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कर सावध हो उनका अपनकों खसूस त्याग कर देनेकी हो जरुरत है.
( १ ) पहिला प्राणातिपातः-पांच इंद्रिये, मन, वचन, काय, श्वासोश्वास, और आयुष यह दश प्राणधारीओंका या इनमेसें थोडे भाणवाले जीवोंका विनाश करना यानि जानकर, अनजानपनेसें, या प्रमादवश होकें प्राणीवर्गको पीडा पैदा करनी यावत् उनका नाश करना उसका नाम प्राणातिपात कहा जाता है. समस्त प्राणीवर्गके प्राणोंकों अपने प्राणसमान प्यारे गिनकर उनकों बिलकुल तकलीफ जो महात्मा नहीं करते हैं वै दमनशील पापका द्वार ( पापाश्रव ) बंध कर अपने आत्माकों मलीन नहीं करते हैं. काइ भी प्राणीको पीडा करनेका अपना हक नहीं है. अपने अपनेकों मिले हुवे प्राणोंकों धारण करनेमें सभी जीव सुख मानते है. उनकों मिले हुवे भाणोंकों छीन लेकर उनकों सुखका अंतराय करनायावत् उनके प्राण छीनकर उनको जो परम असमाधी पैदा करनी सो त त्यसे विचार करै तो (वो) भावि दुःखका मूल कारण है.
( २ ) दूसरा मृषावाद :- मृषा यानि झूठ और वाद यानि ચૂંટ बोलना अर्थात् असत्य बोलना, विना प्रयोजन मिथ्या - नाहक संबंध बिगरका बोलना, अपने और दूसरेका हित न होवै वैसा अविचारी कर्णकटु बोलना उसको मृषावाद कहा जाता है. कदाग्रह द्वारा सत्य - धर्मविरुद्ध भाषण करके स्वपक्ष स्थापन करना उनकों महामृषावाद समझना..