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________________ ૧૫ करनेके वास्ते और उन्होंसें सावधान रहने के वास्ते निःस्वार्थ बुद्धि से ज्ञानी पुरुष समझाते है; तदपि मुग्धतासें करके वैसे हितोपदेशकी बेदरकारी-अनादर करके स्वच्छंदतासें अपने उक्त दोषोंकोही पोपन कर उन्हीकी ही पुष्टि करते है ये कैसा अनुचित वर्तन है? अपने अनादिके अंतरंग कट्टे दुश्मनोंका अहर्निश पोपन करनेसें-उन्होंकी आज्ञानुसार चलनसें और उन्हीकाही विश्वास करनेसें अपनको क्यों करके क्षेमका संभव होवै ? अप्रशस्त रागादि दुश्मनोंको दूर करनेके वास्ते श्री जिनेश्वर देवनं सर्वशदर्शित सत्नियामें मीति पूर्वक प्रवर्तनका ___ फरमान किया है; तदपि अपन बहुत करके सत् क्रियाका स्वरूप प्रयोजनादि यथार्थ न समझनेसें सर्वज्ञ सुचित सक्रियाको विषकपुरःसर प्रीति और स्थिरतासें खेद रहित सेवनेके बदले में बहुधा अरुचि-अस्थिरतादि सेवन करतेही रहते हैं ये कैसा वेसमका कार्य है ? श्रीजिने'१९, राग, ३५ और मोह महा मल्लको सर्वथा जेर करनेवाले-जगत् भभूकी प्रसन्नता पूर्वक स्थिरता लाकर पूर्ण भीतिसं पूजार्चना करने वाले पूजक खुद आपही पूज्यपदको पाते हैं. अरे ! पंच अभिगमको समालकर, विवेक पूर्वक विकथा छोडकर, पांचों इंद्रियों का निग्रह कर, पूर्वोक्त रागद्वेषादिरूप पांडाल चतुष्कको तजकर, उत्तम शील संतोष पारनकर विधि सहित प्रभु भक्ति रसिकजन, जो शान रसका पान करके समस्त भवतापको दूर करते हैं, उनका भान, भले भटकनेवाले भोले और शठजनाको कहाँमें होवै ? श्री सद्गुरुकी कथनी और रहनीको पूर्ण प्रकारस
SR No.010240
Book TitleJain Hitbodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherJain Shreyaskar Mandal Mahesana
Publication Year1908
Total Pages331
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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