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________________ माद रहित संत-मुसाधु जनाकी पावन परण सेवनामें अभिमुख हो रसिक सुविनीत शिष्यद भ्रमर गणकी तरह जो परिमल-सुवासना लूंदत हैं उनका खियाल भी सदगुरु सेवा विमुख अविनीत शिष्य समूहको कहांसे आये ? श्रीसिद्धांत-सर्वज्ञ वीतराग प्रणीत होनेसें सरिकी सज्जनो द्वारा संपुर्ण श्रद्धासें ग्राय कर और पूर्वापर विरोधके दोष लोग का सर्वसात आगम रहस्य रुप मकरंदका यथे श्रीसद्गुरुकी सम्यक सेवा भक्ति पूर्वक पान करनेवाले मधुकर समान मुनिगण जैसी मिष्टता मिला सकै उनके अनंतचे हिस्से भी क्या अमृतरस आ सके ? कभी नहीं ! तथापि सदभाग्य योग्य प्राप्त हुई सद्बुद्धिद्वारा उक्त अमृतरस चखनेका स्वाद जो पंच प्रमादके तावेदार मंदभागी है वै नहीं पा सकते है और बुद्धिका दुरुपयोग करने तकभी नहीं चुकते है, वैसे मूर्खशेखर जन स्वच्छंदतासें कितना भारी नुकसान उठाते है वो कहीं भी नहीं जाता है. श्रीसर्वज्ञ म णीत सिद्धांतके कथन भुजव अक्षरशः चलन रखने की अपनी अति पवित्र फर्ज भूलकर उलटे पवित्र आगमोंकी आशातना हो वहांतक अपन अज्ञ भाइयें उपेक्षा करते हैं, वो बहुत ही अनुचित है. श्री सर्वज्ञ भाषित सिद्धांत निष्पक्षपातसें जगत मात्रको हितकारी होने के लिये उन्होंका बहुत मान समालना-उन्हीका संरक्षण करना वो अपनी मुख्य फर्ज अपने लक्ष लेनी ही योग्य है. श्रीसंघ-श्री सर्वज्ञ प्रभूकी पवित्र आता मुजब वर्त्तने वाले
SR No.010240
Book TitleJain Hitbodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherJain Shreyaskar Mandal Mahesana
Publication Year1908
Total Pages331
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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