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________________ • ३१० भगवती पसाउ करी, असा पाठ करें. जैसी मर्यादा है. ५१ यदि एकाशने सह उपवास करे तो ' सूरे जंगए उत्थ भत्तं अभत्तठ्ठे पञ्चख्खाइ ' जैसा करनेकी अविच्छिन परंपरा मालुम होती है और छह प्रमुख पचख्खाणमें तो पारणेके दिन एकासना करे या न करे तो भी 'सुरे उगए छहभत्तं अहममत्तं ' असा पाठ कहा जाता है जैसे अक्षर श्रीकल्प सूत्र समाचारीजीमें हैं. ५२ श्रावक दिन संबंधी पोषह किये बाद भाव वृद्धि होनेसें रात्रि पोषह ग्रहण करै, तब पोषह सामायिक किये बाद 'सज्झाय करूं?' ये आदेश मांगनेसें ही काफी है. 'बहु वेल संदिसा हुँ ?' ये आदेश मांगनेका नियम नहीं. सबबके प्रभातके वख्त वो आ देश मांगलिया था. - १३ सौ योजन के उपरांत से आया हुवा सिंघानीन वगैर: अचित होवे - दूसरे नहीं. · १४ श्रद्धा रहितपणेसें योग वहन किये विगर साधु या श्रावकोंकों नवकारादिक गुणणे-पढने में भी अनंत संसारीपणा कहा जाता है. लेकीन शक्त्यादिके अभाव सें योग वहनकी श्रद्धा સત્યનિ ચોળ पूर्वक नवकार मंत्रादि पढने में परित संसारी पणा ही संभवता है. ५९ केवल श्रावक प्रतिष्ठित और द्रव्यलिंगी के द्रव्यसे बनाया गया और दिगंबर चैत्यको छोड़कर बाकी के सब चैत्य, वंदन पूजन के लायक हैं. और उपर कहे गये चैत्य भी सुविहित मुनिके वासक्षेप सें वंदन पूजनके योग्य होते हैं. १६ जल मार्ग में सौ योजन और स्थल मार्गमें साठ योजन उपरांत आई हुई सचित्त वस्तु अचित हो जाती है.
SR No.010240
Book TitleJain Hitbodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherJain Shreyaskar Mandal Mahesana
Publication Year1908
Total Pages331
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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