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________________ १४१ समझ बूझ सकै नहीं, तथा आपका दुराग्रह छोडे नहीं, वैसे मिथ्या आबहस स्वमतको लिपट रहना सो आभियहिक मिथ्यात्व कहा जाता है. सांप्रदायिक शास्त्रादिक आग्रह विगर या तत्वविवेककी न्यूनतासें सभी धर्म-सभी देव और सभी गुरु ओंको समान-एक जैसे गिने और सच्चे झुठको आग्रह विगत एकसे गिन लेवै सो अनभिग्रहिक मिथ्यात्व कहा जाता है. जिनको अबतक कुछभी किसी प्रकार से विशिष्ट आभोग-उपयोग जात नहीं हुवा, और जैसे उपयोग शुन्यतासें अनादि कर्म संबंधसें निगोदादिक जीवोंका जो वर्तन सो अनाभोगिक मिथ्यात्व कहा जाता है. त्रिकालवेदी श्री सर्वज्ञ प्रभुके परम प्रमाणिक वचनोंकी अं दर सर्वसें या देशसे ( वडी या छोटी) शंका धारन करनी सो सांशयिक मिथ्यात्व कहा जाता है. परम ज्ञानी परमात्माके वचन सर्वथा सत्यही हैं, औसा जानने परभी गोशालेकी तरह केवल स्मत कंद पोनेके लिये कदाग्रहद्वारा सत्यवाती कुयुक्ति-कुतर्कद्वारा उत्यापन करने के वास्ते और स्वकपोल कल्पितमत स्थापन के लिये प्रयत्न करना सो आभिनिवेशिक मिथ्यात्व कहा जाता है. ये पांचवा प्रकार वैसे पाणीओंकों परम दुःख पात्र का है। वास्ते कदापि 'सचा जानने में आ गये वाद कदाग्रहसे स्वमतके जोर तोर पर रहकर उसको झूठा पाडनेके वास्ते बुद्धिवंतको महा अनर्थकारी प्रयत्न नहीं सेवन करना. अन्यभी मिथ्यात्व प्रकार पाप पुष्टि हेतुक होनस ' आत्मार्थी जीवोनों अवश्य परिहार करदेनेकेही योग्य हैं.
SR No.010240
Book TitleJain Hitbodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherJain Shreyaskar Mandal Mahesana
Publication Year1908
Total Pages331
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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