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दृढ अवलंबन ध्यान विशुद्धिसभोतमाप्ति होती है. इसी लिये शत्रुजय, गिरनार, आयु, अष्टापद, तालध्वज, समेतशिखर, पावापुरी, चंपापुरी, तारंगानी वगैरः स्थावर तीर्थरु५ मनाते हैं. __जंगम और स्थावर इन दोन तीर्थोकी विवेकसे सेवा करनेपाले भव्यसत्वोंकी तुरंत और सहजहीमें सिद्धि होती है, और वि. वक विगर बहुत कष्टसे की गई सेवनासेभी सिद्धि होनी मुश्कील है; वास्ते ज्यों बन सके त्यौं विवेक रत्न धारण करने के लिये उधम करना उपाध्यायजी यशाविजयजी पतलाते है कि:
रवि दूजो तीनो नयन, अंतरभावि प्रकाश करो धंध सवी परिहरी, एक विवेक अभ्यास. १ राजभुजगम विप हरन, धारो मंत्र विवेक
भवन मूल उच्छेदको, विलसे याकी टेक. २ ___ सारांश यही है कि विवेक ये अभिनय सूर्य है, नैसे ही अ. भिनव नेत्र है. जिनद्वारा आत्माकी अंदर प्रकाश होता है, उसीस अंदरकी प्रद्धि सिद्धिका भान होता है. उस विगर विधमान वस्तु होने परभी मालुम नहीं हो सक्ती; वास्त हे भव्यजनो ! दूसरे सभी चंद छोड करके फक्त एक विवेकका ही अभ्यास करो. ये विवेक रागरूप सांपका जहा दूर करने के वास्ते जांगुली मंत्रके समान है, और अखिल भवरुपी वनका उच्छेद-नाश करने में भी समर्थ है। पास्ते विवेकको अंगीकार कर उनकिन सारण करो. स्वपर, जड वेतन, हिता-हित, उचित अनुचित, भक्ष्यामध्य, पेयापेय, विधि