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________________ ૩ર ही कहाँस हाथ लगे ? विषय रसमें ही निमग्न रहकर पशुवृत्ति पोपन करनेवालेकों शांत-वैराग्य रसका आस्वाद आवेही नहीं, यह तो निर्विवादकी वार्ता है. दूसरेके दुःख देखकर प्रसन्न होनेवाले दुर्जनोंको सौजन्यका अनुभव हो सकता ही नहीं. औसी - च्छंदता वृत्तिसें चलनेवाले जीवों में गुणका अंश भी पैदा हो सकेगा ही नहीं, यह स्वतः सिद्ध है. जहां तक स्वच्छंदता छोडकर सर्वह कथित सत्य शास्त्र नीतिको अच्छे तेहरसें समझकर अपन त्रिकरण शुद्धिसे पीकारनेके वास्ते तयार न होवेंगे, यहां तक पापी :माद अपनी गेल छोडनेका ही नहीं. सर्वज्ञ प्रभुजीकी पवित्र आज्ञाका अनादर करके स्वच्छतासें चलना उसीका ही नाम तत्वस भमाद है. उन प्रमादसें कुल प्राणी चतुति रुप संसार चक्रमें फिरते ही रहते है, जन्म जरा मरणके दुःखसे मुक्त हो सकते ही नहीं; वास्ते सद्गुणोंकी हितशिक्षा हृदयमें पारन कर अनादि प्रिय ख छंदताको जलांजली देकर, जिस प्रकारसे करके श्री सर्व शास्त्र नीतिका अत्यंत मानर्पूवक सेवन होवै तिस प्रकार से प्रमाद रहित होनेकी-चलनेकी अपनी मुख्य फर्ज है. स्वच्छंद वर्तनसे अपन अल्प मुखके वास्ते बहुत भारी नुकशानी उठाते है उनका अवश्य जरासा खियाल करना ही लाजिम है. क्षणभर सुख और दीर्वकाल तक दूःख-लेशमात्र सुख और पारावार-अनंत दु.ख असे स्वच्छंदी चलनकी फल ज्ञानी पुरुष कहते हैं; वास्ते अपनकों वो सब तुच्छ आशाओं छोडकर सद्विवेक धारन करके जन्म मरण दुःख निवारक
SR No.010240
Book TitleJain Hitbodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherJain Shreyaskar Mandal Mahesana
Publication Year1908
Total Pages331
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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