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૭૨ अनंत दुःख वेदना सहन करते हुवे वो बास पाते है. अशुभ-निधकर्म करके अपने हाथोंसे मंग लीये हुवे दुःख उदय आनेसे दीनता करनी सो केवल कापरता ही कही जाति है. दुःख पसंद पडता न हो तो दुःखदायक निधकृत्योंसें विचार कर-पश्चाताप कर उनसे अलग हो जाना, जिस्से तैसे दुःख विपाक भोगने पडेही नहि; परंतु पुर्वके कीये हुवे दुष्कृत्योंके योगसे पडा हुवा दुःख सहन करते दीन हो खेद-विषाद धरना पा विकल हो अविवेकतासे दूसरे दुकृत्य करना सो तो प्रकट दुःखका मार्ग है.
४४ समभावसें रहेना. जो महाशय सुख, दुःख, मान, अपमान, निंदा, तुति, सधनता, निर्धनता, राजा, रंक, कंचन, पथ्थर, तृण और माणि वा नारी और नागनको अगाडी कहे हुवे सदविचार मुजब वर्तन,रखकर समान गिनते है और उसमें मोह प्राप्त नहीं होता है. यावत् तिनकों केवल कर्मविकाररूप निमित्त भूत गिनकर मनमें विषमता न ल्याते हर्ष विपाद रहित सम बुद्धिसेही देखते है, तैसे सदविचारवंत विवेकवत-सद्गुण शिरोमणि जन समसुख अवगाह कर धर्म आराधनसें अवश्य स्वकार्य सिद्ध करते है; परंतु जो अज्ञानता के जोरस-विवेक विकल मनसे विषम वर्तन करते है, हर्ष खेद धरके
आप मतसे उलटे चलते है सो तो फ्रोड. उपायसें भी आत्मकार्य ‘साध नहीं सकते है.