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२६८ .: शुद्धिकर-निर्मल शासनकी प्रमरद पवश होनेसे भई हुई -मलीनता दूरकर-श्री वीतराग शासनकी शोभा बढाके-हमेशा अ-प्रमत्त रहकर-मोह मत्सरादिक दुष्ट दोपोंका पराभव कर समतादिक सत् सहाय पलसे शांत सुधारसका पान कर-परम शांत बनकर अनेक भव्यजनोंकों आश्रयस्थान हो केवल निष्पह-निरासभावसें स्वात्महितैषी जनोंकों शास्त्र रहस्यभुत शांत सुधारसका पान करके, श्रेष्ठ स्वार्थ साधते हुवे अखिनतासे परोपकार करते ही आखिर समाधि पूर्वक द्रव्य भाव संलेषणा कर-समस्त विरोध शांतकर समस्त पापस्थानक आलोय-निंदकर कायमक लिये पचखाण कर अंतिम श्वासोश्वासमें भी धर्म पवित्र अरिहंत सिद्धकाही सस्मरण कहते हुवे यह बाह्य प्राण छोडकर पवित्र शासनी वेपको भगालेना यही सर्वोत्तम है. इस मुजव उत्तम आराधना-पताका स्वाधीन करली जावै, जय जय नंदी जय जय भवाफे मांगलिक शब्द - निसें बंधाये लिये जावै, और अंतमें परमानंद पद भी इसी तरह प्राप्त किया जावे. अहा ! जैसी परमानंद दायक स्थिति साक्षात् सर्वदा अनुभवनेके लिये किस पास्ते मुलजाना चाहियें ? और कु-मति कदाग्रहका पल्ला पकडकर किस वास्ते पायमाल होजाना चाहिये ? इतनी हदपर पहुंचने परभी सुखकी बेदरकारी कर केवल कल्पित सुखमें मशगुल हो, जीती हुइ बाजी क्यों हारजानी चाहिये ? पुनः पुन: विनय पूर्वक विनती करता हूं कि अब वीरपुत्र ! और चीर पुत्रिये ! अब विलंब विगर जात होजाओ और तुमारा हित