SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 35
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १७ भुसाधु, साध्वी, श्रावक और श्राविकानें जंगम तीर्थरुप गिने जाते है. श्री तीर्थकर प्रभु खुदभी उक्त गुणाकर संघका उचित आदर करते है तो अन्य सामान्य माणियोंको उक्त गुण सागर श्रीसंधकी तर्फ कितने सन्मानकी दृष्टि से देखना उचित है, उनका सम्यक विचार करना उपयुर है, साधर्मीभाइ और भगिनीओ परम पूज्य पिता स्थानीय श्रीवीर परमात्माकी पवित्र संतती पुत्र पुत्रीपणेका हक पराते है, तो उन सभीकों एक दूसरेके साथ कैसी सभ्यता रखना तथा सुशीलता सहित सुसंपधारी गुण ग्राहक बुद्धिद्वारा शासनकी शोभा बढ़ाना चाहिये ? असी अगत्यकी वात तर्फ दुर्लक्ष पतला कर मरजी मुजब चलकर दुम्बकी अंदरसेंभी जंतु दूदने जैसा अति अनुचित वर्तन रखना ये कितनी शरम पैदा करने वाला भकार गिना जावे ? श्री सर्वज्ञ भगवान्का, निग्रंथ अणगार मुमुक्षु जनोंका, श्रीसिद्धांतका या चतुर्विध संघका फरमान तरवसे एक समानही होना चाहिय; क्यों कि उन सभीमें मोक्ष साधनरुप महान् हेतु समानही रहा हुवा है. नीति-न्याय या प्रमाणिकपणे के उत्तम कानून् सुजव चलनेके पदलेमै श्री सर्वज्ञ प्रभुकी गिनी जाती मजा अनीति-अन्याय या अप्रमाणिकपणेसें चलै ये कितना भारी शरमाने जैसा प्रकार है ? सर्वत्र सुखदायी सन्मार्गको छोडकर उन्मार्ग ग्रहण करना सो कैसे भयंकर दुःखकों पोषन करनेहारा होवै ? दश दृष्टांतसे दुर्लभ मनुष्य जन्म पाकर चिंतामणि समान सर्वज्ञ भापित धर्मकों सम्यम् सेवन करना छोड
SR No.010240
Book TitleJain Hitbodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherJain Shreyaskar Mandal Mahesana
Publication Year1908
Total Pages331
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy