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________________ ૩૦૪ विज्ञान उन तीर्थकरजकों होता है. यानि गृहस्थ तीर्थकरोंमें अवधि ज्ञान कम ज्यादा इस सवबसें होता है. ( समीको समान न हीं होता है. ४ वर्षाकालमें साधुजीने जहां चातुमसा किया होवै वहर्सि पांच कोश तक के संविज्ञ क्षेत्रमें कारण शिवाय चातुर्मासा पूर्ण किये बाद दो महीने तक वस्त्रादिक लेना नहीं कल्पै; यह अधिकार निशिथ चुर्णीमें है. ५ कृमिहर नामसें प्रसिद्ध हुई अजवायन वृद्ध-ज्ञानी पुरुषोने अचित्त मान ली है. ६ दुपहर और दोनू संध्या समय नियुक्ति भाष्यादिक तमाम पाठको पठन पाठन करनेका आचारमदीपादि ग्रंथ में निषेध कियामना की है. ७ उपधान में पहेरी जाती माला संबंधी सुन्ना, चांदी, रेशम या सूत वगैरः द्रव्य देवद्रव्य होवै. यानि उनकों देवद्रव्य गिनते हैं. ८ शय्यातर तो जिनकी निश्रामें रहवें वही कहा जाय जैसा श्रीहत् कल्पादिकमें कहा है. बड़े कारण के लिये तो उनके घरकामी व्होरना कल्पता है. ९ एक और दोसें अंतरित परंपरा संघ छोडने योग्य है. तीनसें अंतरित हो तो संघट नहीं लगे. १० दिन अस्त होनेके वख्तकी पडिलेहण के समय तिविहारका पचखाण किया होवें तो प्रतिक्रमणके समय पाणहारका पञ्चखालीया जाय; मगर तिविहारका पञ्चखाण नहीं किया होवै तो
SR No.010240
Book TitleJain Hitbodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherJain Shreyaskar Mandal Mahesana
Publication Year1908
Total Pages331
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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