SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 86
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ हान् लाभ संपादन होता है. यावत् लक्ष्मीभी तिनके पुन्यसें खींचाइ हुइ स्वयमेव आ मिलती है; परंतु खड्डको धारापर चलने जैसा यह कठीन व्रत साहसोक पुरुषही सेवन कर सकता है. - ३६ अत्यंत राग स्नेह नहि करना. ___ स्वार्थनिष्ठ संबंधी जनके साथ राग करनाही मुनासिब नहि है. जिस्के संयोगसे राग धारण कर सुख मानता है तिस्केही वि. योगसे दुःखभी आपही पाता है. इतनाही नहि लेकीन संबंधी जनकी स्वार्थनिष्टता समझ जानेपरभी दुःख होता है. वास्ते ज्ञानी अनुभवी पुरुषोंके प्रमाणिक लेखोंमें प्रतीति रखकर पा साक्षात् अजुभव-परीक्षा करके तैसा स्वार्थनिष्ठ जगत्में रागही करना लायक नहि है. तिसमेंभी बहोत मर्यादा बहारका राग-स्नेह करना सो .तो प्रकट अविवेकही है. क्योंकि ऐसा करनसे अंधकी माफिक कुछ गुण दोष देखकर निश्चय नहि कर सकता है. युं करतभी राग करनेकी चाहना हो तो संत सुसाधुजनोंके साथही राग करो कि. जिरसें कुत्सित राग विषका नाश कर आत्माकों निर्विषता प्राप्त होय. अन्यथा राग-रंगसें अपना स्फाटिक समान निर्मळ स्वभाव छोडकर परवस्तुमें बंधन कर जीव अत्र परत्र दुःखदाही भोक्ता होता है. रागकी तरह द्वेषभी दुःखदाइही है. ३७ वल्लौजनपरभी वार बार गुस्सा नहि करना. क्रोधसे प्रीतिका हानि होती है, क्रोधसें वल्लभजनभी अप्रिय
SR No.010240
Book TitleJain Hitbodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherJain Shreyaskar Mandal Mahesana
Publication Year1908
Total Pages331
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy