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રહદ होनेसे ) नीचे दनक हैं, किसी रीतिसभी उच्च दर्जके तो हैही नहीं. असे पापश्रमण पवित्र शासनकी प्रभावना पानी उन्नति करनेके बदलेमें हीलना करते हैं. उसी लियेही शाख. में वै अदि कल्यान करनेवाले कहेजाते हैं. यशकीर्तिकी अभिला. षा न रखतें केवल आत्मार्थीपनेसे वर्तनवाले सुसाधुजन समुदाय तो मान-अपमान या निंदा-स्तुतिको समानही गिनतेहैं. उस प्रसंगमें हर्ष शोक नहीं करते है. वैसे अवधुत योगीश्वरो सर्वथा बंध हैं. वैसे मुमुक्षुयेही प्रतिदिन अप्रमत्ततासें चलकर गुणश्रेणीपर पडते घडते क्रमशः मोक्षमहालयमें अक्षय स्थिति कर आनंदपाप्तिसें मग्न होते हैं; परंतु परिग्रह ( ममता) के वोजेसे लदेहुवे द्रव्य लिंगी तो केवल दुःखपात्र होकर अधोगतिकेही भागीदार होते हैं। इतनाही नहीं, मगर उन्होंकों फिर उंचा आना अत्यंत कठिन हो पड़ता है। तदपि केवल मोहके मारे वै विचारे अति अहितकर उलटे राहस्ते चलकर चारोंगतिमैं गोथे खाते हैं. वहां दान अनाथ असे उन विचारे नाचार मोतानकों किसका आलंबन ? कोई भी नहीं ! सव यहीके उन्होंने सर्व सुखदायक सर्वज्ञभाषित सत्यधर्मको स्पच्छंद वर्तनसे धक्का मारा. एक सामान्य भी राजा-अमात्य वगैर अधिकारीका अपमान करनेसें अपमान करनहारेको सरूत शिक्षा भुकानी पडती है, तो फिर त्रिभुवन पति श्री तीर्थंकर महाराजकी परम हितकारी पवित्र आज्ञाका अपमान-अवज्ञा-अनादर-तिरस्कार आपापुदीसें उल्लंघन करनेसे वैसा करनेवालेकी क्या गति होगी