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________________ धर्म न कहिये रे निश्चय तहने, जे विभाव 45 व्याधि; पहेले अंगेरे ईणीपरे भाखियुं, कम होय उपाधि. श्रीसि. ज जे अंश रे निरुपाधिकपणुं, ते ते जाणे रे धर्म; सम्यक् दृष्टि रे गुणठाणा थकी, जाव लहै शिवशर्म. श्रीसि. इम जाणीने रे ज्ञानदशा भजी, रहियें आप स्वरूप, पर परिणतिथी रे धर्म नछडिये, नविपडिये भवकूप. श्रीमि. यह सब हितयोधका मतलव यही है कि आत्माकी परिणति सुधारने के लिये हमेशां निरंतर प्रयत्न करने की जरुरत है. कपाय बल बंध पड जावै तभी आत्मगुण प्रकट हो सके. यावत् कपायका बिलकुल क्षय होवे तो आत्मा के संपूर्ण अनंत गुण कायम के लिये प्रकट होवै. यानि यह आत्माही खुद परमात्म दशा प्राप्त कर सिद्धि मंदिरमे जा सकै; अन्यथा नहीं. वास्ते महा बायकभूत काय चतुकका जिस प्रकार तुरंत नाश हो सके उस प्रकार सर्वज्ञ कथित पवित्र शास्त्राज्ञा मुजव चलनेकी दरकार करनीही योग्य है, जिसरों उत्तरोत्तर सुख संपत्ति सहजहीमें संप्राप्त हो सके- तथास्तु ! निद्रापंचक:-निदमसे जगानेपरभी जो सुखसे जाग शकै उसीका नाम 'निद्रा' है, मुशीवतसे जगा सकें वो निद्रा निद्रा,' बैठेही या खडखडेही निंद लेवै वो 'प्रचला, चलते चलतें भी निंद लेवै वो 'प्रचला मचला,' और दिनके अंदर यादीमे शोच रख्खा होवै वैसा दुष्करतर काम भी निंदर्भसें अपने आपसही उठ कर वही काम कर आ पीछा अपने आपसेही सो जाय, तथापि उस कामका भान
SR No.010240
Book TitleJain Hitbodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherJain Shreyaskar Mandal Mahesana
Publication Year1908
Total Pages331
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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