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૨૪. दान-अभयदान-सुपात्रदान-अनुकंपादिदान अच्छे विवेकस जो देते-दिया करते है, और पात्र परीक्षा पूर्वक जो सम्यम् ज्ञानादिका दान देते हैं, वै शुभ आशय वाले सजेन चपल लक्ष्मीका सदुपयोग कर परमार्थ साधते हैं. और लक्ष्मीकी बाहुल्यता होने पर भी जो लोग सर्वज्ञ देशित समक्षेत्राम या खास करके दुःख ग्रस्त क्षेत्रमें कृपण वृत्तिसें नहीं बोते हैं यानि नहीं खचते हैं वै इस जहाँमें जनसमूह समक्ष अपवादका पात्र होकर मर गये बाद मू से बुरी गति पाते है.
शील-सदाचारसेंही प्राणी तत्वसे शोभा पाता है, शील येही मनुष्योंका सच्चा शृंगार है; शील-सुगंधसे सुगंधित हुले कमल तर्फ सुगंधी लेने के वास्ते विवेकी भौरे जाते है और शील सुगंधी रहित खुवसूरतत मनुष्य आवलके निर्गध पुष्प जैसे निकले हैं. फांकडे होकर फिरते रहते भी अपमान पाते है, और सुशील सजन राज सभामें भी सन्मान पाते हैं, देव भी उनको सहायता देते हैं, उनकीही जंगलमें मंगल होता है. औसा आपत्य महीमा शील गुणका ध्यानमें लेकर सुज्ञजनोंकों वो गुण अवश्य ग्रहण करनेकही लायक है. ___ तप-वाह्य और आभ्यंतर भेद करके दो प्रकारका है. जो कर्म मलको तपाकर जल जलाकर खाक करदेवै, यावत् आत्माको निमेल कर सकता है उसीका नाम तप है. सभ्यम् ज्ञानसें स्वस्वरुप ध्यानमें ले हंसकी तरह विवेकसें सद्वर्तन सेवन कर अनादि कर्म