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________________ ३०५ उसे चौविकारका पच्चखाण करना चाहियें.. ११ विकलेद्रि मरण होकर मनुष्यपणा पावे उस વિજ્ઞા ૢ विरतीपणा पावे; लेकिन मोक्षमें न जा सकै औसा ઐસા तिमें कहा है. भवमें सर्व संग्रहणीवृસંકર્ષ્યાવૃ , १२ साधुकी तरह साध्वी चारण श्रमण लब्धीवंत नही हो सकती है. १३ शरीर और दीपक अनि आदिकी उद्योत बीचमें चंद्रका प्रकाश पडता हो तो भी उजेही लगे; मगर यदि शरीरपर चंद्रका उद्योत पडता हो वै तो उजेही न लगे. १४ प्रातःकालमें मिलाया - जमाया गया दहीं सोलह पहरके वाद अभक्ष्य होवै; मगर कुछ सोलह पेहरका नियम नहीं है, किस लिये कि संध्या समय जमाया गया दहीं बारह पहरके बाद भी अभक्ष्य हो जाता है. १५ श्रीमान् और गरीबकी अपेक्षास उच्च नीच कुलमें ( समवृत्ति ) गोचरीके वास्ते फिरनेसें सामुदानी भिक्षा कही जाती है. १६ मंडल आयंबिल बड़ी दिक्षा दिये वादही करने सूझें. १७ द्रव्य लिंगीओंका द्रव्य जिनमंदिर तथा जिन प्रतिमाजीके उपयोग में न आ सकै, जीवदया और ज्ञानभंडार में उपयोगी हो सकता है. १८ रात्रि के चौविहार पचख्खीण वालेकों स्त्रीसेवनमें- अधर ·
SR No.010240
Book TitleJain Hitbodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherJain Shreyaskar Mandal Mahesana
Publication Year1908
Total Pages331
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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