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आत्मार्थीजीवको तत्पर हर्प चित्तवत हो रहना. मधुर शब्द पति वाले स्तोत्र स्तवनादिकसे श्री जिनराजके गुण-गान करना. श्री जिनजीके सद्भूतगुण गानेसे वैसे ही उत्तम गुण अपने आत्मामें अंगांगीभावसे (सशिसे ) आवै वैसे उपयोग-लक्षपूर्वक ऐक प्रयत्न सेवन करतेही रहना. प्रभुतर्फ अकृत्रिम ( सहज अ. भ्यासबलसें प्रकट भये हुवे ) भक्तिरागसें आत्माको अपूर्व चित्तशांति ( समाधि ) रूप अद्भुत लाभ होता है. जब संसारकी उपाधियोंसे चित्त विराम पाया होवै तभी ही वैसे चुरे संकल्प विकरूपका अभावसें, और शुद्ध अध्यवसायके योगसे आत्मा क्षणभर चित्त समाविरुषशांतिको अनुभव कर सकता है. अन्यथा पैसा अनुभव नहीं कर सकता है, जैसे निरंतर अभ्याससे आत्माकों आखिर अपूर्व समाधिलाभ प्राप्त होता है, उससे वो अनुपम रसमें निमग्न होता है. आत्माकी वैसी स्थितिका साक्षान् अनुभव हुवे बिगर भान-स्मृति नही हो सकै. जिस धन्य पुरुषकों औसा अपूर्व आत्मानुभव होता है, वही इस दुनियांके विषयजंजालमें एक लव मात्र भी नहीं फँस जाता है. जैसे अकृत्रिम-सहज-आत्मसुखका जिनको साक्षात् अनुभव हुवा होवै वै सहज समाधिमुखके विरोधी विषयसुखमैं किस लिये रंजित होवै ? क्यों लुब्ध होवै ? विषय रसमें लुब्ध होनेहारका, आत्माके सहजसमाधिसुखका अनुभव किस तरहसे हो ? आत्मअनुभवी-सहज समाधिरु५ समतारममें निमग्न होनेहारे सहजानंदी पुरुष राजहंसके