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लोको त्याग करके चली जाती है, तब वै अज्ञजन आंख मसल कर रोतेही रहते हैं, और स्वच्छंदपनेसें चलनेके प्रायश्चित मुचाफिक पश्चात्ताप करनेकी अंदर बाकी मै रहा हुचा आयुप पूर्ण कर यमराजाके महेभान होते हैं. तथा स्वच्छंदपन के सच्चे फलकी परीक्षा तो वहां ही होती है, और बुद्धिवल पाने परभी उसका सदुपयोगके बदलेमै गैर उपयोग करै उसिके वेसे ही बेहाल होते हैं. वास्ते तत्त्वातत्व विचार करिक अतत्व छोडकर तत्त्व ग्रहण करना यही अकलमंद पुरुषोंका कर्तव्य-जीवनसार्थक है; तो भी किननेक जन अनेक कुतर्क, छल प्रपंचकी रचना करके भोलेभाले जीवोंकों वागजालमै या मोहमालमै फँसाकर अपने और दूसरेको अनर्थ प्राप्ति कराते हुये अनेक दुराचारीजनोंकों अपन प्रत्यक्ष अपनी आंखोसे ही देखते हैं. असे अनाचार या दुराचारकों सेवन करनेवालोंकी बुद्धि ही उन्हीके और दूसरोंके द्रव्य और भाव प्राण हरनेके लिये जबरदस्त शस्त्र रूप ही होती है. वैसी नीच बुद्धि धारन करनेसे अपने आपकों और दूसरोंकों भी अनेकशः अघोगतिका ही कारण वनता है; तदपि दुर्जन अपना स्वभाव नहीं छोड देते है वो.प्रत्यक्ष हानिकारक ही है.
जैसा समझकर सज्जन अपनी मुबुद्धिका बन सकै नहां तक सदुपयोग करनेकी तक हाथसे कभी नहीं गुमाते है. शुभ आशयवाले सज्जन दुर्जनोंकी तरह कषी भी निर्दय परिणामी हो कर जीवहिंसा नही करते हैं, असत्य नही पोलते हैं, पराये द्रव्यको हर