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________________ आगे कहा गये तीन तत्व-देव गुरु धर्मका स्वरुप बराबर समझ कार उन्होंमें विवेक करो, यानि सत्यासत्यका निर्णय कर असत्यका त्याग कर सत्यकों तदन स्वीकार लो. तथा हे भद्र ! सद् गुरुकी सम्यम्-सब तरहसे पूर्ण सेवा करके शुद्ध तत्वोपदेश सुनकर शुद्ध श्रद्धाधारी तत्व रसिक होना. सभक्तिक ६७ पोल विचार कर जिस प्रकार ज्यादे तत्वविवेक जागृत हो सके और सम्यक्त्वकी निर्मलता हो सके वैसा उद्यम करना-अर्थात् समकित के शंकादिक दूषण दूर करने के लिये और गीतार्थसेवादिको तत्पर रहने के लिये ही आत्मा है. आत्मा नीत्य है. कर्ता है, भोता है, मोक्ष है और मोक्षक उपाय भी सर्वज्ञ प्रभुने को हैं. ये समकितके छस्थानकों का सम्पम् विचारकर गुरुगम द्वारा उन्होंका निश्चय करना जिस्से स्वमातरमें भी मति भ्रम न होयगा. चौथा-पविध आवश्यक हमेशा तत्पर हर्षचित्तपत रहना. सामायिक, चौपशि जिनस्तवन, गुरुवंदन, प्रतिक्रमण, कायोत्सर्ग और पच्चखाण ये छ आवश्यक दररोज श्रावकोंकों करने लायक ही हैं. (१) जघन्यसें दो घडी तक निंदा-प्रशंसा-मान-अपमानकी अंदर समभाव रखकर स्वरुपका चिंतन करना सो सामायिक कहा जाता है. पाप व्यवहार मन-वचन-तन द्वारा आप खुद कर नहीं, दूसरके पाससे करावे नहीं, जैसी निर्वध हत्तिमें जब तक रहे तब तक उन सामायिकतको शास्त्रकारोंने साधु समान कहा है; वास्ते
SR No.010240
Book TitleJain Hitbodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherJain Shreyaskar Mandal Mahesana
Publication Year1908
Total Pages331
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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