________________
4
१९२
सेवना के योग्य नहीं हैं. 'लोकोत्तर तीर्थ' स्थावर जंगम भेदसें करके दो प्रकार के हैं. जिसका अल्प अहेवाल तीर्थवंदनमाला में दिया गया है. संदेशों पैदा करनेवाला राग, शमरूप लकडीकों जलानेमें अग्नि समान द्वेष, और सम्यग् ज्ञानकों ढक देनेवाला या अशुद्धाचरण करानेवाला मोह-ये तीनूं दोषों का जिन्होंने मूलसे ही निकंदन कर डाला है, वैसे अरिहंत देवाधिदेव और उन अरिहंत प्रभुजीके अंतेवासी गणधर महाराज आदि तमाम आज्ञाधारी साधुसाध्वी श्रावक-श्राविकारुप श्री संघ यानि श्री द्वादशांगी धारक, चौद या दश या एक भी पूर्वके धरनेवाले - पूर्वधर, एकादशांगधार और अष्ट भवचन माता के धारक, पंचाचार कुशल, युगप्रधान आचार्य उपाध्याय, प्रवर्तक, स्थवीर, और गगावच्छेदक तथा रत्नाधिक - विचित्र लब्धिपात्र और विनयवैयावच्चादिक उत्तम गुणगणालंकृत समुदाय, और वर्तनी आदिक गुणशाली साध्वी समुदाय, तथा अक्षुद्रादिक अनेक गुण विभूषित, श्राद्ध व्रतधारी, सचित्तादि चौदह नियमधारी - यावत् सचित परिहारी, हर हमेशां : एकासनादिक व्रतधारी; उभय टंक ( वख्त ) आवश्यककारी, त्रिकालदेव पूजाकारी, शम, संवेग, निर्वेद, अनुकंपा और आस्तिकतादिक सम्यक्त्व अनुकूल लक्षण सहित, तीर्थसेवादिक उत्तम भूषण भूषितांग, शंकादिक दूषण वर्जित, चडविह सदहणा, त्रिलिंग, त्रिशुद्धि
मुनिवर,
श्रम
सहित, भक्ति बहुमानादिकसें अरिहंतजीका विनय करनेवाले, शा
1