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कल पापनिति पूर्वक धर्म धारन करनेसे सजान अपना जन्म सफल करते हैं. पापकर्म मै सच्ची लगनी लगानेसे पैदाहुइ दुष्ट वासना बंध हुवे विगर जैसी उत्तम-शुद्ध-उदात्त भावना पैदाही नहीं होती हैं. सज्जनाका स्वभाव हंस समान है और दुर्जनोंका स्वभाव सू. अरकी समान है. साधु, साध्वी, श्रावक, श्राविका-यह चारों सवज्ञ प्रभु श्री वीर परमात्माके सेवक होनेसें वै परोपकारी परमात्माकी मजारुप गिनाये जाते हैं. अलवत, परमात्माकी पवित्र आज्ञा मुजब चलनेके कामी सुसाधु और प्रभुजीके वृद्ध-बडे पुत्र कहे जाते हैं, आर्या चंदनवाला, भृगावती वगैरः महासतीयोंकी तरह परम विनय भाव पूर्वक पवित्र महाबत पालनमै तत्पर सुसाध्वी समूह प्रभुजीकी बडी पुत्री, और सुलसादिककी तरह सुश्रद्धा धारिणी श्राविकाए प्रभुजीकी छोटी पुत्री गिनी जाती है.
इसपरसें एकही परमात्माकी पवित्र आज्ञाको पालनेवाले चतुर्विध संघ के बीच एक दूसरेका कैसा गाढ सम्बन्ध रहा है वो स्पष्ट मालूम हो आता है. सांसारिक संबंधसें भी ये धर्म संबंध कितना पवित्र और ज्यादे किगती है ? वो लक्षमै लेने लायक है. संसारचक्रकी अंदर कर्म के वश्य हो जानेसें भ्रमण करने के पक्तमै माता-पिता-पुत्र स्त्री वगैरः का संबंध मिलना जैसा सरल है वैसा उपर कहा गया धर्मसंबंध-मिलाप मुलभ नहीं है, लेकिन वडा दुर्लभ है; तदपि कोइ कोइ सुलभबोधी भाग्यवंत भव्यजन भवाटवी के बीच अतिदुर्लभ धर्म पाकर अपने साधीभाइ और भगिनीथोकी तर्फ सचा पात्सल्य भाव रखते है उन्हीकों ही धन्यवाद है.