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________________ गोको सहन कर श्रीधीतराग प्रभुजीकी निष्कपटतासें आशानुसार चलकर अपने अनादि मलीन आत्माको निर्मल करनेका खास निश्चय कियेपरभी, क्षणभरमें वो सब भूल कर अपनी आत्मा उलया मलीन हो आर पार गतिरुप संसारसमुद्रमें पुनः पुनः पर महा दुःखका हिस्सेदार होवे असा पवित्र मभुजीकी आमाको उ. लधन करके अपनको करना क्या उचित है ? ___ परमकृपालु प्रभुने अपनकों निरंतर मैत्री, प्रमोद, करुणा और उदासीनता ९५ चार उमदा भावनाओं भाव अपने अंत:करणको निर्मल करनेका कहा है. अनित्य, अशरण, संसार, एकत्य, अन्यत्वादि बारह भावनाओं हरहमेशां भावकर अपना पैराग्य सतेज करनेका फरमाया है, और पंचमहावतोंकी २५ भावनाओं रोजरोज भावकर संयमकी रक्षा करनी कही है, वो क्या तदन अपनको भूल जाना चाहिये ? नहीं कभी नहि ! मेरे प्रिय भाइभगिनी ! ये अपर्ने हृदय५८के उपर खास कोतर रखना और निरंतर लक्ष रखना योग्य है कि परम पवित्र जनशासनके मजहबी कानुन् मुजब अपनकों जीवमात्र तर्फ मित्रभावसें देखनेका या वर्तनका है. पवित्र शसिनरसिक-शुद्ध गुणवंत गुणानुरागी तर्फ अपनको प्रमोदभावस देखनेका या वर्तनका है. द्रव्यादिकसें दुःखी हो दुःख पाते हुवे साधीकादिकोंकों यथाशति द्रव्यादिकसे और चाहे वो अन्य विषय संयोगसे धर्मपतित हो गये हुवे या पतित होते हुवे. या. धर्म न पाये हुवैको शुद्ध वीतराग धर्मतत्व समझाकर पवित्र धर्ममाप्तिरु५
SR No.010240
Book TitleJain Hitbodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherJain Shreyaskar Mandal Mahesana
Publication Year1908
Total Pages331
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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