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________________ १३३ पेठने नहीं पाता है, हर हमेशा भयसे आतुर ही रहता है, राज्यदंडादिक अनेक दोष पैदा होते है, और परभवमें गदहे आदिके नीच जन्म लेकर पराया देवा पूरा करना पडता है. वास्ते सुश्रा__पक उनसे हमेशा डरकर चलै; क्यों कि इसे बचा हुवा हो तो राजादिक तमाम जन उनकी प्रतीति रख्खें, व्यवहार में हानि न होने पावे, दूसरेजन उनको देखकर धर्म पावें, और परभवों प्रायः महर्थिक देव समान उत्पन्न होवै. (४) चौथा. मैथुन-मैथुन क्रिया (देव मनुष्य या तिथंच संबंधी विषयविलास करना सो) चौथा पापस्थान है. किपाक. फलकी तरह पेस्तरमें वो भीठी लगै; मगर अंतमें विपरु५ होती है. यावत् आपके सत् चरित्ररुप नाणको हर लेती है. जगतमें विवेक विकल बनकर और बेर निंदा पात्र होने हैं. लुब्ध लंपट और नादानीकी पंक्तिमें गिने जाते है. विषयइंद्रिके तावदार होनेसें आखिर रावणकी तरह स्वार होते हैं. उन्ही विषयक्रीडाको ५०य करने हारे श्री रामचंद्रजीकी तरह जयश्री के स्वामी होते है. सुदर्शन शेठकी तरह. शासन दीपाने हैं, और अत्र इच्छित फल मिलाकर परभवमें मुख प्राप्त करते हैं; वास्ते उक्त पापस्थान आदर सहित छोड देना ही दुरस्त है. (५) पांचवा परिग्रह-धन धान्यादिक वस्तुओंकी अंदर परि यानि सब प्रकारसे, ग्रह यानि आग्रह-भूच्छी ममत्व उसीकों परिग्रह पापस्थान कहा जाता है. ये पापस्थान परिणाममें महान्
SR No.010240
Book TitleJain Hitbodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherJain Shreyaskar Mandal Mahesana
Publication Year1908
Total Pages331
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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