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________________ उत्तम गुण रूपी रत्नोंके स्थानरूप श्री तीर्थकरजीके जहां च्यपन, जन्म, दीक्षा, केवल ज्ञान और मोक्षरूप पंच कल्याणक होंगे, तथा जहां जहां गुणमय उन्होंका दीक्षा लेकर विहार-क्रमसें रहनास्थिरता हो उहां उहांकी जगह पवित्र चरणन्याससे पवित्र भइ हुई होनेसे, और मोक्षार्थी भव्य जीवोंकों प्रभुके उपकारकी यादीके साधनरुप होनेसें उसे 'स्थावर तीर्थ' कहा जाता है. किंवा जहां प्रभुजोके मुख्य अंतेवासी गणधर वगैर आचार्य प्रमुख मुमुच वर्गको सिद्धि गमन एक या अनेक पख्त हुवा है, होता है, और होगा, वो भूमि भी स्थावर तीर्थरुप गिननमें आती है. जंगम तीर्थ और स्थावर तीर्थमें इतना ज्यादा भेद है कि-जगम तीर्थ, भूत तीर्थकर, गणधर और समस्त तीर्थकर स्थापित, व समस्त सुरेंद्रादिक पूजित, मान्य गुणरू५ लक्ष्मीके क्रीडाहरु५ सकल साधु, श्रावक और श्राविका९५ संघसमुदाय जहां जहां विचरे करै, और विचरनेके परुत मोक्षार्थी जो जो भव्य जीव है चै महान् भाग्यशाली तीर्थकी सेवाका लाभ लेनेकी चाहत सबै और लेने के अनुकूल प्रयत्न करते रहे, वै वै भव्य सत्वोंकों वो जंगम तीर्थ अव२५ पापरहित-पावन करके मोक्षगति लायक बना दे. - और स्थावर तो स्थाइही होने से जो भव्य माणि खास चाहत करके भव जल तिरनेकी बुद्धिसे उन् उन् स्थावर तीर्थको जहाज रुप मानकर शुद्धबुद्धिसें उन्होंका आलंबन लेते हैं, उन्होंकों विवेकपूर्वक उन उन तीर्थों के अधिष्टायक देवाधिदेवकी पवित्र मुद्रा (मतिमाजी)क
SR No.010240
Book TitleJain Hitbodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherJain Shreyaskar Mandal Mahesana
Publication Year1908
Total Pages331
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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