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२४१ तपस समाया हुवा है. परोपकार करना ये पुरुषार्थका प्रवल अंग है. धर्म धजिनके आधारसे रहता है. धर्माजनका नाश हो जाने फिर धर्म निराधार हुवे बाद कहां रह सकेगा ? असा सम्पम् वि. पार करके धर्मके अर्थीजनोंको धीजनोका यत्नसे संरक्षण करना उचित है. उस विगर धर्मको लोपका प्रसंग आ जाता है. साधीरुप शुभ क्षेत्रमें अपने द्रव्यरुप बीजकों विवेकयुक्त वोने वाला अनंत' लाभ मिला सकता है. औसा समझकर सज्जनोंकों जैसी उत्तम तकका लाभ अवश्य हाथ करनाही योग्य है.
3 उत्तम प्रकार के व्यवहार संबंधी और धर्मसंबंधी साधर्मीयों को अच्छा शिक्षण दैना यह सुशिक्षित सज्जनाको मुख तन मन या वचनद्वारा स्वार्थकी आहूती दिये विगर कपीभी पर: मार्थ साध्य किया जायगाही नहीं. औसा समझकर सज्जन यथासंभव अपने साधीभाइयों को मदद देनेके वास्ते उधमपंत रहते हैं.. धनवंत धनसे और बुद्धिवंत बुद्धिसें यथाशति मदद देनेहारे अनंत गुना लाभ उपार्जन करते हैं.
४ अपनी अंदर कितनेक साधर्मीभाइ देवद्रव्य, ज्ञानद्रव्य, या साधारण द्रव्य संबंधीकी जोखमदारांसें अनजान होनेसें बहुत
स्त धर्मपुण्यके ऋणमें डूबे हुवे मालुम होते हैं, और उन्हीके दोष' के छोटे दूसरे साधर्मीयोंकों भी लगते हैं; वास्त पैसे भोले लोगोंकों युक्ति के साथ समझाकर, जरुरत मालम होवै तो उचित द्रव्यको सहायता देकर जिस तरह वे उपर कहे हुवे माणस छूट जाय