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________________ १ अवश्य पनानी. और चैत्य परिपाटी, उत्कृष्ट चैत्यवंदन, पूजा, गुरुभतित, शास्त्रश्रवण, अनुकंपा, दानादिक धर्मकृत्य यथावसरपर यथाविधि अवश्य संभालने चाहिये. परंतु प्रमाद विकथादिक नहीं करना. कहा है कि: "जीवने आय परभवतणु, तिथि दिन बंध होय मायर, ते भणी एह आराधता, प्राणियो सदगति जायरे विरतिए सु." वास्ते ज्यौं बन सके त्यौं प्रमाद छोडकर सूर्ययशा महाराजाकी तरह पर्वदिनोंका आराधन करना. और कुमारपाल भुपालकी तरह धर्म आराधनेमें अपनी शक्ति स्फुरायमान करनी. छठा-अभयदान, सुपात्रदान और अनुकंपादिक दानमें अपनी तथा पवित्र शासनकी उन्नति करनेकी खातिर दूसरे तुच्छ फलकी चाहना रखे बिगर निरंतर आदर करो. विवेक लाकर योग्य जीवोंको ज्ञानदान देनेहारा पा ज्ञानार्थ सुद्रव्य-स्पद्रव्यका सदुपयोग करनेहारा महा लाभ पांधता है. ज्ञान ये भाव प्राण है; वास्ते लाभ बंधन होता है. सातवाँ-शील सदाचार, अनेक जीवोंकी हिंसा हो तथा उत्तम.कुल मयादाका लोप हावदसा मसिमक्षण, सुरापान, शकार, परस्त्री-पेश्या गमन, जुगार, चोरी, अभक्ष्य सेवन, विश्वासयात और परवंचनादिक बुरे आचारण सुश्रावक अथवा श्रावक धर्म स्वीकारनेकी चाहतवाले गृहस्थ जनको अवश्य छोड देनेके ही
SR No.010240
Book TitleJain Hitbodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherJain Shreyaskar Mandal Mahesana
Publication Year1908
Total Pages331
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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