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अपने जैसा गिनना. द्वैतभाव छोडकर समता सेवन कर किसी जीवको दुःख न हो वैसी यतनासें वर्तन चलाना. चीटीसें हाथी तक सब जीवित सुख चाहता है. राजा, रंक, सुखी, दुःखी, रोगी, निरोगी, पंडित, मूर्ख सब निर्विशेष-समान रीत में सुखको अर्थी है. प्रमाद प्रवर्तन ग स्वच्छंद वर्तनसें कोइ जीवकों सुखमें अंतराय करनेसे वो प्रमादी या स्वच्छंदी प्राणी वाधक कर्म बांधता है. जिस्का कडक फल तिनको अशुभ कमके उदय समय अवश्य सहन करना पड़ता है। वास्ते शास्त्रकार कहते है कि:" बंध समय चित्त चेतिये शो उदये संताप”
इत्यादि बोधवचनोंको लक्षमें रखकर सुखार्थी जनको सर्वत्र समता रखकर रहेना योग्य है. मैत्री, प्रमोद, करुणा और मध्यस्थभावकी प्राप्तिभी ऐसेही हो सकती है. जहांतक ये मैत्री वगैरः भावना चतुष्टयका भादुर्भाव-उदय हुपा नहि वहांतक शिवसंपदा वहोतही दूर समझनी.
६७ राग देष नहि करना. - काम, स्नेह, अभिष्वंग वगैरा रागके पर्याय शब्द है, और द्वेष, मत्सर, इया, असूया निन्दादि रोषके पर्याय है. स्फटिक न समान निर्मल आत्मसत्ताको राग द्वेषादि दोष महान् उपाधि०५ होनेसें विवेकवंत जनोने यत्नसें परिहरने योग्य है. जहांतक महा