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________________ २७९ तो मगदूर भी क्या ? अर्थात् वैसे आडंबरी-पंडितमन्यको समझा का-ठिकानेपर लानेका एकभी उपाव मालूम नहीं होता है, अंतमें ___यक कर "पाप: पापेन पच्यते' यही सिद्धांतपर आना पडता है. असा ज्ञानानंदी श्रीमद् चिदानंदजी महाराजजीने अपन अज्ञजनोंकों अल्पबोधर्म असल निग्रंथ ( साधु-अणगार) का स्वरुप समझाकर अपना ध्यान सत्य वस्तुतर्फ खींचा है. जो औसे. महापुरुषके ममाणिक वचनसे अपनका सत्यवस्तुका ( अत्र अधिकार सुगुरु) का भान हो गया तो अपनका अवश्य खोटी पस्तु. पर अरुची-त्यागभाव होना चाहिये. " ज्ञानस्य फलं वितिः" सूर्यका उदय होनेसें अंधकारका नाश होनाही चाहिये, तसे सत्य सान भकाशसें अनादि अविधा-अविवेक दूर होनाही चाहिये. जगतमें परीक्षक लोग सुवर्ण रत्नादिक परावर परीक्षापूर्वकही खरीदते हैं-परीक्षा किये विगर नहीं लेते है. असा प्रकट व्यवहार अनुभवसिद्ध होनेपरभी तखपरीक्षामें प्राणी बेदरकार रहवै वो क्या ओछे खेदकी बात है ? असी बेदरकारीसें अनेक मुन्ध और मुग्धाओंने कुगुरुके पास पडकर विपरीत आचरणसे आस्माको मलीन कर अधोगति प्राप्त कीहै. असा पवित्र शास्त्रामा. से मालूम हो जानेपरभी रागांध हो, विवेकविकल बनकर पाणी उलटे मार्गपर पड़ जावै उसमें क्या आश्चर्य ? इस लिये मध्यस्यतापूर्वक सर्वज्ञकथित आगमानुसारसें तत्वपरीक्षा करके शुद्ध देव गुरु धर्मका निर्णय कर अशुद्धका सर्वथा त्याग और शुद्धका सर्वथा स्वीकार करना विवेकी सज्जनोंको सर्वदा उचित है. और
SR No.010240
Book TitleJain Hitbodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherJain Shreyaskar Mandal Mahesana
Publication Year1908
Total Pages331
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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