SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 285
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ . . . २६७ है। अपना-आपकाही कल्यान करनेकों असमर्थ अपन अन्यजनीका किस तरह कल्यान कर सकेंगे ? वास्ते मेरे नम्र विचार मेरे प्यारे भाइ भगिनायें ! पहिलें तो अपनकों अपने कल्याणके वाले दूसरी तमाम पावते वाजुपर छोडकर खास प्रयत्न करनाही योग्य है. जहातक उक्त अति उपयोगी पावत में विलय या बेदरकारी करने में आयगी, वहांतक दिनप्रतिदिन झूटी अहंता ममताके सेवनद्वारा संपकी वृद्धि के साथ पवित्र आचार विचारकी अति हानिका - विशेष प्रसंग आनेसें अति निर्मल भी वीतराग शासनकी मलीनता होनेका कठिन संभव रहता है. वास्ते मेरे प्यारे ! अपनकों अब निविलंबसे तुरंत जागृत होनाही दुरस्त है. अब ज्यादे पख्त प्रमादकी पथारीमें पड रहनेका नहीं है. अपनको श्रीगौतमस्वामीजीके जैसे महापुरुषोंका वेष धारन करके उनकों एक क्षणभरभी शरमिंदा करना नहीं; किन्तु सर्व शक्ति फैलायके उनको पूर्ण यकीनसे भजनाही चाहिये. अपनको सचा सुख चाहियें और वैसा काम न करै अगर उस्से विपरीत करै, तो सुख क्यों करके संपादन हो ? अपन नरक-तिर्यंचादिक दुःखसे डरै तौभी रस्ता तो वैसा ही लेवै तब वैसे दुःखसे क्यों कर बच सकै ? हा, मेरे भाइ भगिनीये ! वचनका एक मार्ग है सो यही है कि अ.. पनने ग्रहण किया जो वेष उसको लज्जापान क्षणभरभी न करते अपना अंतरंग मान मायादि मैलकों घोडाल कर नम्रता सरलता विवकतादिक उत्तम गुणवंत सुसंपधारन करके पवित्र आचार वि
SR No.010240
Book TitleJain Hitbodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherJain Shreyaskar Mandal Mahesana
Publication Year1908
Total Pages331
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy