोंकों खास अंकुश रखनेकी जरुरत है. ऐसा लखलूट खर्चने के वास्ते किसीको भी आग्रह करना-करवाना न चाहिये. मुनीराजको भी ऐसे निकसो खर्चके बदले में जिस बातसें जैनोंका कल्यान होता हो अगर हो सकै वैसे सुलभ मार्ग-हेतु उन्हीको युनिके साथ समझाने चाहिये. दृष्टांत रुपकि सात क्षेत्रोंमेंसे दुःख पात्र भये हुवे क्षेत्रमें ज्यादा विवेकपूर्वक व्यय करनेका, उपदेश देना चाहिये. जो एकमतसें शासनकी शोभा बढ सके ऐसे कदम हरएक स्थलपर भरने में आवै तो वैशक थोडे ही वरूतमें एक अच्छा अगत्यको तफावत हो Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२९९ · सकै; मगर याद रखना चाहिये कि, ये सभी विवेककी खामीन्यूनता दूर करनेसेंही सिद्ध हो सकै, अन्यथा तो आकाशंकुसुमवत् असंभवितही समझ लेना. अरे ! लाभ हानीका भी पूरे नहीं सोचनेवाले सच्चे - बनिये ही नहीं कहे जावै, तो सच्चा जैनवीर सर्वज्ञ पुत्र તો कहे ही क्यों जाय ? एक स्वच्छंदपनसें चलनेरुप अविवेक ही दूर किया जाय, और परम पवित्र परमात्मा के आगम अनुसारसें निःशंक पूर्वक पूर्ण श्रद्धा मेमसें वर्त्तनेगें आवे तो कुल जैनशासनमें हर हमेशां दीवाली हो रहौ. अहा ! ऐसा शुभ समय आया हुवा अपन साक्षात् कब देख सकेंगे ? अपन कम बोलकर ज्यादा अच्छा कर बतलाना कब शीखेंगे ? अपनमें घुसी हुई मलीनवृत्तियों का कम अंत आयगा ? अपन प्रसन्न चितसे अपनी फर्ज समझकर अदा करनेमें कद भाग्यशाली होयेंगे ? अपन एक दूसरेकी तर्फ अमृत नजरसें देख गुन ग्रहण करलेनेका कब सीखेंगे ? और अपन वैसे कायम अभ्यास से दोषदृष्टिकों तन कत्र दूर कर सकेंगे ? 2 ८ अपने श्रावक लोगों मरणके वख्त पुण्यदान कथन करनेकी रीति चल रही है, उस मुजब पुण्यदान किये वाद तुरंतही उनद्रव्यकी चाहियें वैसी व्यवस्था करदेनी चाहियें, उसके बदले में वो द्रव्यके देवेमेंही आप दान पुण्य कथन करनेवाले डूब जाते हैं और उनके पापके छींटे औराकोभी लग जाते है; वास्ते वैसे दान पुण्य निमित्त निकाले गये द्रव्यका तुरंतातुरंत निर्णय किये गये है Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૨૦ खातमें या पुण्य स्थलमें वापरकर खुलासा कर उनका चेप ज्यादा न पहुंचने पावे वैसा जगह जगह बंदोबस्त होनेकी खास जरूरत है, यह बात लक्षमें रखनेही लायक है. स्वपरको डूबते हुवे अटकाकर धर्म निमित्त निकाले गये द्र०यका खुलासा कर अच्छा उपयोग करना-ये स्वपरको तिरने तिरानेका रस्ता होनेसे अवश्य आदरने लायक है, वास्ते सुखक-अर्थी जीवोंकों इस बावतमें प्रमाद करना अयोग्य है, ९दिनपर दिन समय कठिन आता जाता है. उसमें श्रीसंघ-- के आधारभूत मुख्यतासें श्री जिनराजमरुपित आगम और जिनंद्रजीकी प्रतिमाजी हैं. इन दोनूकी तमाम आशातनायें दूर कर विशेष विनय करनाही योग्य है. शास्त्र पुराने होकर उन्होंका विच्छेद न हो जावै, और जिर्ण चैत्य भी उद्धार किये बिगर पतनः स्थितिको न भेट पडै, उसीकी अच्छी तरह निगाह रखनीही चाहिये. भूख लोग लाभा लाभ न शोचते केवल यश-नामना-कीर्तिके वा-- .. स्ते मरते हैं; लेकिन जिर्णोद्धारसे कुछ कम लाम या कम नामना नहीं हैं. जिर्णोद्धारसे तो अमर नाम होकर अक्षय यश और सुख मिलता है. वास्ते स्वच्छंदता छोडकर शास्त्र नीतिसें अक्षय लाभ ले. नेके लिये यत्न करनाही दुरस्त है. लखर्ट खर्च यानि ज्ञातिभोजन-. नाच, मुजरा, खेल, तमाशे-आदि करनेके बदलेमें औसे बारीक परूतमें दुःख पाते हुवे साधर्मी भाइयोंको मदद देकर उन्होंको उद्धार करनेमें बहुत लाभ समाया गया है, तो सुमती धारणकर Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३१ सच्छंदता छोड स्वपरका हित होवै वैसा मार्ग सेवन करना यही शासन के उदयका सत्य मार्ग है. - १० आजकल विवेककी न्यूनतासें मावाप बहुत करके बुरे या झूठे व्हेमास भरे हुवे तथा पाधक रीति रिवाजोको बिलगे हुवे भालुम होते हैं, उन्होंको सुधारनेका काम बडा कठीन है; परंतु नई पैदा होती हुइ मजा-जैन बालकोंके और युवकवर्गक वास्ते धर्मशिक्षण-नीति,-न्याय-सत्य-प्रमाणिकता संबंधी अच्छी तालीम देनमें आवे तो कम महेनतसे अच्छा सुधारा अल्प समयमही होजानेका संभव है। वास्ते हरएक जगह विचरते हुए साधु मुनीराज और तालीम पाये हुवे विद्वान श्रावक इन संबंधी अपनी खास फर्ज सोच-समझकर चाहियें वैसा अच्छा प्रयत्न करै तो जरुर कुछना कुछ सुधारा हुवे बिगर न रहवंगा. वत्तमान समयमें कितनेक जैन युवक लेख लिखकर उच्च आशयसें जैनोंकी आधुनिक-अभीकी स्थिति सुधारनेके वास्ते कुछ महेनत करते हुवे मालुम होते हैं और असा करने में उन्होंको प्रयत्न तद्दन निष्कल होता होवे जैसा कहाणा वैसा तो नहीं है; तथापि इतना तो कहा जा सके वैसा है कि आजकल विद्वान मुनिराज या श्रावक, वडी परके जैनभाइ, और भगिनीयोको लेख लिखकर या व्याख्यान देकर बोध करने के लिये जितना श्रम उठाते है उतना श्रम यदि संपूर्ण खतसे कोमल वयके जैन बालकोंके कोमल मगजमें पवित्र जैनतोका रहस्य बहुतही सरल-सादी भाषामें समझाने के पारो, . Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३२ उन्होंके दिलमें ठीक ठीक ठसाजाय 'वैसा असरकारक मवोध देनेके वास्ते समयोचित विचारे तो आजकल कोशके कोश भरकर उपदेराजल, जिनकी हृदयभूमिमें उतरना मुश्कील है वैसे अशिक्षित शु एक जैसे जनोकों सींचनेसें कुछ काल गये बादभी जिन अच्छा लाभ नहीं मिल सकता है उस करतेंभी बहुत और उत्तम लाभ अल्प वख्त में बालवयके कोमल रुंखडको ज्ञानजल सींचनेस अवश्य मिलनेकी बडी भारी आशा बंधी जाती है. आजकल के युवान तथा बुद्दोंकों मार्गपर आनेके वास्ते जागृत करनेका एक अच्छा रस्ता ये मालुम होता है कि आजकल जैनोमें ज्यादे फैलावा पाये हुवे जैनधर्म प्रकाश, कॉन्फरन्स हैराल्ड, आत्मानंद प्रकाश और आनंद जैसे मासिक तथा साप्ताहिक जैन, जैनविजय, जैन गेझट वगैरः अखबारों में जो जो अपने पवित्र धर्म व्यवहारानुयायी उत्तम लेख लिखाकर प्रसिद्ध होते है, उन उनके सभी लेख सभा समक्ष कोई विद्वान मुनी या श्रावकद्वारा पदवाकर और व्याख्यान बंचाया जाता होवै वहां व्याख्यान बांचनेवाले मुनीजन भी वे लेख के विषयानुसार अच्छा असरकारक विवेचन देकर श्रोताजनका सन्मार्गकी तर्फ लक्ष खींचनेका सतत यत्न करे तब समयानुसार आजकलके श्रोतावर्गको जैसा अच्छा लाभ होनेका संभव है. यह बातका मुझे प्रत्यक्ष अनुभव मिल चुका है, और वैसा अनुभव मिलानेका मशंगवशात् विद्वान मुनीवर या - श्रावक जन धारेंगे तो बहुत अच्छा लाभ मिला सकेंगा जैसी उमीद रहती है.. I 1 Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३३ - ११ आजकल बहुत करके श्रापक लोगांकी सांसारिक स्थिति १७ ज्यादे बारीक होनेसे उन्होंको समयोचित मदद देनेका भी उदार दिल-टूले श्रीमान् श्रावकोंका अवश्य कर्तव्य है. इस तरह समयानुसार मदद करनेसें पूर्वपुन्य के योगसें प्राप्त भइ हुइ लक्ष्मीके सार्थक्य साथ परलोकके वास्ते महान् मुछतका संचय होता है. जिसे अंतमें देव मनुष्य संबंधी उत्तम भोग सु कर वै अक्षयसुखके स्वामी होते हैं. अपने श्रीमान-धनाय श्रावक विवेकद्वारा सोच विचारकर ऐसे पारीक परुतमें सुन्ने चांदीपर लग रही मृी फमती करके श्री सर्वज्ञ प्रभुने बतलाये हुवे उत्तम क्षेत्रमें शुभ परिग्रामपूर्वक वीज बोने लगे तो दुगना तीगनां नहीं मगर सो सुनोस वकार अनंतगुने फल तक-फल पैदा किया जावै. और दन्न क्षेत्रकाल-भावको यथार्थ देखकर समयानुकूलपनेसें पतन चलानेसें श्री जिनाज्ञा आराधक भी हो सकते हैं. ऐसा समझकर सजनीका ऐसा अति शुभ और शासनको हितकर मार्ग सेवन-आराधन ___ करने में नहीं भूलना चाहिये; क्योंकि ज्ञानीपुरुष कहते है. कि: लगी जलतरंग जैसी चपल है, यौवन पतंगके रंगवत् तीन चार दिनहीं, ७ जानेवाला है, और आयुष शरदऋतुके बद्दल समान अथिर है. तो हे भन्यजनो ! अंतमें अनर्थ क्लेशादि मूलक द्रव्यकी अंदर किसलिये घभाकर मर जाते हो ? यदि तुमारा कल्यान करना चाहते हो तो परमोत्कृष्ट सर्वभाषित दानादि उत्तम धर्मका सेवन कर दश टांतसे दुर्लभ मानवभवको सार्थक करलेनमें नहीं , विन Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __ चूकना. धर्मकार्यमें पिलप-प्रतिबंध-प्रमाद करना योग्य नहीं. क्योंकि कहा है कि-" श्रेयांसि बहु विनानि." वास्ते जो कुछ शुभ कार्य आत्मकल्याणके निमित्त करना होय सो तुरंत कर लो. कल करने का इरादा रख्खा होवे सो आजही कर डालो, क्योंकि कलकों कालका भय है. जो कभी किसी भाग्ययोगसें ऐसा शुभ अध्यवसाय हुवा तो उसको सार्थक करनेके वास्ते एक क्षणभरभी प्रमाद करना लायक नहीं है. क्योकि कालकी गति गहन है. सो छाउं के बहानेसें. तुमारा छल देखता फिरता है; पास्ते उनका विश्वास करना योग्य नहीं है. यह प्रस्तुत समयोचित सूचनाको अनादर न करते उन द्वारा बन सके उतना लाभ हाथ करने में __ चूक न जाना चाहिय. सुज्ञेषु किंबहुना ? १२ अहो ! आजकल श्रीमंत लोग भी कैसे मुग्ध बन गये है कि, सर्वज्ञ भाषित शास्त्रानुसारसे तपासनेसें अपनको प्राप्त भइ हुई लक्ष्मी पूर्वमें किये हुए सुकृत्य-सुपात्रदानादिके ही योग से मिली है, और उदार दिलसें अबी भी वो प्राप्त भइ हुई लक्ष्मीका विवेकद्वारा व्यय करनेसे ही उसका सार्थक्य तथा भवातरमें म- . हान् लाभ होय वैसा है; तथापि मुग्ध तवंगर लोग केवल मोहनससें मशगुल रहकर अपन स्वच्छंदी नाद मुजब वर्तन चलाये जाते हैं वो किसी तरहसें प्रशंसापात्र गिनाया जा वैसा नहीं हैं. क्यों कि शास्त्रकारोंका तो एसाही फरमान है कि-"आणाजुत्तो धागो"-श्री सर्वज्ञ प्रभुके हुकम.मुजव किया हुवा Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म स्वपरको हितकारी होता है; किंतु केवल आपमतीसें किया धर्म हितकर नहीं होता है. द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावको पूर्ण प्रकारसे लक्षमें रखकर उचितमार्ग सेवन करनेके लिये श्री अरोहंत प्रभुकी नीति है. वास्ते उच्चपदाभिलाषी सज्जनोंको सर्वज्ञ प्रभुजीने परम करुणाद्वारा बताई गई जैसी अनूपम नीतिको अनुसरके चलनेकी तथा अप्रिय स्वच्छंदी-आपखुदी आचरण छोडदेनेकी ही आवश्यकता है. अभी या पीछे भी स्वच्छंदता छोडकर जिनाज्ञा मुजब पतन चलाये विगर जीवका मोक्ष होनेका ही नहीं. तो अभी सामग्री विद्यमान होने परभी प्रमाद करना ये किसी रीति से आ-- ताको हितकारि है ही नहीं. १३ अहा ? आजकल जीवमात्र प्रथम तो अपनी अपनी फर्ज कचित् ही समझते हैं, और समझकर प्रमादको छोड कोई विरले नररत्न सन्मार्ग पर पहन करते हैं अर्धदग्धोंकों तो समझाने पास्ते ब्रह्मा या वृहस्पति भी असमर्थ हैं, तो फिर अपन तो उ. न्होंको किस तरह समझा सकेंगे ? स्वल्पमें कहदेवै तो, जीव जैसा खाली हाथसे आया है वैसा ही पीछ। रीते हाथोंसें चला जानेवाला है. अरे ! आप खुद भी प्रत्यक्ष अनुभवसें औसा जान-देख सकता है; तथापि जैसा दुर्लमें सामग्री सफल करनेके वास्ते कुछ भी चा. हिये पैसा नहीं कर सकता है, यही महान् आश्चर्यसूचक वार्ता है ? झूठे मान लिये स्वार्थकी खाविर तो बडा भारी भगीरथ यत्न करता है, उस खत तो प्राणपत् मिय द्रव्यकों भी पानीकी तरह Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६ व्यय करडालता है, जरुरत होवै तो चाहे पैसे की खुशामत भी करता है, यावत् दासत्व भी स्वीकार लेता है. परंतु अपना सची स्वार्थ साधने वस्तमें तो गरीयार बहेलकी तरह सत्वहीन-कायरपुरुषार्थ विगरका बन जाता है, ये क्या ओछे शरमकी बात है ? मगर खेर ! संपूर्ण ज्ञान विवेककी खामीसं मनुष्य मात्र भुलका पात्र होता है. या विवेक दृष्टि विगरका मनुष्य भी पशु समान गिनाया जाता है. तो अब तकभी कुछ विवेक लाकर यह देश - टांतसें दुर्लभ मानव भव वगैरः विशीष्ट सामग्री सफल करनेकी इच्छा हो तो अब ज्यादे तोरसे सावधान होकर प्रमाद शत्रुके तार हुए विगर अपना तन, मन, धन आदिको सदुपयोगसे स्फुरायमान करनेके लिये भारी प्रयत्न करनेकी खास जरुरत है. जन्म, जरा, __ मृत्यु, आधि, व्याधि, उपाधि, संयोग और वियोगके संबंधवाल अनंत दुःखमें सर्वथा रहित शास्वत सुख संपादन करने की चाहत वाले भव्य जीवोको सुद विचार करना ही दुरस्त है कि कोई भी भारी अगत्यका कार्य किसीने कवी कुछ भी स्वार्थ भोग दिये विगर सिद्ध किया है ? उसके उत्तर 'ना किसी ने नही किया !' बस यही कहना पडेगा. तब कया मोक्ष संबंधी अनंत सुख अपन अपने आपसे ही तन मन धनके भोग दिये विगर ही क्या सहज साध शकगे ? ना कवी भी नहीं. तब मेरे प्यारे भाइयो ! आजकल चलती हुइ अंधाधुंधी यानि अपनी अपनी मोज मुजवका वर्तन असाका जैसा कहांतक चलाये जायेगे ? मुनिजन मोजमें आप Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૨૭ औसा उपदेश देखें और गृहस्थ-श्रावक उन महात्माओको मन प्रसन रखनेके वास्ते उत्सव महोत्सव कर एकठो अच्छा आतीभोजन.५ कलस चढाकर अपने जन्म या द्रव्यका सार्थक हुवा मानते हैं यह कैसा आश्चर्य है ! तथापि अपन वैसे भाग्यशाली महात्मा और श्रावकोंकों शांतिसे ही कहेंगे कि, भाइओ ! जब अपने बहुतसे जनी भाइ भागनी या कुटुंबी जनोंकी बहुत बारीक स्थिति आ गई है, उनकों खाने पीनेके लिये भी पडी हैरानी-परेसानी हो रही है, मुंखके मारे विचारे धर्मसाधनभी नहीं कर सकते है, तब अपन क्या अपने स्वामीभाइयोंका दुःख दिलमें धरना और वैसा करके यथाशक्ति उचित करना करांना योग्य नहीं है ? अभी जैनमात्रने अपना अपना कर्तव्य. समझकर अवश्य दुःखी जैनोंकों दाद दैनी योग्य है. ये आप लोग जानतही होगे; तदपी परभव योग्य सबल साधन साथ लेनेके वास्ते - परम पवित्र परमात्माप्रणीत प्रवचनको उत्कृष्ट भावसें अनुसरनेमें किस लिये विलय होता होगा ये समझना बहुत कठीन हो पडता है, वो आप हमको समझानेके वास्ते तथा तद्वत् उचित विवेक सें चलकर संतोप देनेके वास्ते जितना बन सके उतना करना ने भूल जाओगे तो आपका वडा भारी उपकार अत्यंत खुसीसें मानेंगे. अरे ! समयको मान देकर चलना ये साधुजनोंका खास कर्तव्य है. परंतु इतनी इतनी नम्रतासे विज्ञप्ति करने परभी फक्त मानपानकी लखर्टमें गिर कर मुग्ध हिरनके समान आज कल के प्रायः Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३८ विवेक विगरके श्रावकको ज्यों मोजमें आवै त्यौं वर्नन चलाते और मोहजालमें फंसकर खुवार होते हुएको यदि न रोक लगे नो सचमुच खुद निंदापात्र हुए विगर न रहेंगे. क्या अपने में विश्वास नखकर आश्रय लेनेके वास्ते आये हुवे और आते हुवे मुग्ध जैनी भाइयो और भगिनीयोंकों, सर्वज्ञ पुत्रका वडा भारी विन्द धारन करके खुद अपने पिता परम पूज्य श्री तीर्थकर महाराज पवित्र आगमके आधारसे द्रव्य-क्षेत्र-काल-भावको यथार्थ लक्षमें रखकर सर्वदा उचित सत् मष्टत्ति करने करानेरुप उत्तम नीतिका आलंबन लेकर योग्य इन्साफ न दोगे ? अहा ! अगाडीके परूतमें जब न्यापासनपर विराजित हुवे चाहे वैसे कुशल लौकिके न्यायाधीशसे भी बहुत उच्च प्रकारका संतोपकारक उभय लोक सुखदायी कर्मशत्रुको नास देकर सभ्यम् ज्ञानदर्शन चारित्रादि अनेक सद्गुणाको पुष्टिकर-न्याय श्री सर्वज्ञ महाराजके पाससे मिलाने के वास्ते भव्य लोक सर्वदा भाग्यशाली वनतेथे, तब आजकल वही सर्वज्ञके विरुद धरनेवाले आचार्य-उपाध्याय प्रवर्तक या पन्यास वगैरः पीके घरनेहारे मुनीवर्गके पाससे उत्तम प्रकारके निष्पक्षपात इ-साफकी मग चकोर क्या उमीद न रखे ? अलबत्त २०खे ही रखे. असा होने पर भी जब उनकी परम पवित्र अहनीति मुजब पाहिये वैसा संतोपकारक न्याय न मिले, तब वै निराधार होनेसे किसके पास जाकर पुकार करें ? यह सब बात निगाहमें लेकर जिस तरह भव्य चकोरोंका दिल मसन और परम पवित्र शासनकी Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३९ उमती होवै उस प्रकार आप साहव समित समयोचित सत् पथमें आपके आश्रय लेनेकों आये हुवे और आनेवाले मुग्ध हिरन जैसे श्रावकवर्गका पालन पोषण कर अनेक भव्य सत्वो के द्रव्य और भाव प्राण बचाकर गोप, महागोप, नियमिक आदि विरुदको सार्थक फरोंगे, तभी ही इस वरूतमें पवित्र जैनशासनकी लाज रहेगी. शासनकी लाज बहानी सो आपकेही हाथमें है. मानपानकी लखटूट छोडकर केवल पारमार्थिक बुद्धिस शुद्ध वीतराग मार्ग स्वयं सेवन कर दूसरे आश्रितोंकों भी सेवन करनेकी फर्न पाउनेसेही लाज बढ सकेगी. परंतु जैसा चलता है वैसाही चलने दे, जैसा भावी होगा पैसा बनेगा वगैरः सत्य मार्ग सेवन करने से विनकारी विचारोंसे तो मायः अपनी ऐसी शोचनीय दशा हो गई है, ऐसी प्रत्यक्ष मालुम होती हुइ अपनी अवदशा दूर जाय और शुभदशा जास्त होवै वैसा भगीरथ यत्न सेवन करनेकी खास जरुरत है; तथापि जब अपन केवल प्रमादके तावेदार बनकर कुछ भी सानुकूल उधम नहीं करेंगे तो, कहिये साधो! अपनी शुभदशा किस तरह जाटत हो सकेगी? एक थोडासा काट निकालनेमें भी का सहन करना पड़ता है, तो यह तो दीर्घकाल के महा प्रमादयोगसे लिपटा हुवा जबरदस्त काट दूर करना ये फक्त पातही करनेसे नहीं बन सकेगा. ये कुछ लड़कों के खेल समान संहजहीम बन सके वैसा काम नहीं है. जब लोगसंज्ञा छोडकर लोकोत्तर शैली धारन करके राजहंसकी तरह उत्तम नीतिद्वारा सतत शुभा Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - २४० शयसे भगीरथ भय सेवन करनेमें आयगा तभी अपने शुभोदयकी संभावना हो सकेगी. अपना शुभोदय साधने के वास्ते जो जो साधनोंकी जरूरत है वो पो शुभ साधनोंका स्वरूप सद्गुरु द्वारा समझकर-विचार-मुकरीरकर पूर्ण प्रीति प्रतीतिपूर्वक उत्तम उल्लाप्तवंत भावसे उन्होंका सतत सेवन करनेके वास्ते विवेकवंत चकोरोको भूलजाना न चाहिये. अंतम संक्षेषपूर्वक सुज्ञ सजजनोंके हितके वास्ते यावत स्वपरके अभ्युदयद्वारा सर्वज्ञ शासनकी उन्नति बढानेके वास्ते निलिखित शुभ साधनश्रेणिका स्वरूप मुगुरु समीप जाकर सविनयस समझ और उसका पूरेपूरे तोरसे निर्णय करके उसी मुजव चलनेको यथाशति उद्यम करनेके वाले हंस जैसे गुणग्राही विवेकी सजनोको आया हुवा समय हाथ में जाने न देना चाहिये. १ 'संप वहांही जप' और कुसंपका मुँह काला' यह ध्यानमें लेकर कुसंपको काटने के वास्ते और सुसंपकों स्थापन करनेके - पास्ते अनुकूल सामग्री सजने के लिये भगीरथ प्रयत्न सेवन करना. मुसंप विगर अपना या पराया कल्यान सहेलतासें नहीं हो सकता है, और जैन शासनकी शोभा भी नहीं बढ़ सकती है। वास्ते पहिला कर्तव्य संप-क्यता करनेकाही है. २ दुःख पाते हुवे यानि दुःख पूरित स्थितिमें फंसे हुवे सा. धर्मीभाइ और भगिनीयोंको जितनी बन सके उतनी तन, मन, धनकी ताकीदसें आहूती देकर हो सके उतना उद्धार करना, और वोभी असा समझकर करनाकि उन्हीके हितहीगें अपना हित'. Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . २४१ तपस समाया हुवा है. परोपकार करना ये पुरुषार्थका प्रवल अंग है. धर्म धजिनके आधारसे रहता है. धर्माजनका नाश हो जाने फिर धर्म निराधार हुवे बाद कहां रह सकेगा ? असा सम्पम् वि. पार करके धर्मके अर्थीजनोंको धीजनोका यत्नसे संरक्षण करना उचित है. उस विगर धर्मको लोपका प्रसंग आ जाता है. साधीरुप शुभ क्षेत्रमें अपने द्रव्यरुप बीजकों विवेकयुक्त वोने वाला अनंत' लाभ मिला सकता है. औसा समझकर सज्जनोंकों जैसी उत्तम तकका लाभ अवश्य हाथ करनाही योग्य है. 3 उत्तम प्रकार के व्यवहार संबंधी और धर्मसंबंधी साधर्मीयों को अच्छा शिक्षण दैना यह सुशिक्षित सज्जनाको मुख तन मन या वचनद्वारा स्वार्थकी आहूती दिये विगर कपीभी पर: मार्थ साध्य किया जायगाही नहीं. औसा समझकर सज्जन यथासंभव अपने साधीभाइयों को मदद देनेके वास्ते उधमपंत रहते हैं.. धनवंत धनसे और बुद्धिवंत बुद्धिसें यथाशति मदद देनेहारे अनंत गुना लाभ उपार्जन करते हैं. ४ अपनी अंदर कितनेक साधर्मीभाइ देवद्रव्य, ज्ञानद्रव्य, या साधारण द्रव्य संबंधीकी जोखमदारांसें अनजान होनेसें बहुत स्त धर्मपुण्यके ऋणमें डूबे हुवे मालुम होते हैं, और उन्हीके दोष' के छोटे दूसरे साधर्मीयोंकों भी लगते हैं; वास्त पैसे भोले लोगोंकों युक्ति के साथ समझाकर, जरुरत मालम होवै तो उचित द्रव्यको सहायता देकर जिस तरह वे उपर कहे हुवे माणस छूट जाय Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - २४२ उस तरह अनुकंपा धारण कर वै विचारे अशजनोंको उद्धार करने के लिये सुज्ञ सज्जनोंकी मुख्य फर्ज है. પ વાલ્યાવસ્થાસિંહો નૈન વોટlો ( )જીयक शिक्षण देनेके वास्ते माता पितादि गुरुजनोंकी सबसे पहिली फर्ज है. अनुभवसे सिद्ध होता है कि, यदि जैन बालकोंको पहिलेसही विकश्वर होती हुइ बुद्धिक पसत बोजारूप न हो पडे पैसा योय नीतिका अच्छा शिक्षण दिया जाय, तो लायक उमर होनसें वही पालक उत्तम मावापका बिरुद धारन करके अपने और दूसरोंका बने वहांतकका सुधारा करने में न चुकेंगे, पास्ते उस तर्फ खसूस ध्यान देनाही मुनासीब है. बाल्यावस्थामें योग्य नीतिका शिक्षण लेनेमें बेनशीब रहे __ हुवे अपने जैन युवकों को धर्मतत्त्व सम्बार समझानेके वास्ते भी अच्छा बंदोबस्त ताकीदीसें करदेनेकी खास जरुरत है. विकसित बुद्धिवाल युवकाका यदि न्याय युतिक साथ पवित्र धर्मतत्त्व समझानेमें आवे तो वै तुरंत समझ लेके सुलभतासे स्वीकार कर लेते हैं. बुद्धिहीन वैसा नहीं कर सकते हैं वैसा समझकर जैन युवकोंकों शासनोन्नतिकी खातिर तत्त्वशिक्षण देनेके वास्ते योन्य बंदोबस्त करनेकी जरुरत है. जैसे अशिक्षित या कुशिक्षित युवकोंकों मज चूत लाभ देने वाले विवेकी सज्जनोंको विचार करने की खास ___ आवश्यकता है. ૭ વાલ્યાવસ્થા ગીર ચૌવનાવસ્થા દ્વાર ધર્મ શિક્ષણ Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४३ हाथ करनेमें वेनशीद रहे हुवे अर्धगत उमरवाले तथा बुभाई और भगिनीऑकों धर्मरहस्य समझाने के वास्ते प्रतिबंध रहित गाँवगाँवमें विचरते हुवे महाशय साधुवर्ग या साध्वीवर्ग आप खुद शास्त्राभ्यास करके, शास्त्राज्ञा मुजब शुद्ध संयमकी दरकारवाले वनकर स्वाश्रित श्रावक, श्राविकाओंको धर्मरहस्यको पूर्ण समझ पडे पैसी सादी सरलभाषामें उपदेश देना शुरू कर लेबै, और दूसरी कितनीक निकम्मी पावता-विकथाओंमें अपना अमूल्य वसत जाही न गुमाते उसका पारमार्थीक हेतुसे सदुपयोग कर लेवै. उन्हों. को जैनोके पवित्र आचार विचारकी समझ पाड देवं, उन्कोंके बुरे रीत रिवाजके दुर्गुण सुल्ले कर पतलावै, भक्ष्याभक्ष्य कृत्याकृत्य संबंधी खुलासा कर दिखलावै, धर्मक्रियाके हेतु समझाकर जिस प्रकार वै नियाणा रहित निर्मल चित्तसें करने में आती दुई धर्मकरणीका रहस्य पाकर, प्रभुजीकी पवित्राज्ञानुसार धर्मका आराधन कर सद्गतिके भोक्ता होसकै, उस प्रकार चलन रखनेकी दरकार १७खें, तो सुलमतासें अच्छी सुधारा हो सकै. एक समान चलन व कथनयुक्त चलते हुवे मुनीराज भव्य प्राणियोंका तत्त्वसें जितना भला कर सकै, उससे सोवें हिस्सेका भी रूसी कथनी मात्रसें नहीं किया जायगा. और ऐसा कहा भी है कि-'जन मनरंजन धर्मका, मूल्य न एक बंदाम.' यानि लोगोंकों राजी करने के वास्ते ही वेष धारन करना वो तो फक्त कटरुपही है. संत सुसाधुजनोंका सर्वप्न मात्रसें कितनेक अल्पकी जीवोंका पहेतर हो सकता है, Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४४ . उस वास्ते अगत्यका कथन है कि-' कहने करते करके बतलानाही अच्छा.' मोक्षार्थी-मुमुक्षुजन सद्वर्तनवाले शुद्धाशय संत सुसाधुजनाका बहुत मानपूर्वक सेवन करते हैं. इष्टफलकी सिद्धिक वास्ते कल्पवृक्ष-कामधेनु-सुरमणि या भंगलकलश जैसे उ. माहात्माओका सद्भावसें आश्रय लेते हैं. अनेक मोक्षसुखके अर्थी सज्जनों के आश्रयरु५ आप साधुजनोंको कैसी उमदा चालचलन रखनेकी जरुरत है. वो सहजहीमें समझा जाय वैसा है. . .८ तालीम-व्यवहारिक और धार्मिक ऐसे दोनुमकारकी मज पूत तालीम देने की जरुरत है. अचलकी प्राथमिक तालीमके किरजोसें तत्त्वजिज्ञासा प्रकट होती है, उसे योग्य पोषण मिलजानेसें . सत्य तालीम विकसित हो सकती है. कि जो परिणाममें अपना पराया हित सिद्ध करसकती है. पास्ते उदार सखावतें करके ये खातेको आजकल यशस्वी करनाही दुरस्त है. उनमें जितनी वेदरकारी उतनाही र५परको नुकशान है, ९ निकगे लखलूट खर्च-फजूल बावतोंमें जो हुवा करतो हैं वो उसी द्रव्यके अंदरको कुछ हिस्साका, उपयोगी मजबूत तालीमके वास्ते और दुःख दुर्दशावत क्षेत्रोंको अच्छी मदद देनेके वालो यदि खर्च करनेमें आवै तो तो उमीद है कि कम ज्याद वरूतमें भी अपनी स्थिति सुधर सकेगी. वास्ते लाजिम है कि, अपनी अपनी ‘पदासके मुजव दरसाल ऐसे धर्मकार्य सुधारनेके वास्ते कुछ Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दा-डम रकम देकर अपने जैननामको सार्थक करना चाहिये. कि बहना? ____१०१तकी किमत अपने लोगोंको चाहिये उतनी समझने नहीं आई है, उसे 'क्षण लाखिणो जाय, गोयम मकर प्रमाद' वगैरः "मृद्धवाक्य अपन सुनते हैं, कहते है, तोभी उनके करोडपे हिरो भी नहीं चलते है. विकथा, विरोधादिको निकमा पस्त गुमाडालते हैं; किंतु श्रेष्ट शास्त्रका अभ्यास करने में या अच्छा संप करानेवाली — उत्तम सलाह देनेरु५ परोपकार वृत्तिमें अपने पख्तका सदुपयोग नहीं करते है, ये क्या ओछे शोची पाता है ? मानवमय आदिकी सामग्री वारंवार मिलनी -बडी दुर्लभ है, तथापि अपन बेदरकारी रखकर मरजी मुजब चलन चलानेसें सर्वस्व गुमाकर रीते हाथोंसें मजल करनेके जैसी कार्रवाही करते है ये बहुत दि___ लगीर होने लायक है. अपनी निर्मल बुद्धिका, अगर जो जो अ५ नको शुभ सामग्री प्राप्त हुई होवे उसका जिस तरह उपयोग होसके उस तरह करलेनेमें कटिबद्ध रहना चाहिये. क्योंकि कालका कुछ भी भरोसा नहीं 'कलको कालका डर है' यह कहावत न भूलजानी चाहिये ज्यों अपनको तत्वज्ञान प्रकट होता जाय, त्यों श्रीसद्गुरू द्वारा शाख श्रवण करके यावर उस वचनों को पूर्ण प्रकार मनन कर यथाशक्ति स्वकत्तव्य समझकर उसी मुजव चलन रखनका प्रयत्न करना चाहिये. ज्ञानी पुरुपके सचार और सदाचारोंको देखनेसे अपनको कितना दिलगीर होना चाहिये ! अंतमें यथाशक्ति, Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४६ शुभकार्यमें यत्न करके स्वजन्म सफल करना चाहिये, नहीं तो संसारचक्रम पुनः पुनःभ्रमण करनेसे वडी भारी खरावी होवेगी. साधीनतासे वस्तका मूल्य समझकर उनको सदुपयोग किया जायगा તો સામે પાધિનતા નહીં સહન ની જહેમી બાંત યુપી संबंध है, वहांतक यदि शोच विचार करके सन्मार्गपर पड गये तो सुखी ही होयेंगे. नही तो दुःखकेही दिन हमेशा गुजारने पडेंगे. __ अब सुज्ञगनोंको इसे ज्यादा क्या कहै ? क्षण क्षणपर आयुष घ___टता ही जाता है. जो पल चली गई सो फिर पीछी आनेकीही नहीं, जैसा समझकर आगुंसेंही चेत लेयेंगे, वैही स्वहित साधकर फतह हाथ करेंगे और दूसरे अविवेकी उपेक्षावंतकों तो दुःखका पात्र ही होना पडेगा. " ११ अपने जैनोंमें मिथ्यात्वी लोगोंका गाह परिचय होनेसें, और सम्यग् ज्ञानके वियोगसें कितनेक बुरे रिवाज व रीति सम जडमूल डालकर घुस गये है, उसको निकालडालनेके वास्ते अभूल्य वख्तका भोग देकर भगीरथ यत्न करनेपर भी नहीं निकलते है, तो भी उनको निर्मूल करने के वास्ते निरंतर प्रयत्न शुरु रखनेकी ही जरुरत है. ज्यौं ज्यौं वै वै हानिकरनेवाले रीति रिवाजों के संबंध उत्तम तरहकी व्यवहारिक तथा धार्मिक तालीम मारफत अपने जैन ज्यादे वाकेफगार होते जायेंगे, त्यौं त्यौं वै अपने ही फायदेकी खातिर उन्होंकों छोडते चले जायेंगे. इस संबंध सुशील साधु साध्वी समूहकी अच्छी मदद मिलनेकी आवश्यकता है. मुग्ध Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૪૭ दूर जैनोंकों ऐसी बातें खास करके समझाकर छुडादेनी ये उन्होंका લાસ ત્તવ્ય હૈ; યા િયઈ વાવતે ધર્મમાનમેં નાં તાં દૂર્જત કૉलती हैं, वै हो जानेसें उन्होंकों धर्ममार्ग, सरल हो जाता है, और करनेमें आतांहुवा धर्मोपदेश सब सफल होता है निष्पही और विवेकी मुमुक्षु वर्गों इस संबंध में ज्यादे नही कहना पडेगा. १२ आजकल अपने जैनवर्ग में विद्या संबंधी तालीमकी बडी भारी न्युनता होनेसें अपने या दूसरे के कल्याणकी खातिर योग्य शुभ विचार करनेकी ताकत बहुतही कम मालुम होती है. इससे करके वै कवचित् बारीक समय आतेही बहुत बहुत धभराते है. इनके लिये उमदा इलाज तो यही है कि, जो जो हितवचने सुनमें आवै या वांचने में आवै उनका योग्य चितवन करनेकी आदत पाडनी चाहियें और स्वच्छंदता छोड़कर ज्ञानी पुरुषो के वचनानुसार चलन रखनेमें अपना पुरुषार्थ स्फुरायमान करना, यो करतें करतें परिणाममें वहुत अच्छा फायदा होनेका संभव है. अपने सब जैनोंके अभ्युदय हितार्थ जो कुछ संक्षेपसें कहा गया है उनकी सफकता प्राप्त होनेका वख्त हाथ होवो ? अस्तु ! asw Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ २४८ Tru . Lil - जैन श्वेताम्बर गुगुक्षु वर्गको राम विज्ञप्ति. " अपना सुधारा" (SELF IMPROVEMENT.) __ मेरे प्यारे भाई और भगिनीयों ! अपने अपनाही सुधार करनेके लिये कौन आयगा । क्या सिद्धिसौधर्म सिधाये हुवे सिप भगवान किंवा अर्हत् प्रभु या सुधर्मास्वामीकी पह परंपरामें होगये हुवे आचार्य महाराज या उपाध्याय महाराज या तो सुविहित मुनिमंडल आकरके अपना सुधारा कर देखेंगे ? अपने पवित्र शासनकी मर्यादा मुजब सिद्ध भगवानतो अपना निरुपाधिक मुक्तिस्थान छोडकर यहांपर कवीभी अन्यदर्शनियों के मानने मुजब आनेके हेही नहीं, उसे वै संपूर्ण सुखी होनेपर यहां अपना सुधारा करनकों पधार जैसी उमेद रखनी सो तो झुंठीही है. अरिहंत भगपानभी जैसे पंचम-विषम-दुपमकालमें इस क्षेत्रकी अंदर प्राप्त नहीं हो, ये भी आप भाइ बाइ अच्छी तरहसें जानतेही हो शेष वर्गपुरीमें सिधाये हुवे आचार्यादिक महान् पुरुषोंकी भी अपने - अत्यंत प्यारे परलोकवासि पूज्यपितादिककी तरह यहां अपने सुधारेकी खातिर आनेकी आशाभी निकली