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________________ १३५ के पर्याय हैं. मोक्षनगरमें जाने के क्रूत मानरुप पहाड बीचमें हरकत करता है, उसका नाश नम्रतारुप पनसेंही होता है. मानसे रावण, दुर्योधन जैसे भी जबरदस्त राजेश्वर भी पायमाल हो गये है। क्यौं कि मान सभी गुणोंका नाश करनेहारा है। वास्ते मान छोहकर विनयका सेवन करना. (८) आठवे माया-दंभ-छल-प्रपंच-कपट-ठगाइ वगैरः इनकही पर्याय हैं. दंभी मनुष्य अपने दोष छुपाने के लिये और लोगों में अपना मान मरता बढाने के लिये अनेक यत्न प्रयत्न करता ही रहता है, मगर आखिर 'दगा किसीका नहीं सगा' इस न्यायवचनानुसार पापका घडा चटका फूट जानसें बड़ा भारी फिटकार पाकर निंदाका पात्र होता है. पुनः उनका कोइ विश्वास भी नहीं करता है, उनकी सभी धर्म क्रिया भी निष्फल हो जाती है; वास्ते वक्रता छोडकर सरलता सेवन कर मन शुद्ध करना. जहांतक मनका मैल नही धो डाला है वहांतक वहार के तमाम आईवर निक+मे है। वास्ते माया कपटता छोड देनी. (९) नौवे लोभ-असंतोष, तृष्णादि इनके ही पर्यायवाची स०५ हैं. तमाम अनर्थोका मूल लोभ है. कहा है कि: - आगर सबही दोषको, गुणधनको बड चोर; व्यसन वेलिको कंद है, लोभपास चहुं और. लोभमेघउन्नत भये, पापक बहु होता धर्महंस रति न हुं लह, रहे न ज्ञान उधोत.
SR No.010240
Book TitleJain Hitbodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherJain Shreyaskar Mandal Mahesana
Publication Year1908
Total Pages331
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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