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________________ १४५ __ परमार्थ कोई विरलाही जानते होंगे. यहाँ प्रसंगपर अपन उनपर विचार करें और उमीद है कि उनका सार समझ हृदयमें धारन कर' उनका बने उतना उपयोग करनेम आप मव न चूकोगे. जानने के फल यही है. यत:-मानस्य फलं विरातिः' विरतिका फल आश्रय निरोध, उनका फल संपर, संवरका फल तपोवलं, तपोवलका फल निर्जरा, निर्जराका फल क्रियानिति उनका फल अयोगित्व, योगनिरोधका फल संसार संततिका क्षय, और संसारसंततिक क्षयसें मोक्ष औसें क्रमशः परम विनय आदरसे ग्रहण किया हुवा सन्यज्ञान और वैसे मानपूर्वक सेवन करने में आती है विरति-उभय मिलकर उतम मोक्षफल मिला देते हैं। पास्ते मोक्षफलकी चाहतवालोको इसमें प्रमाद न करना. __पहिले तो हे भव्यजीवो ! जिन्होंने सर्वथा रांगादि अंतरंग शत्रुऔर जीत लिये है सोही वीतराग सर्व परमात्माकी उत्सर्ग, अपवाद, निश्चय, व्यवहाररुप स्थावाद आज्ञाकों सुबुद्धिबलसें समसकर आदर प्रमाण करलोः सम्यक विचार करो कि राग द्वेष और मोहका सर्वथा क्षय होनेसें श्री जिनेश्वरोंकों किंचित्मात्र क्यचित् भी झूट बोलनेकी जरुरत नहीं रही है. उस उन्होंके वाक्य प्रमाण-करने लायक हैं असा अखंड निश्चय कर लो. . दूसरा-स्तर जिनका स्वरुप कुछ विस्तार से कहा गया है उन मिथ्यात्वका बिलकुल साग कर दो. . तीसरा-समकित राको धारन कर लो.. इसीही. अधिकारी
SR No.010240
Book TitleJain Hitbodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherJain Shreyaskar Mandal Mahesana
Publication Year1908
Total Pages331
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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