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उपाधिरुप ये रागद्वेषादि दोष दूर होवें नहि वहांतक कवीभी आत्माका शुद्ध स्वरुप प्रकट होसकताही नहि. वो रागादि कलंक सर्वधा दल-हट गया कि तुरतही आत्मा परमात्मा पद । रमात्मपदके कार्माजनोने शत्रुभूत राग द्वेषादि कलंक सर्वथा दूर करनेको ६ मयत्न करना जरुरी है. यतः
__ " राग देष परिणामयुत, मनहि अनंत संसार, तेहिज रागादिक रहित, जानी परमपद सार."
[समाधिशतक.] तथा ये कर्मकलंक दूर करनेके वास्ते संक्षेपसें वालजीवों के हितार्थ अन्यत्र भी कहा है कि:
" शुद्ध उपयोग ने समता धारी, ज्ञान ध्यान मनोहारी; कर्म कलंकको दूर निवारी, जीव वरे सिवनारी, आप स्वभावमे रे अवधू सदा मगनमें रहना."
इत्यादि रहस्यभूत ज्ञानके वचनों को मोक्षार्थी जीवोंको परम आदरं करना योग्य है, जिससे सब संसार उपाधीसें सब तरहसे मुक्त होकर परमपद त्वरासे प्राप्त कर सके. सर्वज्ञभापित सदुपदेशका येही सारतत्व है. ज्युं वने त्युं चूंपसें राग द्वेष भल सर्वथा दूर कर निर्मल हो जाना. राग द्वेष मल सर्वथा दूर हो जानेसें आरमाकों शुद्ध वीतराग दशा प्राप्त होती है. वैसी शुद्ध वीतराग दशा