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जैसी गति धारण करते हैं, और आत्मअननुभवी विविध विषयसमें मशगुल होनेहारे पुद्गलानंदी प्राणीयें तो कुत्तेकी ઊત્તેજી गतिको धारन करते हैं. विषयानंदी जन विषयसुखकों ही सार समझकर उसीमें ही रचे पचे हुवे रहते है; मगर जिनद्वारा अकृत्रिम- सहज - अतींद्रिय आत्ममुखकी प्राप्ति होवै वैसी वीतराग प्रभुकी भक्ति उपासना नही करसकते है, उससे वैसे शुभ साथनोंके सिवाय उन वराकोकों अपूर्व भक्तिरस चख्खे विगर चित्त शांतिरूप आत्मसमाधिका अनुभव नहीं हो सकता है; वास्ते पर मात्म प्रभुजीकी तर्फ प्राणियोंका अपूर्व प्रेम मसरो-फैलो यहीं उमेद रखता हूं. इत्यलम्.
श्री तीर्थयात्रा दिग्दर्शन.
जो यह भीषण भवोदधिसें पार उतारे या जिसके आलंबन से भव्य प्राणी ये प्रत्यक्ष अनुभवमें आते हुवें जन्म-जरा-मरणरूपी, या आधिव्याधि-उपाधिरुपी, या संयोग वियोग रूपी महा दुःखदावानलसे अपार पीडा सहन करते हुवे, इस भववनका पार पा सकै वही तीर्थ कहा जावै, वो तीर्थं लौकिक और लोकोत्तर ऐसे दो प्रकारके हैं. उसमें लौकिक तीर्थ ६८ है कि जो अज्ञान और अविवेकी प्राधान्यता बहुत करके बाह्यशौचघारी जनोंके सेवित होनेसें, और रागद्वेप मोहरूप वडे भारी त्रिदोषदूषित देवाधिष्ठित होनेसें, और चित्तशुद्धि करनेके बदले में उलटे मलीनताजनक होस निष्कामी मोक्षार्थी सम्यग् दृष्टियों कों त्यजने केही योग्य हैं.
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