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न होवै ऐसी घोरातिधोर निंदका नाम थीणद्धि' कहा जाता है. उस अंतिम निंदमें उत्कृष्ट बलदेव के जितना पल आता है, वो मनुष्य मरकर नरकमें जाता है. यह पांचों प्रकारकी निंद क्रमसें एक एकसे ज्यादे सरून दुःखदायी प्रतीत होती है. ज्ञानी पुरुष उनको सर्वधातिनी कहते है. यानि वो आत्मा के गुणोंकों नाश करनेवाली है, उसीसेही मोक्षार्थीजनोंको उसीका विश्वास बिलकुल करनाही नहीं. महा मुनी जैसे भी उनका विश्वास न करते उनका उदय होतेही भयभीत होकर ऐसा बोल उठते है:-"रण निद्रा तुं. कहांसें आइ ? !" इत्यादि वचनोसें वो ऐसा बतला रहे है किपडेबडे सुनीजनोंकों भी वो तुरंत पदभ्रष्ट करदेती है, तो दूसरे रंक अज्ञानी मोहासा जीवोंकी वापतमें तो करनाही क्या ? ऐसाभी कहनमें आता है कि उनके एक हाथमें मुक्ति और दूसरे हाथमें फांसी है, उस्से जो मूहात्मा प्रमादके १२५ हुवा उनको तो फांसी देकर यमका महेमान कर-मारकर महा दुःखका मोक्ता बनाती है. और जो उसीकाही अप्रमादरू५ बज दंडसे मारनेकों तैयार हो जाय तप तो उसी मारनेवालेके अपर प्रसन्न हो मुक्ति देती है, यानि वो महाशय सब संसारकी उपाधि छोड, जन्म मरणका चकर दूर कर निरुपाधिक मोक्षपदका अधिपती होता है. यावत् केवलज्ञानादि अनंत, अक्षय सहज आत्मिक द्धि हस्तगत कर उसका कायम भुक्ता बन्नेको भाग्यशाली होता है. इसलिये ही कहा है कि:"धर्मी मनुष्य जाटत रहा ही अच्छा है. और पापी सोता रहे वही