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________________ १४२ उपर कहे गये १८ पापस्थानक संक्षेपसे कहे हैं. दोष भी गुणोंकी तरह अनंत है; तथापि जैसें सब गुणोंका १४ गुणस्थानको स्थूल बुद्धिवालोको समझानेके लिये ज्ञानी पुरुषोंने समावेश किया है, उसी तरह समस्त पाप-दोषोंका भी समावेश १८ पापस्थानमें ही किया है. सुनेकी खानी से खोदकर निकाली गइ मीट्टीकी तरह आत्मा अनादि दूषित ही है. तथापि ज्यौं आग वगैरः के उपाय वगैर से अनादि मल दूर कर उनमेंसें शुद्ध सुन्ना निकाल लिया जाता है, उसी तरह अनादि कर्म संबंधसें दूषित हुवा आत्मा भी सर्वज्ञ कथित तप संयमादिक सदुपायसें शुद्ध हो सकता है. यावत् संपूर्ण संयमादिक साधानों के बलद्वारा परम विशुद्ध हो आपही परमात्मपद प्राप्त कर सकता है. ज्यौं ज्यौं अनादि दूषण यत्नद्वारा हटते हुवे दूर होते जाते हैं सौं त्यो आत्मगुण प्रकट होते जाते हैं. और जब संपूर्ण दोष पूर्ण प्रयत्नद्वारा हठायो जावै तब आत्मा के संपूर्ण गुण प्रकट होते है, वही परमात्म या सिद्धदशा है. और उसीके लिये ही अपनको प्रयत्न करनेकी पूर्ण जरुरत है. यदि परमात्म दशा योग्य सब गुण सत्तामें अनादि के ही है; परंतु वे कर्म दोषसे ढक गये हुवे हैं, उन्हीकोही अब विवेकद्वारा प्रकट कर लेनेके हैं. सच रीति से देखें तो आप के ही आत्ममंदिरमें अमाप गुणनिधान गडा ५८ हुवा है, तो भी बेसमझ-अविवेकसे दूसरे और देखने-ढुंढनेकों जाते है, या केवल मुग्धता-असमंजससे कस्तूरीए मृगकी तरह आप के पास कस्तूरी मोजूद होनेपर भी
SR No.010240
Book TitleJain Hitbodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherJain Shreyaskar Mandal Mahesana
Publication Year1908
Total Pages331
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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