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________________ '१४४ तुरंत नाश करना ही योग्य है. फिर उत्तम कार्य करने के वास्ते क्षेत्रकाल भी अनुकूल है. ज्यौं ज्यौं प्रमाद त्याग कर प्रयत्न करेंगे त्यौं त्यौं पापपंक पखालकर-धोकें अवश्य निर्मल होगे. ऐसी 'श्रद्धा और हिंमत धारन करनी ही दुरस्त है. पापरु५ कीचडकों दूर कर सर्वथा निष्पाप-निर्यल होना यदि बहुत दुष्कर है; तथापि पूर्ण श्रद्धावान् और विवेकीजन चाहिये उतने प्रयत्नस वैसा कर सकते है. पूर्व समयमें अनंत जनोंने इसी तरहसे ज्ञान-दर्शन-चा रित्र-तप के जोरसे सर्वथा पापपंक दूर कर निर्मल हो चतुर्गतिरुप 'संसारका अंत करके मोक्षरुप पंचमी गतिके स्वामी हुवे हैं. अपनों __ भी उसी महान पुरुषों के कदमकर कदम चलकर उसी मुजबसे अ. 'पना अनादिका पापपंक दुर कर निर्मल होनाही योग्य है. और ___ उसके लिये पेस्तर अपनकों वै महापुरुषोंकी तरह पापपंक पखालके लिये समता सरोवरमें स्नान करनेकी जरुरत है. आगे बताये हुवे मुजब अढारह पापस्थानकोंमें प्रवेश करती हुई पापमति दूर कर समभाव धारन कर ज्ञानी महाराजाने श्रावकोंकी कौनसी कौनसी फर्जे संक्षेपमें कही हैं सो परमार्थसे विचार कर उनका मनन करना । मन्ह जिणाणमाणं, मिच्छं परिहरह धर सागतं; छविह आपसमि, उज्जुत्तो होइ ५३ दिवसं. १ ... इन आदिक पवित्र बोधदायक पांच गाथाओं अपने भाइ और भगिनीय हरहमेशां गिनते हुवे तो मालुम होते हैं। मगर उनका
SR No.010240
Book TitleJain Hitbodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherJain Shreyaskar Mandal Mahesana
Publication Year1908
Total Pages331
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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