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________________ २७५ वो सहजही खियाल आ सकै वैसा. बाह्य और अभ्यंतर उभय ग्रंथ ( ग्रंथि - परिग्रह का परिहार करनेसेंही निग्रंथपना सिद्ध होता है. सविना वो सिद्ध नहीं होता है. वास्तेही परमात्मा - प्रभुकी पवित्र आज्ञाकों अक्षरशः अनुसरनेका कामी - मुमुक्षु जनको द्रव्य और भाव उभय परिग्रह अवश्य परिहरनाही योग्य है. द्रव्यमात्रके त्यागसे अंतरशुद्धि किये सिवाय निर्विषपना प्राप्त नहीं हो सकता उसी लियेही परमपदके अभिलाषियोंकों उभयकाही परिहार करना जरुरका है. दीक्षित हुवेपरभी द्रव्यपरकी अनुचित ( अघटित ) मूर्छा स्वसंयम स्थानको अवश्य अपहरती है. इतनाही नहीं; मगर वो मूर्च्छित मुमुक्षुकों मोक्षके बदले संसारफल देती है. अहा ! तदपि दारुण दुःखदायी मूर्छा द्रव्य मूर्छामें शोच विचार करकेही वृत्ति करे तो उसको इतनी बडी हानी नहीं सहन करनी पडती है. सच्चे यतीश्वर जगतसें उदासीन रहते है, वे उत्तम प्रकारकी क्षमा, उत्तम प्रकारकी मृदुता (नम्रता ), उत्तम प्रकारकी ऋजुता ( सरलता ), उत्तम प्रकारकी मुक्ति ( संतोष ), उत्तम प्रकारकी तपस्या, (इच्छा निरोध), उत्तम प्रकारका संयम ( इंद्रियादि नि इ ), उत्तम प्रकारका सत्य ( हितमित भापन ), उत्तम प्रकारका शौच ( पवित्रता ), उत्तम प्रकारकी अकिंचनता ( सर्वथा परि-ग्रह रहितता ), और उत्तम प्रकारका ब्रह्मचर्य (ब्रह्मचरिता आ मरतिपना ) यह दसविध शुद्ध यतीमार्गको अक्षरशः अनुसरनेचाले होते हैं. उन्होंकों शत्रु मित्र समान है, परम करुणारससें
SR No.010240
Book TitleJain Hitbodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherJain Shreyaskar Mandal Mahesana
Publication Year1908
Total Pages331
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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