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________________ १४३ आती हुई सुगंधीकी शोध चारो और भटकता फिरता है, कोई परोपकारी ज्ञानी उनकी कुंशी अपनको पतला देवें तो भी अस्थिर त्तिसे वो समझमें नहीं आती, उससे चतुर्गतिरुप संसार अवीमें दिग्मूढकी तरह अपने भटकते ही रहते है या रहे हैं. यदि ये पाप का स्वरूप यथार्थ समझकर उनसे निवर्तनका प्रयत्न करै तो बेशक 'अंतमें सांसाररूप जंगलकों पारकर क्षेमकुशल पूर्वक मोक्षनगर में पहुंच सके. अहा! जहां तक अपन अविवेकतासे १८ पापस्थान सेवते हुए न रुकेंगे तहां तक दोपरूपी महान् विपक्ष कायम नवपल्लव रहेगा; कारण, मिथ्यात्व उसके अवंध्य वीजभूत है, रागद्वेष उसके पुष्टिकारक जीवन-जल समान है, क्रोध-मान-माया लोमरु५ चार कषाय उनके अति गहेरे और चोगिर्द मजबूत फैले हुवे मूल समान हैं, प्राणातिपात उस्के स्कंध, मृषावाद-अदत्ता दान-मथुनपरिग्रहरू५ चार विशाल शाखा, कलहरूप कुंपल, अभ्याख्यानपैशुन्य-पपरिवादरूप विस्तार पाये हुवे पत्र, माया मृषावाद मंझर -पुष्प, और राति अरति रंग वेरंगी विषय फलरूप हैं कि जिनका रस परिणाममें अति अनर्थकारी है. वास्ते सत्य सुखार्थीजनोंकों उत्तम परिणामरूप तीक्ष्ण कुल्हारसे ये दोप-विषक्षका निकंदन करने के लिये तत्पर रहना. ज्यौ ज्यौं उनकी उपेक्षा-वेदरकार करगे त्यौँ त्यो वो वृत्ति वृद्धिंगत होकर उनकी छांद्वारा अपने आश्रितों को ज्यादे मूछीवंत वनादेगा; वास्ते प्रयवंत रहकर उनका
SR No.010240
Book TitleJain Hitbodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherJain Shreyaskar Mandal Mahesana
Publication Year1908
Total Pages331
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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