हैं. तब मेरे प्रिय भाइ भगिनीय ! अपने आपका सुधार करने के लिये अब किसकी आशा रखनी कि जो आशा किसी वस्तभी सफल होवै ? अहा ! मेरे पारे ! सचमुच मैं तो समझता हूं कि अपन कस्तुरीये मृगकी तरह Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ...,२४९ तन मुग्धतासे बहार व्यर्थ भटक रहे हैं. सुगंधका समूह अपनी अत्यंत समीपमें है तथापि अपन उससे अनजाने होकर - दूर, दूर __ और ठौर भटकते हैं. महाराज आनंदधनजीने कहा है कि:___" शिरपर पंच वासे परमेसर, वामें सूच्छम बारी; . . आप अभ्यास लखे कोइ विरला, निरखे की तारी." सें पंचपरमेष्टि रुप तत्वसें आपही है तोभी केवल - विभ्रम द्वारा अपना आगा उलटा दौडता है, जिससे दिनपर दिन स्वहित न करतें अहितमें ही वृद्धि करता है. वही योगीश्वर आनंदधनजी " आशा मारी आसन घरी घटमें, अजपा जाप जपावै . आनंदधन चैतनमय मूर्ति, नाथ निरंजन- पावै." ___ सच्ची वरतु . आपकी पास होनेसें, और उसीकों ही तालिम लेकर उसीका अनुभव करनेकों भाग्यशाली बन सके पैसा है तदपि वेदरकारीसे या विभ्रमसें विपरीत आत्म अहितकारी जडवस्तु ओंमें माहित हो जाने से ये जीव अपना कितना सत्व श्रेय गुमा बैठते हैं या विगाड़ देते है वो कहानाय वैसा नहीं है। प्रमाद परश होकर चोगर्द लगे हुवे अग्निवाले मकानमें लंबी सॉड खींचकर सोनेवालेकी तरह सॉथा हुवा है. विलकुल भी डर रखकर अपना संचा स्वार्थ साध लेने के लिये तत्पर नहीं होता है. किपाक फलकी तरह देखने में मनोहर, खानेमें लहेजतदार और शुरुमें आनंदकारी मगर आखिर महान् विरस विषयामें अत्यंत आसक्त बनकर म Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५० हान् दुर्दशा पाता है. आपके पूज्य पूर्वज सुशीलताके जो सख्त नियमोंकों अनुसरतेथे उनकों अलग रखकर केवल मरजी मुजब कुशीलजनीकी सोबत कर कुशीलताको सेवनकरने लगे हो, आपके या अपने पूज्य पूर्वज जब सुशीलजनोंको कल्पवृक्ष कामकुंभ या मंगलकलश अथवा कामधेनु-सुरधेनु और चिंतामणिरत्न समान गिनकर समझसह आदरपूर्वक सेवन करतेथे, और स्वहित सीधनक वाले वैसे सत्पुरुषोका शरन लेतेथे, तब आजकल तो दृष्टिराग जोरस बहुत करके उस्से विपरीतही मालुम होते हैं. पहिले के पुण्यशाली जन गुणरत्नोंको झौहरीकी तरह परख लेतेथे, और अभीके अर्धदग्ध उससे उलटाही करते हुवे नजर आते हैं। इससे दिनपरदिन परिणाम बुरा आता हुवा नजर आता है; क्योंकि'गतानुगतिको लोको, न लोकः पारमार्थिकः' गाडरीयेप्रवाहकी तरह ज्यौं चले सौ चलेही चले. परमार्थ देखने करनेका कुछ नहीं रहता है. इस तरह अपना श्रेय नहीं सधाया जावै. अपने श्रेयका उत्तम रसता तो यही है कि-अनादिकी अतिमिय स्वच्छंदता छोडकर परम पवित्र सर्वज्ञप्रणीत शास्त्रोंकों मान देकर स्वपरको तिरानेमें समर्थ सद्गुरुओंकी अति नम्र भावसे सेवना करके उन्होंकी अमृतसमान हित वानी समझकें अति आदरसे कर्णपुरद्वारा पी पीके पुष्ट बनकर उनके फलरुप अपनी अनादिकी गफलतमें चली जाती हुई भूलें सुधार-उनको अच्छितरह जानकर, उनको त्याग करनमें तत्पर हो, त्यागकर, उत्तम गुणगोका निधान जो अपनेही Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सनिधिमें अनादि दोषोंसे ढका गया हुवा है उसीकोही प्रकट करना, यही सत् संगतिका फल है. हरएक मावाप उपर मुज सद्गुरुद्वारा शास्त्र श्रवण करके या अभ्यास करके उन अंदरकी हितशिक्षायें हृदयमें धारन कर अपनी पूर्वकी बुरी आदत-भूले सुधार करके अपने पाल वच्चाओंको परावर सुधार न सकेंगे; क्यौं कि उन्होंका संस्कार न पायो हुवो हृदयमें दूसरेको सुधारनेकी फिन कहांस पैदा हो सके ? आत्मसुधारके अति स्वादिष्ट फल चाखने में आपखुदही पेनशीव रहे हुवे दूसरोंकों किसतरह भाग्यशाली बना सके ? " जिसका अगुआही अंधा उसका लश्कर कुमें ही गिरता है." इस न्यायके अनुसार उन्मार्गपर चलती हुइ स्व संततिको कौन रोक सके ? उगार्ग पर चढकर पायमाल होती हुई आपकी संततिकाही भला या. रक्षण करनाही जब अशक्य है, तो फिर इतर सव संतति-मजाका भला या रक्षण करने की तो पातही कहां रही ? पारीकीसें तपासनेसें स्पष्ट मालुम होकर समझनेमें आ सकै वैसा है कि हरएक घर कुटुंब-ज्ञाति-जाति या समस्त कोमसमुदायका सुधारा के लिये उन हरएक हरएक अग्रेश्वरों को सुधरनेकी खास जरुरत है. अच्छे राहपर अच्छी और सरल सुधारेकी ये कुंजी अति उपयोगी होनेसें वे हरएकको खसूस लक्ष्य में लेने लायक है. - मापाप वगैर: गुरुजनका सच्चा सुधारा हुवे विगर कभी-गृहसुधार। हो सकेगाही नहीं, समस्त गृहसुधारा हुपे बिगर कभी Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .२५२ उमदा कुटुंबसुधारा हो सकेगाही नहीं, और समस्त झाति जाति... के उमदा सुधारे बिगर समस्त कोम-समुदायका, सुधारा चाहिये वैसी उमदा रीतिसे कभी न हो सकेगा. औसा सामान्य नियम .. अपनको प्रत्यक्ष अनुभव गौचर हो सकता है. जिस घरमें विद्या....रसिक विवेकी वृद्ध वर्तत होतेहै उसी घरमें बहुत करके संबसंतति गुणशालीही होती है, इसी मुजप आगे सर्वत्र समझ लेना. जैसे लो. किकमें वैसेही लोकोत्तर-मुनिमार्ग भी समझ लेना. जिनसाधुसभुदायमें नायक गणाध्यक्ष उत्तम होगा यानि सम्पम् ज्ञान दर्शन चारित्र आराधनेमें हमेशा तत्पर-हर्षचित्तवंत होगा, उनका शेष परिवार भी बहुत करके वैसाही होगा. लेकिन जहां अंग्रेश्वरही निगुणी-पंच महावतरुप पंचमहा प्रतिज्ञाों अर्हतादिक समक्ष करके वमनभक्षी श्वान-कूतेकी तरह छकायका हरहमेशा नाश करावै, झूठ पोल, नदी हुइ पराइचीज लेवै-लिपावै. मैथुन सेवै सेवाब. (चितामणिरत्न साइश दुर्लभ शील आप खंडन करे और महा पापमति हो औरों का खंडन करावै.) परिग्रह-महा अनर्थकारी द्रव्यादिक मू५ बाह्य और मिथ्यात्व कषाय काम सेवादिक आ. 'भ्यंतर परिग्रह आप रख-रखावै. यावत् 'बिटली हुइ बमनी तुरकडीसेंभी जाय उसी मुजब खुल्ली रीतिसें रात्रिभोजन कर, जुगार खेलै, कंदमूलादिक अभक्ष्य भी भक्षन कर, शिरमें सुगंधी तेल siलकर बालोंको समारै, आयनेमें मुँह देखे, कल्पपादपादिक सदृश संतशिरोमनी गुणराकर सुविहित साधु मुनिराजोंकी अवगणना Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५३ करें - असी अति अधम निंदा पात्र जिसकी स्थिति बन रही हावे. હસ્તા પરિવાર માં વદુત્ત वर्षे ली जासके वैसीही है. જે પૈસાદો હોવ યજ્ઞ વાત માઁ અનુમ- ܥܚ अलबत आजकल साक्षात् तीर्थकर, गणधर सामान्य केवली अवधि, मनः पर्यवज्ञानी, चौदह पूर्वघर, दश पूर्वधर, यावत् एक पूर्व घर के विरहसे सारे शासनका आधार पूर्व महा पुरुषोंने पर्षदा समक्ष प्ररूपे हुवे परमागम - उत्तम शास्त्र और परमपवित्र तीर्थकर भगवानादिककी प्रतिमाजी ऊपरही है. वही आगम और पावन प्रतिमाजीओका यथार्थ रहस्य बतानेवाला मुख्यतामें अधिकारी निर्भय सुनिवर्ग ही कहा गया है. यह अपार संसार सागर तिरने तिरानेमें समर्थ जिनशासनरूपी सफरीजहाजको बराबर गतिमें चलाने में सुविहित आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्त्तक, स्थविर और મખાવઋદ્રાતિ જે વડે ધારી વાળાં મુનિયોંજી નદ समझने में आते हैं, और बाकीके साधु साध्वी, श्रावक, श्राविका के. समुदायको सायांत्रिक उक्त महाशयोंकों - अवलंब ये अति भीપણ મર્ચે સમુદ્ર હોય તો મોક્ષપુરી ખાનોં વા કુવેછે ભાવાંજો जगह, गिमें आये हैं- आते हैं. स्पष्ट रीतसें समझा जाता है किं सबसे ज्यादे जोखमदारी गिनाते हुवे सुकार्नाओंके शिरपर है उन्होंकी हरीफाइमें दूसरे तदाश्रितों का बडा लाभ समाया हुवा है. सुकानियें महान् जोखमवाले होदेके बराबर लायक हो या पूर्ण - लायक होने लायक प्रयत्नपर रहकर केवल परमार्थ बुद्धिसंही ग्रहण 3 Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करने योग्य ये अति उत्तम होदेकों मिथ्या मानादिकमें अंध न होत अथवा किसी प्रकारकी भी झूठी लालचमें न लिपटात तदन निस्वार्थ बुद्धि रखकर पूर्व महापुरुषोंसे आत्म लघुता भावत भावत ग्रहण करके तदनुकूल अपनी कुलफज पूरी खतसे बजाय, भ५ भीरता धारनकर किसी तरहकी उन्मार्गी देशना या स-गार्ग लोपनवात्ती न कहते हुवे प्रतिरोज जयवंता वर्तता हुवा जिनशासनको पुष्टि मिल सके पैसे सावधानपनेसे पंचाचारादिकम तत्पर रहवे, तो बेशक जरूर पवित्रशासन के प्रभावसे और अपने सद्भावके योगसे ये प्रत्यक्ष अनुभवमें आता हुवा महा भयंकर चतुर्गति०५ संसार-समुद्रको तिरके दूसरे अनेक भव्य सत्वोंका भी ये दुःखो दधिसें तिरानेमें समर्थ होसकै. इससे सुकानियोंका अति उमदा मगर जोखमवाला आधिकारको अपनी योग्यता ल्याकत बिगर आप मतिसे आदर लेनेसे परिणाम स्वपरको बडीमारी नुकशानीमें उतरना पडता है, इस मुजय उपदेशमालादिक अनेक प्रमाणिक शास्वकार कहते हैं। तब इस परसें ये सिद्ध हुवा कि पवित्र शासनकी रसा और पुष्टि के लिये अति उत्तम सुकानीओंकी खास जरुरत है, चै यदि अच्छे पवित्र शास्त्र रहस्यके ज्ञाता हो, पवित्रशासनकी जाहोजलाली के लिये अतिगहरी खंत-फिक्र रखते हो, और चाहे वैसे नियम संयोगोको लेकर कदाचित भइ हुई शासन मलीनताको दुर करने के लिये जिन्होके अंत:करणमें पूर्ण खंत-उर्मी हो, सभी शासन रसिक साधु-साध्वी-श्रावक-श्राविकाओंकों औसर उचित, उनको Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५५ सुहावना लग पैसा सदुपदेश देकर उन्होंकी धर्म संबंधी उमीयोंको सतेज कर, और किसी विषम संयोगसे धर्मसें पतित हो गये हुका ज्यौं पुनरोद्धार होचे त्यौं परम करुणारससे प्रेरित हुई पूर्ण खत कर ये आदिक असंख्य गुणगणालंकृत हो अपने सुभागी सुकानीये धार लेबै तो दुनिया कोई न कर सके वैसा परम आश्चर्यभूत काम कर सके. अलपत अपने पवित्र शासनके ऐसे मुकानि अपने सद्भाग्यवलसे जात होवै तो वै तर्फकी अपनी फर्ज भी अपनको जरुर अदा करनी चाहिये. अक्षरशः परम पवित्र परमात्माकी आज्ञापत् वै महाशयोंकी आज्ञा मुजब अपनको अति नम्रतापूर्वक अनुसरही चलना चाहियें, पूर्ण श्रेय साधनेका सीधा भाग यही है. हाँ तक पवित्रशासन तर्फकी अपनी फर्जे और उसी के साथ अति निकट संबंध घरानेवालोंकी तर्फकी अपनी फर्ने अपन समझेंगे नहीं, या समझने कुछ आनेपरभी प्रमादादिक पर१२६ हो अपनी योग्य फज अपन अदा करेंगे नहीं, वहांतक अवश्य अपनही हानि पाचंगे. मिथ्यामानमें मोहित हो एक दूसरेकी परवाह न रखत परवाह रखनी ये विनयमूल पवित्र शासनकी रीतिस १६न उलटा मालुम होता है. उस मुजब आपखुदीसें वर्तन चलानेसे कभी अपना श्रेय होने का संभव नजर नहीं आता है. अपनने धर्म के प्रभावसेंही सब कुछ सुख संपत्ति पाई है। तो भी उस उपकारी धर्मका उपकार भूलकर उन तर्फकी अपनी योग्य फर्ज न पजाते हुवे अपन मोह मदिरा कैफमें अपना कर्तव्य बाजु Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६ पर छोड मदांध या रागांध बनकर तदन विपरीत वर्तन चलाव तो अपने स्वामी-धर्मका द्रोह करनेहार अपनके क्या हाल होयेंगे ? पास्ते मुनाशिव है कि-अपनको परम उपकारी श्री धर्मको खातिर __ अपने तन, मन, धन, अर्पन करने में पीछा पांव न परत जितनी बन सकै उतनी उन्नति-प्रभावना करनी चाहिये. निग्रंथ महात्माओंकों समुचित है कि अपने पीछे लगे हुवे शुभाशयत साधु साध्वी श्रावक-श्राविकारुप श्री चतुर्विध संघकी ज्यौं उन्नति होवै त्यों नि:स्वार्थ-निराशी भावसें भवनिा चाहिये. श्रीसंघकी सच्ची उन्न तिकी नीव उन्होंमे परस्पर सुसंप-साथ आचार विचारकी शुद्धतामें रही हुई है। वास्ते मुनाशिव है कि पवित्र मुमुक्षु वर्गफी ज्यौं श्री संघमें सब जगह सुसंप सुदृढ होथे, और ज्यौं उन्होंमें पवित्र आचार विचारकी शुद्धि सुहट होवै त्यों करने के लिये आपस आपस मुमुक्षु वर्ग ही पहिले अति उमदा दिलसें औषयता कर-अक्यता बढाकरके आपके अंदरही पहिलं पवित्र आचार विचारकी चाहिये वैसी उमदा दिलसे शुद्धिकर सद् वर्तन दिखलादेनाही मुनाशिव है... लेखक दिखला देनमें अति दिलगीर है कि-आजकल ज. मुमुक्षु वर्गही अक्यताको नहीं चाहते हैं या उसी वर्गही अॅक्यता... दूर होनेसें जगह जगह अव्यवस्था फैल रही है तो आपका निस्तार करनेमें उक्त मुमुक्षु वर्गकाही आलंबन लेनेहारे श्रापक वर्गका तो. __ कहनाही कया ? बहुत करके मुमुक्षु वर्गकाही नाम जैन सांप्रदायमें पदेश रुपसे प्रसिद्ध है. यदि उपदेशक वर्गमें अक्यता हो तो Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ર૧૭ इच्छित कार्य उपदेश द्वारा कितनी सहेलाइसें साध सकै ? यदि उपदेशक वर्गका केवल परमार्थ बुद्धिस पवित्र शास्त्रानुसारसही द्रव्य, क्षेत्र, कालादिक विचार कर श्रोतावर्गको समझ बुझ पडे वैसा स. २० सादी मीधी भाषामें उपदेशद्वारा कथन किया जाता हो तो उपकारमें कितनी बड़ी भारी द्धि हो सकै ? मंद परिणामी-शिथिल गवडिये साधुओंके संगसे जो सड़ा हो गया होवै वो किस तरह जल्दी निर्मूल हो सकै ? उत्तम प्रकारके त्याग वैराग्य धारन करके विवेक पूर्वक शासनके सच्चे लाभकी खातिर गहेरी खत और फिक्रसें उपदेश द्वारा प्रयत्न किया जाता होवै तो कैसा अ. नहद लाभ हो सकै ? मिथ्यात्वीओंकी सोचतसे, अज्ञानताके जोर से, या चाहे वैसे निर्जीववत् सबके लियेसे जो जो बुरे रीत रिवाज घुस गये होवे, अपने सच्चे आचार विचार भूलाया गया होवे और व्हेमोंने घर पाल दिया हो, वो सभी निर्दभ मुनि उपदेशबलस कितनी सहेलाइस सुधार सके ? जब मुनियोंम औक्यता-संप और योग्य आचार विचारकी शुद्धिसें पवित्र शासनकों और पवित्र आसनरागी जनोंका असा अपित्य अनुपम लाभ हाथ आ सके साहै, तो पीछे मेरे प्यारे भ्राता और भगिनीय भागवती दिक्षा प्रहण कर लिये परभी; अगार (ह) छोड अणगारपना अंगीकार कियेपरभी, राग द्वेष मोहादिकको हानेके वास्ते गांव-नगर-शाति: अटुंब-कवीलादिकका प्रतिबंध छोड देने परभी, और आखिर मानापमान छोड मुख दुःखको समान गीनकर सभी परिसह उपस Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गोको सहन कर श्रीधीतराग प्रभुजीकी निष्कपटतासें आशानुसार चलकर अपने अनादि मलीन आत्माको निर्मल करनेका खास निश्चय कियेपरभी, क्षणभरमें वो सब भूल कर अपनी आत्मा उलया मलीन हो आर पार गतिरुप संसारसमुद्रमें पुनः पुनः पर महा दुःखका हिस्सेदार होवे असा पवित्र मभुजीकी आमाको उ. लधन करके अपनको करना क्या उचित है ? ___ परमकृपालु प्रभुने अपनकों निरंतर मैत्री, प्रमोद, करुणा और उदासीनता ९५ चार उमदा भावनाओं भाव अपने अंत:करणको निर्मल करनेका कहा है. अनित्य, अशरण, संसार, एकत्य, अन्यत्वादि बारह भावनाओं हरहमेशां भावकर अपना पैराग्य सतेज करनेका फरमाया है, और पंचमहावतोंकी २५ भावनाओं रोजरोज भावकर संयमकी रक्षा करनी कही है, वो क्या तदन अपनको भूल जाना चाहिये ? नहीं कभी नहि ! मेरे प्रिय भाइभगिनी ! ये अपर्ने हृदय५८के उपर खास कोतर रखना और निरंतर लक्ष रखना योग्य है कि परम पवित्र जनशासनके मजहबी कानुन् मुजब अपनकों जीवमात्र तर्फ मित्रभावसें देखनेका या वर्तनका है. पवित्र शसिनरसिक-शुद्ध गुणवंत