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मल दूरकर आत्म विशुद्धि हो सकती है; वास्ते सम्यम् ज्ञानको ज्ञानी पुरुष तप रुपही कहते हैं. आत्माको निर्मल करनेके पवित्र लक्षसे करनेमें आता हुवा कोई भी त५ महान् लाभ दायक होता है. और तुच्छ फलकी इच्छा-आशास करनेमें आता हुवा त५ फरत थोडासो फलकाही देता है. समता पूर्वक सेवनमें आता हुवा नपसे जन जनाके ताप-पाप-संताप दूर हो जाते हैं; और परम शांति प्रकटती है. उपवासादि पाह्य तप समझकर विवेक सहित सेवन करने वालोंकी जरुर अंतर शुद्धि करता है-रोग वगैरका दूर हटाता है, और अनेक शक्ति-सिद्धियोंको प्रकट करता है, थापत् उपद्रवीकी शांतिकर समाधि देता है. जैसा उत्तम तप शास्वत सुखका अभिलापि कौनसा मुमुक्षु अंगिकार किये बिना रहेगा ?
भावना मैत्री, मुदिता, करुणा और माध्यस्थादि जागोजमकी पीडा-विटंबनायें दूर करनेकों समर्थ है. जहां तक प्राणीको कुल माजीओंके साथ मैत्री भाव नहीं आया है, यहां तक चक्रवर्ती भी कयौं न हो ? तो भी तत्वसें दुःखी ही है; क्यौ कि उनका चित्त पैर रूप अग्नि करके प्रदीप्त रहता है और उनका रुधिर जलता है. जहां तक सद्गुणीकी सोवत कर प्रमोद पूर्वक सद्गुण ग्रहण करनेकी सन्मति जागृत न होवै, वहां तक अमूल्य आत्म संपत्ति प्राप्त करनेका अपूर्व मार्ग नहि मिलता है; कयौं कि सद्गुण सेवनकी तर्फ आदरही नहीं हुवा है. जहां तक दीन दुःखीका दुःख देखकर दिलमें दया-करुणा बुद्धि जान नहीं हो, वहांनक दिलकी कठो