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________________ २१० . प्रकार से रागद्वेष पतले पडजावै-दूर हठ जावै उस प्रकारसे मोक्षकी चाहतवाले जीवोंको सावधानीसें चलना दुरस्त है. . इंद्रियों के विषयमें भटकते हुवे मनरुप लंगूरकों रोक १९९७ उनको शुभ संयम क्रियामें जोड देना. मन छुहा रहनेसे जितना अनर्थ-जुल्म करता है उतना शुभ क्रियामें प्रवर्तनसें न कर सकेगा. यह मनरुप तोफानी हाथी छुटा हो तो संयमरुप फल फूलसें भरपूर हुवे बगीचेकों उखाडकर फेंक डालता है। वास्ते श्रीजिनाज्ञा रुप अंकुश हाथमें रखकर उनको तावे करलो-नहीं तो तुमारी सब महेनत परषाद जैसी ही हो जायगी. इसी सबके लिये ज्यौं वन सके त्यौं युतिय अमलमें लेकर मनको २५ करनेका .६८ अभ्यास करना अति जरुरतका है. औसा करके मनको वश्य और संयमका संरक्षण करना योग्य है. क्यों किः अहंकार परमें घरत, न लहे निजगुण गंध; अहं ज्ञान निज गुण लगे, छुटे पर ही संबंध. १ रागद्वेष परिणाम युत, मन ही अनंत संसार, . तेहिज रागादिक रहित, जाण परमपद सार. विषय ग्रामकी सीममें, इच्छाचारी चरंत जिन आणा- अंकुश धरी, मनगज वश्य करत... ३ ___इस तरह बहुसें महात्मा पुरुष संयम रक्षण करनेके वास्ते उ तम प्रकारका वोध देते हैं, उसको हृदयमें धारन कर अपनी श'शिको फैलाके यथा योग्य उसका उपयोग करै तभी ये अमूल्य तक
SR No.010240
Book TitleJain Hitbodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherJain Shreyaskar Mandal Mahesana
Publication Year1908
Total Pages331
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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