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हो पडता है, क्रोध वशवती जीव कृत्याकृत्यका विवेक भूलकर अकृत्य करनेको भवर्तता है, वास्ते सुखार्थिमनोने कषायवश होकर असभ्यता आदरक कवीभी उचित नीतिका उलंघन कर स्व परको दुःखसागरमें डुबाना नहि.
३८ क्लेश बढाना नहि. कलह वो केवल दुःखकाही मूल है. जिस मकानमें हमेशां कलह होता है तिप्त मकानोंसें लक्ष्मीभी पलायन हो जाती है; वास्ते बन आये तहांतक तो क्लेश होने देनाही नाह. यु करने परभी यदि क्लेश हो गया तो उन्कों बहने न देते खतम-शमन कर देना. छोटा बडे के पास क्षममिगे ऐसी नीति है; मगर कभी छोटा अपना गुमान छोडकर पडके अगाडी क्षमा न मंगे तो बड़ा आप चला जाकर छोटेको खमावे जिस्से छोटेको शरमीदा होकर अवश्य खमना और खमानाही पडे. क्लेशकों बंध करनेके लिये 'क्षमापना' खमतखामनेरुप जिनशासनकी नीति अत्युत्तम है. जो महाशय पो माफिक वर्तन रखता है तिनकों यहां और दूसरे लोकोभी सुखकी प्राप्ति होती है. और जो इस्से विरुद्ध वर्तन चला रहे है तिनको राब लोकौ दुःखही है. . ३९ कुसंग नहि करना.
'जैसा संग हो वैसाही रंग लगता है. ' यह न्यायसें नीचकी सोचत या बुरी आदतवाले लोगोंकी सोबत करनेसें हीनपन आता