गुणानुरागी तर्फ अपनको प्रमोदभावस देखनेका या वर्तनका है. द्रव्यादिकसें दुःखी हो दुःख पाते हुवे साधीकादिकोंकों यथाशति द्रव्यादिकसे और चाहे वो अन्य विषय संयोगसे धर्मपतित हो गये हुवे या पतित होते हुवे. या. धर्म न पाये हुवैको शुद्ध वीतराग धर्मतत्व समझाकर पवित्र धर्ममाप्तिरु५ Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५९ उत्तम करणाद्वारा मदद देकर उद्धार करने की अपनी मुख्य फर्ज है. केवल धर्मविमुख अनार्यत्ति पाप रति माणियोंकी तर्फ भी द्वेष न लातें उदासीन भावसही देखना या वर्सनेका है. अपने सत्य श्रेयका मार्ग तो करुणावंत देवने यही पतलाया है, और उनकी आदरनमें अपनकों का भी नहीं पड़ता है, उलटा परम सुख प्रकटता है. सर्वत्र उक्त मर्यादासे वर्तन चलानेसे स्वपरमें सुख शांति फैलती है. पवित्र 'आचारपरायण प्राणी इन लोकमें चंद्र समान निर्मल यश पाकर पीछे परत्र भी सुख पाते है. इनसे विरुद्ध वर्तन रखनेसें इस लोकमें प्रकट अपवाद अपयश मातकर परमवमें महान् अनर्थ पाता है. एक सामान्य राजाका हुकम न माननेसे बडा भारी अनर्थ प्रकटता है, तो केवल अपने हितकी खातिर परम करुणासें प्रकट हुइ त्रिजगपूज्य श्री तीर्थकर प्रभुजीकी पवित्र आज्ञाका स्वच्छंदतासे उल्लंघन करनेसे कितना भारी अनर्थ होनेका ! वो मेरे प्यारे नाता भगिनीयोंको अच्छी तरहसें सोचना लाजिम है. सम्या विचार करके गैरमर्यादासर होता हुवा आपखुदीका तदन विपरीत पनि विलकुल छोडकर परम पवित्र प्रभुकी अति उत्तम आज्ञाका पूर्ण प्रेमसे सेवन करना दुरस्त है, पीछे पूर्णश्रद्धासें प्रवर्त्तनेसे प्रतिदिन 'अपना अभ्युदयही होता हुवा अपन देखेंगे. जो सच्चे सुख शांति अनुभवने के लिये अपन अपगार हुवे है. तो अनुभव लेनेका दिवस अपनको तभी हाथ आयेगा कि जब अपनने परवस्तुमें Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० खोटी मानलीहुई ममता अहंताको छोडकर अपने शुद्ध आत्मद्रव्यमेही अहंता, और शुद्ध ज्ञानादिक गुणोंमही ममता लावेंगे. ऐसा सविक लाने के वास्ते हमेशां हरकत करनेवाले सबोंको दूर कर साधक सबोंकोंही सजने चाहियें. यदि अपने हृदयमें सान होवै नो ऐमा अनुपम चिंतामणि समान, दश दृष्टांतसे दुर्लभ-किसी पूर्वके योगसे प्राप्त भया हवा ये अमूल्य नरभव अपन वृथा न खोदेना चाहिये; किंतु जितना आत्मवीर्य स्फुरायमान किया जा सके उतना स्फुरायमान करके बन सके उतनी सुकृत कमाइ कर लेनी चाहिये, जिससे करके अत्र और परत्र सुख शांति प्राप्त होवै. परम कृपालु परमात्माकी पवित्राज्ञाका आराधन करना ऐसा अमोघ लक्ष्य करना चाहिये. कि दरम्यान सेवन करनेमें आते हुवे धैर्य, गांभिर्य, औदार्थ, क्षमा, मृदुता, जुता, निर्लोभता, निराशंसता और सत्य विवेकतादि सद्गुणोंकी श्रेणिको देखकर भग चकोर प्रमोद पूर्वक पूर्ण प्रेमसे उसका अनुमोदन करै. इतनाही नहीं; मगर वै भी उ. सदगुणश्रेणिको अंगांगी भावसे भेटकर अपनी भविष्यका मजाक वास्ते वो अति उमदा और अमूल्य वारसा छोड जांय. __ अहा ! मेरे प्यारे भाइ भगिनीयें ! यदि प्रमादशत्रुको छोडकर परम मित्र समान परमात्माकी पवित्राज्ञाको प्रेमपूर्वक तन, मन धनसें आराधनेको तत्परता भज ले तो अहाहा ! शासन कैसी जाहोजलाली भुकते ? सकल मुमुक्षु वर्ग साधु साध्वीयें ऐयतास पवित्र आचार विचारकी शुद्धिसे द्रव्य और भावसे कितने सुखी Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हो ? और इस मुजव ऐक्यता रुष अखंड जंजीरसे संबंध भने हुवे और वीतरागमणीत शुद्धाचार विचारको सेवनसें प्रसन्नाशय धारनकर वै महात्माओं साक्षात् जंगम करपक्षकी श्रेणीकी तरह अपनी अति शीतल छायासें संसारतापसे खिन्न होकर भावशातिके लिये आश्रय लेनेकों आये हुवे सुश्रावक-श्राविका वर्गको सदुपदेशरुष अमृतफल पखाकर कितना भारी आनंद देनेको शक्तिपत हो सके, इस भुजब प्रसन्न दिलसें उ नीतिके सेवनद्वारा कैसा अनूपम लाभ संपादन हो. ___अहा ! जैसी सोनेरी तक कब आयगी कि जब उत्तम शौहरी ओंकी नरहे सदा जयवंता वर्तता हुवा जनशासन०५ बाजार से अपन भी परीक्षापूर्वक गुणालीकोही ग्रहण करेंगे, और दोष पदोंको फेंक देवेगे ! असा सुनहरी सूर्य कप उगेगो कि जब अपन विवेकमकाशद्वारा प्रकट रीतिसें गुणदोपको समझकर सद्गुणोंकों ही आदर करते शिखेंगे ! जैसी सुनहरी घडी कर देखेंगे या पागे कि जब अपन पराये छिद्र शोधन करनेकी बुरी आदत भूलकर फक्त गुणग्रहण करनेकी उत्तम रीति आदरेंगे-श्रीकृष्ण महाराजकी तरह कोडो अबशुन से गुण मात्र ग्रहण करेंगे ! जैसी उतम मीनीट कर मिलेगी कि जब पूर्वोक्त सदा शीतल संत सुरतरु की पवित्र छायाका आश्रय लेकर वो संत सुरततकी सुवासनाके पलसे परदोष दुर्गध ग्रहण करनेकी अपनी अनादिकी बुरी आदत सर्वथा दूर करेंगे ! और निरंतर सद्गुणवासना ग्रहण करनेकी स: Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ રહૃર मिति सजेंगे ! जैसी अमूल्य सेकन्ड कब मोप्त होगी कि जब अनादि पिय कुसंगको विलकुल जलांजली देकर सत्संग भजनका ६६ निश्चय करेंगे! . यह बात अनुभवसिद्ध है कि अपन जहांतक महामलीनता; जनक, कुसंग तजकर सुसंगति सजेंगे नहि, वहांतक अपनकों कुबुद्धि देकर दुर्गातमें ले जानेवाली कुमतिके पाश से छुटकर सुबुद्धि देकर सुगतिमें ही लेजानेवाली सुमतिके अपन कभी स्वामी न हो सकेंगे। सुमतिके ६८ संबंध विगर अपन दोपपासनाको दूर कर शुद्ध गुणपासनाको धारन न कर सकेंगे. दुष्ट दोषवासना त्यागन किये बिगर और शुद्ध गुणवासना अंगिकार किये विगर अपन कभी परदोष देखे बिगर या उनी दोषोंकों ग्रहण किये बिगर रहने के नहीं और शुद्ध गुणरत्न या शुद्ध गुणिजन होने परभी अपन उनको देख शकेंगे ही नहीं. तो पीछे गुणरत्नका ग्रहण करना तो क्यों करके ही बनेगा ? जहांतक परदोषग्राहक बुद्धि प्रबल वर्तती है, वातक गुणग्राहकपना नहीं आ सकता है; क्यों कि परस्पर विरोधी है वास्ते नहीं आसकता है. जहांतक शुद्ध गुण ग्राहक बुद्धि नहीं प्रकट होगी, वहां तक सत्संग रुचिके पात्र हुवा ही नहीं जाता जहां तक आश्रय करने लायक शीतातिशीतल छायावाले कल्पवृक्ष समान संतसमागम रुचेगा नहीं, यहांतक अमृतका तिरस्कार करै वैसा अतिमिष्ट-मधुर सत्य धर्मोपदेश कर्णगोचर होवे ही नहीं. जहांतक आभिनव अमृत समान सत्य धर्मोपदेश सुना नहीं, यहांतक तत्त्व Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विवेक भकप्ता नहीं जहांतक तत्वविवेक प्रकट होवै नहीं, पहातक हिताहित बराबर समझने में आ सके ही नहीं. जहांतक हिताहित स. __म्यम् समझने में आवे नही, वहांतक अहितके त्यागपूर्वक हितमागका सम्यम् सेवन हो सके ही नहीं. जहांतक आहितके त्याग पूर्वक स. म्यक हितमार्गका सेवन न किया जाय, वहांतक परमकृपालु परमामाकी पवित्र आज्ञाका उल्लंघन हुवे विगर रहे ही नही. और जइतिक पवित्राज्ञाका उल्लंघन किया जाता है, वहांतक ये अति भयंकर भवोदधि तिरना बहुत मुश्किल है, और पवित्राज्ञाका सम्यम् आराधनसें वही संसार तिरना सुगम हो पडेगा. परमकृपालु परमात्माकी पवित्र आज्ञाका आराधन सम्यग् रीनिसें हितमार्गका सेवन करनेसेंही होता है. सम्यक रीतिसें हित सेवन विवेकपूर्वक अहितमार्गके त्यागमें होता है. पर हिताहितकी समझ सम्य ज्ञान क्रिया के सेवन करनहारे सद्गुरुद्वारा हो सकती है. औसा सिद्ध होता है कि सम्यग् हितमार्गदर्शक उक्त स[रु होनेसें आत्महितपीवर्ग में वैसे महात्मा पुरुषों का अवश्य आश्रय लेना दुरस्त है. तब आश्रय करनेयोग्य मुमुक्षुवर्गने आपकेही कल्याणार्थ और आश्रय लेनेवाले इतर आत्महितैषिवर्गकी खातिर आपके असंख्य देशरुप आत्मामें कैसी.उमदा और विशाल-गुण सृष्टि रचनाकों पैदा करनी चाहिये. लोकप्रसिद्ध वार्ता है किकुवमें होगा तो होझमें आवेगा' मगर कुवमेंही पानीका तोटा होगा तो होझमें कहांसे पानी आ सकेगा ! यदि मुमुक्षुओं उत्तम गुण Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ रत्नधारक हो तो सहजमें उनके आश्रितोको वो उमदा गुणरलोका लाभ मिल सकता है; मगर सम्यग्ज्ञान वैराग्य सद्गुरु भक्ति' और भवभीरुतादिक सद्गुणोंकी न्यूनतासें खुद आपही गुण विरका हो तो वो अपने आश्रितोकों किस तरह गुणवंत बना सके ? आप निर्धन होवै तो दूसरोकों किस तरह धनवंत बना सके ? जगतमात्रका दारिद्र दूर करनेकी इच्छावाला कैसा महान् भाग्यभाजन होना चाहिये ? C - जगत्को ऋणमुक्त करनेहारे श्रीतीर्थंकरादि जैसे वैसे सामान्य जन नहि थे. वे असाधारण नररत्लो या पुरुपसिंह थे. श्रीसंघ के उपर अक्सरउचित अनुग्रह - कृपा करके पवित्र शासनकी प्रभावना करनेहारे श्रीवजस्वामि कौरः आपके अति उत्तम ज्ञान वैराग्य गुरुभक्ति और भवभीरुतादि कोटि सद्गुणोद्वारा श्रीवीतराग शासनकी, अमूल्य सेवा बजाने में सुप्रसिद्ध है. मेरे प्यारे भाइ-भगिनीयो ! जैसे उमदा गुणोंकों धारन करके पवित्र शासनको अमूल्य सेवा बजाने में अपनको भी जैसे महात्माओंके दृष्टांत ध्यानमें लेनेको जरूरत है; और पवित्र शासनकी वैसी अमूल्य सेवा बजाकर केंही अपनको अपना ये दश दृष्टांत दुर्लभ कहा हुवा मनुष्यजन्म, महाभाग्ययोग प्राप्त कियेहुवे उत्तम कूल, पंचेंद्रिय पाटव, शरीर सौष्टव, सुंगुरु समागम, वीतरागजीके वचन श्रवणादिक उत्तम धर्मसाधन अनुकूल सामग्री, तथा उसद्वारा भइ हुइ धर्मरुचि और क्रमशः प्रकेट 1 I स हुइ श्रद्धा विवेकादि सद्गुण श्रेणिकी सफलता माननेकी है. f Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६५ .. पवित्र शासन तर्फकी अपनी उत्तम और उचित -फज समझने के वास्ते और समझकर बरावर लक्षमें रखकर उसी माफक वतने के वास्ते श्री गौतमस्वामी, श्री जंबूस्वामी, श्री प्रभवस्वामी, श्री शयंभवस्वामी, श्री भद्रबाहुस्वामी, श्री आर्यसुहस्तिसूरी, श्री स्थूलिमद्रजी, श्री वयरस्वामी, श्री उमास्वातिवाचक, श्री आर्यरक्षितसूरी, श्री सिद्धसेनदिवाकर, श्री देवगिणिक्षमाश्रमण, श्री हरिभद्रसूरी, श्री धनेश्वरसूरी, पादीश्री देवसूरी, श्री हेमचंद्राचार्य, श्री जगचंद्रसूरी, और श्री हीरविजयसूरी वगैरः महान् प्रभाषिक पुरुषसिंहोंके अति उत्तम बोधजनक चरित्र खास लक्षपूर्वक वाचने विचारने और बन सके वहां तक अनुकरण करने लायक है. यदि इस तरह उक्त महापुरुषों सचरित्रोंका आवेहूब चितार अपने म"नमंदिरमें करनेमें आवै और वै पावन पुरुषोंके कदम दर कदमसे प्रयत्नपूर्वक चलकर स्वसाधर्मीभाइयों में ऐक्यता के साथ मुमुक्षु वर्गक उचित आचारविचारमें केवल परमार्थदृष्टिस चाहिये वैसा सुधारा करने में आवै, तो मेरे अति नम्र विचार मुजब स्व-उत्कर्ष और पर अपकर्ष करनेका वरूत कवी भी न आने पावै. उसी मुजय मुमुक्षु साध्वी समुदाय अपनी और पवित्र शासनकी उन्नतिके खातिर जो गुण निष्पन्न नामवाली यानि चंदनवाला, मृगावती, पुष्पचूला, राजिमति, तथा ब्राह्मी-सुंदरी समान महान् सतीयोंके टात लेकर परमपूज्य परमात्माकी पवित्र 'आज्ञानुसार चलकर परस्पर संपरु५ मजबूत ग्रंथी पाडकर विनयपुरःसर पर्तन रसखे, Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. २६६ तो भतीति पूर्वक कहा जाता है कि जरुर कुछ अच्छा परिणाम आयेही आवै. ऐसे अच्छे परिणामके वास्ते उन्होंने भी ऐक्यताका सेवन करके अपने उचित आचार विचारकी मालिका सुधारलेनीही मुनाशिव है. मेरे प्यारे भाइ भगिनीओंकों अति नम्रतायुक्त विनती करनेकी है कि जब अपन इस मुजब अपने परमपूज्य पितारुप पूर्वाचायाँके पवित्र कदमसे प्रणति पूर्वक चलकर अतिक्लिष्ट परिणाम कर खटप८को खडी करने हारे हजारों लोगों के बीच तमासा बतलाकर निर्मल शासनको निस्तेज करवाले, तथा आपके शुद्ध ज्ञान दर्शन चीरित्रके रसको ढोल डालनेवाले और परिणाममें परम दुःखदायक मिथ्या मान मत्र्तगजको मार नाशकर परस्पर योग्य नम्रता धारनकर पूर्वे घुस गया हुपा कुसंपकों काट-दाटकर अक्यता धारन करके उचित आचार विचारकी शुद्धि कर अपना कितनेक वखतसे व्यवस्थासें विसंस्थल भया हुवा पवित्र धर्मकी प्रणालीका सुधारेंगे, तो पीछे अपन अपना स्वकल्याणसह अपने आश्रित श्रावक श्राविकाओका भी कल्याण सिद्ध होयै असा सरल मार्ग खुल्ला करदेंगे मगर जहांतक मिथ्या मानमां मोहित हो उचित विनय नम्रता भी छोडकर क्लेशकारी कुसंपका पोषण कर-शक्ति होने ५२भी अपने पवित्र आचार विचारकी हानि होने देकर-पवित्र शासनकी मलीनताको काराणक होकर अपने आपकेही कल्याणका बदरकारी करेंगे, वहातक अपने आश्रितभूत श्रावक श्राविकाआका कल्यान करनेकी अपनी इच्छा वंध्याके पुत्र होने जैसी व्यर्थ आशा Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . . . २६७ है। अपना-आपकाही कल्यान करनेकों असमर्थ अपन अन्यजनीका किस तरह कल्यान कर सकेंगे ? वास्ते मेरे नम्र विचार मेरे प्यारे भाइ भगिनायें ! पहिलें तो अपनकों अपने कल्याणके वाले दूसरी तमाम पावते वाजुपर छोडकर खास प्रयत्न करनाही योग्य है. जहातक उक्त अति उपयोगी पावत में विलय या बेदरकारी करने में आयगी, वहांतक दिनप्रतिदिन झूटी अहंता ममताके सेवनद्वारा संपकी वृद्धि के साथ पवित्र आचार विचारकी अति हानिका - विशेष प्रसंग आनेसें अति निर्मल भी वीतराग शासनकी मलीनता होनेका कठिन संभव रहता है. वास्ते मेरे प्यारे ! अपनकों अब निविलंबसे तुरंत जागृत होनाही दुरस्त है. अब ज्यादे पख्त प्रमादकी पथारीमें पड रहनेका नहीं है. अपनको श्रीगौतमस्वामीजीके जैसे महापुरुषोंका वेष धारन करके उनकों एक क्षणभरभी शरमिंदा करना नहीं; किन्तु सर्व शक्ति फैलायके उनको पूर्ण यकीनसे भजनाही चाहिये. अपनको सचा सुख चाहियें और वैसा काम न करै अगर उस्से विपरीत करै, तो सुख क्यों करके संपादन हो ? अपन नरक-तिर्यंचादिक दुःखसे डरै तौभी रस्ता तो वैसा ही लेवै तब वैसे दुःखसे क्यों कर बच सकै ? हा, मेरे भाइ भगिनीये ! वचनका एक मार्ग है सो यही है कि अ.. पनने ग्रहण किया जो वेष उसको लज्जापान क्षणभरभी न करते अपना अंतरंग मान मायादि मैलकों घोडाल कर नम्रता सरलता विवकतादिक उत्तम गुणवंत सुसंपधारन करके पवित्र आचार वि Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ .: शुद्धिकर-निर्मल शासनकी प्रमरद पवश होनेसे भई हुई -मलीनता दूरकर-श्री वीतराग शासनकी शोभा बढाके-हमेशा अ-प्रमत्त रहकर-मोह मत्सरादिक दुष्ट दोपोंका पराभव कर समतादिक सत् सहाय पलसे शांत सुधारसका पान कर-परम शांत बनकर अनेक भव्यजनोंकों आश्रयस्थान हो केवल निष्पह-निरासभावसें स्वात्महितैषी जनोंकों शास्त्र रहस्यभुत शांत सुधारसका पान करके, श्रेष्ठ स्वार्थ साधते हुवे अखिनतासे परोपकार करते ही आखिर समाधि पूर्वक द्रव्य भाव संलेषणा कर-समस्त विरोध शांतकर समस्त पापस्थानक आलोय-निंदकर कायमक लिये पचखाण कर अंतिम श्वासोश्वासमें भी धर्म पवित्र अरिहंत सिद्धकाही सस्मरण कहते हुवे यह बाह्य प्राण छोडकर पवित्र शासनी वेपको भगालेना यही सर्वोत्तम है. इस मुजव उत्तम आराधना-पताका स्वाधीन करली जावै, जय जय नंदी जय जय भवाफे मांगलिक शब्द - निसें बंधाये लिये जावै, और अंतमें परमानंद पद भी इसी तरह प्राप्त किया जावे. अहा ! जैसी परमानंद दायक स्थिति साक्षात् सर्वदा अनुभवनेके लिये किस पास्ते मुलजाना चाहियें ? और कु-मति कदाग्रहका पल्ला पकडकर किस वास्ते पायमाल होजाना चाहिये ? इतनी हदपर पहुंचने परभी सुखकी बेदरकारी कर केवल कल्पित सुखमें मशगुल हो, जीती हुइ बाजी क्यों हारजानी चाहिये ? पुनः पुन: विनय पूर्वक विनती करता हूं कि अब वीरपुत्र ! और चीर पुत्रिये ! अब विलंब विगर जात होजाओ और तुमारा हित Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तपासलो. प्रमाद पयारी छोडकर अप्रमाद वनदंडसे मोह राक्षसका निकंदन कर अपना और अपने आश्रित भव्योका संरक्षण करो. नहीं तो ये मस्त हो रहा हुवा मोहनिशाचर अपना और अपने नि. राधार सेवकोंका सब कुछ देखते देखते ही छिन लेगा. वास्ते आप लोग अच्छी तरह जागत होकर अपना और दूसरोंका संरक्षण करो. सुज्ञेषु किंबहुना ? ! असल फकीरी.. ". सची फकीरी कहो या सच्चा साधुत्व कहो, मगर वो माप्त होना __ जीवकों बहुत ही मुश्किल है; क्यौ कि जब कुल उपाधियोंको जला जलि देकर अपना मन-बचन-तनको अवंचकपनेसें अध्यात्म-योग - पुष्टिके पास ही प्रवनिमें आवै, तभी ही सची फकीरीकी ल. हेजत आ सकती है. उपाधिसे मुक्त हो गये हुपे सच्चे फकीर, फीकरके साथ कैसा संबंध रखते है सो इस छोटेसे द्रष्टांतसे स्पष्ट मा लुम हो जायगाः - फिकर सबको खा गई, फिकर सपका पीर; . - फिरकी फाकी कर, सोही पीर फकीर. . १ शिर मुंडाडाला; मगर मनको नहि मुंडाडाला तो शिर मुंडपानेसे कया शुकर हुपा ? योग लिया मगर भोगको साफ न छोड दिया तो योग लेनेसे कया कमाया ? सच तपास करनेसे तो पात्रके गिर योग शोभारुप ही नहीं मालूम होता है। मगर फजीतील व. Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ v ર૭૦ नकर स्वपरके अहितकी वृद्धि की जाती है; तथापि ये विषमकाल योगसे कितने अहंषक असा व्यापार ले बैठे हैं, उस्में पैसे कठोर "परिणामीयोंकों कया लाभ होगा ? जैसी शंका हो आवै, उनकी समाधानीके वास्ते श्रीमद् यशोविजयजीमहाराजने अध्यात्म सारमें कहा है कि ( अनुष्टुप् छंद.) स्वदोपनिहियो लोक-पूजा स्थाद् गौरवं तथा; इयतैव कदयंते, दंभेन बत बालिशाः ॥१॥ आपके दोष ढके जाय और लोगोंमें आपकी पूजा सत्कार वडाइ हो-फ. इतनेही के वास्ते मूर्ख शिरोमणिभूत दंभी लोग दभवारा कदर्थना पाते है सो खेदकी वार्ता है !" पुनः भी कहा है कि:-" जमीनपर सो जाना, भीख मंगकर खाना, पुराने जैसे कपडे पहनना, और बालोंको नौच डालना ये सवी साधुको करना शुकर है, लेकिन एक दंभकाही त्याग करना बडा दुष्कर है. और जहां तक दंभ-माया कपट न छोड दिया जावै, वहां तक करने आती हुई सभी कष्ट करनी फोकट-फजूल है." बडे बडे नाम धारन करके या फलाने फलानेके शिष्य कहलाकर केवल स्वपरकों कलं कनही किये जाते हैं. जप असले फकीरीकी किम्मत... बूझकर चक्रवर्ती-आपके छः खडके साम्राज्यको छोड़कर योग साम्राज्य भजतेथे और आपके शरीर पर भी ममत्व न परतें अखंड व्रतकाही सेवन करतेथे, तब आजकल जात होनेवाले और जागृह हो गये Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७१ 3M फुर ** તને માયા તેની ટે ખાશ તદ્દન ૩૫ વિપરીતઅનન્યારી વામ વખતે. દુવી માલુમ હોતે હૈં. ધર્મશ વષ ધારન ર મોહે માહે નર નારી મંડળૉ તેમ સાવર અપની સ્વાર્થાંત્તનીવાત્ત સાધને વાહેદ્દી ધૂમધામ માતે હૈ. યત્ને પ્રયત્ન જાતે હૈ ચે ના ચડપના ગોર મવામનદ્વીપના વહાઁ ભાવે ? ત અપની નૌષ વિષય તૃત્તિયોાદી તત રને વાલે અપને ગુરુવા બનાવત્ વ ંતુ મતિમંત મેં મશનુજ્હોન વિદ્ આવા વિવાન થી પરિવતિનો સેવન તે ધ્રુવે પુષ્ણવજ સાચુ નામધારીનાં 'ચોળ નૌત ને વાસ્તે જી જૈનવી રાખે હૈ. દેસાોરેવર મી વૈસે વેશમ નિટ હોમોંનાં ઇિ તેનો વો તો પ્રવૃદ્ધ પાપાહી પાછું તેને સરોવર મૈં તો ખમાતા છું. પેલે વેષ વિડંવ, વિષય ંત ગૌર મુખ્ય નન વિઞતારા—વવા—મારે दंभी वर्गों और वैसे पवित्र शास्त्र विरुद्ध वर्त्तन रखने हारे वर्ग की મુગ્ધતાનેં જ઼ નાદારે મુધનનોંળો સરુ શ્રીદેલા સંક્ષિપ્ત વયાન ગૌર્ ઉસદ્ગારા કાળા ઊછમી સમાન્ય દાવે તો ખુદ્દોનો ખાદ્યુત અનેજે ધાતૅ શ્રી પૂરતંત્રની વિવાનનની મહારાનને, દા હવી પત્ યોં પર વર્તાવળ તાજું શિક कुलू ... ( નાથ વૈસે રાખજો વધ જીતાયો ? ચે ાદા ) અવધૂ નિવલ વિહા જોરૂ, વેરવ્યા ના સર્વ ખો, અવધૂ નિર સમસ માત્ર મહા વિતનાજે, થાપ થાવ ન હો -- અવિનાશીને ઘરની વાત, નાનો નર સોફ્ અવધૂનિક્ષ ૧ Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૭૨ रावक भेद न जाने, कनक उपल सम लेखे; नारी नागिनीको नहीं परिचय, तो शिवमंदिर देखे अवघ. निर. २ निंदा स्तुतिको भवन सुनिके, हर्ष शोच नहि आनै; सो जगमें जोगीसर पूरे, नित चढते गुनठाने चंद्र समान सौम्यता जाकी, सागर ज्यों गंभीरा अवध, निर. 3 मन भारंडे तरह नित, रगिरि सम शूचि धीरा. अवघ. नि. ४ पंकज नाम धराय पंक गुं, रहत कमल ज्यों न्याशः चिदानंदे इस्या जन उत्तम, सो साहबको प्यारा अवघ. निर. १ विपके संबंध श्री चंदानंदजी महाराजका बनाया हुवा पद्म पढकर अपनको लाजीम कि उसके परमार्थ संबंधी विचारमनन करना, समभाव भावित आत्माही तत्त्वसे निग्रंय है, वैसे पवित्र आत्मनिग्रंथ प्रवचन (शुद्ध आगम रहस्य ) सम्पन् समझा जाता है और सम्यम् परिणाम ( परिणवन ) शुद्धि आचार भी वही सेवन कर सकते हैं, दूसरे बाबाडंवरी उस तरहसे सेवन नहीं कर सकते हैं. निष्पृहता वैसे महाशय राजा और रंकको समान गिनते हैं, कनक (वर्ण) और पाषाण बरोबर गिनते है. ऊपरसे वृकम होनेपर भी वक्रगति रागादिभाव-विपसें भरपूर भाभयंकर गिनी गिनते हैं. ऐसे शुद्धाश्रयवाले मैनेज नहीं मिहालय मौज करने पूर्ण अधिकारी हैं; परंतु इम्मे विषयमुखके कामी हो विषय हो-एक दीन Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ર૭૩ दासकी तरह दीनता दिखलानेवाले और ऐसेही कल्पित सुखके सबसे धोली-पीली मिट्टी (सुन्ना-चांदी) पर राग रखकर बैठे हुपे, किंवा प्रकट नरकके द्वारभूत नारीमें रति-प्रीति रखनेवाले अधम-पेप विडवक तो किसी सूरतस भी अक्षय शिवमुखके अधिकारी हैही नहीं. सांप जैसे कंचुकीका त्यागकर डाले वैसें बाह्य परिग्रह मात्रका त्याग करके अंतरंग काम क्रोधादिक अरिंगणका जिन्होंने जय किया है वही सच्चे निग्रंथ हैं-निग्रंथके नाँवकों वही सार्थक करते हैं. लेकिन उनसे विपरीत चलनेवाले तो निग्रंथ नांवकों डुवाते हैं. शरमिंदा बनाते है अलवत्त ऐसे दंभी मायादेवीके सेवकोंकों उनके प्रतिकूल वर्तनके लिये योग्य शिक्षा बेशक होवेगी ही होगी, उस्में कुच्छ संदेह नहीं. उपशम रसमें मजन करनेवाले क्षमाश्रमणगण निंदक या वंदकपर समभाव सह समाधिस्थ रहता है, के पाय कलुपित लिंगधारियोंकी मुवाफिक क्षनभरमें मासा और क्षनभरमें तोला नहीं होता है. निंदकका उपहास्य या दककी प्रशंसा नहीं करता है. दोनुपर समान हितबुद्धिही धारन कर रहता है, वही सच्चे योगीश्वर कहे जाते है. वै क्षमाश्रमण चाहें वैसे विषयसंयोगोंकी अंदर भी एक क्षनभर समभाव नहीं छांड देते हैं. बाकी स्वच्छंदतासें साधुपेष धारण किये परभी भोगी भ्रमरॉकी तरह विविध विषयवासना विवस हो, तुच्छ आशाके मारे जहां तहां भटकनेवाले तो भीखारी लोगोंसें भी (योगभ्रष्ट Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ રહદ होनेसे ) नीचे दनक हैं, किसी रीतिसभी उच्च दर्जके तो हैही नहीं. असे पापश्रमण पवित्र शासनकी प्रभावना पानी उन्नति करनेके बदलेमें हीलना करते हैं. उसी लियेही शाख. में वै अदि कल्यान करनेवाले कहेजाते हैं. यशकीर्तिकी अभिला. षा न रखतें केवल आत्मार्थीपनेसे वर्तनवाले सुसाधुजन समुदाय तो मान-अपमान या निंदा-स्तुतिको समानही गिनतेहैं. उस प्रसंगमें हर्ष शोक नहीं करते है. वैसे अवधुत योगीश्वरो सर्वथा बंध हैं. वैसे मुमुक्षुयेही प्रतिदिन अप्रमत्ततासें चलकर गुणश्रेणीपर पडते घडते क्रमशः मोक्षमहालयमें अक्षय स्थिति कर आनंदपाप्तिसें मग्न होते हैं; परंतु परिग्रह ( ममता) के वोजेसे लदेहुवे द्रव्य लिंगी तो केवल दुःखपात्र होकर अधोगतिकेही भागीदार होते हैं। इतनाही नहीं, मगर उन्होंकों फिर उंचा आना अत्यंत कठिन हो पड़ता है। तदपि केवल मोहके मारे वै विचारे अति अहितकर उलटे राहस्ते चलकर चारोंगतिमैं गोथे खाते हैं. वहां दान अनाथ असे उन विचारे नाचार मोतानकों किसका आलंबन ? कोई भी नहीं ! सव यहीके उन्होंने सर्व सुखदायक सर्वज्ञभाषित सत्यधर्मको स्पच्छंद वर्तनसे धक्का मारा. एक सामान्य भी राजा-अमात्य वगैर अधिकारीका अपमान करनेसें अपमान करनहारेको सरूत शिक्षा भुकानी पडती है, तो फिर त्रिभुवन पति श्री तीर्थंकर महाराजकी परम हितकारी पवित्र आज्ञाका अपमान-अवज्ञा-अनादर-तिरस्कार आपापुदीसें उल्लंघन करनेसे वैसा करनेवालेकी क्या गति होगी Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७५ वो सहजही खियाल आ सकै वैसा. बाह्य और अभ्यंतर उभय ग्रंथ ( ग्रंथि - परिग्रह का परिहार करनेसेंही निग्रंथपना सिद्ध होता है. सविना वो सिद्ध नहीं होता है. वास्तेही परमात्मा - प्रभुकी पवित्र आज्ञाकों अक्षरशः अनुसरनेका कामी - मुमुक्षु जनको द्रव्य और भाव उभय परिग्रह अवश्य परिहरनाही योग्य है. द्रव्यमात्रके त्यागसे अंतरशुद्धि किये सिवाय निर्विषपना प्राप्त नहीं हो सकता उसी लियेही परमपदके अभिलाषियोंकों उभयकाही परिहार करना जरुरका है. दीक्षित हुवेपरभी द्रव्यपरकी अनुचित ( अघटित ) मूर्छा स्वसंयम स्थानको अवश्य अपहरती है. इतनाही नहीं; मगर वो मूर्च्छित मुमुक्षुकों मोक्षके बदले संसारफल देती है. अहा ! तदपि दारुण दुःखदायी मूर्छा द्रव्य मूर्छामें शोच विचार करकेही वृत्ति करे तो उसको इतनी बडी हानी नहीं सहन करनी पडती है. सच्चे यतीश्वर जगतसें उदासीन रहते है, वे उत्तम प्रकारकी क्षमा, उत्तम प्रकारकी मृदुता (नम्रता ), उत्तम प्रकारकी ऋजुता ( सरलता ), उत्तम प्रकारकी मुक्ति ( संतोष ), उत्तम प्रकारकी तपस्या, (इच्छा निरोध), उत्तम प्रकारका संयम ( इंद्रियादि नि इ ), उत्तम प्रकारका सत्य ( हितमित भापन ), उत्तम प्रकारका शौच ( पवित्रता ), उत्तम प्रकारकी अकिंचनता ( सर्वथा परि-ग्रह रहितता ), और उत्तम प्रकारका ब्रह्मचर्य (ब्रह्मचरिता आ मरतिपना ) यह दसविध शुद्ध यतीमार्गको अक्षरशः अनुसरनेचाले होते हैं. उन्होंकों शत्रु मित्र समान है, परम करुणारससें Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७६ उन्होंका हृदय सदा द्रवित ( भीगा हुवा) ही होता है, गंभीरतास सागरके समान होनेसें वै महाशय अन्यजनोंकों बोधकारी होने हैं, और अप्रमत्तताके उच्च शिखरपर राजित हो अन्य भव्य समूहका उत्तम प्रतिभूत होते हैं. उत्तम महानुभाव कमलकी तरह भोग पंकमें अलग ही रहते हैं, उसीरो ही वे शुद्धाशय मुक्तियुक्ती (क. न्या ) का पानीग्रहण करने योग्य होते है. अर्थात् ऐसे संविज्ञ-शु. खाशय सज्जनकाही मुक्तिकान्या स्वयं वरमाला आरोपन करती है और कायमके लिये अपना वल्लभ ( स्वामी) वत् स्वीकार के उनकों अनंत-अक्षय अध्यावाधमुखके भोरता करती है. परंतु जो महाशय इस विलक्षण स्वभावके हैं उन्सं तो मुतिकन्या दूर ही रहती है. जाने गुनके द्वैषीही होय उसीतरह गुणीजनोंका सहवास भी जो लोग नहीं करते हैं, जाने दोपकेही पक्षपाति होय. उसी तरह जिनको दुष्ट मनुप्योंकीही सोबत पसंद है, जो प्रमाणिक पंथ छोडकर अममाणिक मार्गकाही अवलंबन कर रहते हैं, सद्गुणीकी स्तुति न करते अन्यायी और दुराचारी दुर्जनकीही खुशामत किया करते हैं, यावत् आत्मश्लाघा और परापवाद करनेमेही कुशलता व्यय करते है। वैसे स्वच्छंदी साधुजनपर परम न्यायी प्रभु किसतरह प्रसन्न होवें ? जो शांति-सुखदायक भवभीतीकारक अमूल्य उपदेश दानसें भव्यजनोद्धारक परमशांत मुदालंकृत श्री जिनेश्वरादिककी परम समाधिकारक सन्मुर्तिकी उचित भक्ति-सेवा बहुमानादिकका आपमतिसें अनादर करके उत्प Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७७ थगामी मुग्धजनाको परिचय-आदर करता है, वैसे स्वच्छंद वर्तन· के लिये भवांतरमें उन्हीकाही आत्मा परिताप सहन करेगा. जो मर्यादाको छोडकर नाना प्रकारके रस ग्रहण करनेमें या मौजमें आवै वैसा आडा टेडा उलटा वेतरडालनेमें (मुखरीपनामें) ही रसना (जीव्हा) की सार्थकता मानते हैं; परंतु ज्ञानीपुरुषोंके हितबोध मुजब भोगको रोगसमान वा विषयरसको विष (हालाहल झहर) समान गिनकर उससे किंचित् भी नहीं विरमते हैं; यावत् ७८,खल होके ज्यौं आवे त्यौं मदमत्तकी तरह बकवाद करते हैं, उनका भव्य ( भला-अच्छा ) होना दूरही है. जो आत्माकी सहज (वाभाविक) सुगंध (सुवासना) का अनादर करकें केवल कृत्रिम पुद्गलिक सुगंध लेने की लालसा रखने हैं, और दुर्गध प्रति द्वेष (अरुचि) धारन करते हैं। ऐसे मुग्ध मुमुक्षु महोदय-मोक्ष प्राप्त करनेकों किस तरह भाग्यशाली हो सके ? जो परमोपकारी और गुणनिधान श्री गौतम सदश गुरुमहाराजकी द्रव्य और भाव (बाह्य और अभ्यंतर) भक्तिका अपूर्व लाम छोडकर-तिरस्कार कर विवेकविकल बनकर नीच अबला (पुंश्चली-कुलटा-कुमति-कुटिला) का संग-परिचयकरके पूर्व अरिहंतादिक पंच साक्षीसें ग्रहण किये हुये महानताको उचे रखदेते है, और पवित्र हंसवृत्ति छोडकर काकष्टत्ति धारण करते हैं, यावत् सिंहत्ति परित्याग कर स्वानवृत्ति धारन करते हैं, वैसे अधम अनाचारी पविडंबक हैवानोंके क्या हाल होगे वो सहजहीमें समझा जाय वैसा है. मन-वचन और कायाके योगोंको Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૭૮ श्री वीतरागवचनानुसार नियममें रखने से क्षणार्द्ध में प्राणी स्वसमीहित (वांच्छित) साध्य कर सकता है. और उससे विरुद्ध वर्तन रखनेसें संसारचक्र वारंवार छेदन भेदन होता है, उसपर श्रीउपदेशमालाम कंडरिक और पुंडरिकका दृष्टांत खास योध लेनेलायक है, उसको आस्मार्थी सज्जन वहांसें पढ लेना. औसा समझकर स्वहिताकांक्षी कौन मुमुक्षु सज्जन उक्तयोगोंका दुरुपयोग-स्वच्छंद वर्तन कर भवभ्रमण बढाना पसंद करेंगे ? कभि नहीं ! असा कौन मूर्खशिरोमणि हो कि चिंतामनिरत्न कव्वेको उडानेके वास्तेही फीक देवेगा? अँसा कौन बुद्धिका बारवटीआ होवैकि गजराजको छोड गदहेपर स्वारी करनी कबूल करेगा ? असा कौन मतिहीन होगाकि सुवर्णस्थालमें धूल भरेगा ? असा कौन मति अंध होगाकि महासागर पार करनेहारे समर्थ जहाजको फर एक फलककी खातिर भर समुद्र में भांग डालेगा? उसी तरह यह दुस्तर दुःखोदधिसे पार फेर क्षेमकुशल भोक्षनगर पहुंचानेमें समर्थ सर्व विरति चारित्र९५ अवर प्रवहणउपर पूर्व पुण्ययोगसे आरुढ होकर पीछे कौन मंदमति केवल विषयतृप्णाका मारा स्वच्छंद वर्तनसें उसको अधबीच भांगडाल कर अपने आत्माको भी दुःख दरियाव साथ डुवादे ? असे प्रसंगपर प्रत्येक