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________________ ___ १३४ अनर्थ करनेहारा है. लक्ष्मी आदिकमें बेहद लोभसें अनेक वरूत महान् कष्ट-तकलीफ सहन करने ही पडते हैं. बहुत पाप सेवन कर पैसा जमाकर उनमें बहुतही ममत्व रख कर मरनेस सांप वगैर के ज.॥ लेके दूसरे जीवोंको पहुत त्रास देनेहारे होकर आखिर नीच गति पाते हैं। वास्ते अति लोभ छोडकर अवश्य संतोष सेवन करना कि जिसे यह भव परभव सुधर सकै. (६) फ्रोध-गुस्सा-रीश लाकर दूसरेको तिरस्कार वचन आक्रोशादि करना उसको ज्ञानीओंने अग्नि समान कहा है. ज्हां वो क्रोधाग्नि प्रकट होता है वहां गुणको जलाकर आगे बढ़के हामनेवालेको जला देता है, मगर उस वख्त उपशमरुप जलका योग मिल जाये तो आगे बढा हुवा भी दूसरे (क्षमापंत) कों नुकशान नहीं कर सकता है गतलब यही है कि क्रोधकों शांत करनेकों अव्वल दर्जेका इलाज उपशम भाव है. आगे यह दोहरे कहे गये है; तथापि प्रसंगवशात् याद कराते है कि: क्षमा सार चंदन रस, सिंचो चित्त पवित; दयावलि भंडप तलें, रहो लहो सुख मित्त! १ देत खेद पर्जित क्षमा, खेद रहित सुखराज; इनमें नहीं आश्चर्य कुछ, कारन सरिसो काज. २ पास्ते शांत सुखके ग्राहकोको खेदरहित क्षमा गुण धारन __ करके अपना और दूसरोंका उपकार कियेही करना. ... (७) सातवें मान-अहंकार अभिमान-गर्व-मद आदि इसी
SR No.010240
Book TitleJain Hitbodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherJain Shreyaskar Mandal Mahesana
Publication Year1908
Total Pages331
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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