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१५८ यु न बोलना, सातवों-इस पचनका यही परिणाम आयगा, इन संबंधका पूर्ण विचार करकही बोलना, मगर ज्यौं आया त्यों पदना न चाहिये, और अंतमें धर्म मासे विरुद्ध भाषन न करना चाहिये. इस मुजब विवेक पूर्वक बोलने वालेका वचन प्रमाणभूत होनेसे विश्वास पात्र होता है। वास्ते आपकी या धर्मकी उन्नति बढाने के लिये अ१२५ भाषा समिति आदरनी चाहिये.
पच्चीसवाँ-षट् जीव निकाय यानि तमाम जीवोंके उपर कर'णा-दया बुद्धि पारनकर सुश्रावकको उन जीवोंकी बन सके वहां तक रक्षा करनी सब जीवोंको जीना बड़ा प्यारा लगता है मरना यारा नहीं है. औसा समझकर मुखार्थी जीवोंकों किसी जीवकों न मारना चाहिये, न किसीके पास मरवाना चाहिये और न मारन मरवाने पालेकी प्रशंसा करनी चाहिये. अगर किसी जीवकों दुःख पैदा होवै वैसा कुछ भी अनुचित-गेरन्याजवी आप खुद करै नहीं, करावे नहीं और अनुमोदन भी करै नहीं. करुणा हृदयवंत जनोने
किसीकाभी अनिष्ट-बुरा मनसें चिंतन करना नही, पचनसें बोलना __नही, और कायासें करना नहीं. जिस तरह सबका भला हो उसी तरह सदा चितवन कियेही करै उसी तरह बोले, और उसी तरह किया कर तथा दूसरों को भी पैसाही करनेका उपदेश कर और वैसा करने वालेकी सदा प्रशंसा किया करे.
छब्बीशवा-धर्मीष्ट जनोंका संसर्ग-परिचय करना जैसी सोक्त वैसी अस यानि सोधते असर तुक तासीर ' ये कहना