भवभीर आत्मार्थी सजनको कितना साओचेत रहनका है-उसका सुहृदयकों तो खियाल आये गिर रहेगा. ही नहीं. बाकी दुविदग्ध (अर्धदग्ध) के वास्ते तो समझानेके लिये ब्रह्मा सरीखे भी सफल नहीं हो सकता है तो फिर अपने जैसोंकी Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७९ तो मगदूर भी क्या ? अर्थात् वैसे आडंबरी-पंडितमन्यको समझा का-ठिकानेपर लानेका एकभी उपाव मालूम नहीं होता है, अंतमें ___यक कर "पाप: पापेन पच्यते' यही सिद्धांतपर आना पडता है. असा ज्ञानानंदी श्रीमद् चिदानंदजी महाराजजीने अपन अज्ञजनोंकों अल्पबोधर्म असल निग्रंथ ( साधु-अणगार) का स्वरुप समझाकर अपना ध्यान सत्य वस्तुतर्फ खींचा है. जो औसे. महापुरुषके ममाणिक वचनसे अपनका सत्यवस्तुका ( अत्र अधिकार सुगुरु) का भान हो गया तो अपनका अवश्य खोटी पस्तु. पर अरुची-त्यागभाव होना चाहिये. " ज्ञानस्य फलं वितिः" सूर्यका उदय होनेसें अंधकारका नाश होनाही चाहिये, तसे सत्य सान भकाशसें अनादि अविधा-अविवेक दूर होनाही चाहिये. जगतमें परीक्षक लोग सुवर्ण रत्नादिक परावर परीक्षापूर्वकही खरीदते हैं-परीक्षा किये विगर नहीं लेते है. असा प्रकट व्यवहार अनुभवसिद्ध होनेपरभी तखपरीक्षामें प्राणी बेदरकार रहवै वो क्या ओछे खेदकी बात है ? असी बेदरकारीसें अनेक मुन्ध और मुग्धाओंने कुगुरुके पास पडकर विपरीत आचरणसे आस्माको मलीन कर अधोगति प्राप्त कीहै. असा पवित्र शास्त्रामा. से मालूम हो जानेपरभी रागांध हो, विवेकविकल बनकर पाणी उलटे मार्गपर पड़ जावै उसमें क्या आश्चर्य ? इस लिये मध्यस्यतापूर्वक सर्वज्ञकथित आगमानुसारसें तत्वपरीक्षा करके शुद्ध देव गुरु धर्मका निर्णय कर अशुद्धका सर्वथा त्याग और शुद्धका सर्वथा स्वीकार करना विवेकी सज्जनोंको सर्वदा उचित है. और Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८० पायावरी-दंभी मायादेवीके भक्तोंकी तरह धर्मके बहानेसें मुग्धजनाको ठगनेमें महा पाप है असा समझकर अच्छे भाग्य योगस माप्त हुवे साधु वेष ( भेख) को भजनेके लिये भवभीरु मुनीजनोने सतत प्रयत्न करना योग्य है. " उत्तम संगे उत्तमता वधे" ये वृद्धवाक्य प्रमाण कर जिस तरह जयवंत जैनशासनकी प्रभावना होवै उस तरह मुमुक्षुवर्गको समय अनुसरके चलनेकी प्रार्थना है. और आशा है कि पो ( प्रार्थना ) सफल ही होगी. - . जिनके उपर केवल जैनकोमकाही नहीं; किंतु समस्त आलमका आधार है, वैसे महात्माओंका वर्तन कैसा उत्तम प्रकारका होना चाहिये ? उन्होंकी रहनीकहनी कैसी एक समान चाहिये ? -७द्रत घोडे की तरह उलटे रखोकी तरफ लुटे हुवे मन और इंद्रियोंकों काबूमें रखनेके लिये उन्होंको कैसा सावध रहना चाहिये ? चिंतामनि सदृश नवकोटि शुद्ध ब्रह्मचर्यका रक्षण करनेके वास्त नव ब्रह्मवाडी उन्होंकों कैसी शुद्ध पालनी चाहिये ? निर्मल स्फटिकरत्न समान शुद्ध आत्मस्वरुपभाव प्रकट करनेके लिये उन्होंको पंडाल चौकडी [ क्रोध-मान-माया-लोभ ] का सर्वथा त्याग करके कैसी निष्कपाय वृत्ति धारण करनी चाहिये ? निर्मल धर्म धूरीण होकर अहिंसादि पंच महाव्रतोंका अपार भार कैसी साहसी कतासे निर्वहन करना चाहिय ? पुनः पवित्र पंचाचार आप खु. दकों पालनेके लिये और और मुमुक्षुवर्गके पाससे प्रतिदिवस पलानेके वास्ते वै कैसे प्रयत्नशील चाहिये ? परम पवित्र प्रवचन Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८१ माता [ पांच समिति और तीन गुप्ति- ] का परम आदर करनेकों वै कैसे लब्ध लक्ष्य होने चाहिये ? उसकेवास्ते तो पवित्र जैनागम प्रमाण है- उक्त आगोंमें सत्य-निर्दभ मुमुक्षुके लिये जो जो नीति रीति बतलाइ गई हैं. सो सो तमाम संपूर्ण आदरसे आदरनेसेंही सची निग्रंथता टिक सकती है. उस विगर केवल लिंगधारीपना तो मात्र विडंबनारुपही है. महालब्धिपात्र श्री गौतमस्वामीके समान उत्तम वेप धारण कर लिये परभी जो इंद्रियों के दास हैं। पवित्र ब्रह्मचर्यके घातकारी-स्त्री परिचयादिकको निःशंकपनेसे सेवना करते है और जो क्रोधादि कपाय तापको शांत करनकी एवजीम उलटे बढाये ही जाते हैं, लोगलाज, धर्मलान मर्यादा ] को लोप संसारकी वृद्धि करते हुए जीवन गुजारते हैं, श्री अरिहंतादिक पंचकी साक्षीसें पवित्र महावत धारण कार लिये परभी उनसे विरुद्ध वर्तन करते है, क्षमादिक दसविध यतीधर्मका आदर नहीं करते हैं, हरामखोरी करनेवाले पहेलकी तरह प्रमादविवश वर्तन रखकर पंचाचारका अनादर करते हैं. यावर अष्ट-प्रवचन माताका भी कुपुत्रकी मुवाफिक तिरस्कार करते हैंऐसे अनार्य आचरणवालोंका द्रव्य लिंगमात्रसे अच्छा किस तरह हो सके वो समझना कुच्छ मुश्कील नहीं है. तात्पर्य यही है कि सद्गुणोंके सिवाय लिंग मात्र से कुच्छ भी श्रेय होनेका नहीं, ऐसा सुज्ञ सज्जनमंडल सत्य नीति राति उपयोगमें लेकर सद्य स्वपर उपकार साधनेका कभी नहीं भूलेंगे. Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૮૨ जैसी उमदा फकीरी बिगर जींदगी फजुलही समजनी; क्योंकि फजीतीभरी फकीरी या उपरके. अमूल्य शब्दोंसें विपरीत कानून मुजबकी फकीरी तद्दन बकरीके गलेके आंचलकी तरह निकामीही है. वास्ते वैसी फकीरीकों करोंडो धिकार फिटकार त्यानत हो, और सच्ची फकीर धन्यवाद. हो!!! कवि शुभचंद्रजी विरचित ज्ञानार्णवांतर्गत सवीर्य ध्यानका सारांश. ध्यान करनेकी पहिले कैसी प्रतिज्ञा करनी चाहिये सोकहते है। (१) ध्यान करनेमें प्रथम उद्यमवंत हुवा ऐसा विचार करै कि-अहो! पूर्वमें ये भवरुपी महावनकी अंदर कमरुपी पैरीओंने अनंत गुणरू५ कमलको विकवर करनेवाले सूर्य जैसे मेरे आत्माकों गलिया. (२) फिर शोचै कि-आपके विभ्रमसेंही उत्पन्न भये कुवे रागादिक निबिड बंधनोंसें बंधे हुवे मेरी ये भयंकर संसारमें __ अनंतकाल तक विडंबना हुई. (३) अब कोइ महाभाग्य योगसे मेरा रागज्वर नाश हवा और मेरी मोहनिंद भी दूर हो गई तो मैं ध्यानरूप तीक्ष्ण खड्गकी धारासें कर्मशत्रुकुं मार डाटुं. (४) अ. शानद्वारा पैदा हुवे अंधकारको दूर कर मैं मेरे आत्माकोंही देखलु, __ और कर्मसे धनके बड़े भारी समूहकों जला दूं. (५) मिथ्याज्ञान २५ ग्राह यानि हाथीको भी रोक लेनेवाला एक जलजंतु के दांतोंसें मिनका चित्त चर्षण हो गया है ऐसे सकल- लोगोंको देखने के Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८३ पास्ते अद्वितीय लोचन जैसे मेरे आत्माको भी मैने न पिछान लिया.. (६) शुरुमें भुक्तनकी वरूत रम्य, मगर पीछेसें निरस ऐसे इंद्रियोंके विषयोनें-परमात्मा-परमज्योति और जगज्जेष्ट ऐसे भी मेरेकों गलिया. (७) मै और परमात्मा ऐसे दोनु ज्ञानके लोचनरुप हैं तो मै परमात्मा स्वरूप प्राप्त करनेके पासे वो परमात्माकों जानना चाहता हुं. ' (८) अनंत चतुष्टय यानि अनंत ज्ञान, दर्शन-चारित्र वीर्य आदि गुणोंका समूह मेरी सत्तामें रहा हुवा है, और अरिहंत सिद्ध परमेष्टिको वोही प्रकट भया हुवा है. हम दोनूमें-परमात्मा और मेरेमें इतना भेद शक्तिसत्ता और व्यक्ति-प्रकटभावके अभावसें है. शशिसे समान और व्यक्तिस भेद है. कहाहै कि-विशेष रहित-. सामान्य और विकार-उत्पाद व्ययादिकसे उत्पन्न होते मतिज्ञाना-- दिक आत्मा के गुण पूर्वमें नहीं थे ऐसे नहीं, और पूर्वकालमें नहीं थे ऐसे कितनेक नये भी पैदा होते हैं; परंतु स्वाभाविक विशेष अनंत ज्ञानादिक अभूतपूर्व-पूर्वकालमें न भये हुवे-नवीन हैं. यानि आत्मद्रव्यमें सामान्य रीतिसें मतिज्ञानादि गुण भूतपूर्व-पूर्वमें विद्यमान भी कहे जावै. अभूतपूर्व-अविद्यमान नवीन भी कहे जावै. इस मुजब नय विभागसे करके वस्तुस्वरुप जानना योग्य है. पुनः असा शोचैकिः-शुद्ध द्रव्यार्थिक नयकी दृष्टिसें देख लु तो में नारक नहीं, तिथंच नहीं, मनुष्य नही और देव नहीं; परंतु सिद्धात्मा हुं. नारकादि अवस्था सर्व कर्मका पराक्रम है. .. Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૮૪ पुनः जैसी भावना करै कि:-अनंतवीर्य, अनंतविज्ञान, अनंतदर्शन, और आनंदस्वरूपभी मै हुं, तो मै उनके प्रतिपक्षि-शत्रुभूत कर्मविषक्षकों क्यों आज जडमूलमैसें न उखाड डाएं ? अवश्य उखाड डाटुं! फिर जैसी विचारणा करै कि:-आज अपना सामर्थ्य मिलाकर आनंदमंदिर में प्रवेशकर बाह्य पदार्थोंमें स्पृहारहित भया हुवा मैं अपने स्वरुपसे भ्रष्ट नहीं होउंगा. जब आत्मा अपने स्वरुपमै स्थिर होता है, तब आनंदमय होता है, और अन्य वस्तुओमें स्पृहा गरज-दरकाररहित वनता है. इच्छारहित हुवे बाद अपने स्वरुपसे क्यों पीछा पडेगा? __ कर्मरुपी शत्रुने अनादिकालसें फेलाइ हुई विधा-मिथ्याज्ञान जाळकोंभी छेदकर आजही मेरे मेरे स्वरुपका परमार्थसें निश्चय __ करना है. इस मुजव ध्यानको उद्यम करनहारा आपका पराक्रम समालकर प्रतिज्ञा करता है इस तरह प्रतिज्ञा करके धीर पुरुष सकल रागादि कलंकसे रहित हो चंचलतारहित होकर धर्मध्यानका __ आलंबन करता है, और विशाल बल होवै, शुक्ल ध्यान योग्य __ सामग्री हो तो शुक्ल ध्यानका आलंबन करता है. निर्मल बुद्धि पुरुष ध्येयवस्तु क्या होवै वो कहते है. ध्यान पस्तुका होता है-अवस्तुका नहीं होता. परंतुचेतन, अचेतन असे दो प्रकारकी होती है. चेतन सो जीवद्रव्य है. अचेतन सो पांच प्रकारके धर्मादिक द्रव्य है. पुनः वस्तु उत्पत्ति, विनाश और स्थिति Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यु है. सर्वथा नित्य या सर्वथा अनित्य नहीं. पुनः यो मूर्त वा अमूर्त होते हैं. पुद्गल मूर्त है, चेतनादि अमूर्त है. शुद्ध ध्यानसे कमरुपी आवरण जिनने दूर किये है जैसे मुक्तिके स्वामी सर्वज्ञ देव-शरीरवाले सर्व उपद्रवरहित अरिहंत भगवान् और दूसरे शरीररहित सिद्धभगवान्-ध्येय है. __ ये जीवादिक छद्रव्य है सो चेतन और अचेतन लक्षण लक्षित है. वै सभी धर्मध्यानमें उन्हीके स्वरुपकी अंदर विरोध न आवै उस तरह बुद्धिवंत पुरुषोंका ध्यावने योग्य है. . जब ध्यान पूरा हो तब बुद्धिवान् पुरुष मनको समाधियुक्त चैराग्ययुक्त या करुणारुप समुद्रमें निमग्न करें. . या दूसरी तरहसे त्रिलोकनाथ-अभूत-परमेश्वर-परमात्माअविनाशी देवका साक्षात् ध्यान करने का अभ्यास करै. शक्ति और व्यक्तिको विविक्षासें त्रिकाल गोचर सामान्य द्रव्यार्थिक नयके मतसें साक्षात् एक जैसे परमात्माका अभ्यास करै, संसारअवस्थामें शक्तिरूप परमात्मा हैं, मुक्तावस्थामें व्यक्तिरूप परमात्मा हैं. अभेदनयसें आत्मामें भेद नहीं है. अब परमात्मा कैसे हैं सो कहताहुं. प्रथम साकार-शरीरके आकार सहित है, पीछेसे निराकार, आकाररहितभी है-यानि पुगलके जैसा उन्होंका आकार नहीं है. क्रिया रहित हैं, परमाक्षरस्वरुप हैं, विकल्परहित हैं, निष्कप-नित्य-आनंदमंदिर-विश्वरुप है, समस्त ज्ञेय पदार्थों के आकार जिन्होंमें प्रतिषिवित हैं, जिन्होंका स्वरूप मिथ्याष्टिवालोंने Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नदेखा वैसे हैं, सदाकाल उदयवंत हैं, कृतकृत्य हैं, जिन्होंकों कुछ करनेका बाकी नहीं रहा है, शिव-कल्याणरूप हैं, शांत-क्षोभरक्षित हैं, निकल-शरीर रहित,करणच्युत इंद्रियेविगरके, समस्त भवसे उत्५न भये हुवे क्लेशरुप वृक्षकों दध करनेको अग्निसमान हैं, शुद्ध-कर्मरहित हैं. अत्यंत निर्लेप है-कभी कर्मका किचित्भी लेप नहीं लगता. ज्ञानराज्य सर्वज्ञपनेकी अंदर स्थापित हैं, निर्मल आयनेकी अंदर दाखिल भये हुवे प्रतिषिष समान जिन्होंकी प्रभा है, ज्योतिर्मय-ज्ञानप्रकाशरुप हैं, महान् शक्तिमान् हैं, परिपूर्ण हैं, पुरातन हैं, किसीने नये बना ये हुवे नहीं, निर्मल आगुण सहित हैं, निद्र-रागादि दोषरहित हैं, रोगरहित हैं, अप्रमेय, अमाप-जिन्होंका प्रमाण न हो सकै वैसे है, विश्वनत्त्वकी अवस्था जाननेवाले हैं, पाह्यभावसे ग्रहणयोग्य नहीं, अंतर्भावसे क्षणमात्रमें ग्रहण करने योग्य हैं, ऐसे स्वभाववाला साक्षात् स्वरुप परमात्माका है.पुन: जो अणुसें भी सुक्ष्म, और आसारासे भी बड़े है, सो सिद्धात्मा जगत्वंध, अत्यंत निहत्त-शांत सुखमय निष्पन्न हुवे है, जिन्होंके ध्यानमात्र ही संसारसे प्राप्त होनेहारे जन्ममरणादि रोगनष्ट होते हैं-अन्यथा नष्ट नहीं होते, सो ये सिद्धात्मा जगत्मभु अविनाशी परमात्मा हैं. जिन परमास्माकों जान लिये बिगर दूसरा सब जान लिया निकाला है, और उन्हीको जान लेवै तो फिर सब कुछ जान लिया ही है. जिन परमात्माको स्वरुप जाने बिना आत्मतत्वका निश्चय नहीं होता आवरुपमें रमण नहीं होता, और जिन्होंकों जानकर मुनियोंने सा Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૮૭ સાત્ વદ્દી પરમાત્મા નૈમષ માર્સ જિયા હૈ; વાસ્તે મળવા પા हसवाले मुनियोंकों वही प्रभुजीका ध्यान करना, और अन्य सर्व शरण छोड़कर उन्हीकाही एक शरण ग्रहण कर उनकी अंदर आपत्रे अंतरात्माको जोडकर उनकोही विशेष प्रकारसे जानना-दृष्टिगोचर करना. जो बानीको अगोचर-न वर्णन किये जाय वैसे- अव्यक्त, अनंत नाश-विगरके, शब्दरहित, अजन्मा और संसार भ्रमणसे रहित है ऐसे परमात्माका विकल्परहित चितवन करना जिनके ज्ञानके अनंत भाग में द्रव्यपर्याययुक्त लोकालोक आ रहा हुवा हैं परमात्मा तीनलोक के गुरु होवै यानि जिसका ज्ञान अनंत है वही त्रिजगद्गुरु हो सकें. एस ध्यान करनेहारा मुमुक्षु मुनि परमात्मा के स्वरूपमें अपना मन लगाकर उनके गुणसमूहसें रंजित भया हुवा आप अपने आत्माको उनकी अंदर उन्हीका रुप प्राप्त करनेके वास्ते जोड देता है. इस मुज निरंतर मरण करता हुवा और उस परमात्माका जिसने स्वरूप पहिमान लिया है जैसा योगी ग्राह्य यानि ये परमात्माका स्वरूप मेरे ग्रहण करने लायक है और ग्राहक यानि इनकों ग्रहण करनेवाला मैं हूँ, जैसे भाव भेदरहित तन्मयपणाकों पाता है. द्वैतभाव नहीं रहता है. ध्यान करनेहारा मुनि अन्य सर्व शरण छोडकर यानि उसीकाही एक शरण ग्रहण कर उन परमात्मा के स्वरूपमें इस तरह लीन हो जाता है, कि ध्याता यानि ध्यान करनेहारा और ध्यान इन दोनूका 4 Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૮૮ अभाव होनेसें ध्येयकी साथ एक्यता माप्त होती है; अर्थात् ध्याता -ध्यान-ध्येयका भेद नहीं रहता है। यानि आपही ध्येयरुप होता है. जिस भावमें आत्मा परमात्माम अभेदपनेसें लीन होते है उसीही समरसी भाव-आत्मापरमात्माका समानता भाव है. वही आत्मा परमात्माका एकीकरण है, समरसी भावसे आत्मा परमात्मा होता है। एकीकरणमें आत्मापरमात्माके शरण सिवाय दूसरा शरण नहीं लेता. उसीमेंही उसीका मन लीन हो गया हुवा होता है. उसीकेही गुण (परमात्मा जैसे और परमात्मा जितनही अनंत) उसीम होते हैं. उसीकाही शुद्ध स्वरू५ ( बरावर ) अपना स्वरूप होता है, वो और ये एकस्वरुपवाले होनेसें ये, वो, वही है इस मुजय परमात्माके ध्यानसें आत्मा परमात्मा होता है... जिन परमात्माके ज्ञान विगर प्राणी जरुर जन्मरुपी वनमें भ८कते है और जिन परमात्माको जान लेनेसें तुरंतही इंद्रगुरु-वृहस्पतिसे भी ज्यादे महत्ता मिलती है, वही परमात्मा साक्षात् सकल लो. फके आनंदविलास है. उत्कृष्ट ज्ञानरूप प्रकाश है. रक्षक है. परमपुरुष है. जिनका स्वरुप भी न चितवन किया जाय पैसे परमात्मा है. इस मुजब ध्यानमें निरंतर भावनामें जन्म जरारहित परमामाको ध्यानमें सदा ध्याते है, भावते है, वो सीध्यान कहाजाता है. Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८९ः सार शिक्षासंग्रह. २" सज्जन मुख अमृत लौ, दुर्जन विषकी खान" २ " नारी चित्त देखना, विकार वेदना; जिनंदचंद देखना, ___ शांति पावना." ३ “जननी जणे तो भक्त जण, का दाता का सूर; ... नहींतो रहजे वांझणी, मत गुमाचे नूर." ४ "ज्ञान विना व्यवहारको, कहा बनावत नाच ? र कहे कोड काचकों, अंत काच सो काच!" .५ " रवि दूजो तीजो नयन, अंतर भावि प्रकाश; करो धंध सब परिहरी, एक विवेकअभ्यास." ६ “क्षमा सार चंदनरसे, सिंचो चित्त पवित्त; दयावेल मंडपतले,-रहो लहो सुख मित्त." ७ “मौनं सर्वार्थ साधनं सबसे बडी चूप." ८"बालादपि हितं ग्राह्य, एक बालकका भी हितकारी वचन - हो तो उसको कबूल करना चाहिये." ९ " जनमन रंजन धर्मको, मूल न एक बदाम." १० " दुखमें सब को प्रभु भनें, सुखमें भजे न कोय; __ . जो सुखमें प्रभुकों भजे, तो दुख कहांसें होय ?" . ११ “नमाणात प्रकृति विकृति र्जायते चोत्तमानाम्-उत्तमजनोंकी प्रकृति प्राणांततकभी विकृतिवंत नहीं होती है !" १२ " संवेग रंग तरंग झीलै मार्ग शुद्ध कहे बुधाः Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९० 11 तेहनी सेवा कीजियें, जेम पीजियें समता सुधा. १३ " हीणा तणो जे संग न तजे, तेहनो गुण नावे रहे, ज्यौं जलधि जलमां भळ्युं, गंगा नीर लूणपणं लहै." १४ " बुरा बुरा सब को कहै, बुरा न दीसे कोय ! जो घट शोधुं आपका, (तो) मुझसे बुरा न कोय !! " १५ “ खड्डा खोदै सोही पडै ! " " १६ " किसीकी भी निंदा नहीं करनी, यदि करनी चाहो तो खुद आपकी ही निंदा करियो. " १७ "सबका भला चाहो. कवीभी किसीका बुरा नहीं चाहना १८ " औगुन पर जो गुन करें, सो विरले जग जोय ! " १९ “ किसीको मर्मभेदक, कटु " या बिभत्स भाषण नहीं कहना. " २० " कोई भी कार्य सहसा - बिगरविचारे मत करियो. " २१ "दगा किसीका सगा नहीं, न किया हो तो कर देखो !" २२ " गुस्सेबाज और कटु बोलनेहारेकों चांडाल समान गिनो." २३ " धर्मसें जय और पापसें क्षय होता है. " २४ “ परद्रव्यहरनके जैसा कोई भारी पाप नहीं है. " . २५ “ शीलभूषणके जैसा एक भी दूसरा अमूल्य भूषण नहीं. " २६ " संतोषसें कोई बढिया सुख नहीं है. " ૨૭ जर बिगर नर खर जैसा है. " सदुधम समान कोइ "6 વાંધવ નાં હૈ. Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९१ २८ " न्याय, नीति, सत्य, प्रमाणिकता ये प्रार्णाके उदय २९ " दी दृष्टि-दीर्घदर्शीत्व-अगमतीपना ये आते हुवे दुःखोकों रोकनेका उत्तम साधन है." ३० " कुशीलता ये प्रकट दुःखका, और सुशीलता ये सुखका ३१ " विवेकविकल पाणी पशुकी गिनतीमें गिना जाता है." ३२ " लोभका थोभ यानि अंत नहीं है." ३३ " इच्छा आकाशकी तरह अंतविगरकी है." ३४ " तृष्णासे उपरांत कोइ जबरदस्त दूसरा दर्द नहीं है." ३५ " रात्रिभोजनमें महान् पाप है." ३६ " रागद्वेषका क्षय करके शुद्ध होना ये सब तीर्थंकर श्री जीका सनातन उपदेश है. वै आप विशुद्ध होकर दूसरोंकों विशुद्ध होने का फरमाते हैं." ३७ “पंडितोपि पर शत्रु न मूखों हितकारक यानि पंडित शत्रु होवै तो अच्छाः मगर मूर्ख दोस्त होवै सो बहुत बुरा" ३८ " भूखके साथ दोस्ती करनेसें कदम दर कदम क्लेश होता है." ३९ " नारी नरकका द्वार है !" ४० " कर्मको शरम हैही नहीं !" ४१ " संप वहाँ ज५ है. कुसंपका मुँह काला करो." Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९२ ___४२ " कथनी कथें सब कोय, रहनी अति दुर्लभ होय." __४३ " कथनी मिसरी सम मीठी, रहनी अति लगै अनीठी;" ४४ " जप रहनीका घर पावै, तव कथनी गिनतिम आवै." ४५ " लघुतामें प्रभुता वसै, प्रभुतासें प्रभु दूर." ४६ " परकी आश सदा निराश." ४७ " काचा घड़ा काचकी शीशी, लागत ठणका भागै; सडण पंडण विध्वंस धर्म जस, तसथी निपुण निराग वो घ८ विणसत र न लागै!" ४८" मद छक छाक गैल तजी विरला, गुरुकृपा कोउ जागे तनधन नेह निवारी चिदानंद, पलियें ताके सागै. वो घटः" ४९ " काहिक काझी काहिक पाजी, कवहिक हुए अपभ्राजी; कहिक जगमें कीरति गाजी, सव.पुद्गलकी वाजी आप स्वभाव मेरे अवधु सदा मगन रहना। ५० " शुद्ध उपयोग अरु समताधारी, ज्ञान ध्यान मनोहारी; कर्मकलंकको दूर निवारी, जीव वर शिवनारी. आप.अ." ५१ " समताके फल मीठ है ! वास्ते समता रखकर चल !" ५२ " हाथ सोही साथ-दोगे वैसा पाओगे. पोवोगे वैसा लनोगे. ५३ "क्षण लाखिणा जाय; साधि सके तो साध!" . ५४ "कलको कालका भय है; वास्ते जो करना होय सो आजही कर लै." । Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०३ ५५ " मरना कदमके नीचे ही है; वास्ते जल्द चेत! . ५६ "भरण तणां निशानां मोटी, गाजे छे माथे; तमे चालोने प्रितमजी प्यारा सिद्धाचल जइये. . जे करवु ते पहेला कीजे; काले शी पातो ? अणचिती आधीन पडशे, सबळानी लातो. तमे." ५७ " शील रहित नर फूटा जेवा आवल फूल; शीलसुगंधे जे भय, ते माणस बहु मूल." ५८ " ममता रांड भांडकी जाइ है वास्ते उसका संग मत करो." ५९ " संतसमागम समान कोइ ज्यादे सुख नहीं है." ६० " वैराग्य समान कोइ मित्र नहि है." ६१ " चांडाल दो तरह है यानि जाति चांडाल और कर्म चांडाल." जाति चांडालसें कर्मचांडाल आकरा है. ६२ " को जैसे परछिद्र गपी कर्मचांडाल कहे जाते हैं." ६३ " जैसी सोबत वैसी असर होती है." '६४ " सोबत करो तो संत सुसाधुजनोकी करो." '६५ " मिथ्यात्व समान कोइ विशेष दुःखदायी रोग नहीं है." ६६ “समतिको चिंतामणीरत्नसे भी अधिक अभीष्टदाइ समझलो." '६७ " जयणा धर्मकी माता है." ६८ " सुज्ञमनुष्य जयणामाताकी हमेशा सेवा कियेही कर." ६९ ":सत्यवचन बोलना सो मुखकी शोभा है." ७० " परनिंदा समान एक भी दुष्ट पाप नहीं." Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१ "कर्मकटक जीत सोही जिन, ( और ) उनसे त्रास पावे । सो दीन." ७२ "पंडित ते जे निराभिमान." ७३ " इच्छारोधन तप मनोहार." ___७४ " शक्ति होनेपरभी छपा देवे सोही चोर." ७५ " अंतरलक्ष्य रहित सो अंध, जानत नहि मोक्ष अरु बंध." ७६ “ जो नहि सुनत सिद्धांत वखान, बधिर पुरुष जगमें सो जान." ७७ " औसर उचित बोल नहि जानताको ज्ञानी मूक बखाने." ७८ " मोह समान रिपू नही कोइ, देखो सब अंतरगत जोइ." ७९ " डरत पापसे पंडित सोइ, हिंसा करत मूढ सो होइ. ८० " कल्पवृक्ष संयम सुखकार, अनुभव चिंतामणि विचार." ८१ " कामगपी परविद्या जान, चित्रावली भक्तिचित आन" ८२ " नयनशोभा जिनबिंब निहालो, जिनप्रतिमा जिनसम करी धारो." ८३ " सत्यवचन मुखशोभा भारी, तजें तांबूल संत ते धारी.” ८४ “निर्मल नौपद ध्यान धरीजें, हृदय शोभा इनविध नित कीजें." ८५ " सद्गुरु चरणरण शिर धरियें, भाल शोभा इणविक भवि करिये." ८६ " अहिंसा परमोधर्मः जीवदया समान कोइ उत्तम धर्म नहीं है." . . Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९५ ८७ " मिष्टपचनसहित सो दान, गरिहित सो ज्ञान प्रमान. " સમા સહિત સો શૌર્યવવાર, વિવેસહિત વિત્ત સોનાના ये चारों अपूर्व पितामणि समान जैसे है सो किसी ____ भाग्यशालीकोही प्राप्त होते हैं." ८८ " ५२व्य, परस्त्री और खलपुरुषका की भी संग नहीं करना." ८९ " चलना है जरूर जाको, ताकों कैसा सोवणा." ९. "जाग अवलोक निज शुद्धता स्वरुपकी, शोभा नहीं कही जात चिदानंद भूपकी." ९१ "विषयवासना त्यागो चेतन, साचे मारग लागोरे." ९२ " आतमध्यान समान जगतम, साधन नहि कोड आन." ९३ " गाफिल. मत रहो छिनभर तुम, शिरपर धूम तेरे काल अरी." ९४ " थोडेसे जीवनकाज अरे नर ! काहेको छल प्रपंच करो?" ९५ " औसर पाय न चूक चिदानंद, सद्गुरु यौं दरसायारे." ९६ “ सम्यम् ज्ञान और क्रिया ये मोक्षटक्षका अवंध्य बीमहै" यतः ज्ञान क्रियाभ्यां मोक्षः । ९७ “जीको परभव जानेके वख्त फक्त धर्मकाही आधार है." ९८ " जिसका मन पवित्र उसीकोही पवित्र जानो." ९९ " मोह समान एक भी मस्त मदिरा नहीं है." १०० "विषय समान सर्वस्व चोरनेवाला कोई चोर नहीं है." १०१ " तृष्णा समान कोइ विषवल्ली नहीं है." Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९६ बंधन नहीं है. १०२ " मरन समान कोई विशेष भय नहीं है. " १०३ “ राग समान कोई अति १०४ " स्त्रीकटाक्ष अपना बचाव करनेहारे जैसा कोई शूर नहीं." १०५- " सदुपदेश जैसा कोई अमृत नहीं है. "" : १०६ " स्त्रीचरित्र समान कोई गहन चरित्र नहीं है. " न उगाया जावे उसके समान दूसरा १०७ " स्त्रीचरित्र कोइ चतुर नहीं. १०८ " असंतोष के जैसा कोई दूसरा दारिद्रय नहीं और पाचनाके जैसी कोई लघुता नहीं. " १०९ " संजम समान जीवित नहीं है. " ११० " प्रमाद जैसी कोइ जडता नहीं. " " १११ “ धन, यौवन और आयु ये तीनुं अस्थिर हैं. " "" "7 ११२ " सज्जन चंद्रकिरण जैसे शीतल है, " ११३ “ परवशता जैसा दुःख नहीं, और स्वतंत्रता जैसा मुख नहीं. " ११४ " तत्र स्वपर हितकारी वचनही सत्य है. " ११५ “ प्यारेमें प्यारी चीज माण है. " " " ११६ “ पापसें मुफ करें उसीको सच्चा दोस्त जानो. ११७ “ औसरपर दान देनेके समान दूसरा दानही नहीं " ११८ " गुप्त पाप समान कोइ शल्य नहीं. " ११९ " जगत् मात्र के साथ मैत्री रखने समान कोई आनंद नहीं "" Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९७ १२० " अखंडवत पालनहार जैसा कोई भाग्यशाली नहीं.". १२१ "व्रत खंडन करके जीनेवाले जैसा कोई कमानसीब नहीं." १२२ " सत्य, मिथ और विनीत भाषण जैसा कोई- उत्तम वशीकरण नहीं है." - १२३ " मध्यस्थता जैसा कोई श्रेष्ट मार्ग नही है." १२४ " दुर्जनकाह झूठा-पतंगरंग जैसा समझ लो." . १२५ " कलिकालमें भी कुलीन पुरुष मेरु जैसे धीर होते हैं." · १२६ " धनवंत होने पर भी कृपणता रख्खेसाशोचनलायक है." १२७ “ धन थोडासा होवे तोभी उदारता बुद्धि होवै सो प्र शंसनीय है." १२८ " यथाशक्ति यतनीयं शुभे-शुभकार्यमें शति गुंगास मु जब यत्न-उद्यम करना." १२९ " विवेक जैसा कोइ सन्मित्र नहीं." :१३० " बहुरत्ना पसुंधरा" १३१ " भरेपूरे हो सो छिलकात नहीं." १३२ “निंदा कर सो हो नारकी." । १३३ " पथ्य आहार समान दूसरा कोइ औषध नहीं." १३४ "कर्म समान कोई कष्टसाध्य रोग नहीं."-धर्म समान कोई औषध नहि.' - १३५ "पंथ समान कोई जरा नहीं.". - १३६ “ अपमान समान कोई दुःख नहीं." १३७ " क्षुधा जैसी कोई प्राणघातक पीडा नहीं.'' Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ " सदनान समान कोइ अजूट धन नहीं. " और ___आशा समान कोइ बंधीखाना नहीं.” १३९ " मोहके जैसी कोई कठीन जाल नहीं.” . १४० " सद्भावना समान कोई उत्तम रसायण नहि. १४१ "चिंता और पिता दोनु मनुष्यदेहको जलानेमें वरोवर है." १४२ " शित्तशुद्धिके वास्ते व्यवहारशुद्धिकी खास जरूरत है." १४३ " शुद्ध कपडेपर जैसा रंग उमदा चढ़ सकै वैसा मैले कपडे पर न चढ सकैगा और उमदाभी मालुम न होवेंगा." १४४ "आनंदधनप्रभु कारी कामरीआं, चढत न दूजारंग." १४५ " धूट घाटकर आयने जैसी बनाई गई दीवारपर जैसा चित्र निकाला गया सुंदर लगै, वैसा खाडे खड्डेवाली मैली दीवारपर सुंदर नहीं लगता है यानि बेहुदा लगता है. धर्मरंगभी उसी तरह यानि उपरके कथन मुजप स्वच्छ और अधिकारी मनपर ही चढ सकता है." परंतु मलीन मनपर धर्मरंग नहीं चढ़ सकता है। वास्ते अवश्य अंतर शुद्धि करनेकी सबसे पहिले जरुरत है. १४६ “ जैसे विरेचन-जुलाब लिये विगर अंतरशुद्धि नहीं होती है तैसेही समतादिद्वार। कषायमल दूर किये बिगर मन शुद्धि नहीं हो सकी है." १५७ " राग और द्वेष मोहरानाके पापी पुत्र और कपाय के भाई हैं." १४८ " रागकेसरीसिंह समान और द्वेष हाथी समान गिनाता है." Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४९ "मद, भय और रोष या विषय, कपाय और आशंसा ये महान् त्रिदोष-सनिपातरूप हैं, " इनको त्याग कीये विगर कल्याण नहि. १५० " रोगीकों जैसे गुणकारी दुध, घी विकार करते है, वैसेही अयोग्य-ना लायक-कुपात्रकों फायदेमंद ज्ञानादिभी विक्रिया करते हैं. वास्ते धर्मके लायक हुवा जाय वैसे सु पात्र होने की जरुरत है." १५१ "सर्वज्ञकथित गुणोंका सेवन करनेसें जीव धर्मके लाय क होता है." १५२ “ धर्मार्थी जीवोंकों क्षुद्रता यानि पराये छिद्र-दोष देख. नेकी बुद्धिका सर्वथा त्याग कर देना." १५३ " शरीरके वास्ते योग्य साओचेती रखनी योग्य है क्योंकि धर्मार्थकाम मोक्षाणां, शरीरं साधनं यतः” । -१५४ " सौम्यता-शीतलताधारन करनी,रौद्र आकृती छोड़ देनी.'' १५५ " लोकप्रिय हो सकै वैसी अच्छी मर्यादा संमालनेमें न चुकना, लोकविरुद्ध कार्यको बिलकुल छोड देना." १५६ " किंचित भी क्रूरता न रखनी-दयाई चित्तवंत हो रहना." १५७ " पाप और अपवादसें बहुतही डरते रहना." १५८ " शठता, छल, प्रपंच, दंभ, विश्वासघात वगैरःका त्याग . करना." १५९ " दाक्षिण्यता आदरनी गुदिककी मर्यादा लोप नही देनी” १६० " लज्जा, मर्यादा समालनी." Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६१ " दयालुत्व-हृदयमें कोमलता दया रखनी" १६२ " मध्यस्थता-निष्पक्षपातती-न्यायधुद्धिस तटस्थता रखनी" . १६३ " चाहे वहांसें भी गुण ग्रहण करने के लिये दरकार रखनी ___ और गुणरागी हो रहना.". __ १६४ " सत्य, मतलब जितना, और शास्त्रसंमतही बोलना." - १६५ "स्वपक्ष स्वकुटुंव पुष्ट-धर्मधुरत होवै पंसी इच्छा रखनी और अमलमेलनी." ___ १६६ " दीर्घदर्शी होना, बिना विचारे किसी काममें कूद न पहना, मगर परिणाम-आखिर (Result) क्या होगा वो शोच कर काम करना." १६७ " तवज्ञान मिलाने के वारते पूर्ण यत्न करना और विज्ञान माप्त कर लेना." १६८" वृद्ध-शि-पुरुषोंके कदमानुसार चलना स्वच्छंदी न हो ना-यत:महाजनोयेनगतःसपंथाः': १६९ " विनय करना-गुणीजन या वयोवृद्ध तपोद्धादिककी योग्यता समालकर समयोचित नम्रता मृदुतादि उचित विवेक करना, हृदयमें गुणका बहुमान करना.. १७० " कृतज्ञ-किये हुवे उपकारको न भूल जाना, वीभी कृrt न होना." __१७१ "परोपकाराय सतां विभूतयः, दुसरेका उपकार दुः। दूर करना वगैरः अपनी शक्ति के अनुसार करना परोपकार बुद्धिमें तत्पर रहना." Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०१ ૧૨ “બ્ધ છલત વાન ની, નિપુણતા વશર વિત • कार्य प्रवृत्ति करनी." १७३ ' उपर कहे हुवे शुभ गुणोंके सेवन से धर्मका अधिकारी हुवा जाता है और उसमें वहताही जाता है. तथा गृह स्थ धर्मकी शुद्धि होती है और शुद्ध श्रावक धर्म प्राप्त हो सकता है. अनुक्रमसे दसविध यतिधर्मकी भी प्राप्ति हो सकती है, और प्रमाद रहित शुद्ध यतिधर्मके आराधनसे बहुत अच्छी आत्मविशुद्धि होती है. क्रमशः शुक्ल ध्यानके योगसे सकल कर्म क्षय करके सिद्धि वधूका हमेशके पास्त समागम होता है. और पुर्णानंदी होकर अंतरात्मा परमात्माकी दशा प्राप्त करता है. परमात्म दशा प्राप्त होनेसें जगमरणादि सब उपाधि दूर होजाती हैं. जैसे दग्ध (जलगये) हुवे पीजस अंकुर नही उसकता है, वैसेंही परमात्मदशा पाकर सर्व कर्मका संक्षय करनेसें भव संसाररुप अंकुर नहीं जा सकता है यानि उसका पुनर्जन्म होताही नहीं. ऐसी परम सिद्धदशा प्राप्त. होती है." १७४ " सिद्ध परमात्माको एकांतिक और आत्यंतिक-अव्यभि चारी मुख है. समस्त कर्ममलको क्षय हो जाने से निर्मल मुन्ने जैसी विशुद्ध भइ हुइ परमात्मदशा सोही सिद्ध दशा कही जाती है." Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૦૨ . १७५ " जो जो जीव वहिरात्मपना छोड़कर अंतरात्मपना भजपरमात्माका दृढ आलंवेन पकड़ लेता है वो वो कर जीव ' कीडे और भौरीके न्याय मुजव' आखिर परमात्मदशाही पाते हैं. "" १७१ " बहिरात्मा, अंतरात्मा और परमात्मा ये आत्माके तीन भेद है. "" १७७ “ क्षणिकरूप जड वस्तुमें मोहित होकर राग द्वेषके मलसे आत्माकों मलीन करता है वही भूढ वहिरात्मा कहा जाता है. " १७८ " अंतर लक्ष्य - विवेक- उपयोग जागृत होनेसें जिनको स्वपर - जड चेतन - गुण दोष- कृत्याकृत्य - हिताहित-भक्ष्याभक्ष्य-पेयापेय वगैरःका यथार्थ भान हुवा होवै वो अंतरदृष्टिआत्मा अंतरात्मा के नामसें पहिचाना जाता है. " १७९ " संपूर्ण विवेकद्वारा समस्त भेद भाव दूर करके शु ધ્યાન ભોસ ઘાતીમાં વિરુદ્ધ નાશ દ્દો નાનેસ નાનાં અનંત ઋતુપર્ધાને અનંત જ્ઞાન વર્શન चारित्र - वीर्य प्रकट हुवे है वो आत्मा की परमदशा પાનેસંપરમામાં હીં નાત है. " १८० “ कर्मरूप ढँकनसें ढकी गइ हुइ सर्वस्व रिद्धि सिद्धि सम्यग् ज्ञान-दर्शन और संयम की मदद से प्रकट हो सकती है. "3 १८१ " समस्त कर्म आवरणके क्षयसें सत्तागत समस्त 4 Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०३ गुण (पृद्धि संपूर्ण प्रकट होनेसें जिन्हने अचल सिद्धिकी स्वाधीनता प्राप्त करली है वै सिद्ध परमात्माके नामसे पहिचाने जाते हैं. वै अनंत-अक्षय-अव्यावधि शिव संपत्ति के शाश्वत भोक्ता हैं.” . २८२ " सम्यम् ज्ञान, दर्शन और चारित्रके आराधनसे विशुद्ध परिणाम योगद्वारा शुल ध्यानके जोर समरत कर्म दूर कर परमात्मदशाकों प्राप्त भये हुवे सर्व सिद्ध महाराजजी सिद्धिस्थानमें एक जैसे शिवमुखके भोक्ता हैं, वै सभी सिद्ध परमात्माओंको हमारा त्रिकरण शुद्ध निरंतर नमस्कार हो! हरिप्रश्न और सेनप्रश्नका उद्धरित सार तत्त्व. १ श्रीजिनपतिमाजीको चक्षु टीके वगैरका लगाना गरम किये हुवे रालफे रस से किया जाये तो आशातना होनेका संभव है। चास्ते निपुण श्रावकों को मुनाशीव है कि रालकों उमदा घृत अगर तेलमैं मिलाके कूटके नरम बनाकर पोछे उसद्वारा टीके चतु वगैरः पोटावें. २ नींबूके रसकी पुट दिइ अजवायन दुविहार पञ्चख्वाणमें और आयविलमें खा लेनी नहीं कल्पती है यानि न खानी चाहिये. ३ तीर्थकरजी जिस देवलोकसें च्यवकर मनुष्य गतिमें आ वहां वो देवलोकके जीवोंकों जितना अधि ज्ञान होव उतना अब Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૩૦૪ विज्ञान उन तीर्थकरजकों होता है. यानि गृहस्थ तीर्थकरोंमें अवधि ज्ञान कम ज्यादा इस सवबसें होता है. ( समीको समान न हीं होता है. ४ वर्षाकालमें साधुजीने जहां चातुमसा किया होवै वहर्सि पांच कोश तक के संविज्ञ क्षेत्रमें कारण शिवाय चातुर्मासा पूर्ण किये बाद दो महीने तक वस्त्रादिक लेना नहीं कल्पै; यह अधिकार निशिथ चुर्णीमें है. ५ कृमिहर नामसें प्रसिद्ध हुई अजवायन वृद्ध-ज्ञानी पुरुषोने अचित्त मान ली है. ६ दुपहर और दोनू संध्या समय नियुक्ति भाष्यादिक तमाम पाठको पठन पाठन करनेका आचारमदीपादि ग्रंथ में निषेध कियामना की है. ७ उपधान में पहेरी जाती माला संबंधी सुन्ना, चांदी, रेशम या सूत वगैरः द्रव्य देवद्रव्य होवै. यानि उनकों देवद्रव्य गिनते हैं. ८ शय्यातर तो जिनकी निश्रामें रहवें वही कहा जाय जैसा श्रीहत् कल्पादिकमें कहा है. बड़े कारण के लिये तो उनके घरकामी व्होरना कल्पता है. ९ एक और दोसें अंतरित परंपरा संघ छोडने योग्य है. तीनसें अंतरित हो तो संघट नहीं लगे. १० दिन अस्त होनेके वख्तकी पडिलेहण के समय तिविहारका पचखाण किया होवें तो प्रतिक्रमणके समय पाणहारका पञ्चखालीया जाय; मगर तिविहारका पञ्चखाण नहीं किया होवै तो Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०५ उसे चौविकारका पच्चखाण करना चाहियें.. ११ विकलेद्रि मरण होकर मनुष्यपणा पावे उस વિજ્ઞા ૢ विरतीपणा पावे; लेकिन मोक्षमें न जा सकै औसा ઐસા तिमें कहा है. भवमें सर्व संग्रहणीवृસંકર્ષ્યાવૃ , १२ साधुकी तरह साध्वी चारण श्रमण लब्धीवंत नही हो सकती है. १३ शरीर और दीपक अनि आदिकी उद्योत बीचमें चंद्रका प्रकाश पडता हो तो भी उजेही लगे; मगर यदि शरीरपर चंद्रका उद्योत पडता हो वै तो उजेही न लगे. १४ प्रातःकालमें मिलाया - जमाया गया दहीं सोलह पहरके वाद अभक्ष्य होवै; मगर कुछ सोलह पेहरका नियम नहीं है, किस लिये कि संध्या समय जमाया गया दहीं बारह पहरके बाद भी अभक्ष्य हो जाता है. १५ श्रीमान् और गरीबकी अपेक्षास उच्च नीच कुलमें ( समवृत्ति ) गोचरीके वास्ते फिरनेसें सामुदानी भिक्षा कही जाती है. १६ मंडल आयंबिल बड़ी दिक्षा दिये वादही करने सूझें. १७ द्रव्य लिंगीओंका द्रव्य जिनमंदिर तथा जिन प्रतिमाजीके उपयोग में न आ सकै, जीवदया और ज्ञानभंडार में उपयोगी हो सकता है. १८ रात्रि के चौविहार पचख्खीण वालेकों स्त्रीसेवनमें- अधर · Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०६ चुंबन किया जावै तो उस चुंबनसें पञ्चखाण भंग होता है, अन्यथा नहीं होता है. औसा श्राद्धविधिमें कहा है.. १९ देसावगासिककी अंदर अपनी धारणा मुजब पूजन ना. नादिक और सामायिक किये जाय कुछ एकांत नहीं है.. __ २० श्री आर्थरक्षित सुरीने अपने पिता ( भुनी ) को कटिदोरा बंधायेका श्री आवश्यक दृत्तिमें कहा है, पोही आचरणासें अपी भी बांधा जाता है. ____२१ जिनमंदिरकी अंदरके गर्भगृह-गमारेकी द्वारशाखाक आठ हिरो करके उसमें से एक हिस्सेको वाद दूर कर देना, और सातवे हिरसेके आठ हिस्से करके उन आठवे हिस्से के सातवे हि. स्सेमें मूलनायकजीकी दृष्टि मिलानी-जोडनी चाहिये. २२ पौषधादिक न किया होवै वैसा श्रावक मिनमंदिर या उपाश्रयम भवेश करनेके पस्त निसिही कहर मगर निकलने के वरूत आवसाही न कहवै. २३ बीज सहित नारियलमें एकही जीव होता है. २४ हरे या सुखे सिंघोडामें दो जीव कहे हैं. २५ पिछली दो घडी आदिशेष रात्रि होय तव पोपह लेना ये मूल विधि है और उस बाद पोपह लेना सो अपवाद स्था नक रूप है. ... २६ प्रतिष्ठा-अंजनशलाका अंजनकी अंदर मधु शब्दसें अभी मिश्री कही जाती है वास्ते उसे डाली जाती है.' Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ... २७ जिसको यंत्रमं पीपनसें तेल न निकले और जिसकी दाल बनाते वख्त दानेके दो हिस्से हो जावै वैसे धान्यादिकको आ. चार्य द्विदल कहते हैं. . ___२८ जो नास्तिक-श्रद्धाहीन होकर उपधान पहनेसे निरपेक्ष हो उसको अनंत संसारी जानना जैसा श्री महानिशीथनी सूत्रमें कहा है. २९ चातुर्मासमें साधुको रोगी साधुके औषधादिक सबसे चार पांच योजन तक जाना कल्पता है; परंतु कार्य पूर्ण हुवे बाद एक क्षणभर भी वहां ठहरना नहीं कल्पता है. ३० पहिले दूसरे पक्षवालोंने प्रणाम करलिया तो यथावसर पर्तना. ३१ मिथ्याष्टिको मिथ्याष्टि ऐसा समयको अनुसरके कहना या नहीं भी कहना. यानि जैसा मोका हो वैसा ही कहना. अमिय कथन न कहना. _____३२ चऽशरण पथना साधु और श्रावकोंको काल यस्तमें भी गुणना-पढ़ना कल्पता है. और अपाध्याय वाले दिनमें भी गुणना कल्पता हैं. ३३ चउशरणादिफ चार पयन्ने आवश्यककी तरह प्रतिक्रमणादिकमें बहुत उपयोगी होनेस उपधान योग वहन सिवाय भी परंपरासें पढ़ाये जाते हैं, उससे वो परंपरा ही उसमें प्रमाणरुप है. __३४ खुले मुंहसें बोलनेसे इयापहीका दंड आता है. T Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०८ ३५ वांदणे देनेकी वस्त विधि समालने के लिये खुल्ले मुंहसे वोलनेपरभी अप्रमादी होनेके सववसे इयविहीका दंड नहीं आता है. ३६ जो साधु वस्त्रको थीगडा-कारी देव या कारी देनेवालेकी अनुमोदना करै उनको बहुत दोषीकी प्राप्ति होती है; सर्वव कि तीन थीगडे के उपरांत चौथा थीगडा देनेवाले मुनिकों श्री निशीथसूत्रजीके पहिले उद्देशे प्रायश्चित्त कहा है. ३७ निरंतर बहुतसें जीव मुसिम जावै उससे मुक्ति सकडीसंकोचत नहीं होती? और संसार खाली नहीं होता है ? ऐसा पूंछनेको यही उत्तर है कि, जैसे बद्दलके जलमें घीसी गइ हुई पृथिवीकी वहुतसी मिट्टी समुद्रमें चली जाती है, तो भी उससे समुद्र पूरा न गया और पृथिवीपर खड्डे भी नहीं पडे, उसी तर वो भी समझना. ३८ छ: महीनेसे ज्यादा केवल ज्ञानीपणेसे रह सकै सो अंतमें केवली समुद्घात करै, उनस ओछी-कम स्थितिवाले करै या न भी करै! ५ १९ राइ प्रमुख उत्कट द्रव्य मिश्रित होनेसें काजिक वटका. दिक वस्तुका काल मान दृद्ध परंपरासे दो रात्रि या बारह महरादिका कहा जाता है. __ ४० जो श्रावक मरण समय पर्यंत निरतिचार सम्यक्त्व पालन करै तो वो वैमानिक देवही होता है. उस सिवाय दूसरी- यथासंभव गतिमेंभी पैदा हो या महाविदेह क्षेत्रादिक मनुष्यपणाभी पावे. ___४१ आश्विन-कुवार महीने के अस्वाध्याय दिनत्रय (बहुत Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०१ करक ८-९-१० ) तथा तीन चौमासीके अस्वाध्याय दिनकी अंदर उपदेशमालादिक गिनी पढी जाती है. --- ४२ स्थापनाचार्यके समीपम प्रतिक्रमण करनेके समय प्रथम स्थापनाचार्यकों और पीछे द्धानुक्रमसें दो चार या छः मुनियोंकों क्षामणा कि जाय दूसरे मुनि न होवै तो मात्र स्थापनाचार्य काही क्षामणा कि जावै. - ४३ मेथी आंविलम-कल्प सकै मेथी द्विदल है, और द्विदल विलमें कल्पता है. . ४४ सामायिक लेकर स्वाध्यायके आदेश मांगलीए वाद ख. भासण दे के इच्छाकारण संदिसह भगवान् मुहपत्ति पडिले हु ?' असा कहकर आदेशमांग मुंहपत्ति पडिलेहके पचखाण करना. ४५ साध्वी खडी उंची वांचना लेवे. ४६ कुल (कोटी ) १०८ पुरुपसें जानना. ४७ इस अवसर्पिणीमें ७ अभव्य प्रसिद्धि में आये हैं. ४८ म्लेच्छ और मच्छीमारादि श्रावक हुए होवै तो उनकों जिनमतिमा पूजनमें लाभ ही है. यदि शरीर और वखादिककी शुद्धता होवे तो प्रतिमाजीकी पूजा करनेमें मना है असा लेख मु. में नहीं आया ! ___४९ शिष्य अच्छी तरह चारित्र न पाल सके; तदपि गुरू मोहस करके उनको योग्य शिक्षा वचन न कहें तो गुरुको पाप लगै. अन्यथा न लगे. ५० साध्वीको वंदना करनेके परुत श्रावक ' अशुजाणह Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • ३१० भगवती पसाउ करी, असा पाठ करें. जैसी मर्यादा है. ५१ यदि एकाशने सह उपवास करे तो ' सूरे जंगए उत्थ भत्तं अभत्तठ्ठे पञ्चख्खाइ ' जैसा करनेकी अविच्छिन परंपरा मालुम होती है और छह प्रमुख पचख्खाणमें तो पारणेके दिन एकासना करे या न करे तो भी 'सुरे उगए छहभत्तं अहममत्तं ' असा पाठ कहा जाता है जैसे अक्षर श्रीकल्प सूत्र समाचारीजीमें हैं. ५२ श्रावक दिन संबंधी पोषह किये बाद भाव वृद्धि होनेसें रात्रि पोषह ग्रहण करै, तब पोषह सामायिक किये बाद 'सज्झाय करूं?' ये आदेश मांगनेसें ही काफी है. 'बहु वेल संदिसा हुँ ?' ये आदेश मांगनेका नियम नहीं. सबबके प्रभातके वख्त वो आ देश मांगलिया था. - १३ सौ योजन के उपरांत से आया हुवा सिंघानीन वगैर: अचित होवे - दूसरे नहीं. · १४ श्रद्धा रहितपणेसें योग वहन किये विगर साधु या श्रावकोंकों नवकारादिक गुणणे-पढने में भी अनंत संसारीपणा कहा जाता है. लेकीन शक्त्यादिके अभाव सें योग वहनकी श्रद्धा સત્યનિ ચોળ पूर्वक नवकार मंत्रादि पढने में परित संसारी पणा ही संभवता है. ५९ केवल श्रावक प्रतिष्ठित और द्रव्यलिंगी के द्रव्यसे बनाया गया और दिगंबर चैत्यको छोड़कर बाकी के सब चैत्य, वंदन पूजन के लायक हैं. और उपर कहे गये चैत्य भी सुविहित मुनिके वासक्षेप सें वंदन पूजनके योग्य होते हैं. १६ जल मार्ग में सौ योजन और स्थल मार्गमें साठ योजन उपरांत आई हुई सचित्त वस्तु अचित हो जाती है. Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७ श्रावक- पोसहम धरके मनुष्योकी पूंछ करके साधुको अनादिक व्हारावै. ५८ आलोयण संबंधी खाध्याय इरियापही पूर्वक सूझ सके. कभी भूल गये होवै तो फिरक-पुन: उपयोग करना. . .....५९ ७४ करने की इच्छावाला यदि. पहिले दिन एक उपवा. सका पचरूखाण कर तो दूसरे दिनभी एक उपवासका पञ्चरुवाण कर. उसके बदलेमें यदि छहका कर तो उनको दूसरे दिन भी उपवास करना युक्त है. औसी समाचारी है. .. ६० केवली समुद्धात किये बाद अंतर्मुहूर्त तक संसारमें रहते हैं, पीठफलकादि स्थकों पीछे-वापिस सोंपकर पीछे शैलेशीकरण करते हैं, कयोंकि अंतर्मुहूर्त आयु शेष रहता है तभी ही समुदघात करने लगते है. - ६१ योगमें रात्रिक १०त. अणाहारी वस्तु लेना न कल्पै. __ (संघका अभाव होनेसे न कल्पै.) -- ६२ योग उपधान और व्रत उच्चरने होवै तो उसमें दिन शुदि देखनी महिना वर्ष वगैर: देखनेकी कुछ जरुरत नहीं. ... यह प्रश्नोका सार उक्त ग्रंथे बांचनेकी वस्तमें किये गइ यादी मुजब लिखा गया है, उनमें यदि संदेह पड़े तो उक्त ग्रंथोसें उसका निर्णय कर लेना. - - 1 समाप्त Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पकड આ યંત્રમાં એવી ગોઠવણુ કરવામાં, આવી છે કે વચ્ચે લખેલ ‘મ’ થો જુદી જુદી ‘૨૭૦’ ૨તે અદ્ભુત સિદ્ધ આચાર્યઉપાધ્યાય સાર્દુભ્યો નમ:” એ જાપ વાંચી શાશે. રમુજ સાથે પંચ પરમેષ્ઠીના ; જાપનું આ અનુપમ સાધન છે. મક્તક મઃ ત ભેંશ ધુ સા ય ય ધ્યા પા વ્યા પા વ્યા \\\ યુ ૩ જ્યા ભ્યા ૩ ન ભ્યા ધુ પુ સા સા મ G પા યા વ્યા પા @ 82 @ ય ર્ચ ચા યં ૨ ધ્યા I य સા ધુ સા સે। ૯ ' સા સા य મ વ્યા પા G ય જ્યા પા ઉ I પા વ્યા ય ચ્યા પા ઉ યે ચ્ચા આ ६ આ ચા ય સા ધુ વ્યા પા ચા આ મ્યા પા ધ્યા ય સા G" पंच जय यंत्र @ પા ધ્યા પો ચા આ સ ૬ આ ચા ય ઉ ધ્યા પા ય ' ધ્યા પા ચા આ સિ ત સ દુ આ ચા ય .€ પા ' ચા આ ૬ સિ હું ત ય મ્યા આ ૬ સ ત ઉ હું મ હું સત ' હૈં આ ચા આ ચા ઉ પા ઉ ક ચા આ ધ સિ ત ચે યા આ ૬ ચ |æ }} ત સ ચા ૬૬ ધ્યા પા યે ચા હ ત સ ૬ આ ચા ૬ આ ચા ચ. ઉ આ ચા પા સ સ્ક્રૂ આ ય ધ્યા આ ચા ६ આ ६ સ પા ય ઉ ય ઉ ||s O પા સા ય ધ્યા પા વ્યા ચ્યા. ય પા ઉ ય ચા આ ચા, FO પા વ્યા ય સા i ૩ સા ૧ વ્યા ==\5s = ઉં ધ્યા ભ્યા 1 NO સા મ વ્યા .. ચાર્ય ઉ પા 17 પા @ [૪]@]= ધ્યા ય ન જ્યા ધુ સા ५ વ્યા ૐ ===|| પા સા હું ભ્યા ય સા સા. ધુ ધુ બ્યા ' ન ' સ ન સ્થા છુ સા “ય પા ક્યા ય સા ૩ ભ્યા ન મઃ U Page #331 -------------------------------------------------------------------------- _