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________________ दोहरा. क्षमासार चंदनरसे, सींचो चित्त पवित्त दयाल मंडप तळे, रहो लहो सुखमित्त. १ देता खेद रहित क्षमा, खेद रहित सुखराज; तामें नहीं अचरिज कछु, कारण सरिखो काज. २ अनुष्टुप छंद. क्षमाखङ्गः करेयस्य, दुर्जनः किं करिष्यति; अण पतिता वन्हि, स्वयमेवोपशाम्यति. दोहरा. मान महीवर छेद तुं, कर मृदुता पविघात; ज्यौं सुख मारग सरलता, होवे चित्त विख्यात. . मृदुता कोमल कमलते, पनसार अहंकार छेदत है एक पलको, अचरिज एह अपार. ५ अहंकार परमें धरत, न लहे निज गुण गंध; . अहंज्ञान निजगुण लगे, छूटे परहि संबंध. माया शल्य तजने के वास्ते पाचजी कहते है कि:मायासापिणी जगडसे, असे सकल नयसार, समरो जुता जांगुली,-पाठ सिद्ध निरधार, ७ -
SR No.010240
Book TitleJain Hitbodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherJain Shreyaskar Mandal Mahesana
Publication Year1908
Total Pages331
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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